शुक्रवार, 12 सितंबर 2025

नेपाल का जेन जी विद्रोह : अब आगे क्या ?

 -अरुण माहेश्वरी 




9 सितम्बर 2025 को नेपाल में जो कुछ हुआ, वह सचमुच बहुत अप्रत्याशित सा था। 


सोशल मीडिया पर पाबंदी और सत्ता के भ्रष्टाचार के खिलाफ़ क्रोधित युवा पीढ़ी अचानक सड़कों पर उतर आई। 


पुलिस की गोलीबारी में हुई मौतों के बाद साफ़ था कि यह असंतोष अब दबाया नहीं जा सकेगा। 


आगे संसद भवन, सरकारी दफ़्तरों पर धावा, आगजनी तथा मंत्रियों के घरों पर हमलों आदि का एक विभत्स दृश्य देखने को मिला ।


जाहिर है कि यह कोई योजनाबद्ध आंदोलन नहीं था, बल्कि एक घटना थी । अचानक और विघटनकारी, जिसने निश्चय ही वहाँ के पूरे समाज को हिला दिया।


इतिहास में ऐसी घटनाएँ केवल ग़ुस्से की प्रतिक्रिया नहीं मानी जाती । वे नागरिकों को अपने ही बारे में नया बोध कराती हैं। 


जो अब तक सिर्फ सहते और देखते रहे, अचानक सवाल पूछने वाले और चुनौती देने वाले बन जाते हैं। 


यही इस विद्रोह का सबसे बड़ा निहितार्थ है । जनता ने अपने आप को नये स्थान पर खड़ा होते देखा। एक प्रकार से उसके भीतर की छटपटाहट का विश्लेषण हो जाता है । 


लेकिन अब असली प्रश्न यह है कि विद्रोह के बाद क्या? 


प्रधानमंत्री का इस्तीफ़ा और सोशल मीडिया पाबंदी का हटना तो इसकी तात्कालिक प्रतिक्रियाएँ कहलायेगी । स्थायी परिवर्तन तभी संभव है जब यह बोधोदय किसी नये विकल्प का रूप ले। 


केवल सत्ता परिवर्तन या उपद्रव की तीव्रता काफी नहीं; ज़रूरत है कि इस चेतना को संस्थागत रूप देने की ।


नेपाल भाग्यशाली है कि उसके पास उसके 2015 का धर्मनिरपेक्ष, संघीय गणतांत्रिक संविधान की पूँजी मौजूद है । 


नेपाल के संप्रभु जनगण की ओर से इस संविधान की प्रस्तावना में नेपाल के ऐतिहासिक जनआंदोलनों, संघर्षों, बलिदानों तथा शहीदों और पीड़ित नागरिकों का  स्मरण करते हुए लोकतंत्र और प्रगतिशील परिवर्तनों के प्रति निष्ठा जाहिर की गई है । 


साफ़ शब्दों में कहा गया है कि “हम सामंती, निरंकुश और केंद्रीकृत शासन से उपजे भेदभाव और उत्पीड़न को समाप्त करते हुए, बहु-जातीय, बहु-भाषिक, बहु-धार्मिक और बहु-सांस्कृतिक समाज की विविधता को स्वीकार करते हैं, तथा सामाजिक एकता, सहिष्णुता और सद्भाव को बढ़ावा देते हैं।”


“हम एक समावेशी और सहभागितामूलक व्यवस्था पर आधारित समानतावादी समाज की स्थापना का संकल्प करते हैं, ताकि वर्ग, जाति, क्षेत्र, भाषा, धर्म और लिंग पर आधारित सभी भेदभाव और अस्पृश्यता मिटाई जा सके, और आर्थिक समानता, समृद्धि तथा सामाजिक न्याय सुनिश्चित हो।”


“हम लोकतांत्रिक मानदंडों और मूल्यों पर आधारित समाजवाद के प्रति प्रतिबद्ध हैं—जिसमें बहुदलीय लोकतांत्रिक प्रणाली, नागरिक स्वतंत्रता, मौलिक अधिकार, मानव अधिकार, वयस्क मताधिकार, आवधिक चुनाव, प्रेस की स्वतंत्रता, स्वतंत्र और निष्पक्ष न्यायपालिका तथा क़ानून का शासन सम्मिलित है।”


राजशाही के अंत की घोषणा करने वाला यह सुचिंतित संविधान वहां जनता के अधिकार, विविधता और लोकतांत्रिक आकांक्षाओं को वैधानिक रूप देता है। यह जनतंत्र के स्थापत्य को एक आधार और स्वरूप देने वाले भुवन के सदृश्य है । 


हमारी दृष्टि में यदि यह विद्रोह उसी संविधान के प्रति निष्ठा को मज़बूत करने का साधन बने, उसके निर्माण को तेज़ी से आगे बढ़ाए और पीछे की ओर जाने के सब रास्तों को रोक दे तो इससे निश्चय ही एक नये, अधिक परिपक्व नेपाल के उदय की संभावना है।


पर ख़तरें कम कम नहीं हैं। यदि इस ऊर्जा को जन संघर्षों से अर्जित इस संविधान की दिशा में न लगाया गया, तो विद्रोह क्षणभंगुर भी साबित हो सकता है। 


फिर वही स्थिति बन सकती है जैसी अभी बांग्लादेश में देखी जा रही है । वहां सारी चीजें अधर में लटक गई प्रतीत होती है। मध्यपूर्व जैसी अराजकता की ज़मीन तैयार हो रही है जिस पर साम्राज्यवादी ताक़तें अपनी विभाजनकारी हिंसक राजनीति की खेती किया करती है। 


नेपाल आज एक चौराहे पर खड़ा है। 


या तो यह विद्रोह वहां के संविधान की आत्मा को मज़बूत करेगा और नये नेपाल की मज़बूत बुनियाद बनेगा, या फिर यह केवल एक तीव्र लेकिन क्षणिक विस्फोट रह जाएगा। 


