(‘हस्तक्षेप’ में इसका शीर्षक है - ‘अग्निपुंज उनके विचार’ )
—अरुण माहेश्वरी
(आज के ‘राष्ट्रीय सहारा’ के ‘हस्तक्षेप’ का चार पृष्ठीय अंक कार्ल मार्क्स के जन्म के दो सौ साल की पूर्ति के अवसर पर मार्क्स पर केंद्रित अंक है । इस अंक की सामग्री को देखते हुए इसे आज के समय के संदर्भ में मार्क्स पर केंद्रित एक काफी महत्वपूर्ण और संग्रहणीय अंक कहा जा सकता है । इसमें जिन लोगों के लेखों को लिया गया है, उनके नाम है - डा. अमर्त्य सेन, प्रभात पटनायक, प्रकाश करात, रामचंद्र गुहा, इरफान हबीब, डी पी त्रिपाठी और अजय तिवारी । इनके साथ ही हमारा भी एक लेख शामिल है । इनके अलावा इसी मौके पर ‘इकोनोमिस्ट’ पत्रिका में प्रकाशित उस लेख का हिंदी अनुवाद भी इसमें प्रकाशित किया गया है जो इधर काफी चर्चित हुआ है । ‘इकोनोमिस्ट’ के उस लेख पर हम अपने ब्लाग ‘चतुर्दिक’ में पहले ही चर्चा कर चुके हैं ।
यहां हम अपने लेख को और इस पूरे अंक के लिंक को मित्रों से साझा कर रहे हैं )
लेनिन ने मार्क्स के बारे में अपने प्रसिद्ध निबंध 'मार्क्सवाद के तीन स्रोत तथा तीन संघटक तत्व' (1913) में लिखा था कि “मार्क्स की प्रतिभा इस बात में निहित है कि उन्होंने उन प्रश्नों के उत्तर उपलब्ध किये, जिन्हें मानवजाति के प्रमुखतम चिंतक पहले ही उठा चुके थे ।” और इसी क्रम में उन्होंने लगभग धर्मशास्त्र की भाषा का प्रयोग करते हुए लिखा कि “मार्क्स की शिक्षा सर्वशक्तिमान है, क्योंकि वह सत्य है ।”
अभी लेनिन के इस कथन के 105 साल बाद मार्क्स के जन्म के दो सौ साल पूर्ति के समारोह में चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने भी लेनिन की इसी बात को दोहराया कि 'मार्क्सवाद सर्वशक्तिमान है क्योंकि वह सत्य है' ।
विश्व पूंजीवाद की सबसे प्रमुख पत्रिका 'इकोनोमिस्ट' ने इस मौके पर प्रसारित अपने एक लेख 'मार्क्स पर पुनर्विचार : दूसरी बार, प्रहसन' में मार्क्स की विफलताओं का आख्यान लिखने के बावजूद उसे डावोस का, जहां हर साल दुनिया के पूंजीपतियों और अर्थशास्त्रियों का जमावड़ा हुआ करता है, मसीहा बताया है । उदार जनतंत्रवादियों को 'इकोनोमिस्ट' ने चेतावनी दी है कि मार्क्स ने पूंजीवाद के जिन दोषों को बताया था उन्हें समझ कर तुम सुधरो, अन्यथा मार्क्स अपने विचारों के साथ, वो कितने ही फालतू और खतरनाक क्यों न हो, तुम्हें अपदस्थ करने के लिये हमेशा मौजूद है । अर्थात 'इकोनोमिस्ट' ने भी मार्क्स की तमाम विफलताओं का ब्यौरा देने के बावजूद प्रकारांतर से उनकी इस जगत की परिघटना में सार्वलौकिक उपस्थिति को एक सत्य माना है ।
अल्लामा इकबाल की बीसवीं सदी के प्रथमार्द्ध की प्रसिद्ध शायरी है - ‘इबलीस की मजलिस-ए-शुरा’ ( शैतान के परामर्श-मंडल की बैठक)। इसमें शैतान को उसका एक सलाहकार (तीसरा मुशीर) प्रसंगवश कहता है -
‘‘रूह-ए-सुल्तानी राहे बाकी तो फिर क्या इज्राब
है मगर क्या उस यहूदी की शरारत का जवाब ?’’
