सोमवार, 15 दिसंबर 2025

कम्प्यूटर क्रांति महज युवाओं का मसला नहीं है

-अरुण माहेश्वरी 




 

जगदीश्वर चतुर्वेदी जी की ‘ कंप्यूटर क्रांति और युवा ‘ विषय पर वार्ता से ऐसा आभास हो रहा था कि जैसे यह कोई महज एक नैतिक विचलन का सवाल हो जिसमें पूंजीवाद और उसके नव-उदारवाद के उपभोक्तावादी दलदल में मनुष्य, खास कर युवा फँसा हुआ है। 

 

दरअसल, हम पूरे विषय को बिल्कुल भिन्न धरातल से देखते है। युवाओं के खास संदर्भ में जिस कंप्यूटर क्रांति की बात हो रही है, उसमें शुरू में ही यह भेद किया जाना चाहिए है कि वह क्रांति जो हमारे लिए तो एक माध्यम की तरह आई थी, युवाओं के लिए वह उसका परिवेश है । 

 

हमारी पीढ़ी के लिए कम्प्यूटर एक औज़ार था, एक बाहरी संरचना पर युवा वर्ग के लिए वह एक संपूर्ण डिजिटल संसार है, उसकी सामाजिकता का प्राथमिक क्षेत्र, बल्कि मैं तो कहूँगा, उसकी पहचान की जन्मभूमि । युवाओं का बाकी, आफलाइन  जीवन अब क्रमशः किनारे खिसकता जा रहा है । उनके लिए क्रमशः डिजिटल में होना न होना, कोई आप्शन नहीं । उनके लिए महत्वपूर्ण यह है कि डिजिटल में वह किस रूप में मौजूद रहेगा।

 

पहले प्रमाता की पहचान वर्ग, परिवार, जाति या वैचारिक प्रतिबद्धता से बनती थी। अब युवा की पहचान उसका प्रोफ़ाइल है, एक स्टोरी है, उसकी एल्गोरिद्मिक उपस्थिति, visibility है। यह पहचान भी कोई स्थिर संरचना नहीं, बल्कि लगातार अद्यतन होने वाला समुच्चय है। युवा ‘मैं कौन हूँ’ से अधिक ‘मैं कैसा दिख रहा हूँ’ के प्रश्न में जीता है। लकानियन भाषा में, यह प्रमाता के चित्त के छविमूलक (Imaginary) पहलू का अभूतपूर्व विस्तार है। प्रमाता का होना, न होना उसके शरीर और उसकी छवि का द्वंद्व भी माना जा सकता है ।

 

लकान के यहाँ जहाँ चित्त का छविमूलक अंश (imaginary register) हमेशा प्रतीकात्मक (symbolic) के अधीन रहता था, लगता है जैसे अब डिजिटल संसार में यह क्रम उलटने लगा है। आज का युवा पहले दिखता है, फिर बोलता है, और कई बार बिना बोले ही अपनी पहचान बना लेता है ।  

 

मनोविश्लेषण में प्रमाता की पहचान के लिए उसकी बात का अतीव महत्व रहा है, वह ‘बात’ अब गौण हो रही है । प्रमाता बोलने वाला नहीं, देखे जाने वाला बन रहा है । इससे प्रमाता की चिंता (anxiety) का नया रूप पैदा होता है, जो उसकी भाषा से नहीं उसके दिखने, न दिखने से तय होने लगता है जिसका हम शरीर और छवि के संदर्भ में उल्लेख कर चुके हैं।  इसमें और भी अनोखा पहलू यह है कि पहले के जाति, धर्म, विचारधारा के सुपर स्ट्रक्चर के विपरीत वह क्या दिखेगा, किसे दिखेगा, कितनी बार दिखेगा, यह मशीनी एल्गोरिद्म तय करता है। 

 

हमारे समय के प्रमुख दार्शनिक एलेन बाद्यू कहते हैं कि घटना वह होती है जो यथास्थिति को तोड़ती है। पर युवा डिजिटल संसार में तो स्थिति लगातार स्वयं बदलती रहती है, पर कोई घटना घटती नहीं। सब कुछ ट्रेंड, वायरल होकर खुद ही मिट भी जाता है। एक प्रकार का ऐसा सतत उल्लासोद्वेलन, जिससे किसी सत्य का संकेत आभासित नहीं होता । इससे एक अजीब से नई थकान जन्म लेती है, निरर्थक सक्रियता की थकान।