भविष्य इस बात पर निर्भर करेगा कि जनता और राजनीतिक नेतृत्व इस विद्रोह से निकली ऊर्जा को किस दिशा में मोड़ते हैं। संविधान की पक्षधर ताकतों को नये युवा नेतृत्व के साथ सत्ता की बागडोर सँभालनी होगी।  


शुक्रवार, 5 सितंबर 2025

ग़ालिब के बहाने ग़ज़लों की संरचना पर क्षण भर

-अरुण माहेश्वरी 



गत रात जगजीत सिंह की आवाज़ में ग़ालिब पर एक पूरी पटकथा को सुन रहा था । इसमें उन्होंने कई ग़ज़लें भी सुनाईं । इसी में उनकी एक महत्वपूर्ण ग़ज़ल आई जहाँ हम क्षणभर ठहर गए । ग़ज़ल थी - 


बाजीचा-ए-अत्फ़ाल है दुनिया मेरे आगे

होता है सबो-रोज़ तमाशा मेरे आगे।


इक खेल है औरंग-ए-सुलेमाँ मेरे नज़्दीक,

इक बात है ईमान किए जाता है क्या-क्या।


जितना कि ज़बाँ खोलो और सुनने में आये,

उससे भी ज़ियादा है जो ख़ामोश है मुझसे।


दुनिया मेरे आगे है और मैं तमाशबीन,

गोया कोई खेल है जो रोज़ खेला जा रहा है।


होगा कोई ऐसा भी जो ग़ालिब को न जाने,

शायर तो वो अच्छा है, मगर बदनाम है।


सुबह मन में आया कि क्यों न इसे लकानियन कसौटियों पर पढ़ा जाए । दुनिया का तमाशा, औरंग-सुलेमां और अहम् का स्वातंत्र्य, बोलने से ज़्यादा अबोला रह जाना, तमाशा और तमाशबीन का संबंध और अंत में जो भी है, आख़िर एक अपनी पहचान तो है का उल्लासोद्वेलन । यह ग़ज़ल प्रमाता की पहचान की लकानियन कसौटी को बताने के लिए बिल्कुल माकूल प्रतीत हुई। 


लकान के प्रतिबिंब चरण (mirror stage) में प्रमाता किसी खाँचे (gestalt) में अपनी छवि को पहचानता है । बच्चा अपने विखंडित अनुभव को एक “संपूर्ण शरीर” की आकृति में देखता है। इसी छविमूलक स्थिरता से प्रमाता को एक तात्कालिक आश्वस्ति मिलती है। पर लकान के अनुसार, आख़िरकार वह एक भ्रांति ही है । प्राणीसत्ता पर भ्रांति की क़ैद । 


ग़ालिब पहले शेर में ही अपने उल्लासोद्वेलन (जुएसॉंस) से इस खांचे के चौखटे को तोड़ देते हैं और इसे बच्चों का तमाशा समझ कर अपने को इससे मुक्त करते हैं। उनका जुएसॉंस सिर्फ़ समग्रता की अनुभूति का आनंद या सुख नहीं है, वह इस आकृति की सीमाओं को तोड़ने का उल्लास है । वे अपने को इन दुनियावी खाँचों के बाहर खड़ा कर उनका मज़ाक उड़ाते हैं ।


यहाँ बहुत दिलचस्प है कि दूसरे शेर में वे दुनिया के इस खेल-तमाशे को ‘औरंग-ए-सुलेमाँ’, यानी प्रभु-सत्ताओं, ‘नाम का पिता’ (Name-of-the-Father) का एक खेल बताते हैं। लकान के अनुसार यही, ‘नाम का पिता’ वह बिंदु होता है जो प्रतीकात्मक व्यवस्था (symbolic order) को स्थिरता और वैधता प्रदान करता है। और, विद्रोही ग़ालिब उसी की सत्ता को अपने सामने तुच्छ बताते  हैं । उनका अहम् (आत्मबोध) ऐसी हर बाहरी, दबावकारी सत्ता से ऊँचा है । यह उनकी कोरी ज़िद नहीं, उनका शुद्ध स्वातंत्र्य है। उनके तई राजसत्ता या ईमान तक की प्रतीकात्मकता का हर स्वरूप महज एक मरीचिका है। उस तमाशे का हिस्सा जो मनुष्य से न जाने “क्या-क्या” करवाता जाता है ! 

लकानियन भाषा में यह भी एक प्रतीकात्मक आदेश है जो प्रमाता को इच्छा की भाषा में बाँधता है। 

यहाँ उत्पलदेव-अभिनवगुप्त की “अस्फुट” चेतना की संकल्पना याद आती है । भाषा और प्रतीकात्मक जगत से पहले का जो आदिम उद्दीपन ( primordial drive) है, वही मनुष्य का अपना सत्य है और ग़ालिब की नज़र कहीं उसी ओर है । 


ग़ज़ल के अगले शेर में ग़ालिब अपने प्रमातृत्व (subjectivity) को परिभाषित करते हुए आगे बढ़ते हैं। वे साफ़ शब्दों में कहते हैं कि भाषा तो उनके अनुभव के अंश मात्र को पकड़ पाती है। उनका यथार्थ (real) तो वह है जो उनके पास ही बचा रह जाता है । जुबान जो कह पाती है, वह कुछ नहीं है । “उससे भी ज़ियादा है जो ख़ामोश है मुझसे।


यही लकान का aphanisis (अंतर्धान) है। प्रमाता (subject) की सच्चाई हमेशा कुछ न कुछ छूट ही जाने में होती है।


ग़ालिब आगे फिर एक बार दोहराते हैं कि दुनिया महज तमाशा है और वे तमाशबीन । अब वे अपने प्रमात्व को दोहरी स्थिति में रखते है । वे इस दुनिया में शामिल भी हैं और इसके बाहर भी है । यह विश्लेषक और विश्लेष्य का टिपिकल लकानियन संबंध है । लकान के “discourse of the analyst” की तरह । यहाँ प्रमाता वस्तु को देखता ही नहीं है,  उसके स्वरूप के निर्धारण में भूमिका भी अदा करता है, अर्थात् उसमें शामिल भी होता है।  वह खुद को विश्लेषण की प्रक्रिया में शामिल एक विक्षुब्ध चित्त के रूप में पाता है। यही रचनाकार का विरेचन है, जिससे वह अपनी जड़ता को तोड़ता हुआ हर अर्थ की स्थिरता को प्रश्नांकित करता है। 


