शनिवार, 1 मार्च 2025

ट्रंप-जेलेंस्की प्रकरण और ट्रंप के लक्षणों का एक लकानियन विश्लेषण


−अरुण माहेश्वरी 



हमने फेसबुक पर एक पोस्ट डाली थी – “अमेरिकी राष्ट्रपति के ओवल ऑफ़िस में ट्रंप-जेलेंस्की वार्ता का सीधा प्रसारण दुनिया पर दादागिरी की अमेरिका की जघन्य वासना का खुला मंचन था ।” 

यह समग्रतः कूटनीति की गोपनीयता का मंचन (inside out diplomacy)  नहीं, बल्कि जिसे प्रमाता के अन्तर की बाधा (psychotic foreclosure) कहते हैं, उसका एक सार्वजनिक प्रदर्शन था । और, इसीलिए मालिक-गुलाम (मास्टर-स्लेव) संबंध का ऐसा प्रहसन था जो गहरे विश्लेषण की अपेक्षा रखता है । 

ट्रंप सत्ता के अनियंत्रित उल्लासोद्वेलन (Jouissance) के प्रतिनिधि हैं, जबकि जेलेंस्की ऐसे split subject (विभाजित विषय) की तरह हैं जो मान्यता चाहता है पर उस ‘अन्य’ से टकराता है जो न सिर्फ अप्रत्याशित है, बल्कि सत्ता के विमर्श में किसी स्थिर भूमिका को निभाने से इंकार भी करता है। 

बहरहाल, यह तो बिल्कुल साफ है कि यह वार्ता केवल एक राजनीतिक दबाव की आम घटना नहीं थी । इस वार्ता का जो वीडियो सारी दुनिया में अभी चर्चा का विषय बना हुआ है, वह प्रसंग अब सिर्फ दो राष्ट्राध्यक्षों की वार्ता तक सीमित नहीं कहा जा सकता है । उसमें दो राष्ट्राध्यक्षों के अलावा अमेरिका के उपराष्ट्रपति जे.डी.वैन्स और वहां उपस्थित अमेरिकी प्रेस ने अमेरिकी सत्ता की ओर से जो भूमिका अदा की, और अब इस प्रसंग पर यूरोप के तमाम देश और अनेक उदार बुद्धिजीवी जेलेंस्की के साथ जो एकजुटता जाहिर कर रहे हैं, उसके बाद यह पूरा विषय हमें सत्ता के उस चतुर्विमर्शीय स्वरूप का एक क्लासिक उदाहरण नजर आने लगा है जिसका एक पूरा ढांचा जॉक लकान ने अपने “मनोविश्लेषण की चार मूल अवधारणाओं” के 1976 के सेमिनार में किया था । 

लकान की इन चार मूल अवधारणाओं से विमर्श के चार रूपों का जो एक पूरा ढांचा मिलता है उसमें एक है मास्टर विमर्श (Discourse of the Master) । (Subject of Certainity) । सत्ता विमर्श में इस मास्टर-साइनिफायर (S1) को सत्ता का स्रोत कहा गया है, जो सत्ता के सत्य (S2) को नियंत्रित करता है। संकेतकों के पूरे ताने-बाने में S1 वह संकेतक है जो सत्ता की संरचना को नियंत्रित करता है, और S2 (सत्ता का ज्ञान) उसके अधीनस्थ होता है। 

इसी सेमिनार में लकान अवचेतन की संरचना को भाषा की संरचना  के समरूप बताते हैं ।(the unconscious is structured like a language) । जैसे प्रसिद्ध स्वीडिश भाषाशास्त्री फर्दिनांद द श्योसेर के भाषा के संरचनावादी सिद्धांत में संकेतक (S) और संकेतित (s) में संकेतक (Signifier) हमेशा संकेतित (Signified) के ऊपर एक फासले से छाया रहता है, उसी तर्ज पर सत्ता विमर्श में मास्टर सिगनिफायर (S1) सत्ता के सत्य(S2) पर जरा से फासले पर टिका होता है ।  S/s (Signifier over the Signified) के बीच यह जो डंडानुमा फासला है, वही  भाषा में किसी स्थायी अर्थ की कोई गारंटी नहीं रहने देता है। 



अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ऐसे ही एक मास्टर सिगनिफायर है जो राजनीतिक विमर्श में अधीनस्थ संकेतित (Signified) के ऊपर एक फासले के साथ टिके होते हैं और इस फासले की जगह का वे अपनी राजनीतिक शक्ति के रूप में भरपूर इस्तेमाल करते हैं । वे सत्ता के संकेतक (S1) को ही सत्ता विमर्श के अंतिम सत्य के रूप में स्थापित करते हैं और सत्ता के सत्य, संकेतित (S2) को अपनी इच्छानुसार बदलते जाते हैं ; बड़ी आसानी से बार-बार अपने बयान बदलते हैं, सच को झूठ तथा झूठ को सच बना देते हैं।

लकान के विमर्श का दूसरा रूप है हिस्टेरिक का विमर्श (Discourse of the Hysteric) । इसमें प्रमाता (subject) प्रश्न करता है और सत्ता को चुनौती देता है। प्रमाता अपने असंतोष से मास्टर (S1) को हिला देना चाहता है, जिससे नया सत्य (S2) उभर सके। मसलन्, जेलेंस्की जब ट्रंप को चुनौती देते हैं, तो वे हिस्टेरिक के विमर्श की भूमिका में होते हैं। उनकी बड़ी मुसीबत तब आती है कि जब वह मास्टर से मान्यता पाने के लिए आतुर होता है । 

लकानियन चतुर्विमर्शीय संरचना की तीसरा रूप है − विश्लेषक का विमर्श (Discourse of the Analyst) । इसमें प्रमाता (अर्थात् विश्लेषक) अब्जेक्ट a (objet a) (अर्थात् अभिप्शित वस्तु) के रूप में कार्य करता है । लकान खुद जब मनोविश्लेषण के ज़रिए प्रमाता के लक्षणों को डिकोड करते थे, तब वे इस विमर्श का ही प्रयोग कर रहे होते थे। विश्लेषक मास्टर के संकेतकों को अस्थिर करता है। ट्रंप-जेलेंस्की प्रसंग में अभी यह भूमिका युरोपियन यूनियन के तमाम देश निभा रहे हैं । आज दुनिया के अनेक पत्रकार आदि भी ट्रंप की खुली आलोचना से वही काम कर रहे हैं ।(देखें ‘टेलिग्राफ’ 2 मार्च ’25 के अंक में मुकुल केशवन का लेख Rude Awakening) वे जेलेंस्की से एकजुटता जाहिर करके ट्रंप को संकेतकों को अस्थिर करना चाहते हैं । 