 

फिर भी हम कहेंगे कि युवा वर्ग के लिए कम्प्यूटर युग का अर्थ केवल उसकी लत, अस्थिरता या सतहीपन नहीं है। बल्कि यह एक संक्रमण काल है, जहाँ प्रमाता पहली बार बिना परम्परागत प्रतीकात्मक सहारे के, बिना स्थिर पहचान, बिना अपने साथ जुड़ी पुरानी पुरखों की अलौकिक कथाओं के जीना सीख रहा है। निश्चित रूप से यह जोखिम भरा है, पर इसमें एक संभावना भी छिपी है । बहुलताओं के बीच रहते हुए प्रमाता स्वयं को स्वतंत्र रूप से ज्यादा आसानी से पुनर्रचित कर सकता है।  

 

दरअसल, यहीं से उस नए दर्शन की जन्मभूमि तैयार होती है जिसे ऐलेन बाद्यू की बहुलता के समुच्चित संसार, बहुल द्वंद्वों के भुवन के दर्शन की भूमि कहते हैं ।

 

हमारी पीढ़ी डिजिटल संसार की आलोचना कर सकती है। पर युवा वर्ग उसमें प्रयोग कर रहा है।इसीलिए युवा सिर्फ समस्या नहीं हैं, वे भविष्य की प्रयोगशाला हैं।

 

प्रश्न यह नहीं कि उन्हें डिजिटल से कैसे बचाया जाए, बल्कि यह है कि उन्हें मनुष्य के स्थायी भावों से सिंचित प्रमाता होने की भाषा से इस नये बहुल-समुच्चयी संसार में कैसे प्रशिक्षित किया जाए?

 



दरअसल, युवा का वर्तमान परिवेश ही भविष्य का सामान्य परिवेश होता है । वही कुछ समय बाद मनुष्य मात्र का परिवेश बनता है।यह बात हर युग में सच रही है।औद्योगिक युग में, फैक्टरी पहले युवाओं को खींचती है, फिर वही जीवन-लय पूरे समाज की बन जाती है।

 

इसी प्रकार, डिजिटल संसार पहले युवाओं का परिवेश है, पर वही शीघ्र ही मानव जीवन का सामान्य ढाँचा बनेगा, इसमें कोई शक नहीं होना चाहिए । इस अर्थ में युवा पर विचार करना कोई विशेष बात नहीं, बल्कि मानवता के आगत सामान्य स्वरूप के अध्ययन जैसा ही है । 

 

जीवन में किसी भी क्रांति पर विचार उसके भावी प्रभावों के साथ ही संभव है। कोई भी क्रांति अपने वर्तमान रूप से नहीं, बल्कि उसके भविष्य के सामान्यीकृत स्वरूप से समझी जाती है। इसलिए लकान प्रमाता पर विचार की भाषा को अनिवार्यतः वर्तमान-निरंतर काल ( present continuous tense) की भाषा कहते हैं । 

 

कम्प्यूटर क्रांति को समझने के लिए हमें यह समझना चाहिए कि जब डिजिटल परिवेश कोई विशेष बात नहीं रहेगी, जब वह अदृश्य सामान्यता बन जाएगा, तब मनुष्य कैसा होगा? युवा इसी भविष्य का प्रयोग-स्थल है । 

 

इसीलिए हम फिर से दोहरायेंगे कि आज युवा-संदर्भ में विचार का औचित्य यह नहीं है कि युवा अलग हैं, या उनमें कोई नैतिक कमी है।इसका औचित्य इस बात में है कि युवा वह स्थान है जहाँ भविष्य अपने अधूरे, अस्थिर रूप में आभासित होता है। यह घटना के सत्य के प्रकटीकरण का स्थान है । युवा में जो अस्थिरता, चिंता, छविमूलकता, पहचान की तरलता दिखती है, वह उनका निजी दोष नहीं, बल्कि आने वाले सामान्य जीवन का प्रारूप है। यह अगर एक रोग हैं, तो हमारे सामान्य जीवन का ही रोग है । 

 