इस ग़ज़ल के अंतिम शेर की अंतिम पंक्ति हैः


“शायर तो वो अच्छा है, मगर बदनाम है।” 


प्रतीकात्मक जगत में ‘नाम का पिता’ अर्थात् प्रतिस्थापित मान्यताओं के आधार पर ही प्रमाता को नाम मिलता है।  ग़ालिब भी एक नामचीन शायर हैं, पर वे कहते हैं कि ‘बदनाम’ हैं। अर्थात् कहीं न कहीं उन नाम के खांचे से बाहर है। उनकी यह सचाई ही कहती है कि प्रमाता का नाम ही उसकी अंतिम पहचान नहीं होता। पहचान तो असल में उसका ऐब बनाता है।  लकान इसे जुएसॉंस का दाग ( stain of jouissance) कहते हैं। यह नाम के भीतर ही वह अवशिष्ट  असंस्कारित अंश होता है जो लाख छिपाने पर भी छिपता नहीं है।  


इस प्रकार, ग़ालिब की यह ग़ज़ल शायर की एक समग्र गतिशील उपस्थिति से पैदा होने वाली ग़ज़ल की संरचना में अलग-अलग शेरों की एकसूत्रता को बखूबी पेश करती है । ग़ज़ल किसी विखंडित प्रमाता (split subject) की तरह प्रतीकात्मक जगत के तमाशे के अस्फुट सूत्रों को खोलती हुई एक ज़्यादा समृद्ध प्रति-संसार की रचना करती है। बहुत कुछ नया कह कर आगे और नया पाने की ललक पैदा करती है । 



मंगलवार, 19 अगस्त 2025

एल्गोरिद्म-जनित लैलैंग (Algorithmic Lalangue): भाषा, अवचेतन और नाद

 

−अरुण माहेश्वरी  



कल (18 अगस्त 2025) के ‘टेलिग्राफ़ ‘ में प्रकाशित न्यूयॉर्क टाइम्स से लिया गया लेख “Seggs, Rizzs and Algospeak” हमें आज के समय में भाषा-निर्मिति की एक नई सच्चाई से अवगत कराता है। TikTok और सोशल मीडिया मंचों ने किशोरों के बीच एक ऐसी भाषा गढ़ दी है जिसे algospeak कहा जाता है। इसकी उत्पत्ति कोरी शरारतों, खेल या मज़ाक से नहीं हुई है, बल्कि algorithmic सेंसरशिप की वजह से हुई है। जिन शब्दों को “खतरनाक” या “अनुचित” मानकर इन मंचों पर काम कर रहा एल्गोरिद्म दबा देता है, उन्हें किशोरवय का एक तबका ध्वनि और वर्तनी के छोटे-छोटे खेल से नए रूप देकर उस सेंसरशिप से उन्हें बचा लेता है । उनके यहाँ Sex बन जाता है seggs, dead बन जाता है unalive, और suicide sewer slide । 

जाहिर है कि यह भाषा किसी भी व्याकरणिक नियम की परवाह किए बिना इस वय के समूहों में वैसे ही आनंद से पैदा हो रही है, जैसे बच्चे माँ की बोली से ध्वनि और लय के रूप में आनंदित होते हैं। वह ध्वनि जो सहृदयों में आनन्द का चमत्कार है, जिसे हमारे आचार्य आनंदवर्धन काव्य की आत्मा कहते हैं, जो “पूर्णरूप से नवीन” होता है । जिसे काव्य जगत की सृष्टि के लिए कारण-कलाप की कोई आवश्यकता नहीं होती । और जिसे उन्मूलित करने के लिए हर सत्ता आमादा होती है ।  

अभिनवगुप्त के शब्दों में – 

“अपूर्व यद्वस्तु प्रथयति बिना कारणकलां

जगद्ग्रावप्रख्यं निजरसभरात्सारयति च ।

(कारण के बिना ही जो सर्वथा नवीन वस्तु को उद्भासित करता है; अपने रस के भार से जो पत्थर समान जड़ जगत् को सरस तथा गतिमान बना देता है ।)

गौर करने लायक बात है कि हम यहां जिस ध्वनि-चमत्कार की बात कर रहे हैं वह अकारण नहीं, बेहद सकारण है । यह सत्ता के उन्मूलनकारी प्रहारों के प्रतिरोध से पैदा होने वाले चमत्कारिक आनन्द का कारण है । यह वह आनंद है जो एल्गोरिद्म की सेंसरशिप को ठुकराने की इच्छा से उत्पन्न होता है । अभिनवगुप्त के शब्दों में मन में निर्वृति स्वरूप, शांति, संतोष और आनंद पैदा करने वाले चमत्कार की उत्पत्ति का कारण । 

इसमें हमारे लिए अतिरिक्त मजे की बात यह है कि इसी उपक्रम के बीच से हम भाषाओं और भाषिक समुदायों के गठन की सामाजिक प्रक्रियाओं के संकेत भी पा रहे हैं ।  

जॉक लकान ने जब प्रमाता की भाषा के लिए lalangue शब्द गढ़ा था, तब उनका उद्देश्य यही दिखाना था कि भाषा केवल संकेतक (signifier) और संकेतित (signified) के बीच के संबंध का अनुशासन नहीं है। उसमें एक और स्तर है, ध्वनि का, लय का, उच्चारण का, जहाँ शब्द अर्थ से पहले आनंद (jouissance) पैदा करते हैं। यही कारण है कि बच्चा भाषा को पहले ध्वनि के रूप में पकड़ता है, न कि अर्थ के रूप में, और उसीसे आनंदित होकर किलकारियां भरता है। अर्थात् यह ध्वनि ही प्रमाता के उल्लासोद्वेलन का मूल स्रोत है, जिसे यदि हम फिर से अभिनवगुप्त की भाषा में परिभाषित करना चाहे तो यह भी कह सकते हैं – ‘स्वात्मपरामर्श की शेषता का नाद’ । 