और चौथा विमर्श है − विश्वविद्यालय विमर्श (Discourse of the University) । सत्ता प्रतिष्ठान का अंग होने के नाते यह भले ही नाम-का-पिता (Name-of-the-Father) के हस्तक्षेप का प्रतिनिधित्व करते हों, लेकिन अंततः इनमें मास्टर-संकेतक (S1) के सामने आत्म-समर्पण करने की प्रवृत्ति भी होती हैं। इस अर्थ में सत्ता के साथ इसका एक द्वंद्वात्मक किस्म का संबंध है । ट्रंप-जेलेंस्की प्रसंग में अमेरिकी उपराष्ट्रपति और प्रेस की भूमिका में यह साफ़ दिखता है, जहाँ सवाल पूछने के बावजूद सत्ता-संरचना को अस्थिर करने के बजाय, वे जेलेंस्की को और दबाने का काम करते हैं।

लेकिन अमेरिकी एकेडेमिया अभी इस विमर्श में पूरी तरह नहीं उतरा है। जब वह सक्रिय होगा, तो विश्वविद्यालय-विमर्श का दूसरा पहलू सामने आएगा—वह जो सत्ता-विमर्श के आत्म-समर्पणवादी पक्ष को तोड़ सकता है और मास्टर के उल्लासोद्वेलन (jouissance) पर नियंत्रण भी स्थापित कर सकता है।

अमेरिकी अकादमिक हलके का हस्तक्षेप, लकान के विश्लेषक-विमर्श (Discourse of the Analyst) और विश्वविद्यालय-विमर्श (Discourse of the University) के द्वंद्व को भी उजागर कर सकता है। 

अगर इसने सही भूमिका निभाई, तो वह ट्रंप के उल्लासोद्वेलन को सीमित कर सकता है और अमेरिकी सत्ता-संरचना के अन्तर्विरोधों को और तीव्र कर सकता है। पर यदि वह निष्क्रिय रहा, तो यह सिर्फ़ सत्ता के सत्य (S2) की वैधता को बनाए रखने का माध्यम बनकर रह जायेगा । 

इस प्रकार, ट्रंप मास्टर-साइनिफायर (S1) हैं, जो सत्ता के सत्य (S2) को नियंत्रित करता है और अधीनस्थों को अब्जेक्ट a की तरह इस्तेमाल करता है। जेलेंस्की इस विमर्श में हिस्टेरिक के विमर्श (Discourse of the Hysteric) में फँसे हुए दिखते हैं, जहाँ वे एक ऐसे अन्य (the Other) को संबोधित करते हैं जो कहीं से स्थिर नहीं है । मास्टर यहां शांति और सौदे के गंभीर मसलों से शुरू करके मेहमान की इज्जत उछालने तक का मजा लेता है । उप-राष्ट्रपति, प्रेस और यूरोपियन यूनियन के देशों की स्थिति हम पहले ही बता चुके हैं ।  

कहना न होगा, ओवल ऑफिस में ट्रंप और जेलेंस्की की घटना केवल एक राजनीतिक प्रकरण नहीं थी, बल्कि अमेरिकी सत्ता की इमेजनरी, प्रतीकात्मक और रीयल गाँठों के असंतुलन का एक स्पष्ट संकेत भी थी। ट्रंप यदि इस असंतुलन को अनदेखा करते हैं, तो उनकी सत्ता का सिंथोम विघटित हो सकता है और वे एक ऐसी स्थिति में फँस सकते हैं जहाँ शक्ति केवल इमेजनरी स्तर पर नहीं टिक सकती। सिंथोम से तात्पर्य यह है कि प्रमाता का सिंपटम केवल एक विकृति नहीं, बल्कि उसके अस्तित्व की बुनियादी गाँठ है, उसके लक्षणों में उसकी अपनी फंतासियाँ भी शामिल है ।  

"सत्ता का खेल केवल संकेतक और संकेतित के बीच नहीं, बल्कि सिंथोम और प्रमाता की फैंटेसी के बीच भी चलता है।" 

ट्रंप की शक्ति केवल राजनीतिक नहीं है, बल्कि वह उल्लासोद्वेलन की एक विशिष्ट विधा है—एक ऐसी वासना (drive) जो दूसरों को वशीभूत करने में आनंद प्राप्त करती है। यह महज़ सत्ता का खेल नहीं, बल्कि एक सैडिस्टिक उल्लासोद्वेलन (Sadistic Jouissance) का प्रदर्शन भी है, जहाँ दमन और अपमान एक खास तरह की आनंदानुभूति देते हैं। ट्रंप के सार्वजनिक व्यवहार में यह प्रवृत्ति बार-बार दिखती है, विशेषकर जब वे कमज़ोर पक्ष को नियंत्रित करने की कोशिश करते हैं। ट्रंप का व्यवहार केवल नीतिगत नहीं है, बल्कि यह एक व्यक्तिगत लक्षण (symptom)  भी है जो उनकी बेलौस भाषिक संरचना में गहराई से अंतर्ग्रथित है। ट्रंप का राजनीतिक संवाद हमेशा एक अतिशयोक्तिपूर्ण, आक्रामक और व्यक्तिपरक संरचना में होता है, जिससे वे न केवल सत्ता का दावा करते हैं बल्कि सत्ता के प्रति अपने उल्लासोद्वेलन को खुलकर अभिव्यक्त भी करते हैं। वे नियम लागू करने के बजाय उन्हें धता बताने का ही मज़ा लेते हैं। उनकी 'दादागिरी' सिर्फ शक्ति प्रदर्शन नहीं, बल्कि नियमों को तोड़कर अपनी इच्छा को स्थापित करने की आकांक्षा भी है ।

जेलेंस्की, जो एक हास्य कलाकार से राष्ट्रपति बने, इस संवाद में एक desiring subject (इच्छुक विषय) के रूप में दिखते हैं, जो मास्टर (ट्रंप) से मान्यता (recognition) भी प्राप्त करना चाहते हैं। अमेरिका से वापस अपने देश में लौट कर जेलेंस्की ने जो पहला बयान दिया है उसमें वे ट्रंप की आलोचना नहीं, उसकी तारीफ ही करते हैं । (“Our relationship with the American Oresident is more than just two leaders; it’s ahisoric and solid bond between our peoples.”  