लकान के अनुसार, किसी भी क्रांति से जीवन की सारी संरचनाएँ एक साथ नहीं बदलतीं। सबसे पहले वह प्रमाता को अस्थिर, समस्याग्रस्त बनाती है, उसकी पहचान को हिलाती है, फिर प्रतीकात्मक व्यवस्था को झकझोरती है। युवा समुदाय इस अस्थिरता के वार का पहला निशाना होता है । इसलिए युवा का अध्ययन उनका निजी मनोवैज्ञानिक नहीं, समग्र रूप से समाज का संरचनात्मक अध्ययन भी है।

 

एलेन बाद्यू सत्य के स्वरूप के बारे में अपने UCE ( Universal Concrete Exception) की अवधारणा में यही संकेत देते हैं कि कोई स्थिति तभी ऐतिहासिक होती है जब उसका अपवाद ही सामान्य बन जाए। युवा आज डिजिटल युग के अपवाद नहीं, वे इसके सामान्यीकरण का पहला रूप हैं। कल यही स्थिति हर बुज़ुर्ग, मज़दूर, लेखक, नेता, आदि सबकी होगी । 

 

फलतः, युवा पर विचार इसलिए नहीं ज़रूरी है कि वे अलग हैं, बल्कि इसलिए ज़रूरी है कि वे सभ्यता के सत्य के आभास के प्रथम स्थल हैं।वे वह स्थान हैं जहाँ कम्प्यूटर-बहुलता का समुच्चय पहली बार मानव जीवन का परिवेश बन रहा है। युवा-संदर्भ में सोचना नैतिक उपदेश और पीढ़ियों के बीच फर्क का विषय नहीं, सभ्यता के भविष्य का दार्शनिक पूर्वानुमान है।

 

हम कंप्यूटर या डिजिटल युग को सभ्यता के विकासक्रम में एक अनोखे विच्छेद के रूप में साफ तौर पर देख सकते हैं । प्रारंभिक पाषाण, ताम्र और लौह युग में मनुष्य की रचनात्मकता का लक्ष्य प्रकृति के भीतर हस्तक्षेप था। इनमें औज़ार और तकनीक प्रकृति को मनुष्य की आवश्यकता के अनुसार ढालने के माध्यम थे।

 

कम्प्यूटर युग को हम इसमें एक निर्णायक विच्छेद के रूप में पाते हैं । यह वह पहला चरण है जब मनुष्य किसी पदार्थ को आधार बना कर अपने उत्पादन संबंधों का संसार नहीं रचता है , बल्कि स्वयं से ही एक स्वायत्त प्रति-संसार की संरचना को जन्म देता है; एक ऐसी संरचना को जो स्वयं में एक भुवन की तरह कार्य करती है । 

 

इस अर्थ में कम्प्यूटर युग औज़ारों का नहीं, संसारों का युग है। इसे बाद्यू के ‘भुवनों के तर्क’ से अच्छी तरह समझा जा सकता है जो व्यवस्था के अंदर ही एक स्वायत्त संसार रचते हुए स्थापित संसार को विस्थापित कर उसका स्थान लिया करता है । इस नये युग में सभ्यता का भौतिक आधार औज़ारों के बजाय संसारों, सत्यों के समुच्चयों, बहुलताओं के अपवाद-स्वरूप भौतिक स्वरूपों से निर्मित होता है । 

 

यह एक प्रकार से मनुष्यों का आत्म-विस्थापन है । इसमें मनुष्य पहली बार अपने ही संज्ञानात्मक और प्रतीकात्मक कार्यों को अपने से काट कर अलग कर देता है। स्मृति डाटा बन जाती है, निर्णय एल्गोरिद्म, संबंध नेटवर्क और इच्छा प्रोफ़ाइल । 

 

यह प्रक्रिया केवल तकनीकी नहीं, तात्विक  (ontological) है। मनुष्य अपने ही भीतर की क्रियाओं को एक बाह्य संरचना में बदल देता है जिसमें वह स्वयं को ही पहचानने के लिए बाध्य होती है। मार्क्स ने इस स्थिति को ही ‘पूंजी’ में पण्यों के प्रति अंध श्रद्धा (commodity fetishism) से सबसे पहले व्याख्यायित किया था । यह स्थिति आत्म-प्रतिबिम्ब (self-reflection) की नहीं, बल्कि आत्म-विस्थापन (self-alienation) की है, जो पारम्परिक अर्थों में मार्क्स की 1844 की पांडुलिपियों में व्यक्त विच्छिन्नता (alienation) मात्र नहीं, बल्कि पण्यों के एक संसार के व्यापक ताने-बाने में प्रमाता को उसकी अपनी जगह से विस्थापित कर रोपित करने जैसा है। 1844 की पांडुलिपियों के युवा मार्क्स का ‘पूंजी’ के परिपक्व मार्क्स में अतिक्रमण होता हैं और वे सत्य के स्थानीय, ठोस, अपवाद-स्वरूप समुच्चयों के भुवन के आधुनिक दार्शनिक सिद्धांत की आधारशिला रखते हैं । 