(साम्राज्य का गौरव यदि बाकी रहा तो फिर डर किस बात का, लेकिन उस यहूदी की शरारत का क्या जवाब है?)
उस यहूदी का आगे और हुलिया बताता है कि -
‘‘वो कलीम बे-तजल्ली, वो मसीह बे-सलीब
नीस्त पैगंबर व लेकिन दर बगल दारद किताब’’
(वह प्रकाशहीन आप्त कथन, वह बिना सलीब का मसीहा, नहीं है पैगंबर वह पर उसकी बगल में उसकी किताब है)
इकबाल की शैतानों की मजलिस में जिस खुदा के बिना नूर के ही कलमा कहने वाले, बिना सलीब के मसीहा और पैगंबर न होने पर भी बगल में एक किताब दबाए यहूदी पर चिंता जाहिर की जा रही थी, वह कोई और नहीं कार्ल मार्क्स ही था। वही मार्क्स, जिसकी प्रेरणा से कभी इकबाल ने ही लिखा था -
‘‘जिस खेत से दहकाँ को मयस्सर नहीं रोजी
उस खेत के हर खोशा-ए-गंदुम को जला दो’’ ।
इसीलिये जब आज कोई मार्क्स की विफलताओं का जिक्र करता है कि वे फलाना बात को नहीं देख पाएं, फलाना चीज को नहीं समझ पाएं, उनके विचारों के आधार पर तैयार हुई समाजवादी सरकारें पूरी तरह से बेकार साबित हुई, यहां तक कि उनके अनुयायियों के राज्यों ने ही गैर-समानतापूर्ण समाज के विकास का, पूंजीवाद का रास्ता पकड़ लिया आदि, आदि तो इस पर सबसे पहला सवाल यही उठाया जाना चाहिए कि किसी भी विचार की सफलता या विफलता से आपका तात्पर्य क्या है ? संसदीय जनतंत्र की तमाम विफलताओं के बावजूद उसी रास्ते पर सदियों तक ज्यादा से ज्यादा प्रयोग करने की अनुमति दी जा सकती है, लेकिन कम्युनिस्ट विचारों के समाजवादी प्रकल्पों की विफलता का मतलब है कि अब उन विचारों पर अमल की कोई कल्पना करना भी अपराध है ! यह एक प्रकार की रूढ़ि नहीं तो और क्या है ? जो चल रहा है, उससे इतर सोचना सबसे बड़ा गुनाह है ! अर्थात अच्छाई का अपना कोई स्वायत्त सत्य नहीं होता, वह महज किसी बुराई के खिलाफ एक लड़ाई होती है ! इसीलिये रूढ़िवाद मार्क्सवाद को खारिज करके विचारों के क्षितिज के ही बाहर कर देने की जिद में हैं, न कि मार्क्सवाद के निरंतर सामाजिक प्रयोगों की निष्ठा में ।
कौन नहीं जानता कि गणित के न जाने कितने प्रमेय बिना किसी सटीक सिद्धांत (उपपत्ति) पर पहुंचे ही सदियों तक गणितज्ञों को प्रेरित करते रहते हैं और साल-दर-साल के निरंतर प्रयत्नों के बाद ही उनकी कोई त्रुटिहीन उपपत्ति मिल पाती है । लेकिन इसके चलते कभी भी उन प्रमेयों को बिना प्रयत्नों के त्याग नहीं दिया जाता है । उसी प्रकार राजनीति और मानव के समाज-विज्ञान के क्षेत्र में भी मानव मुक्ति के किसी भी प्रमेय को त्याग देने में कोई बहादुरी नहीं है । इसके विपरीत इन प्रयत्नों में विफलताओं की शिक्षाओं और उनके तात्पर्यों की प्रक्रिया में ही मानव प्रगति के प्राण बसते हैं । कम्युनिस्ट विचारक एलेन बाद्यू ने अपनी पुस्तक 'कम्युनिस्ट परिकल्पना' में सही कहा है कि “यदि किसी भी परिकल्पना को त्याग नहीं दिया गया है तो उसकी विफलताएं ही उस परिकल्पना के सत्य का इतिहास कहलाती है ।”