लेकिन इस पूरी वार्ता में ट्रंप किसी Symbolic Order के प्रतिनिधि नहीं हैं, बल्कि वे एक Real का अवतार हैं—एक ऐसी सत्ता का स्वरूप जो अपने भीतर किसी स्थिर नियम को नहीं मानती, बल्कि केवल शक्ति-संबंधों की भाषा में ही काम करती है।

ऐसे में अब विचार का जो सवाल सबसे महत्वपूर्ण हो जाता है वह यह कि आखिर ट्रंप कितनी दूर तक अपनी इस मनमानी पर टिके रह सकते हैं ? इसके लिए भू राजनीति के रीयल को उसकी प्रतीकात्मक शक्ति के साथ परखते हुए विचार करने की जरूरत है जो ट्रप के मास्टर लक्षणों में प्रवेश करके उसे प्रभावित कर सकता है । 

लकानियन दृष्टि से  शक्ति, उल्लासोद्वेलन (jouissance) और राजनीतिक दादागिरी का संबंध केवल इमेजनरी (imaginary) से नहीं, बल्कि सिंबॉलिक (symbolic) और रीयल (real) से भी बंधा होता है। ट्रंप की राजनीति को अगर महज़ इमेजनरी मास्टर (Imaginary Master) के रूप में समझा जाए, तो यह एक अधूरी व्याख्या होगी, क्योंकि सत्ता का इमेजनरी पक्ष तभी तक प्रभावी रह सकता है जब तक वह प्रतीकात्मक व्यवस्था में खुद को टिकाए रख पाता है। (ध्यान रहे कि लकानियन पदावली में प्रमाता के चित्त की संरचना में इमेजनरी का अर्थ काल्पनिक नहीं है, वह प्रमाता की आत्म-छवि का विषय होता है ।)   

ट्रंप-सत्ता के इमेजनरी पक्ष में दादागिरी, ताक़तवर दिखना और सार्वजनिक मंच पर अपमानजनक प्रदर्शन शामिल हैं। लेकिन जब यूरोपीय देश, चीन और अरब विश्व अपनी भौगोलिक और आर्थिक शक्ति से रीयल के दबाव को बढ़ायेंगे, तब केवल इमेजनरी राजनीति से काम नहीं चलेगा। यूरोपीय संघ और नाटो ने स्पष्ट रूप से जेलेंस्की के पक्ष में अपना समर्थन दिया है। उनके लिए यह समर्थन केवल कूटनीति का विषय नहीं है, बल्कि यह सिंबॉलिक ऑर्डर (Symbolic Order) की पुनर्स्थापना का प्रयास भी है।

पुतिन और चीन के बीच संबंध भी केवल एक भू-राजनीतिक प्रश्न नहीं, बल्कि रीयल का प्रवेश (Intrusion of the Real) है। रूस का आक्रामक रवैया, चीन की आर्थिक-रणनीतिक भूमिका और अरब विश्व की ऊर्जा-नीति—ये सभी ऐसे तत्व हैं जो न तो केवल इमेजनरी हैं और न ही केवल प्रतीकात्मक। बल्कि, वे एक ऐसी रीयल परिस्थिति का निर्माण करते हैं, जिसमें शक्ति संतुलन बनाए रखना अनिवार्य हो जाता है। ट्रंप अपनी सत्ता को इमेजनरी रूप में चला सकते हैं, लेकिन जब आर्थिक और सैन्य रणनीतियाँ वास्तव में बदलने लगेंगी, तो उन्हें अपनी नीति में संशोधन करना ही पड़ेगा।

चीन की वैश्विक रणनीति लकानियन दृष्टिकोण से सिंथोम (Sinthome) के रूप में काम करती है—यानी यह न केवल प्रतीकात्मक सत्ता संरचना को स्वीकार करता है, बल्कि इसे अपने तरीकों से (अपनी अवधारणाओं के अनुसार) पुनर्संगठित भी करता है। अमेरिका की शक्ति संरचना को चुनौती देने के लिए चीन केवल आर्थिक या सैन्य शक्ति का प्रयोग नहीं कर रहा, बल्कि नई प्रतीकात्मक और रीयल संरचनाएँ भी बना रहा है—ब्रिक्स (BRICS), बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) आदि इसके उदाहरण हैं।

अरब विश्व की स्थिति और जटिल है, क्योंकि यह तेल-आधारित रीयल शक्ति का प्रतिनिधित्व करता है। यदि अमेरिका इस शक्ति से टकराता है, तो उसे आर्थिक संकट का सामना करना पड़ सकता है।

इस रीयल के साथ ही जुड़ा हुआ है अमेरिका के भीतर का सत्ता संतुलन: ट्रंप के वर्तमान रूप का मतलब अमेरिकी लोकतंत्र को फिर से परिभाषित करना होगा—जिसमें लोकतांत्रिक संस्थाएँ, मीडिया और पूंजीवाद की कार्यप्रणाली शामिल हैं। इसमें अमेरिकी अकादमिक जगत की भूमिका भी शामिल है । 

लकान कहते हैं कि "रीयल का हस्तक्षेप टालने से नहीं टलता—बल्कि वह प्रतीकात्मक संरचना को पुनर्संगठित करने के लिए बाध्य करता है।"

जेलेंस्की के पहले फ्रांस के मैक्रों ने ट्रंप को उनकी ग़लतबयानी के लिए संवाददाता सम्मेलन में टोका था । ट्रंप के साथ मामूली तल्ख बातें ब्रिटेन के प्रधानमंत्री की भी हुई थी । लेकिन हमारे भारत के नरेन्द्र मोदी खामोशी से ट्रंप के अपमान का घूँट पी गए । 

जब नरेंद्र मोदी ने ट्रंप के अपमान को चुपचाप सह लिया, तो वह कोई व्यक्तिगत विनम्रता या कूटनीतिक संयम का विषय भर नहीं था, बल्कि वह मास्टर के उल्लासोद्वेलन (Master’s Jouissance) को मान्यता देने जैसा काम था। 

लकान के अनुसार, जब कोई विषय (subject) अन्य (the Other) के समक्ष अपनी स्थिति स्पष्ट रूप से नहीं रखता है, तो वह उस अन्य को पूर्ण प्रभुत्व की स्थिति में स्थापित कर देता है। 

मोदी के मौन ने ट्रंप की इमेजनरी मास्टरशिप को पुष्ट किया, क्योंकि वह न केवल ट्रंप के शब्दों को कोई चुनौती नहीं देता, बल्कि उनके उल्लासोद्वेलन को बढ़ने की आजादी भी देता है।