 

जॉक लकान ने तो प्रतीकात्मक व्यवस्था (Symbolic Order) को पहले से ही प्रमाता से स्वतंत्र कहा है। भाषा, क़ानून और संरचना, सब प्रमाता से पहले मौजूद रहते हैं। कम्प्यूटर युग में यह प्रतीकात्मक व्यवस्था और प्रबल, स्वचालित और निर्णयात्मक (decisive) बन जाती है।प्रतीकात्मकता सिर्फ अर्थ का स्रोत नहीं, उसका कारक हो जाती है। हम देख सकते हैं कि इस नये रीयल में व्यवधान पैदा करने वाले रीयल का भी अपना विशेष रूप होगा जिसे एल्गोरिद्मिक गड़बड़ी, सिस्टम क्रैश, डेटा लीक आदि के रूप में वर्णित किया जा सकता है । ये वे बिंदु हैं जहां गणना विफल हो जाती है। इसमें हैकिंग या सिस्टम से खिलवाड़ की तरह की करतूतों को प्रमाता का जुएसॉंस कहा जायेगा। 

 

कंप्यूटर क्रांति और उसका नया संसार वर्तमान की भांति ही न तो पूर्णतः प्रतीकात्मक है, न छविमूलक । यह भी रियल के लगातार हस्तक्षेप के लिए एक खुला क्षेत्र है, पर निस्संदेह अपने प्रकार का । यह उतना ही बहुल है जितना अभी का सामान्य संसार क्योंकि इसमें भी गणना में गड़बड़ की संभावना हमेशा रहेगी, अनंतता की ख़लल रोकी नहीं जा सकेगी, अर्थात् अभाव से जुड़ी इच्छा का जुएसॉंस तक का पहलू किसी न किसी रूप में बरकरार रहेगा । युवा कत्तई इसमें अनिवार्यतः गुलाम नहीं होता है ।

 

 

 

 


गुरुवार, 27 नवंबर 2025

बंगाल में दुर्गा पूजा !

 

-अरुण माहेश्वरी 





डा. शंभुनाथ इस उम्र में भी कोलकाता के पूजा पंडालों में घूमने का उत्साह और साहस रखते हैं, इसे उनकी फ़ेसबुक पोस्ट पर देख कर भारी प्रसन्नता हुई । हम उन्हें हृदय से बधाई देते हैं । 


उन्होंने इस पोस्ट में पंडाल-भ्रमण के अपने अनुभव का ब्यौरा दिया है और साथ ही दुर्गा पूजा की पुराण कथा के रूप में कृत्तिवासकृत रामायण में आए एक प्रसंग को बताया है । उन्होंने और भी धर्म-पुराण की कुछ बातें लिखी हैं जिन पर कुछ मित्रों ने कई प्रकार भी की टिप्पणियाँ की है । 


यह सच है कि दुर्गापूजा के पीछे की धार्मिक कथा के रूप में आम तौर पर 15वीं सदी के ‘कृत्तिवास रामायण’ में आए ‘अकाल बोधन’ प्रसंग की चर्चा की जाती है । कृत्तिवास की रामायण में लंका गमन के वक्त राम शिव के बजाय शक्ति की देवी दुर्गा की आराधना करते हैं । इस पर कृत्तिवास ने लिखाः


“अकाल बोधन कोरिला रघुवीर

शरत् काले देवी पूजिलेन धीर।”


कृत्तिवास ने राम के द्वारा देवी की इस प्रार्थना को ‘अकाल बोधन’ अर्थात् असामयिक पुकार कहा, क्योंकि आम तौर पर तो देवी की पूजा बसंत ऋतु में होती है, पर राम के लंका गमन के वक्त वसंत नहीं, शरत् ऋतु थी ।


