—अरुण माहेश्वरी
“सन् 2019 में कांग्रेस के
साथ मिल कर लड़ने के सीताराम येचुरी के विचार को ठुकराने के लिये प्रकाश करात और
उसके गुट के लोगों शर्म करो । भाजपा की कितनी बी टीमें हैं ? नीतीश कुमार तो जगजाहिर है । कल कांग्रेस ने भी एक कठपुतली
चुनाव आयोग के इशारे पर 'आप' पर हमला करके वही काम किया था ।
“क्या हमारे मूर्ख सेकुलरिस्ट
यह नहीं समझ सकते हैं कि सिर्फ एक व्यापक और अनुशासित मोर्चा ही आरएसएस के फासीवाद
को परास्त कर सकता है । जब फासीवाद का उदय हो रहा हो, उस समय दुविधाग्रस्त लोगों
को इतिहास कभी माफ नहीं करेगा ।”
ये शब्द है प्रसिद्ध
प्रगतिशील फिल्मकार और बुद्धिजीवी आनन्द पटवर्द्धन के, आज (23 जनवरी) के टेलिग्राफ
में । दूसरी ओर मोदी शिविर में प्रकाश करात के वीटो की खुशी में पटाखे फूट रहे हैं
। भाजपा ने भले अब तक अधिकारी तौर पर कोई बयान न दिया हो, लेकिन उसके आईटी सेल के
प्रमुख अमित मालवीय के एक के बाद एक ट्वीट उनकी खुशी को बताने के लिये काफी है ।
मालवीय ने अपने एक ट्वीट में
कहा है —“सीताराम येचुरी महासचिव हो सकते हैं, लेकिन सत्ता करातों के हाथ में है ।
वाम ने कांग्रेस का साथ छोड़ दिया है जैसे समाजवादियों ने ।” उनका दूसरा ट्वीट है
अखिलेश यादव के इस कथन पर कि “अब तक उन्होंने किसी पार्टी के साथ गठजोड़ करने के
बारे में नहीं सोचा है ।”
पिछली 18-20 जनवरी 2018 को
कोलकाता में सीपीआई(एम) की पार्टी कांग्रेस में बहस के लिये राजनीतिक और सांगठनिक
नीति के प्रस्ताव के मसौदे को अंतिम रूप देने के लिये बैठक हुई थी। यह महज एक
मसौदा था, जिसे अंतिम रूप पार्टी की कांग्रेस में दिया जायेगा । लेकिन फिर भी
केंद्रीय कमेटी की बैठक में पहले दिन से ही इसे लेकर जिस प्रकार की नग्न गुटबाजी
दिखाई दी, उससे सभी वाम हितैषी सचमुच हतप्रभ हैं । पूरी बैठक पार्टी के वर्तमान
महासचिव सीताराम येचुरी को नीचा दिखाने की कवायद में ही बीत गई । पूरे तीन दिन
सिर्फ एक शब्द, 'समझ' पर मगजपच्ची चली । आगामी चुनावों में कांग्रेस के साथ दूर-दराज
तक भी कोई 'समझ' बन सकती है या नहीं, इस पर ! प्रकाश गुट भी यह तो मानता था कि आज
भाजपा जनता की सबसे बड़ी शत्रु है, और यह भी मानता था कि चुनाव के बाद जरूरत पड़ी
तो सत्ता पर भाजपा को आने से रोकने के लिये कांग्रेस से समझौता किया जा सकता है,
लेकिन यह मानने के लिये तैयार नहीं हुआ कि भाजपा को सत्ता में आने से रोकने के लिये
कांग्रेस के साथ समझौता तो दूर, किसी भी प्रकार की स्थानीय समझ भी कायम की जा सकती
है !
आनंद वर्द्धन ने ऐसा खेल
खेलने वालों को भाजपा की अगर 'बी टीम' कहा है तो उसे असंगत नहीं कहा जायेगा ।
व्यवहारिक राजनीति के धरातल
पर, एक ऐसे समय में जब सामने सीधे सांप्रदायिक फासीवाद का खतरा मंडरा रहा है, किसी
भी जनतांत्रिक और धर्म-निरपेक्ष कहलाने वाले राजनीतिक समूह का ऐसा ज़िद्दी और अनड़
रवैया शायद दुनिया में कहीं भी किसी ने नहीं देखा होगा । जरूरत पड़ने पर बड़े
हितों के लिये दुनिया के बड़े से बड़े दुश्मन से भी हाथ मिलाना ही राजनीति और कूटनीति
का एक ध्रुव सत्य है । सीपीएम का यही प्रकाश गुट तमिलनाडू में उस डीएमके के साथ
सहयोग करने के लिये तैयार है जो कांग्रेस के साथ जुड़ी हुई है !