इसके विपरीत, जब मैक्रों ने ट्रंप को उनके झूठ पर सार्वजनिक रूप से टोका, तो यह उस सिंबॉलिक ऑर्डर (Symbolic Order) की पुनर्स्थापना थी जो सत्ता के अहंकार को नियंत्रित करने के लिए आवश्यक होती है। लकानियन परिप्रेक्ष्य में, यह एक नाम-का-पिता (Name-of-Father) का हस्तक्षेप था—एक ऐसी क्रिया जो मास्टर की अतिशयोक्ति को नियंत्रित करती है। इसी तरह, जेलेंस्की ने जब ट्रंप की दादागिरी को ठुकराया, तो उन्होंने ‘अन्य’ की वह भूमिका निभाई जो प्रमाता को उसकी सीमाएं दिखाता है।

अब प्रश्न यह है कि क्या ट्रंप इस प्रतिरोध से कोई सबक लेंगे? लकानियन दृष्टिकोण से, ट्रंप की सत्ता और व्यक्तित्व की संरचना केवल इमेजनरी मास्टर (Imaginary Master) के स्तर पर नहीं ठहरती, बल्कि यह एक ऐसे उल्लासोद्वेलन पर आधारित है जो अपने ही प्रतिबंधों को नकारने में आनंद पाता है।

हेगेल और लकान दोनों के अनुसार, जब मास्टर (Master) को उसका अन्य (the Other) चुनौती देता है, तो या तो वह इस चुनौती को स्वीकार कर अपने प्रमाता (subject) को पुनर्गठित करता है, या फिर वह रीयल (the Real) में गिरकर और भी अधिक अराजक और आक्रामक हो जाता है।

लकान के अनुसार, अन्य (the Other) प्रमाता (subject) के अहंकार को उसकी सीमाओं का बोध कराता है। यदि ट्रंप इस प्रक्रिया को स्वीकार नहीं करते, तो वे सत्ता के लिए एक perverse subject (विकृत प्रमाता) बन सकते हैं, जो न केवल राजनीतिक नियमों को धता बताएगा, बल्कि अमेरिकी सत्ता संरचना को भी चुनौती देगा।

यदि ट्रंप सिंबॉलिक ऑर्डर (Symbolic Order) को स्वीकार करते हैं, तो वे अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में अधिक परिपक्व रवैया अपनाएँगे। लेकिन यदि वे इस चुनौती को नकारते हैं, तो वे सत्ता में लौटने के लिए पहले से भी अधिक आक्रामक और रीयल के उल्लासोद्वेलन (Real Jouissance) को बढ़ावा देने वाले बन सकते हैं।

यह कहना कठिन है कि ट्रंप इन प्रसंगों से कोई सबक लेंगे या नहीं, क्योंकि उनकी राजनीति का आधार ही इमेजनरी मास्टर की स्थिति को बनाए रखना है। लेकिन यदि अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति का सिंबॉलिक ऑर्डर उन्हें चुनौती देता रहा, और चीन-रूस-अरब दुनिया के रीयल का हस्तक्षेप प्रभावशाली रहा तो उन्हें अपनी रणनीति बदलनी ही होगी। लकानियन दृष्टिकोण से, यदि अन्य अपनी भूमिका ठीक से निभाता है, तो प्रमाता की पुनर्रचना संभव होती है। लेकिन यदि मोदी जैसे नेता सत्ता के इस sadistic jouissance को मौन स्वीकृति देते हैं, तो ट्रंप के उल्लासोद्वेलन की जिद बनी रहेगी, और ट्रंप पहले से भी अधिक आक्रामक रूप में सामने आयेंगे । 


शुक्रवार, 28 फ़रवरी 2025

शिवरात्रि में जो छूट गया !

 -अरुण माहेश्वरी 



शिवरात्रि बीत गई। कुंभ की भीड़ में मल-मूत्र और मुनाफ़े के पहाड़ समान बिंब के पीछे शिव और शक्ति के योग का वह सुंदर बिंब कहीं छिप गया, जिसमें विज्ञान और प्रकृति के संयोग से भैरव की समझौताहीन स्वतंत्रता की आकांक्षा हो सकती थी। 

यही हमारे समय की सबसे बड़ी विडंबना है—हम किसी क़ानून के राज में नहीं, बल्कि शुद्ध अराजकता में जी रहे हैं।

वैसे तो नवजागरण के समय से विज्ञान का केंद्र प्रकृति हो गया था, और उसी के साथ परंपरा के क़ानून के राज का अंत शुरू हो चुका था । उसी समय इस नए अराजकता के रोग के बीज भी शायद पड़ गए थे। 

प्रसिद्ध दार्शनिक हाइडेगर ने इस ओर संकेत किया था कि “विश्व की परिघटनामूलक गति अब तकनीक के नियंत्रण में आ गई है।” आज प्रमाता का अस्तित्व केवल उससे होने वाले मुनाफ़े पर निर्भर हो चुका है। विश्व अर्थव्यवस्था इसका मानक है और वही पूरी तरह से अराजक हो चुकी है। इस रोग के लक्षण हर जगह बार-बार प्रकट हो रहे हैं—कुंभ से लेकर निवेशक सम्मेलनों तक, और ट्रंप की डील-मेकिंग से लेकर दुनिया के बाजार तक।

हम उपभोग के जरिये इस अराजकता से समझौता करके चलने के आदी हो चुके हैं।अभिनवगुप्त का ‘भैरव ‘ भी शिथिल हो कर मानो समझौता कर रहा है। आम आदमी भरिततनु भाव में जो भी उपलब्ध है, उसी में संतुष्ट है। कुंभ के प्रदूषित जल में डुबकी लगाकर मोक्ष की आकांक्षा करता हुआ मस्त है। 

लेकिन असली सवाल है—हमारे अवचेतन की यह धुंध कैसे कटेगी? यह सही है कि लकान के मनोविश्लेषण के सहारे कांट की आलोचनात्मक शैली को साधा जा सकता है। यह जॉक दरीदा की तरह विखंडन की शक्ति भी देता है। खुद दरीदा ने, अपने एक नोट में जो उनकी मृत्यु के बाद प्रकाशित हुआ, कहा था कि मनोविश्लेषण अराजकता को कठघरे में खड़ा करता है और जीवन को बाज़ार के मानकों पर ढालने का विरोध करता है। लेकिन फ्रायड और लकान के समय में भी आज जैसी बेहूदगियां इतनी नग्न नहीं हुई थीं।

आज शर्म का सार्विक रूप में अंत हो चुका है। इस स्थिति में सवाल यह है कि किस ‘नाम-का-पिता’ ( अर्थात् किस पारंपरिक नैतिकता) की शरण ली जाए? 