बहरहाल, इसी प्रसंग में हमें याद आया कि अभिनवगुप्त के “तंत्रालोक” के प्रथमाह्निकम् में ही में शिव पुत्र गणेश और कार्त्तिक के बारे में श्लोक आता है - 


“गणेशस्कन्दसंज्ञाद्याः शक्तेः शक्त्युपजीविनः ।

तेऽपि तस्याः प्रसादेन सिद्धिं यान्ति स्वकां ध्रुवम् ॥”


जैसा कि सब जानते हैं, कश्मीरी शैवमत में शक्ति ही सर्वोच्च है जिसके बिना संसार में शिव शव के समान होते हैं। उपरोक्त श्लोक में कहा गया है कि शिव की संतानें गणेश और स्कन्द (कार्त्तिक) दुर्गा ( शक्ति) पर आश्रित है । इसी तरह ब्रह्मा-विष्णु की शक्तियां सरस्वती और लक्ष्मी भी उसी आदिशक्ति दुर्गा के ही अलग-अलग रूप है। इस प्रकार, आदि पराशक्ति दुर्गा और उस पर आश्रित शक्तियों का जो एक पूरा परिवार तैयार होता है वह ‘परिवार’ तंत्रशास्त्र में पुराणिक पारिवारिक संरचना के बजाय एक तांत्रिक एकता का प्रतीक बन कर आता है।


पता नहीं, हमें क्यों लगता हैं कि इस प्रकार बुराई से संघर्ष के मनुष्य के संकल्प की तांत्रिक एकाग्रता को ही आख्यान का रूप देते हुए, from logos to mythos की सत्तर्क क्रिया को विश्वास में बदलने की प्रक्रिया से एक युद्धरत परिवार की पौराणिक कथा का रूप दिया गया है । और शिवस्तोत्रों  की परंपरा से दुर्गा सप्तशती का चण्डीपाठ तैयार हुआ है । 


बहरहाल, जो भी हो, हमें बंगाल में सार्वजनिक दुर्गा पूजा की परंपरा का आधुनिक इतिहास इस पुराण चर्चा से कहीं ज्यादा दिलचस्प और मानीखेज लगता है । इससे जो सबसे बड़ी बात प्रमाणित होती है कि यह उत्सव जितना धार्मिक उत्सव रहा है, उससे कहीं ज्यादा इसका संबंध बंगाल में सत्ता के समीकरण से रहा है। औपनिवेशिक संक्रमण के काल में स्थानीय हिंदू जमींदारों ने अपने अस्तित्व के लिए एक अलग ही प्रकार के सामाजिक-राजनीतिक उपकरण के रूप में इसे विकसित किया था । दुर्गा पूजा के इस जमींदारी रूप को समझे बिना इसके मर्म को शायद कभी भी पूरी तरह से नहीं समझा जा सकेगा । 


सन् 1757 में प्लासी युद्ध में सिराजुद्दौला की पराजय के बाद बंगाल में मुग़ल सल्तनत का सूरज तेज़ी से ढलने लगा और अंग्रेज़ों की ईस्ट इंडिया कंपनी का वर्चस्व स्थापित हुआ । तब बंगाल के जमींदार वर्ग की ज़रूरत थी कि वह मुग़ल दरबार के बजाय अंग्रेज़ों की नई सत्ता की छाया प्राप्त करें । अंग्रेज़ों के सामने अपनी सामाजिक शक्ति के वैभव का प्रदर्शन करें । 

तभी बारह ज़मींदार मित्रों ने मिल कर दुर्गा पूजा के एक भव्य उत्सव के आयोजन की परंपरा शुरू  की । इसीलिए दुर्गा पूजा का मूल नाम भी बारो-यारी पूजा था । कोलकाता शहर की राजबाड़ियों, शोभाबाज़ार राजबाड़ी, रानी रासमणि के परिवार में इसका आयोजन होने लगा । और इन आयोजनों में बड़े ताम-झाम के साथ अंग्रेज़ अधिकारियों और स्थानीय समाज दोनों को बुलाया जाने लगा । क्रमशः कोलकाता में यह पूजा एक प्रकार के सामाजिक दरबार का रूप लेती चली गई । बड़े-बड़े भोज आयोजित होने लगे जिसमें शहर के गणमान्य लोगों के साथ ही यूरोपीय अतिथियों को बड़े आदर से आमंत्रित किया जाता था । 