हम जब किशोरों की इस नई भाषा algospeak की बात करते हैं तब भी हमारा लक्ष्य भाषा को अर्थ से हटाकर ध्वनि, मज़ाक और समूह की पहचान के स्तर पर उसे घटित होते हुए देखना हैं। मसलन्, rizz शब्द को लें। कहते हैं कि यह charisma का एक छोटा और विकृत रूप है, पर किशोर इसे एक ऐसे आकर्षण के लिए प्रयोग करते हैं जिसमें sexual appeal और coolness का मिश्रण होता है। यह शब्द एक गुदगुदी पैदा करता है। एक खिलंदड़पन जिसमें ध्वनि, सामाजिक संकेत के साथ फैंटेसी से जुड़ी आत्म-छवि, सब एक साथ मिल जाते हैं। इसी तरह delulu है, जो delusional का छोटा रूप है । डॉन क्विगजोट की तरह की एक हास्यास्पद फैंटेसी गढ़ने वाला शब्द । जब कोई कहता है कि “he’s my boyfriend, I’m just being delulu,” तो वह गंभीर अर्थ में नहीं बल्कि फैंटेसी को मज़ाक के रूप में जीने की एक सामूहिक अनुभूति है। इस प्रक्रिया में एल्गोरिद्म की बड़ी भूमिका है क्योंकि वह उस दमन  की भूमिका निभाता है, जिससे अवचेतन में दबी हुई इच्छा की फिसलन की तरह ऐसे-ऐसे नये पद या चुटकुले (joke) जन्म लेते है । हम जब इसमें मनुष्य के भावों की अदम्यता का स्वरूप देखते हैं तो यह सब और भी सुंदर लगने लगता है ।  



आज (19 अगस्त ’25) के टेलिग्राफ में ऐसी ही एक और खबर है जिसका शीर्षक है  − Are you skibidi? इसका पहला वाक्य है – अंग्रेजी भाषा में यह कैसी skibidi हो रही है ? (What the skibidi is happening to the English language?) 

इस साल कैम्ब्रिज डिक्शनरी में जो 6000 नए शब्द जोड़े गये हैं, उनमें एक शब्द यह भी है । यह यूट्यूब पर एक सिरीज से उपजा निर्रथक सा शब्द है जिसका ऐंकर इसका प्रयोग बात-बात में बकवास के अर्थ में करता रहता है । वहीं से यह शब्द नौजवानों के बीच लोकप्रिय हो गया और गड़बड़झाले के अर्थ में अंग्रेजी डिक्शनरी तक में शामिल हो गया है । इसी प्रकार पारंपरिक पत्नी के लिए एक शब्द आया है – tradwife (traditional wife) । delulu भी डिक्शनरी में शामिल हो गया है । दफ्तर के बजाय बाहर से काम करने वालों के लिए नया शब्द आया है – mouse jiggler । 

ये तमाम शब्द बताते हैं कि कैसे TikTok आदि के दमन और मौज-मस्ती में जिसे अभिनवगुप्त ‘आमोद विसर्ग’ कहते हैं, कैसे ध्वनियों के खेल खेले जाते हैं और उनके गोपनीय संकेतों को पकड़ने वाले किशोरों के नये समुदाय तैयार हो रहे हैं । इस प्रकार दमन ही एक अनोखे सर्जनात्मक खेल का रूप ले लेता है । 

हमारी पुस्तक ‘अथातो चित्त जिज्ञासा’ का अंतिम लेख है – ‘जेम्स जॉयस एक लक्षण : भाषा जहां भाषा नहीं है (जेम्स जॉयस का लकानियन विश्लेषण) । इसमें लकान ने जेम्स जॉयस की लेखन-शैली को सिंथोम (sinthome) कहा था । उनका तात्पर्य जॉयस के लक्षण की गाँठ से था जो भाषा की बनावट में ही बंध जाता है। जॉयस ने व्याकरण और शब्दों की शब्दकोशीय संरचना को तोड़कर शब्दों की ध्वनि से नए शब्दों की रचना की, जो लकान अपने विश्लेषण से पाते हैं कि वे उनके अवचेतन का लेखा-जोखा भी थे। लकान ने अपने सेमिनार में ऐसे कई शब्दों को पकड़ कर उनके विरूपीकरण के साथ जेम्स जॉयस के जीवन के तारों को जोड़ा था ।  

हम कह सकते हैं कि आज TikTok और इंस्टाग्राम की किशोर भाषा भी एक सामूहिक sinthome ही  है। यह एक पूरी पीढ़ी का लक्षण है, जो एल्गोरिद्म के दमन और सामूहिक खिलंदड़पन के प्रभाव में लिखा जा रहा है। 

यहाँ सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि एल्गोरिद्म स्वयं एक नया ‘अन्य’ (Other) बन चुका है। मनोविश्लेषण में ‘अन्य’ वह है जो हमारे संकेतकों (signifiers) को नियंत्रित करता है। पहले जो भूमिका परिवार, समाज या संस्कृति निभाते रहे हैं अब उनमें एक नया और बड़ा नाम एल्गोरिद्म का भी जुड़ गया है । वह तय करने लगा है कि कौन-सा शब्द दिखेगा और कौन-सा छिपा दिया जाएगा। और ठीक उसी दमन के चलते जुबान की फिसलन की तरह नए-ऩए शब्द बनने लगे हैं। 

यह वैसा ही है जिसे फ्रायड कहते हैं कि अवचेतन जुबान की फिसलन और चुटकुलो के ज़रिए बोलता है। इस अवचेतन में एल्गोरिद्म शब्दों की पैदाइश में दाई की भूमिका निभा रहा  है। इसलिए हमें यह जरूरी लग रहा है कि एल्गोरिद्म से जुड़े लैलैंग (algorithmic lalangue) को भी  परिभाषित करना जरूरी है। यह वह नया सामूहिक भाषा-रूप है जो एल्गोरिद्म के दमनकारी प्रभाव से उत्पन्न होता है, जिसमें ध्वनि का चमत्कारी खेल, अर्थ का विरूपीकरण और अतिरिक्त आनंद वाला जुएसाँस के तत्व एक साथ मिल जाते हैं। 