हमारी निगाह में एकमात्र कार्ल मार्क्स ही हैं, जिन्होंने माल की अंधश्रद्धा के इस रोग की गहराई से पहचान की थी और इससे मुक्ति के संगठित, समझौताहीन संघर्ष के उस विज्ञान को जन्म दिया था जो प्रकृति की स्वतंत्रता से जुड़ा हुआ है । अभिनवगुप्त के स्वातन्त्र्य बोध और लकानियन विश्लेषण के साथ मार्क्स के निर्मम आलोचना के औजारों को सान देने की ज़रूरत है। बाक़ी सब बकवास साबित होने के लिए अभिशप्त है ।

गुरुवार, 27 फ़रवरी 2025

कविता कृष्णपल्लवी के एक सघन काव्य बिंब* का लकानियन विश्लेषण :


  • अरुण माहेश्वरी 



एक दिलचस्प और चौंकाने वाला सघन बिंब जिसकी बहुस्तरीयता इसकी थोड़ी विस्तृत मनोविश्लेषणात्मक व्याख्या के लिए उकसाती है । 


पहाड़ों की शाम का आनंद इसमें क्रमशः  एक ऐसी दृश्यात्मक संरचना में ढलता है, जो समय, स्मृति और अस्तित्व की परतों को खोलती है। यह कविता जिस उदासी और रंगों की बहुलता को एक साथ समेटे हुए है, वह हमें निर्मल वर्मा के अंतिम अरण्य के उन बिंबों की याद दिलाती है, जहाँ पहाड़ की ढलती शाम में दूर जलती लालटेनें किसी धीमे, बेआवाज़ जुलूस की तरह दिखती हैं—एक छायाभास, जो न तो पूरी तरह भूतकाल में स्थित है और न ही वर्तमान में। वह लालटेनें एक तरह की आखिरी रोशनी हैं, जो समय की धुंध में खो जाने से पहले टिमटिमाती हैं। 


इस कविता में पहाड़ों की सांध्य-छाया उसी धूसरता को पुनरावृत्त करती है। सुरमई रंग की चादर धीरे-धीरे खेतों पर उतरती है—यह रंगों का एक समायोजन है, जो किसी इम्प्रेशनिस्ट चित्रकार की तरह दृश्य को पिघलाता चला जाता है। जैसे मोने की तूलिका घाटी के प्रसार को उकेर देती है, वैसे ही इस कविता में प्रकृति के विभिन्न तत्व (आकाश, वनस्पति, पशु, स्त्रियाँ) एक बड़े दृश्यात्मक आख्यान में रूपांतरित हो जाते हैं। यहाँ “आग का लाल गोला” क्षितिज में लुढ़कता हुआ सिर्फ एक प्राकृतिक घटना नहीं, बल्कि समय के अंतःस्राव का प्रतीक है।


इस दृश्य के भीतर एक “उत्तर-आधुनिकतावादी विचार” का उल्लेख विशेष रूप से महत्वपूर्ण है। “एक निरुद्देश्य सड़क पर चहलकदमी करता काला भोटिया कुत्ता”—यह आकृति सिमोनोनियन (Simondonian) ** अर्थों में “पूर्व-व्यक्तिकरण” (pre-individual) की स्थिति को इंगित कर सकती है, जहाँ अर्थ और लक्ष्य विघटित हो जाते हैं। उत्तर-आधुनिकता के संदर्भ में यह विचार अधिक स्पष्ट होता है: न तो कोई केंद्रीय संरचना बची है, न कोई महाख्यान, और न ही कोई स्थायी लक्ष्य। पहाड़ों की इस शाम में सब कुछ किसी अनिश्चित प्रतीक्षा में डूबा हुआ प्रतीत होता है।


इसी निरुद्देश्यता में कोई लापरवाह होकर अतीत के रस का पान करता है—जैसे “एकाकी शापित देवदारु तले बैठी लड़की माल्टा चूस रही है, जैसे पिछली सदी का कोई सपना।” यह सिर्फ अतीत के प्रति रूमानी झुकाव नहीं, बल्कि उस स्मृति की ओर लौटने की एक अन्यमनस्क कोशिश है, जो अब केवल एक objet petit a(लकान का वह ऑब्जेक्ट जो आनंद की हमेशा अपूर्ण, विलंबित संभावना की ओर संकेत करता है) के रूप में मौजूद है। यहाँ लकान का संकेतक का स्वायत्त खेल (Autonomy of the Signifier) स्पष्ट रूप से दिखता है: दृश्य वास्तविकता में मौजूद नहीं, बल्कि संकेतकों की एक निरंतर रचना में बदल जाती है । 


इस पूरी कविता के दृश्यपट पर लकान का “उल्लासोद्वेलन” (Jouissance) बिखरा हुआ है। मोने की तूलिका और रंग, चाँदनी की स्निग्धता, और स्वप्निल घाटी—ये सब आनंद सिद्धांत (Pleasure Principle) की पारंपरिक सीमाओं को पार करते हुए उल्लासोद्वेलन के क्षेत्र में प्रवेश कर जाते हैं। आनंद एक संतुलित, स्थिर अवस्था है, लेकिन उल्लासोद्वेलन उस सीमा का अतिक्रमण करता है जहाँ सुख और असहनीयता एक हो जाते हैं।

मसलन्, “बदन रगड़ रही बूढ़ी गाय”—यह क्रिया विशुद्ध रूप से आनंद नहीं, बल्कि एक ऐसी स्थिति को दर्शाती है जहाँ शरीर एक सीमांत अनुभव की तलाश में है।


“चाँदनी का अवाँगार्द हिरन इन्हें चर जायेगा”—यहाँ उल्लासोद्वेलन की वह प्रवृत्ति दिखती है, जहाँ सौंदर्य और विध्वंस एक-दूसरे में घुल-मिल जाते हैं। चाँदनी का हिरन अवाँगार्द कला का प्रतिनिधि है, और यह दृश्यात्मक सौंदर्य को मिटा देने के लिए प्रस्तुत होता है।


“स्वप्नहीनता के शिकार स्वच्छंदतावादी पखेरू”—स्वप्नहीनता उल्लासोद्वेलन की अंतिम अवस्था हो सकती है, जहाँ प्रतीकों के माध्यम से स्वयं की रचना असंभव हो जाती है।