तभी से थियेटर, नृत्य, नौटंकी जैसी कलाओं का प्रदर्शन भी इस उत्सव से अभिन्न रूप में जुड़ गया। जमींदार अपनी धन-संपत्ति और भक्ति-भाव का इसमें खुल कर प्रदर्शन करते और खूब ख़र्च किया करते थे । इस सांस्कृतिक-धार्मिक वैभव और अपनी सामाजिक हैसियत के प्रदर्शन से वे अंग्रेज़ों के साथ निकटता बनाया करते । अंग्रेज़ अधिकारियों को बड़ी-बड़ी डालियां भेजी जाने लगी। 


और, अंग्रेज़ अधिकारियों के लिए दुर्गा पूजा का उत्सव स्थानीय कुलीन तबकों से जुड़ने का एक महत्वपूर्ण अवसर होता था। वे इन उत्सवों में भारी उत्साह से शामिल होते । इस प्रकार, दुर्गापूजा के मंच पर एक तरह की सांस्कृतिक कूटनीति भी चला करती थी। अंग्रेज़ इन आयोजनों में हर प्रकार का प्रशासनिक सहयोग भी दिया करते थे ताकि ज़मींदारों का उन्हें सहयोग और समर्थन मिलता रहे । 


इस प्रकार, बंगाल में दुर्गोत्सव का विकास शुरू से धर्म से अधिक राजनीतिक-सामाजिक संवाद के मंच के रूप में ही हुआ है। यह महाराष्ट्र में बाल गंगाधर तिलक के आह्वान पर शुरू हुए गणपति- उत्सव के ‘राष्ट्रवाद’ के बिल्कुल विपरीत रहा है। 


जहां तक आम जनता का सवाल है, उसके लिए जमींदारों की यह पूजा भक्ति और मनोरंजन दोनों का केंद्र हुआ करती थी । पर इस उत्सव का एक वर्गीय चरित्र बिल्कुल साफ था । पूजा का वैभव ऐसा था जिसे सामान्य लोग केवल दूर से ही देख सकते थे। रवीन्द्रनाथ की ठाकुरबाड़ी में देवेन्द्रनाथ ठाकुर के बाद से दुर्गा पूजा का आयोजन बंद हो गया था क्योंकि उनके ब्रह्मो समाज में उसकी मान्यता नहीं थी । उनके पहले द्वारकानाथ ठाकुर के काल तक जोड़ासांको की दुर्गापूजा सांस्कृतिक भव्यता के कारण ही शहर में आकर्षण का सबसे बड़ा केंद्र हुआ करती थी । रवीन्द्रनाथ के रचनाओं में शरद्-उत्सव के रूप में इसके सांस्कृतिक पहलू की गूँज मिलती है।  


काफी बाद के दिनों में, खास तौर पर आज़ादी के बाद से “बारो-यारी” पूजा ने “सार्वजनिक पूजा” का रूप ले लिया, जिसमें जनता स्वयं ही ऐसे सार्वजनिक उत्सव का आयोजक बनने लगी, इसमें लोकतांत्रिक भागीदारी बढ़ती चली गई । पर मज़े की बात यह है कि धार्मिकता के अतिरिक्त इसके साथ शुरू से ही सांस्कृतिक और कलात्मक वैभव का जो पहलू जुड़ गया था, वह न सिर्फ आगे भी बना रहा, बल्कि अब तो उसमें आश्चर्यजनक रूप से एक विस्फोटक विस्तार दिखाई देने लगा है । बंगाल की दुर्गा पूजा जितना धार्मिक उत्सव नहीं बची है, उससे कहीं ज्यादा बंगालियों के राष्ट्रीय उत्सव का रूप ले चुकी है । इसे आम तौर पर शारदोत्सव के रूप में ही ज्यादा जाना जाता है । 


इन दिनों तो दुर्गा पूजा के अभूतपूर्व कलात्मक स्वरूप के विकास और इसमें बढ़ती हुई जनता की भागीदारी ने इसे संयुक्त राष्ट्र के वर्ल्ड हेरिटेज के रूप में मान्यता दिला दी है। 