हमें यह कहने में कोई हिचक नहीं हो रही है कि यह भाषा न तो पूरी तरह से नई है और न ही केवल बदजुबानी (slang); यह हमारे समय के अवचेतन का दर्पण है। इसीलिए इसे केवल सांस्कृतिक फैशन नहीं कहा जा सकता है । इसमें वही गूढ़ संकेत छिपे हैं जिन्हें लकान ने भाषा और अवचेतन के संबंध में, भारत के ध्वनिवादियों ने ध्वनि में, विचार में रूपांतरित भावों के बाद भी अवशिष्ट नाद में खोजा था। किशोर जब एल्गोरिद्म को चकमा देकर नए शब्द बनाते हैं, तो वे केवल सेंसर से नहीं बचते, भाषा की अनियंत्रित शक्ति को, मनुष्यत्व की अदम्यता को भी जीते हैं। लकान इसी शक्ति को जुएसाँस कहते हैं, जिसके अतिरेकी लक्षणों को समेटते हुए हम उल्लासोद्वेलन कहते हैं और अभिनवगुप्त ने जिसे ‘आमोद विसर्ग’ कहा था ।  यह वह आनंद है जो अर्थ से बाहर निकलकर केवल ध्वनि और फैंटेसी में जीता है। यही तमाम लोगों के लिए हमारे समय का सबसे बड़ा सबक है कि भाषा दबाई नहीं जा सकती। नियंत्रण अवचेतन का हो या एल्गोरिद्म का, फिसल कर ही भाव व्यक्त होंगे ही और ग्रहीत भी होंगे । यह फिसलन ही जुएसाँस है ,  algorithmic lalangue भी और एक आमोद विसर्ग भी ।


शुक्रवार, 15 अगस्त 2025

डा.नगेन्द्र का सार-संग्रहवाद



(कल Sudha Singh जी की वॉल पर हमने दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के एक आयोजन के निमंत्रण पत्र को देखा । यह आयोजन आगामी 19-20 अगस्त 2025 को नगेन्द्र स्मृति व्याख्यानमाला के तहत हो रहा है जिसमें श्री नंद किशोर आचार्य मुख्य वक्ता होंगे । इसे देख कर अनायास हमें हिंदी के अध्यापन जगत के लगभग ‘प्रातः स्मरणीय’ नाम डा. नगेन्द्र के आलोचना कर्म की याद आगयी । हमने उस पोस्ट पर एक विस्तृत टिप्पणी की जिसे हम यहां मित्रों से साझा कर रहे हैं । यह अस्वाभाविक नहीं है कि कभी-कभी अपनी बात कहने के लिए ही अतीत के प्रेतों को जगाने की जरूरत पड़ जाती है । हमारी टिप्पणी इस प्रकार हैः)


बहुत बधाई आपके इस कार्यक्रम के लिए । वैसे हमारी नज़र में हिंदी में डा. नगेन्द्र अध्यापकीय सारसंग्रहवादी, असंश्लेषित आलोचना का एक टिपिकल नमूना पेश करते हैं । हमने उनकी अधिकांश पुस्तकों को गौर से देखा है और हमेशा बहुत निराशा हाथ लगी । यहाँ अपने नोट्स से निकाल कर ख़ास तौर पर सिर्फ एक प्रसंग का उल्लेख करना चाहूँगा । 

अपनी पुस्तक “भारतीय सौन्दर्यशास्त्र की भूमिका” के अंत में वे लिखते हैं कि “प्रमाता सुंदर पदार्थ अथवा कृति को अपने संदर्भ में नहीं देखता, उसकी दृष्टि कृति के स्वरूप पर ही केन्द्रित रहती है । इस प्रकार वह स्व-पर की भावना अर्थात् व्यक्ति-संसर्गों अथवा रागद्वेष से सर्वथा मुक्त सार्वभौम होता है । सौन्दर्य-दृष्टि की एक अन्य विशेषता है तटस्थता । इसका अर्थ यह है कि प्रमाता विषय में लिप्त नहीं होता —उसके और भाव्यमान विषय के बीच एक प्रकार का अंतराल बना रहता है ।” 

उनके इस कथन का प्रमाता संबंधी भारतीय दर्शन के पूरे विमर्श से ज़रा सा भी मेल नहीं है, वरन् इससे प्रमाता के बारे में उनमें न्यूनतम धारणा के अभाव का संकेत मिलता है। बिल्कुल चलताऊ ढंग से उन्होंने जैसे खुद की तरह के सार-संग्रहवादी को ही प्रमाता मान लिया और उसकी एक मनमानी परिभाषा गढ़ दी । भारतीय दर्शन में जिस अवधारणा को केंद्र में रख कर सबसे गहन और दीर्घकालिक विमर्श मिलते हैं, डा. नगेन्द्र जैसे रस-सिद्धांत के सर्वमान्य “पंडित” जैसे उसे जानते ही नहीं थे, जबकि इसके बिना रस सिद्धांत की कोई समझ ही नहीं बनती है । यह प्रमाता की अवधारणा रस सिद्धांत के उत्पादन की ज़मीन है , न कि निष्पादन की । 

भारतीय दर्शन में प्रमाता आत्म-प्रकाशित चेतना का रूप है, वह भला विषय से तटस्थ कैसे हो सकता है ! विषय ही भाषा में प्रमातृत्व का रूप अर्थात् संकेतों का धारक बनता है । 

हमें लगता है कि यही सब उस अध्यापकीय जड़ता का कारण है जिसने प्रमाता से जुड़े गतिशील विमर्श की किसी धारा को हिंदी आलोचना में पनपने ही नहीं दिया । वे खुद रस सिद्धांत की सारी ख़ाक छान कर उसके मूल प्रमातृ स्वरूप की थाह नहीं पा सके और रस की उनकी समझ अनुभवगत स्वाद पर, फलों के रस पर अटक गई, जबकि भारतीय आचार्य उसे प्रमातृ-चेतना की परिपूर्णता के रूप में देखते हैं।रस और प्रमाता की चर्वणा के अभिन्न संबंध की वे कोई समझ ही विकसित नहीं कर पाए । 