प्रकाश करात गुट की इस जिद का कारण यह कहा जा रहा है कि अगर
कांग्रेस के साथ किसी भी प्रकार के समझौते की कोई गुंजाईश छोड़ी गई तो पश्चिम
बंगाल की पार्टी उसके बहाने ही आगामी चुनावों में कांग्रेस से सीटों का समझौता कर
लेगी । वे यह झूठा प्रचार भी करते हैं कि पश्चिम बंगाल में 2011 के विधान सभा
चुनाव में कांग्रेस से समझौता करने से पार्टी को कोई लाभ नहीं हुआ था।
ये लोग यह नहीं जानते कि राजनीति काफी हद तक जनता के पर्शेप्सन का खेल होता है ।
लोगों के मन में, वाम
मोर्चा के चौतीस साल के अच्छे पहलू नहीं, आज भी सिर्फ बुरे पहलू ही जमा है । जीवन में अच्छे दिन भुला
दिये जाते हैं, लेकिन
बुराइयाँ स्थाई रहती है । जीवन की सारी कहानियाँ दुख से पैदा होती है । सच्चाई यह
है कि पिछले चुनाव में भी उत्तर बंगाल में कांग्रेस के परंपरागत आधार का वाम को अच्छा
खासा लाभ मिला था और पूरे बंगाल में वह लड़ाई में थोड़ा उतर पाई थी। आज सिलीगुड़ी
की तरह के बंगाल के दूसरे सबसे बड़े शहर में सीपीएम का मेयर है। आज भी यही सच है कि
बंगाल में अपनी साख को समग्र रूप से वापस हासिल करना अकेले वाम के बूते में नहीं
है । जनतांत्रिक ताकतों के किसी एकजुट संघर्ष के बीच से ही वह फिर से शक्ति हासिल कर
सकता है । प्रकाश करात कंपनी यह सब जानते हुए भी पार्टी में अपने समर्थकों को बरगलाने
के लिये इन बातों को छिपाती है । जो लोग बंगाल की ज़मीनी सचाई से परिचित नहीं है,
वे बंगाल की राजनीति को नियंत्रित करना चाहते हैं !
प्रकाश करात सीपीआई(एम) के एक
ऐसे बड़े नेता रहे हैं, जिनकी जनता के बीच अपनी कोई साख नहीं है । वे पार्टी के
अंदर अपने वर्चस्व को कायम रखने में जरूर माहिर है, और एक बंद संगठन की अपनी
कमजोरियों का लाभ उठा कर काफी अर्से से पार्टी के सर्वोच्च नेतृत्व के अपनी ही तरह
के जनाधार-विहीन लोगों के बल पर अपना एक बहुमतवादी गुट बनाये हुए हैं । 1996 में
जब हरकिशन सिंह सुरजीत पार्टी के महासचिव थे, तब उन्होंने अपनी इसी ताकत के प्रयोग
से ज्योति बसु के स्तर के नेता को धूल चटा दी थी और इस प्रकार सीपीआई(एम) के
भविष्य को मिट्टी में मिलाने के काम का नेतृत्व किया था । तब ज्योति बसु को कहना
पड़ा था कि यह एक ऐतिहासिक भूल हुई है, अब बस निकल गई है, पार्टी के विस्तार का
ऐसा मौका फिर नहीं आने वाला है । यह शायद इतिहास की एक और विडंबना ही थी कि सन्
2004 में फिर एक बार कांग्रेस के अल्पमत के कारण सीपीएम को यूपीए-1 के साथ काम
करने का मौका मिला था । लेकिन यह मौका भी सीपीएम के लिये किसी लंबी छलांग का मौका
बनता, उसके पहले ही अमेरिका के साथ परमाणविक संधि के बहाने उसे गंवा दिया, अपनी ही
पार्टी के लोकसभा अध्यक्ष का अपमान किया गया और सीपीएम के लिये आगे बढ़ने के लिये
मिले इस अवसर को उन्होंने उसके चरम पतन के अवसर में बदल दिया । इसके बाद के 2009
के चुनाव में लोकसभा में वामपंथ को उसके इतिहास की सबसे कम सीटें मिली । और जिस
परमाणविक संधि को करात ने भारत के भविष्य के लिये सबसे खतरनाक बता कर भारी हल्ला
मचाया था, वह आज तक ऐसे कागज के कोरे टुकड़े की तरह पड़ी हुई है, जैसे वह कभी हुई
ही न हो !
सीपीएम की केंद्रीय कमेटी की
इस बैठक के शुरू में ही यह साफ था कि इसमें सिद्धांतों के प्रश्न या बहस-मुबाहिसा सिर्फ
दिखावटी है । वोटिंग के बूते अन्यों को मात देने के अभ्यस्त बहुमतवादियों ने इस
बार भी अपने संख्याबल को ही अपनी शक्ति बनाने का निर्णय ले रखा है । केरल से एक सदस्य
को ऐसी अवस्था में कोलकाता लाया गया था जो वहां आईसीयू में था । उसे सिर्फ वोटिंग के समय मुचलका दे कर उपस्थित किया गया और
फिर नर्सिंग होम में भर्ती करा दिया गया । ऐसे ही एक बेहद बीमार सदस्य खगेन दास त्रिपुरा
से आए, जिनका इस बैठक में ही दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया ।
कहना न होगा, सीपीआई(एम) की
इस बैठक में जनवादी केंद्रीयतावाद की ऐसी महत्ता स्थापित हुई कि जिसमें सिक्का
उछाल कर नहीं, बल्कि तीन
दिन की एक सारहीन बहस के बाद मतदान से प्रस्ताव का एक मसौदा पारित किया गया । जब
तक उस पर कांग्रेस की मोहर नहीं लगती इस प्रस्ताव का दो कौड़ी का दाम नहीं होगा । फिर
भी, यह खास उद्देश्यों से बुद्धि का नहीं, शुद्ध संख्या शक्ति के प्रयोग का खेल था । दुर्भाग्य की बात
यह है कि आगे पार्टी कांग्रेस में भी इन्हीं बातों को पीटा जायेगा । यह है वामपंथ
का 'उत्तर-सत्य' ।