हम लोग, जो बचपन से ही इस उत्सव के वैभव के साक्षी रहे हैं, हमें भी इसके वर्तमान रूप से भारी विस्मय होता है । इसकी तुलना ब्राज़ील के कार्निवाल आदि से होने लगी है । यहां भी अब क्रमशः डिजिटल युग की छाया दिखाई देने लगी है।  


पंडालों में उमड़ती भीड़ को देखते हुए हम तो इस उम्र में आज घूम-घूम कर उन्हें देखने का सोच भी नहीं सकते । यू ट्यूब के चैनलों से सब पता चल जाता है । पर हमारे बेटे के आवासन कम्प्लेक्स के आयोजन में हम जरूर शामिल हुए। 


यहां हम उसकी चंद तस्वीरें मित्रों से साझा कर रहे है । इसमें शामिल किए गए वीडियो के अंश में महाभारत के प्रारंभ के शांतनु-गंगा संवाद का वह अंश है जिसमें गंगा अपनी आठवीं संतान को शांतनु को सौंप देती है।

मंगलवार, 4 नवंबर 2025

सार्वभौमिक ठोस अपवाद (Universal Concrete Exceptions (UCE)


-अरुण माहेश्वरी 





हमने अपनी जापान यात्रा के वृत्तांत की अंतिम किस्त में अनायास ही ऐलान बाद्यू की पुस्तक Immanence of Truths में आई एक विशेष अवधारणा Universal Concrete Exception (UCE) का उल्लेख किया कि जो कुछ अनदेखा रह गया वह भी हमारे ज़ेहन में होने के कारण अदेखा नहीं कहलायेगा । हर सत्य एक सार्वभौम ठोस अपवाद की तरह खास परिस्थितियों से पैदा होकर भी सार्वभौमिक होता है । 


अनायास ही UCE के अपने इस  प्रयोग के बाद ही हमें यह ज़रूरी लगा कि बाद्यू की इस बहुआयामी गहन अवधारणा को दर्शनशास्त्रीय मीमांसा के स्तर पर व्याख्यायित करना उचित लगा । । 


दरअसल, ऐलेन बाद्यू की संपूर्ण दार्शनिक मीमांसा का प्रमुख लक्ष्य यह रहा है कि सत्य की अवधारणा को किसी भी पारलौकिक सत्ता (transcendence) से मुक्त किया जाए और उसे वस्तु मे अन्तर्निहित (immanent) रूप में, संसार के भीतर ही घटित होने वाली घटना के रूप में समझा जाए। 


सत्य किसी परमशिव या ब्रह्म की तरह की कोई ईश्वरप्रदत्त या पूर्वनिर्धारित वस्तु नहीं, बल्कि एक स्थानीयनिर्माण (local construction) है । वह हमेशा किसी विशेष भुवन (world) में एक घटना (event) के रूप में उत्पन्न होता है, पर उसका स्वरूप सार्वभौमिक (universal) और सनातन (eternal) होता है।


यहीं से उनके UCE अर्थात् सार्वभौमिक ठोस अपवादों का विचार जन्म लेता है। सत्य सामान्य नियम नहीं, अपवाद के रूप में आता है, ऐसा अपवाद जो सार्वभौमिकता को स्पर्श करता है । यह ऐसी ठोस सार्वभौमिकता जो विशेष घटना में मूर्त होती है।


इस प्रकार, UCE एक ऐसा अपवाद है जो किसी सार्वभौमिक सत्य का ठोस रूप धारण करता है। यह सार्वभौमिक है क्योंकि वह किसी विशेष व्यक्ति, वर्ग या संस्कृति से परे जाकर सभी के लिए सत्य के क्षेत्र को उद्घाटित करता है।


यह ठोस है क्योंकि यह अमूर्त नहीं, बल्कि किसी ठोस घटना, स्थिति या रचना में घटित होता है।


यह अपवाद है क्योंकि यह कोई दोहराव नहीं, यह सामान्य नियमों, प्रचलनों या विचार-व्यवस्थाओं से बाहर होता है । वह किसी भुवन में जो असंभव प्रतीत होता है उसकी ही सम्भावना को जन्म देता है। 


जैसा कि हम राजनीति के किसी भी सच्चे विद्यार्थी के लिए कहते हैं कि उसके लिए हर परिस्थिति एक नई परिस्थिति होती है । असंभव शब्द राजनीति के शब्दकोश में नहीं होता । उससे तात्पर्य इसी ‘सार्वभौमिक ठोस अपवाद’ की ओर इंगित करना ही होता है। 