वैसे, प्रमाता की इस अवधारणा और संस्कृत के ‘प्र’ उपसर्ग में निहित गतिशीलता पर गंभीर विचार से ही समझा जा सकता है कि किसी आलोचक की दृष्टि मात्र सार-संग्रह में अटकी है या वह स्वतंत्र चिंतक की तरह विषय को उसकी प्रक्रियामूलक गति में देख पा रहा है । इस पर कभी अलग से चर्चा की जायेगी ।

‘प्र’ उपसर्ग की महत्ता

−अरुण माहेश्वरी



भारतीय ज्ञानमीमांसा में प्रमाता, प्रमाण और प्रमेय, ये तीन पद ज्ञान की पूरी त्रिपुटी को रचते हैं। इन्हें केवल स्थिर परिभाषाओं में नहीं, बल्कि एक ऐसे जीवित परिपथ की तरह देखना चाहिए जिसमें जानने वाला, जानने का साधन और जाना जाने वाला निरंतर परस्पर प्रवृत्त होते हैं। तीनों में ‘प्र’ उपसर्ग का होना संयोग नहीं है; यह उस प्रवाह का चिह्न है जिसमें ज्ञान कोई ठहरी हुई वस्तु न होकर सतत क्रिया बन जाता है। ‘मा’ धातु मापने और जानने का सूचक है, पर जब उसके आगे ‘प्र’ आता है तो उसमें पूर्वापरता, स्पष्टता और प्रखरता का वह संचार हो जाता है जो स्थिरता को गति में बदल देता है। ‘त्र’, ‘ण’ और ‘य’ जैसे प्रत्ययों के साथ यह उपसर्ग कर्ता, साधन और कर्म, तीनों में अलग-अलग रूप से जीवित रहता है।


प्रत्यभिज्ञा दर्शन में उत्पलदेव और अभिनवगुप्त ने इस त्रिपुटी को मात्र कार्य-कारण की यांत्रिक श्रृंखला नहीं माना, बल्कि आत्म-साक्षात्कारी चेतना के अद्वैत स्पन्दन के रूप में देखा। प्रमाता यहाँ कोई मनोवैज्ञानिक ‘मैं’ नहीं, बल्कि स्वप्रकाश आत्मा है । शिवस्वरूप चिति, जो स्वयं को प्रमाण और प्रमेय के रूप में व्यक्त करती है। प्रमाण, चिति की वही शक्ति है जो वाक्, स्मृति और अनुभव में स्वतन्त्र विकल्पना करती है; प्रमेय वही सत्ता है जो अपने ही प्रतिबिम्ब रूप में भिन्न-भिन्न प्रतीत होती है।


प्रमाता की सत्ता पर उत्पलदेव का महत्त्वपूर्ण श्लोक है –

"नैव प्रमाणं न च वा प्रमाण्यं प्रमेयं वा दृश्यते त्वात्मनि त्वम्।

केवलं स्फुटवेद्यवेद्यवेदनं स्वप्रकाशात्मनि संलयं यति॥"

(ईश्वरप्रत्यभिज्ञा, I.1.5)


(न तो प्रमाण अलग है, न प्रमेय; सबका विलय स्वप्रकाश आत्मा (प्रमाता) में हो जाता है, क्योंकि स्फुट (अलग-अलग) प्रतीत होनेवाले यह तीनों तत्त्व एक ही चेतना की विभिन्न अभिव्यक्तियाँ हैं।


उत्पलदेव का यह कथन स्पष्ट करता है कि इन तीनों के बीच का भेद स्फुट प्रतीत अवश्य होता हैं, पर अंततः इनका विलय स्वप्रकाश आत्मा में ही है। ‘प्र’ यहाँ चेतना के उसी आत्म-स्फोट का सूचक है, जो उसे भिन्न-भिन्न रूपों में प्रवृत्त करता है। अभिनवगुप्त इस त्रिपुटी को स्फोट चेतना (emergent self-consciousness) की एक प्रक्रिया के रूप में व्याख्यायित करते हैं। प्रमाता कोई स्थूल कर्ता नहीं, बल्कि स्वानुभवात्मक, स्वात्मपरामर्श करता हुआ शिव है। प्रमाण कोई यंत्रवत् साधन नहीं, चिति की विकल्पना-शक्ति (अर्थ-गठन की क्रिया) है, जो स्वातंत्र्य से विकल्पन करती है। यहां प्रमेय भी कोई बाह्य वस्तु नहीं, बल्कि चिति का ही आत्मनिष्ठ प्रतिबिम्ब है।


ईश्वरप्रत्यभिज्ञाविमर्शिनी में अभिनवगुप्त कहते हैं कि चिति (स्वप्रकाश चेतना) ही प्रमाण, प्रमेय और प्रमाता इन तीन रूपों में प्रवृत्त होती है। यह एक अद्वैत-स्फोट की बात है, जिसमें सभी द्वैत (ज्ञाता और ज्ञेय) का विलय चेतना की एकमात्र सत्ता में होता है। प्रत्यभिज्ञा दर्शन के अनुसार यह त्रैविध्य वास्तव में एक ही चेतन सत्ता का आभासात्मक विभाजन है। अर्थात् ‘ज्ञान’ कोई बाहरी घटना नहीं, बल्कि चिति का स्वयं में स्पन्दन है, जिसे प्रमेय, प्रमाण और प्रमाता के भेद में देखा जाता है।