इस कविता में “प्राच्य निरंकुशता का सीपिया रंग” और “सबाल्टर्न कोलाहल” का संदर्भ हमें और भी दिलचस्प संकेत देता है। यह वाक्यांश न केवल औपनिवेशिक अतीत और उसकी निरंतरता को इंगित करता है, बल्कि आधुनिकता के उस निहित संघर्ष को भी उजागर करता है, जहाँ सांस्कृतिक संरचनाएँ अपने ही अंतर्विरोधों में फँस जाती हैं। पंचायत घर में बैठे सयानों को “सब कुछ पता होता है”—यह सामाजिक संरचनाओं की उन निहित सत्ता रणनीतियों की ओर संकेत करता है, जो उत्तर-आधुनिक संदर्भ में एक निरंतर चलने वाले षड्यंत्र की तरह लगती हैं।


लकान के विमर्श में, यह “नाम-का-पिता” (Name-of-the-Father) का विघटन है—जहाँ परंपरा की कठोर व्यवस्था विखंडित हो जाती है और नया कोई निश्चित अर्थ नहीं देता। यही कारण है कि कविता का अंत इस प्रश्न से होता है: “अच्छी ख़बरों की उम्मीद इन दिनों भला कहाँ किसी को होती है?” यह केवल यथार्थवादी निराशा नहीं, बल्कि विमर्श के ढहने की स्वीकृति भी है।


इस प्रकार, कविता अंततः स्वयं एक उल्लासोद्वेलन का रूप ले लेती है। यह एक स्टिललाइफ़ पेंटिंग की तरह है, जिसमें गति अदृश्य है, परंतु अस्तित्वमान भी है। यही वह बिंदु है जहाँ यह कविता अंतिम अरण्य के उत्तर-आधुनिक रूपांतरण को पूर्ण कर देती है। निर्मल वर्मा की लालटेनें जो एक निश्चित स्मृति को संरक्षित करने की कोशिश कर रही थीं, वे यहाँ प्रकाश और अंधकार के बीच फैले किसी liminal space में विलीन हो जाती हैं।


यह कविता न तो केवल सौंदर्य का बखान है और न ही केवल सामाजिक यथार्थ का निरूपण। यह “आनंद सिद्धांत” और “उल्लासोद्वेलन” के बीच की उस झीनी दीवार को पार करने का प्रयास है, जहाँ विचार, दृश्य और भाषा अपनी स्थिरता खो देते हैं और केवल प्रभावों के स्तर पर मौजूद रहते हैं—एक अवचेतन रंग-संकेत श्रृंखला की तरह।


यहाँ, जीवन के “नए जादुई आख्यान” का संकेत दिया गया है, परंतु यह आख्यान अपने भीतर “संकेतों का एक अंतहीन खेल” (infinite play of signifiers) ही रह जाता है—क्योंकि हर उत्तर आधुनिकता, अंततः, एक नए सिरे से अपने ही पूर्वज की वापसी है।


हमारी टिप्पणी काफ़ी लंबी हो गई है और शायद बोझिल भी । इसीलिए इसे दो भागों में देना पड़ रहा है ।  क्षमा करें । पर हमें लिख कर काफ़ी अच्छा लगा है । 



* पहाड़ों की शाम की बहुरंगी उदासी का क़सीदा

कविता कृष्णपल्लवी


सुरमई रंग की एक चादर 

मन्द-मंथर गति से लहराती हुई

हरी कच्ची बालियों वाले गेहूँ के 

सीढ़ीदार खेतों पर उतर रही है। 

रोशनी पीली पड़ती हुई

ऊपर चोटियों की ओर

खिसकती जा रही है। 

सामने आग का लाल गोला

नीचे की ओर तेज़ी से

लुढ़कता जा रहा है। 


चारे का गट्ठर लिये एक बूढ़ी स्त्री

चढ़ रही है ऊपर बस्ती की ओर। 

एक पुरानी उम्मीद की मद्धम पड़ती पुकार। 

निरुद्देश्य सड़क पर चहलकदमी

कर रहा है  काला भोटिया कुत्ता। 

एक उत्तर-आधुनिकतावादी विचार। 

अखरोट के सख़्तजान दरख़्त से 

बदन रगड़ रही है एक बूढ़ी गाय। 

प्राच्य निरंकुशता का सीपिया रंग

चमकता हुआ सबाल्टर्न कोलाहल में। 


आसमान के अदृश्य आँसुओं से

भीग रहा है

एकाकी शापित देवदारु तले बैठी लड़की का

नीला स्कार्फ

और वह बेख़बर माल्टा चूस रही है

जैसे पिछली सदी का कोई सपना। 

प्यार पर एक अराजनीतिक कविता। 


सहसा बुरांश के झुरमुट से 

उड़ता है एक मुनाल

और इम्प्रेशनिस्ट पेंटिंग के फ्रेम से

बाहर निकल जाता है। 

क्लोद मोने झुँझलाते हुए ब्रश और पैलेट

ढलान पर फैली झाड़ियों में फेंक देते हैं। 

रंग बिखर जाता है इधर-उधर

पत्तों और घास पर। 

जल्दी ही चाँदनी का अवाँगार्द हिरन

इन्हें चर जायेगा

और धूसर विचारों में सराबोर

स्वप्नहीनता के शिकार 

रात के सभी स्वच्छंदतावादी पखेरू 

इस दुखद घटना के बारे में चुप रहेंगे। 


एक अनुर्वर  शाम 

निर्दोष भोली आत्माओं के  शिकार के लिए

घात लगा रही है। 

रात में डोलेंगी बेरहम बुराइयों की

रहस्यमय परछाइयाँ

और  पंचायत घर की कोठरी में बैठे सयानों को

सबकुछ पता होगा

कि कल कब-कब कहाँ-कहाँ

कितनी हत्याएँ होंगी! 

अच्छी ख़बरों की उम्मीद इनदिनों भला

कहाँ किसी को होती है? 