बाद्यू गणित में कैंटर की transfinite set theory, राजनीति में फ्रांसीसी क्रांति, या कला में मलार्मे कीकविता, सब को UCE मानते हैं । ये अपने-अपने क्षेत्र की ऐसी सत्य-घटनाएं हैं जो अस्थायी नहीं, बल्कि सार्वभौमिक प्रभाव रखती हैं।


गाँधी का अहिंसक सत्याग्रह, एक समय में ब्रिटिश साम्राज्य के लिए एक 'अपवाद' था, लेकिन उसने स्वतंत्रता संग्राम का एक सार्वभौमिक हथियार बना दिया। इसी तरह, पिकासो की 'गर्निका' एक ठोस चित्र है जो युद्ध की विभीषिका का सार्वभौमिक प्रतीक बन गई।


दर्शन की पारंपरिक दुनिया में कान्ट के अनुसार सत्य या तो केवल एक प्रमातृक निर्णय के स्वरूप (subjective forms of judgment) होते हैं, अथवा किसी पारलौकिक सत्ता से संबद्ध  होते हैं । 


बाद्यू अपनी मीमांसा से इसी बात से इंकार करते हैं। उनके लिए सत्य न तो केवल प्रमाता की चेतना में सीमित है, न ही किसी पारलौकिक ईश्वर या परमसत्ता में स्थित। वह घटना के रूप में संसार के भीतर ही उत्पन्न होता है, पर उसका प्रभाव सार्वभौमिक होता है । अर्थात् वह ठोस अपवादों के रूप में सत्य के नए क्षितिज का उद्घाटन करता है।


इस प्रकार, बाद्यू का लक्ष्य दोमुखी  है । वे एक साथ सत्य संबंधी चिंतन में दो प्रकार की प्रवृत्तियों के विरुद्ध अपने को साधते हैं । 


पहली प्रवृत्ति धार्मिक तत्त्व मीमांसा (Onto-theological orientation)  की हैं जिसमें सत्य को ईश्वर या अद्वैत अनन्त (One-infinity) के अन्तर्गत देखा जाता है। लेकिन बाद्यू कैंटर की परंपरा में ‘multiple without one’ (अद्वैत-विहीन बहुलता) का सिद्धांत देते हैं जिसमें वास्तविकता हमेशा अनेकता के समुच्चय के रूप में होती है, उसका कोई एक सार या केंद्र नहीं होता ।


दूसरी प्रवृत्ति सापेक्षतावाद (Relativism) की है । इसमें अनेकता को इतना सापेक्ष बना दिया जाता है कि सत्य के किसी सार्वभौमिक अर्थ की गुंजाइश ही नहीं बचती । बाद्यू इस अति-सापेक्षवाद को तथाकथित ‘ज्ञान का लोकतंत्रीकरण’ (democratism of knowledge) कहते हैं । इसमें सब बराबर मान लिए जाने के कारण सब ही निरर्थक हो जाते हैं ।


बाद्यू की UCE की अवधारणा इन दोनों अतियों के बीच से एक अलग मार्ग तैयार करती है । वह बिना किसी एकत्ववादी ईश्वर के, और बिना किसी सापेक्षवादी निरर्थकता के, सत्य की सार्वभौमिकता को संसार के भीतरसे पुनः प्रतिष्ठित करता है।


जैसे लकानियन आब्जेक्ट पेतित ए प्रमाता की अन्तर्निहित लालसा का प्रतीक है, न कि उसके बाहर के किसी उद्दीपन का । 


बाद्यू के लिए UCE वह बिंदु है जहाँ असीम (infinite) और स्थानीय (finite) का संयोग होता है, जहाँ सत्य किसी भुवन में घटित होता है, पर वहाँ से भुवन की सीमाओं को पार कर जाता है।


इस प्रकार, सत्य हर घटना में अन्तर्निहित अपवाद की तरह होता है । यह किसी नियम का उल्लंघन नहीं, बल्कि नियम की पुनर्रचना का बिंदु है । यह कोई पारलौकिक आदेश नहीं, एक ऐसी घटना है जो स्वयं में सार्वभौमिकता की ठोस संभावना बन जाती है।