यहीं से यह विचार जॉक लकान के subject की अवधारणा से एक अनपेक्षित संवाद कायम करता दिखाई देता है। लकान के लिए subject कोई स्थायी सत्ता नहीं, बल्कि होते जाने की प्रक्रिया है । being नहीं, बल्कि becoming है । वह भाषा की संकेतक-श्रृंखला में ही प्रकट हो सकता है, और उसका इस प्रकार हर रूप में प्रकट होना उसे आंशिक रूप से विच्छिन्न भी करता है। प्रत्यभिज्ञा में भाषा का अर्थ है सत्ता का प्रस्फुट रूप (वाक् या चिति); चिति एक स्पन्दमान सत्ता है और ‘प्र’ उपसर्ग चेतना की प्रवृत्ति । लकान भी भाषा को समग्रतः एक प्रतीकात्मक व्यवस्था के रूप में देखते हैं और उनका subject भाषा में व्यक्त, अपने सत्य से विभाजित, एक चेतन सत्ता है।


लकान के अनुसार, subject कभी भी अपना पूर्ण प्रतिनिधित्व नहीं करता है। वह केवल एक signifier (संकेतक) के द्वारा दूसरे signifier (संकेतक) के लिए प्रतिनिधित्व करता है। यही प्रमाता (Subject) के गठन में विच्छिन्नता (Alienation) और विभाजन (Separation) की जरूरी क्रिया का स्वरूप है जिसमें विच्छिन्नता प्रमाता के विखंडन अर्थात् उसके विभाजन से जुड़ी होती है । लकान ने अपने ‘मनोविश्लेषण की चार मूलभूत अवधारणाओं’ पर अपने सेमिनार में प्राणीसत्ता के अर्थ-गठन में विच्छिन्नता की भूमिका का जो एक नक्शा तैयार किया था, वह इस प्रकार है:



लकान इस स्केच में subject के being (प्राणीसत्ता) की संकल्पना को उसकी आंतरिक जैविक या ऐंद्रिक क्रियाशीलता से जोड़ते हैंजबकि प्रमाता के रूप में उसका अर्थ विच्छिन्न हो कर किसी अन्य से जुड़ा होता हैजो उसके स्व के बाहर होता है । इस नक्शे में subject का संकेतक के रूप में लुप्त हो जाना मुख्य बात है । इस प्रकारकह सकते हैं कि हमारी प्राणीसत्ता पर विच्छिन्नता से उत्पन्न संकेतक का ग्रहणअर्थ की खोज के लिए चुकाई जाने वाली कीमत है ।


लकान की विच्छिन्नता संबंधी यह अवधारणा बहुत ही मौलिक और मूलगामी है जिस पर हम अपनी किताब ‘विच्छिन्नता’ में काफी विस्तार से चर्चा कर चुके हैं ।


प्रत्यभिज्ञा में भी प्रमाता स्वसंवित से उत्पन्न अवश्य है, पर अर्थ-गठन की प्रक्रिया से गुज़रे बिना प्रकट नहीं होता; वह हर विकल्पना में एक नया स्वरूप ग्रहण करता है, और इस प्रकार विभाजन और प्रवाह में बना रहता है। उसकी सत्ता विकल्पों के माध्यम से आभासित होती है और हर विकल्प का एक नया स्वरूप (प्रतिबिंब) होता है।


लकान इसीलिए उस लेखन को निरर्थक मानते हैं जो विषय को स्थिर कर दे; उनके लिए जीवित लेखन वह है जो subject को present continuous में रचता है, प्रकट करते हुए भी छिपाता है, और छिपाते हुए भी गति में रखता है। वह लेखन जो प्रमाता की उपस्थिति को पूर्णता में नहीं, बल्कि गतिशील रूप में रचता है, वह स्वयं भी एक विमर्शकारी प्रमाता होता है। और यदि कोई लेखन विषय की गतिशीलता को जड़ कर देता है, तो वह लेखन मृत प्रतीकों का कब्रगाह बन जाता है।


लकान ने अपने Encore में ‘to be’ क्रिया के किसी भी स्थिर प्रयोग को जोखिम भरा कहा है, क्योंकि यह भाषा की जीवित गति को एक ठहरे हुए “होने” में जकड़ देता है। वे लिखते हैं −

“Ontology is what highlighted in language the use of the copula, isolating it as a signifier… In order to exorcise it, it might perhaps suffice to suggest that when we say about anything whatsoever that it is what it is, nothing in any way obliges us to isolate the verb ‘to be’… In this use of the copula, we would see nothing whatsoever if a discourse, the discourse of the master, didn’t emphasize the verb ‘to be’.” (p. 33)

यह ‘होने’ (to be) के जड़ रूप के प्रति चेतावनी है, क्योंकि जब ‘to be’ को भाषा में अलग-थलग करके, स्थायी अस्तित्व के संकेतक के रूप में इस्तेमाल किया जाता है, तो वह subject की निरंतरता और प्रवाह को काट देता है।


इस संदर्भ में गंभीरता से गौर करने लायक बात है कि संस्कृत का ‘प्र’ उपसर्ग ‘होने’ (to be) की जकड़बंदी को तोड़ता है। वह दिशा और प्रस्फुटन का सूचक है ।प्रगति, प्रवचन, प्रज्ञा जैसे शब्दों में यह स्थिरता को प्रक्रिया में बदल देता है। यही वह स्वर है जो प्रमाता, प्रमाण और प्रमेय में समान रूप से गूँजता है, और यह बताता है कि ज्ञान का सार निष्क्रिय अवस्था में नहीं, बल्कि सतत आत्म-स्फुट क्रिया में है। चेतना जब ज्ञाता बनती है, वह प्रमाता है; जब जानने की शक्ति बनती है, वह प्रमाण है; और जब अपने ही प्रतिबिम्ब को वस्तु रूप में देखती है, वह प्रमेय है । और, इन तीनों में ‘प्र’ वही ध्वनि है जो विषय को स्थिर नहीं रहने देती, बल्कि निरंतर प्रवृत्त रखती है।


इस दृष्टि से ‘प्र’ केवल एक उपसर्ग नहीं, बल्कि भाषा में विषय को होते जाने की दिशा देने वाला नाद है। यह प्रत्यभिज्ञा के शिवस्वरूप प्रमाता और लकान के गतिशील subject, दोनों में एक साझा स्पन्दन पैदा करता है; स्थिरता को तोड़कर अर्थ और सत्ता को एक अंतहीन, जीवित प्रक्रिया में बदल देता है।