हर स्टिललाइफ़ पेंटिंग में

अदृश्य होती है जीवन की गति। 

विचारों के पहरे में

जो कविताएँ जागती रहती हैं सारी रात

वही कई-कई रातों और दिनों के

गुज़रने के बाद

किसी एक सुबह

जीवन का एक नया जादुई आख्यान

लेकर आती हैं। 


** एक फ्रांसीसी दार्शनिक गिल्बर्ट सिमोंदों (1924-1989) जिन्होंने मुख्य रूप से तकनीक, व्यक्ति (individual) और रूपांतरण (individuation) की प्रक्रियाओं पर विचार किया। वे अस्तित्व को केवल पूर्ण “व्यक्तिगत” (individual) स्तर पर देखने के बजाय, उसके बनने की प्रक्रिया को समझने पर बल देते हैं। 


सिमोंदों के अनुसार, “व्यक्ति” कोई स्थिर और अंतिम इकाई नहीं होता, बल्कि वह रूपांतरण (individuation) की प्रक्रिया से बनता है। इस प्रक्रिया से पहले, अस्तित्व एक “पूर्व-व्यक्तिक” (pre-individual) अवस्था में होता है। यह अवस्था एक संभाव्य (potential) स्थिति होती है, जिसमें व्यक्ति बनने के अनेक आयाम और संभावनाएँ संचित होती हैं, लेकिन वे अभी निष्क्रिय होती हैं। “पूर्व-व्यक्तिक” (pre-individual) अस्तित्व की एक ऐसी अवस्था है, जिसमें व्यक्ति बनने की असंख्य संभावनाएँ संचित होती हैं, लेकिन वे अभी निष्क्रिय होती हैं। यह अवस्था स्थिर नहीं होती, बल्कि इसके भीतर एक गतिशील ऊर्जा होती है, जो सही परिस्थितियों में सक्रिय होकर व्यक्तिकरण की प्रक्रिया को जन्म देती है। इस दृष्टि से, व्यक्ति कोई पूर्ण इकाई नहीं, बल्कि लगातार बनने वाली (becoming) प्रक्रिया का हिस्सा होता है।


(यह टिप्पणी फ़ेसबुक पर कविता कृष्णपल्लवी के वॉल पर की गई है जिसे हम यहाँ मूल कविता के साथ अपने ब्लाग पर साझा कर रहे हैं । )

शनिवार, 22 फ़रवरी 2025

भारत-अमेरिका संबंधों का सबसे शर्मनाक काल : यह आरएसएस के अंग्रेज़-परस्ती के पुराने इतिहास की पुनरावृत्ति का ही एक परिणाम है


— अरुण माहेश्वरी 



ट्रंप -2 के शासन का अब तक का यह काल हमें अभी से भारत-अमेरिकी संबंधों के इतिहास का सबसे शर्मनाक काल दिखाई देने लगा है । 

इसमें सबसे अधिक चिंता की बात यह है कि इस शर्म के लिए अकेले ट्रंप ज़िम्मेदार नहीं है । मोदी और उनकी सरकार भी अगर ज़्यादा नहीं तो कम ज़िम्मेदार भी नहीं है । 


ट्रंप ने तो अपने चुनाव अभियान के दौरान ही पारस्परिक आयात शुल्क ( Reciprocal tariff) के अपने इरादे को साफ़ तौर पर कहा था । इसी प्रकार अवैध आप्रवासियों से अमेरिका को मुक्त करने की अपनी पुरानी नीति को भी दोहराया था। 


पर ट्रंप की इन नीतियों की दुनिया के दूसरे देशों ने कोई परवाह नहीं की, क्योंकि अन्य सभी राष्ट्रों को अपनी स्थिति और दुनिया में राष्ट्रों की परस्पर निर्भरता का एक सटीक अनुमान है । कोई भी अपने अस्तित्व को पूरी तरह से अमेरिका से जोड़ कर नहीं देखता है । 


ट्रंप ने अपने पहले शासन के चार सालों में भी मेक्सिको से अवैध घुसपैठ को रोकने और अवैध आप्रवासियों को लेकर राजनीतिक उत्तेजना पैदा करने की कम कोशिश नहीं की थी । पर देखते-देखते उनके चार साल थोथी फुत्कारों में ही बीत गए। अमेरिका की इस कथित समस्या का जरा भी निदान संभव नहीं हुआ । 


सारी दुनिया जानती है कि आप्रवासी का मसला सिर्फ़ दो देशों का मसला नहीं, मानव सभ्यता के इतिहास से जुड़ा हुआ मसला है । अमेरिका की सच्चाई तो यह है कि उस देश को आप्रवासियों ने ही आबाद, निर्मित और विकसित किया है । हाल के साल तक भी अमेरिका के विकास के हर पन्ने को, वह भले कृषि को लेकर हो या उद्योग को लेकर या डिजिटल क्रांति को लेकर, लिखने में आप्रवासियों की, अन्य देशों के वैध-अवैध श्रमिकों की प्रमुख भूमिका रही है । 


यह अकारण नहीं है कि अमेरिका अपने देश को ‘अवसरों का देश’ के रूप में प्रचारित कर दुनिया भर के महत्वाकांक्षी युवकों को आकर्षित करता रहा है !

भारत सहित अन्य देशों से नाना उपायों से वहाँ पहुँचने वाले आप्रवासी वहाँ अपराधों, लूट-मार या हत्याएं करने के लिए नहीं जाते हैं, अपनी बुद्धि और श्रम के बल पर उस देश के निर्माण में भाग लेकर अपने जीवन को सुधारने के लिए जाते हैं । 


आप्रवासियों के आने के साथ सिर्फ़ उन आप्रवासियों का ही नहीं, उन देशों के स्वार्थ भी किसी न किसी रूप में जुड़े होते हैं जिन देशों को उन्होंने अपना भाग्य आजमाने के लिए चुना है । इसीलिए मानव सभ्यता के विकास के इतिहास को भी आप्रवासी का इतिहास कहा जाता है । इस विषय पर ट्रंप के पहले चार साल के शासन की विफलता ही उसकी तयशुदा नियति थी। और, आगे भी इस मसले पर ट्रंप लगातार राजनीतिक उत्तेजना तो पैदा करते रहेंगे, पर कभी भी इसमें उन्हें कोई बहुत बड़ी सफलता नहीं मिल पाएगी। 