कम्युनिस्ट परिकल्पना के बारे में बाद्यू कहते हैं कि व्यवहारिक राजनीति में विचार के सत्य के साथ ही संगठनों और कामों का महत्व होता है । सिर्फ कुछ नामों, मार्क्स, लेनिन, माओ के जाप या क्रांति, समाजवाद, सर्वहारा आदि की बड़ी-बड़ी बातों और जनवादी केंद्रियता, सर्वहारा की तानाशाही की तरह के सिद्धांतों के बखान से कुछ हासिल नहीं होता है । उल्टे इन सबके अतिशय प्रयोग से ये राजनीति में और भी खोखले और महत्वहीन होते जाते हैं । इनमें से अधिकांश चीजें तो कोरे प्रचार के लिये, अपनी हवा बांधने भर के लिये भी होती है । दैनंदिन वास्तविक राजनीति में इन खास प्रकार की बातों की कोई स्वीकृति नहीं है । इनसे सिर्फ इतना पता चलता है कि इनसे जुड़े सत्य का काम जारी है । अन्यथा व्यवहारिक राजनीति के लिये इनका कोई मायने नहीं है ।
इसीलिये मार्क्सवाद के व्यवहारिक प्रयोगों के बारे में माओ त्से तुंग की इस बात का सबसे अधिक महत्व है कि 'साम्राज्यवादियों और प्रतिक्रियावादियों का एक ही तर्क हैं कि जीवन में परेशानी पैदा करो, विफल हो जाओ और फिर परेशानी पैदा करो । लेकिन मुक्तिकामी जनता का तर्क है कि लड़ो, विफल हो, फिर विफल हो, फिर लड़ो, जब तक विजयी नहीं हो जाते । मुक्ति हासिल नहीं कर लेते ।'
समाजवाद की विफलताओं को मार्क्स और मार्क्सवाद की विफलताओं के रूप में देखने के बजाय मार्क्स के द्वारा शोषणविहीन समाज के निर्माण की जो दिशा दिखाई गई, उस दिशा में यात्रा के इतिहास के चरणों के रूप में उन्हें लिया जाना चाहिए । धर्मशास्त्रीय शब्दावली में ही हम कह सकते है कि विमर्श की दृढ़ता ही पूजा है । परमेश्वराभेदप्रतिपत्तिदाढर्यसिद्धये पूजाक्रिया उदाहरणीकृता । कम्युनिस्ट राजनीति में निवेदित प्राण क्रिया और सारे कारको को एक समतावादी समाज की दिशा में देखने के भाव में ही रहने का अभ्यस्त होता है । कह सकते हैं कि उसके लिये कर्त्ता, कर्म, करण, अपादान, सम्प्रदान और अधिकरण आदि के भेद भेद नहीं रहते, अभेद हो जाते हैं ।
अगर मनुष्यता के इतिहास को उसकी मुक्ति के इतिहास की दिशा देनी है तो मार्क्सवाद ही उस पथ का सर्वशक्तिमान, सार्वलौकिक सत्य है । यह किसी खास सामाजिक परिवर्तन का निश्चित स्वरूप नहीं, उस परिवर्तन के नियम का सिद्धांत है । और इसीलिये, आज भी जब कहने के लिये दुनिया में पुराने प्रकार का एक भी समाजवादी राज्य नहीं रह गया है, मार्क्स की शिक्षाएं पूंजीवाद के तमाम झंडाबरदारों को हमेशा अपने पर लटक रही तलवार की तरह सताती रहती है ।
http://rashtriyasahara.com/mpaper.aspx?eddate=12-may-2018&edcode=17