(मंटो के जन्मदिन के अवसर पर एक विचार)
—अरुण माहेश्वरी
मंटो और राजकमल चौधरी, इन दो लेखकों की तुलना करना ही नितांत बेमाने है । जरा सोचिये, मंटो क्यों मंटो है, खास है, और राजकमल चौधरी क्यों एक समर्थ लेखक होकर भी ‘राजकमल चौधरी’, अर्थात् अन्यों से अलग नहीं है ?
मंटो फिल्म जगत के चरित्रों से जुड़े अपने संस्मरणों या ऐसे ही उच्च और मध्य वर्ग के लोगों की जिंदगी की कुंठाओं, उनकेचारित्रिक दोहरेपन और इनके जीवन की गलाजतों के चित्रण की वजह से मंटो नहीं है । मंटो है ‘काली सलवार’ की सुलतानाऔर खुदाबख्श और शंकर और मुख्तार के कारण, ‘धुआं’ के मसऊद और कुलसुम, ‘बूं’ के रणधीर और बिना नाम वाली घाटनके कारण, ‘खोल दो’ की सकीना और सिराजुद्दीन के कारण, ‘ठंडा गोश्त’ के ईशर सिंह और कुलवंत कौर के कारण ।
सोचिये, समाज के सबसे नीचे के स्तर के कौन से वर्गों से ये तमाम चरित्र आते हैं, मध्यवर्गीय लोगों के जीवन की तरह ही उनकेलेखन से भी पूरी तरह से बहिष्कृत, बेजुबान चरित्र और ये सब किस प्रकार के अकल्पनीय अस्तित्व के संकट में उनकी रचनाओंमें फंसे हुए दिखाई देते हैं । मंटो इनके जीवन की गलाजतों को इनकी महा-त्रासदियों के रूप में सामने लाते हैं, न कि उनमें डूबया उन्हें बेपर्द करके ही उनसे किसी प्रकार का रस लेते हैं । मंटो की लेखनी में लंपटगिरी का लेश मात्र नहीं मिलेगा ।
इसके विपरीत, राजकमल के चरित्र तो महानगरीय जीवन के उच्च वर्गीय और आम मध्य वर्गीय चरित्र होते हैं जिनकी कहानियोंसे ही हिंदी का पूरा कथा साहित्य पटा हुआ है । हिंदी कथा साहित्य पर थोड़ी सी नजर रखने वालों को ही राजकमल के लेखन मेंकोई विशिष्टता नहीं दिखाई देगी । यही तो व्यापक लेखक समुदाय का अपना वर्ग है, जिसमें वे खूब रमते हैं । हिंदी साहित्य मेंइन चरित्रों के तमाम रंगों को देखा जा सकता है । राजकमल भी, अन्य कई पारंगत कथाकारों की तरह एक अच्छे किस्सागो थे, उनके पास भाषा और मनोविज्ञान की एक तमीज थी, लेकिन यह उनकी जीवन-दृष्टि का दोष कहें या कुछ और , वे अपने चरित्रोंके जीवन की त्रासदियों के चितेरे नहीं, उनकी गलाजतों के उपभोक्ता रहे । ‘मछली मरी हुई’ हो या ‘ताश के पत्तों का शहर’, इनकेचरित्र कहां से लिये गये हैं ; ये किस मायने में विशिष्ट हैं ; और कौन से अब तक न देखे गये पक्षों को वे उठा रहे थे ?
राजकमल चौधरी की उच्छवसित वाहवाही करने की पहली शर्त है हिंदी और बांग्ला के कथा साहित्य से आपका अपरिचय ।राजकमल की जो बातें कुछ लोगों को ज्यादा ही आकर्षित कर रही हैं, उन मामलों में बांग्ला में सुनील गांगुली, शक्तिचटोपाध्याय और मलय रायचौधुरी आदि भूखी पीढ़ी के लेखक उनके बाप रहे हैं । राजकमल में उनके स्तर तक उतरने की हिम्मतही नहीं थी । और, इनमें से कोई भी मंटो नहीं था, ये सब मंटो से सिर्फ रश्क कर सकते थे । राजकमल ने बांग्ला से अनुवाद केलिये अपने ही स्तर के लेखक शंकर (मणिशंकर मुखर्जी) के ‘चौरंगी’ को चुना, जिसे बांग्ला में दोयम दर्जे का किस्सागो मानाजाता रहा है । साहित्य के किसी निकष पर उनके बारे में यहां चर्चा नहीं होती है ।
हिंदी में अगर किसी लेखक के पास मंटो की तरह का लेखन करने की सलाहियत थी तो हमारी नजर में एक ही है - इसराइल ।इसराइल ने जितना और दो भी लिखा, वह ऐसी जलता हुआ यथार्थ है जिसे उठाने की ताकत को अर्जित करने के लिये किसीमध्यवर्गीय या उच्चवर्गीय लेखक को कईं जन्म लेने पड़ते हैं । मंटो ने समाज की अतल अंधेरी गहराइयों में डूबे हुए चरित्रों परकैसे लिखा होगा, सोच कर भी सिहरन होती है । इसराइल साहब की कहानियों के बारे में भी सोचने पर कुछ ऐसा ही लगता है ।
बहरहाल, जिस समय राजकमल का ‘मछली मरी हुई’ प्रकाशित हुआ, साठ के मध्य का वह दशक बंगाल में मजदूर आंदोलनऔर जन-आंदोलनों के सबसे गौरवशाली दिनों का काल था । इसराइल की कहानियों में वर्णित मजदूर वर्ग के जीवन में भी उसकाल की धड़कनों को कुछ सुना जा सकता है । राजकमल को इन संघर्षों का बोध भी अपने आखिरी दिनों में ही हुआ था, जिसकी एक छाप ‘मुक्तिप्रसंग’ में मिलती है ।