इसी प्रकार का ट्रंप का दूसरा बड़ा मसला है पारस्परिक आयात शुल्क का मसला । यह समस्या भी मूलतः मानव इतिहासों से जुड़ी एक और समस्या ही है । जैसे द्वितीय विश्व युद्ध में तबाह हो चुके पूरे यूरोप के पुनर्निर्माण के लिए मार्शल योजना और विश्व बैंक, आईएमएफ़ की तरह की ब्रेटनवुड संस्थाओं को सस्ते ऋणों आदि के साथ सामने आना पड़ा था, बिल्कुल उसी तर्ज़ पर वैश्विक असमानता के शिकार दुनिया के विकासशील देशों में विकास की गति को तेज करने के लिए विश्व वाणिज्य संगठन (WTO) को विश्व वाणिज्य की ऐसी शर्तों को स्वीकारना पड़ा हैं जिनमें आयात शुल्कों के ज़रिए विकासशील देश अपने लिए ज़रूरी पूंजी जुटा सकें और अपने बाजारों को बड़ी ताक़तों के नीतिगत दबावों से मुक्त रख सकें । इन व्यवस्थाओं ने दुनिया में कमज़ोर और शक्तिशाली राष्ट्रों के परस्पर हितों के बीच एक संतुलन बनाए रखने में एक असरदार भूमिका अदा की है और दुनिया में स्थिरता बनाए रखने का काम किया है । शांति और स्थिरता समूची मानवता के विकास की एक अनिवार्य शर्त है । 


यही वजह है कि आज अमेरिका के स्तर की महाशक्ति यदि दुनिया में स्थिरता को ख़त्म करने का काम करती है तो वह सबसे ज़्यादा अपना ही नुक़सान करेगी । ट्रंप का पारस्परिक आयात शुल्क का एक हथियार की तरह प्रयोग करने की योजना अंत में एक दिखावा ही साबित होगी क्योंकि खुद अमेरिका के आर्थिक-राजनीतिक हित इस मामले में उसके खिलाफ उठ खड़े होंगे । 


इसीलिए ट्रंप के पारस्परिक आयात शुल्क और उससे संभावित वाणिज्य युद्ध को लेकर चीन, रूस सहित यूरोप तक ज़्यादा चिंतित नहीं है । इस दिशा में ट्रंप के कदमों के अनुपात में ही वे अपनी तात्कालिक और दूरगामी नीतियाँ तैयार करने की रणनीति अपनाए हुए हैं । 


इस पूरे परिप्रेक्ष्य में विचार का यह एक गंभीर सवाल है कि ट्रंप के क्रियाकलापों से भारत ही क्यों इतना ज़्यादा परेशान हो रहा है ? क्यों ट्रंप भारत के अवैध आप्रवासियों को अन्य देशों के आप्रवासियों की तुलना में ज़्यादा सता रहे हैं और उनकी यातनाओं का सारी दुनिया के सामने प्रदर्शन भी कर रहे हैं? क्यों ट्रंप मोदी को बार -बार अपमानित करते हैं ? सबसे पहले तो मोदी की लाख कोशिश के बावजूद उन्हें अपने शपथ ग्रहण के आयोजन में आने नहीं दिया । और बाद में जब उन्हें बुलाया भी तो समूचे प्रेस के सामने भारत को “टैरिफ़ किंग” बता कर मोदी को सीधे धमकी दे दी कि वे भारत को बख़्शेंगे नहीं । भारत पर अमेरिका से हथियार और ऊर्जा ख़रीदने के लिए खुले संवाददाता सम्मेलन में दबाव डाला। ऐसा करते हुए वे बार-बार मोदी पर “माई डीयर फ्रैंड” के व्यंग्य का तीर छोड़ने से भी नहीं चूक रहे हैं !


इस स्थित पर विचार करने पर एक बात साफ़ नज़र आती है कि मोदी के प्रति ट्रंप के इस रवैये के मूल में कहीं न कहीं उनके मन अपने इस ‘मित्र’ के प्रति गहरी वितृष्णा का भाव काम कर रहा है । ऐसा लगता है कि मानो ट्रंप ने मोदी के चरित्र की उस प्रमुख कमजोरी को पहचान लिया है जिसमें अपनी कोई चमक नहीं है, वह हमेशा अमेरिका और ट्रंप के प्रकाश से खुद को चमकाने की फ़िराक़ में रहता है । शायद मोदी के अडानी वाले रोग की भी उन्होंने सिनाख्त कर ली है । वे जान गए हैं कि मोदी उस दास भाव के शिकार हैं जो मालिक की दुत्कारों से ही उसके प्रति हमेशा विश्वसनीय बना रहता है । ऐसे भाव में जीने वाले को बराबरी का दर्जा देना उसे झूठों ख़तरनाक बनाने जैसा है !


इसीलिए ट्रंप ने एलेन मस्क, उनकी प्रेमिका, बच्चों और बच्चों की आया के साथ मोदी की बैठक कराई । अमेरिकी प्रशासन ने भी यह देख लिया है कि मोदी का जितना अपमान किया गया, वे उतना ही ज़्यादा मुस्कुराते हैं और अमेरिका को आयात शुल्क के मामलों में उतनी ही ज़्यादा रियायतें एकतरफ़ा ढंग से देते जा रहे हैं । अमेरिका जाने के पहले ही अमेरिकी उत्पादों पर आयात शुल्क में कमी शुरू हो गई थी। मस्क परिवार से मुलाक़ात के बाद उसकी टेस्ला गाड़ियों पर आयात शुल्क को 115 प्रतिशत से कम करके सिर्फ़ 15 प्रतिशत कर दिया गया है ।


इस प्रकार, अभी के अमेरिका-भारत संबंधों में जो अजीब क़िस्म की विकृति दिखाई देती है, उसके मूल में अकेले ट्रंप नहीं, हमारे मोदी जी भी एक प्रमुख कारक है।  आरएसएस की पुरानी नीति कि अंग्रेज़ों की कृपा से भारत में सत्ता हासिल करो, मोदी अभी ट्रंप पर आज़मा रहे हैं और बदले में चाहते हैं कि उन्हें ‘विश्व गुरु’ आदि-आदि मान लिया जाए । ट्रंप ने लगता है मोदी के इस छद्म को पहचान लिया है और उसका लाभ लेते हुए बार-बार मोदी को उनकी औक़ात बताने से नहीं चूकते !


ट्रंप और मोदी के बीच इस प्रभु-दास वाले संबंध ने ही आज अमेरिका-भारत संबंधों की सूरत इतनी बिगाड़ दी है कि हर स्वाभिमानी भारतीय को उस पर गहरी शर्म का अहसास हो रहा है । ट्रंप आगामी चार साल तक मोदी को ऐसे ही अपना व्हिपिंग ब्वाय बना कर रखना चाहेंगे । 


इस पूरे मामले में सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि भारत में बीजेपी के ‘राष्ट्रवादियों’ ने इस पूरी खींच-तान में भारत की ब्रीफ़ को त्याग कर ट्रंप और अमेरिका की ब्रीफ़ थाम ली है !