 

रविवार, 3 अगस्त 2025

अजिजुल हक़ को श्रद्धांजलि

 

— अरुण माहेश्वरी


दुर्दान्त नक्सली नेता अजिजुल हक़ नहीं रहे । 21 जुलाई के दिन उनका निधन हो गया । वे 83 साल के थे । 


सीपीआई(एम-एल) के जन्म (1969) के समय चारु मजुमदार के एक विश्वस्त और जुझारू सहयोगी के रूप में उन्हें जाना जाता था । अठारह साल जेल में बिताएँ । सत्तर के काल में ही ‘जेल पालानो, जेल विद्रोह’ (जेल तोड़ो, जेल विद्रोह) आंदोलन के नायक के रूप में उनकी एक पहचान बनी। जेल तोड़ कर भागे, और पकड़े भी गए । भारी यातनाएँ सही। पर जुझारूपन में रत्ती भर फर्क नहीं आया । 


जेल में अनेक हिंसक अपराधियों को उन्होंने कितना अपनी राजनीतिक विचारधारा से दीक्षित किया, यह तो कोई नहीं जानता, पर खुद उन्होंने ‘बंदूक़ की नली ही सत्ता का उत्स है’ वाली माओ की प्रसिद्ध उक्ति को साधने के फेर में उनकी ‘बहादुरी’ को अपने जीवन दर्शन में शामिल कर लिया । 


लकान की भाषा में कहें तो इस ‘बहादुरी’ का अपना कोई खाँचा नहीं था । न कोई दूसरी नैतिकता ही । सिर्फ लड़ाकूपन की ख़ास अधिकार-चेतना थी, जिससे कोई समझौता नहीं हो सकता था । यह ‘वीर-भाव’ इतना प्रबल था कि उसके रहते किसी नई नैतिकता के जन्म की संभावना ही नहीं बची थी । 


तीन साल के अंदर ही जब सीपीआई(एम-एल) का असंख्य गुटों में विभाजन शुरू होगया, अजिजुल हक़ भी एक  चारु मजुमदार पंथी दुर्धर्ष संगठन ‘सेकेंड सेंट्रल कमेटी’ के नेता बने । उसने पश्चिम बंगाल में समानांतर क्रांतिकारी सरकार के गठन का ऐलान किया। कोलकाता में कई इलाक़ों को मुक्तांचल घोषित किया गया। सीपीआई(एम) से उनकी बड़ी शिकायत थी कि उसने बेईमानी की, अन्यथा 1968-69 में कोलकाता मुक्त हो गया होता।  तत्त्वतः वे चीन के चेयरमैन को अपना चेयरमैन मानते थे; माओ की रेड बुक को गीता । 


वे बांग्ला भाषा के एक प्रभावशाली लेखक थे । अंतर के तीव्र आक्रोश और घृणा को कितने प्रभावशाली ढंग से रखते थे, उनकी किताब ‘कारागारे आठारो बछर’ (कारागार में अठारह साल) का हर शब्द इसका गवाह है । 


सन् 1989 में जब उन्हें दूसरी और अंतिम बार रिहा किया गया, तब भी वाम मोर्चा सरकार थी ।पहली बार भी उनकी रिहाई  1977 में वाम मोर्चा सरकार के गठन के ठीक बाद हुई थी । दोनों बार ज्योति बसु मुख्यमंत्री थे, जिनसे उनकी शिकायतों का अंत नहीं था । पर यह सच हैं कि वे ज्योति बसु को कभी षड़यंत्रकारी या ओछा आदमी नहीं मानते थे। सीपीआई(एम) के प्रमोद दाशगुप्ता, हरेकृष्ण कोणार, केष्टो घोष आदि से शुरू करके दिनेश मजुमदार, विमान बोस, अनिल विश्वास आदि अपने समवयस्क नेताओं तक को फूटी आँखों नहीं देखते और हमेशा गहरे तिरस्कार के भाव से ही उन्हें याद करते थे। जेल से रिहाई के बाद भी उनके इस भाव में कोई विशेष परिवर्तन नहीं आया  था। 


पर जब ममता बनर्जी के नेतृत्व में नंदीग्राम- सिंगूर का आंदोलन शुरू हुआ, उनके कान खड़े हो गए । उनकी मार्क्सवादी इतिहास चेतना ने इस नए प्रकार के जुझारूपन को पहचानने में चूक नहीं की और उसके साथ अन्य नक्सलियों की तरह अपने को नहीं जोड़ा। उन्होंने ममता की इस लड़ाई के अंजाम को समझा और यह सवाल उठाया कि इस प्रकार वाम मोर्चा सरकार को हटा कर हासिल क्या होगा ? जीवन के आख़िरी दिन तक वे ममता बनर्जी की सरकार के तीखे आलोचक बने रहे । 


सन् 2007 के बाद से अजिजुल हक़ के दृष्टिकोण में जिस नई वर्गीय राजनीतिक दृष्टि का आभास मिलने लगा, उसने पश्चिम बंगाल के वामपंथी आंदोलन की क़तार में उनके प्रति एक सकारात्मक भाव पैदा किया । उनके जुझारू उद्गारों ने शायद सीपीआई(एम) के वर्तमान युवा नेतृत्व को भी खींचा होगा । इसीलिए उनकी मृत्यु पर वाम हलकों में एक स्वाभाविक श्रद्धा का भाव देखा गया। 


अजिजुल हक़ का आवेग जो उनके लेखन और वक्तव्यों से ज़ाहिर होता रहा है, उसमें उनके कथन और व्यक्तित्व के बीच कोई फर्क न होने का पता चलता है । कथनी और करनी की यह एकता क्रांतिकारी के रूमानी मन के जिस सौन्दर्य की सृष्टि करती है, वह अनमोल है । यह 24 कैरेट शुद्ध सोने की चमक थी जो कभी म्लान नहीं होती, पर यह सच है कि जिससे कोई गहना भी नहीं बनता । 


हम अजिजुल हक़ के इस प्रभावशाली व्यक्तित्व को याद करते हुए उन्हें अपनी आंतरिक श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं ।