बुधवार, 30 जनवरी 2019

कुंभ मेले को राजनीति का अखाड़ा बनाने वाले आस्थावान हिंदुओं के खिलाफ अक्षम्य अपराध कर रहे हैं

—अरुण माहेश्वरी


आरएसएस हिंदू धर्म को पूरी तरह से एक मजाक में तब्दील करने की मुहिम में लग गया है ।

कुंभ मेले में कल जगदगुरू स्वामी स्वरूपानंद के आह्वान पर एक परम धर्म संसद का आयोजन हुआ । धर्म संसद के साथ परम शब्द को जोड़ कर जगदगुरू ने मान लिया कि उनके द्वारा आहूत यह संसद अब परा-सत्य का, परमशिव का रूप ले चुकी है ! इसके आगे अब और कुछ नहीं होगा । उनकी यह संसद ब्रह्मांड की सभी संसदों का आदि-अन्त, अर्थात् टीवी चैनलों से प्रसारण पर आश्रित होने पर भी अपौरुषेय, अनंत वैदिक मान ली जायेगी । और उनकी इस परम संसद में विचार का मुद्दा क्या था ? हिंदुओं के इष्ट श्री राम के लिये मंदिर बनाने का मुद्दा — एक ऐसा मुद्दा जिसे आरएसएस वालों ने पिछले अढ़ाई दशक से भी ज्यादा समय से एक शुद्ध राजनीतिक मुद्दे में बदल कर भाजपा के लिये राजनीतिक लाभ की खूब फसल काटी है । अर्थात परम धर्म संसद किसी पारमार्थिक विषय पर नहीं, एक ऐसे विषय पर हो रही है जिसने इस चौथाई सदी में एक शुद्ध राजनीतिक रूप ले लिया है । इस विषय से जुड़े आस्था और विश्वास की तरह के पवित्र माने जाने वाले परातात्विक विषय हिंसा और नफरत की तरह की तरह के भेद-प्रधान वासनाओं के विषय में परिवर्तित हो चुके हैं ।

जगदगुरू के 'परम संसद' के विपरीत, दूसरी ओर आरएसएस के विश्व हिंदू परिषद ने भी आज कुंभ में इसी विषय पर एक और 'धर्म संसद' का आह्वान किया है । विहिप और संघ परिवार, ये पूरी तरह से किसी राजनीतिक मंडल के अतिरिक्त और कुछ नहीं है, जिसका उद्देश्य हिंदू धर्म की संस्थाओं पर आरएसएस के पूर्ण राजनीतिक वर्चस्व को स्थापित करना है । जो भी विहिप के इतिहास से जरा सा भी परिचित है, वह जानता है कि आरएसएस के गुरू गोलवलकर ने इस संगठन की पूरी परिकल्पना ही हिंदू धार्मिक संस्थाओं को संघ के नियंत्रण में लाकर एक डंडे से उन्हें हांकने के लिये की थी । चूंकि उनके इस काम में शंकराचार्यों की तरह की सर्वोच्च और हिंदुओं के बीच सर्वाधिक मान्यता-प्राप्त पीठ पहाड़-समान बाधाएँ रहीं हैं, इसीलिये आरएसएस शुरू से ही उन सभी शंकराचार्यों की पीठों का धुर विरोधी रहा है जो उसके नियंत्रण को नहीं स्वीकारते हैं और अपनी स्वतंत्रता के मूल्य को परम समझते हैं ।

आरएसएस विहिप के जरिये सनातन हिंदू धर्म को उसके अंदर से विकृत करने के अभियान में, उसके वैविध्यमय स्वरूप को नष्ट करके उसे अन्य पैगंबरी धर्म में तब्दील करने के घिनौने हिंदू धर्म विरोधी काम में लगा हुआ है और इसके लिये वह अपनी राजनीतिक और धन की शक्ति का भरपूर इस्तेमाल करता है । हिंदू धर्म में संघ परिवार की आज तक की भूमिका उसके अन्दर के वैविध्य के सौन्दर्य को नष्ट करके राजनीतिक उग्रवाद की जमीन तैयार करने में उसके प्रयोग की रही है ।

सबसे दुख की बात है कि सनातन हिंदू धर्म के अपने सौन्दर्य को नष्ट करने के उपक्रम में संघ परिवार ने कुंभ मेले की तरह के भारत के हजारों-हजारों साल के विशाल महोत्सव को भी पूरी तरह से राजनीति के अखाड़े और साजिशों के अड्डे का रूप देना शुरू कर दिया है ।

कुंभ मेला कोई खेल या क्रीड़ा नहीं है जिसमें एक दल पराजित होता है और दूसरा विजयी । यह जन-जन का एक विशाल समागम है । यह भारतवासियों का एक महा-उत्सव है और सनातन धर्म के प्रचारकों का सबसे बड़ा कर्मकांड । खेल या क्रीड़ाओं की भूमिका जय-पराजय के सिद्धांतों पर आधारित होने के कारण कहीं न कहीं प्रतिद्वंद्वितामूलक और एक प्रकार से विभाजनकारी भी होती है । आधुनिक काल में इसके अंतरनिहित विभाजन के तत्व पर कथित खेल-भावना की मरहम लगा कर उसके गलत प्रभाव से बचने की एक सामान्य नैतिकता का विकास किया गया है । लेकिन कोई भी उत्सव या कर्मकांड कभी भी विभाजनकारी नहीं हो सकता है । उसकी तात्विकता में ही मिलन के अतिरिक्त और कुछ नहीं होता है । कुंभ मेला की परिकल्पना आदि शंकराचार्य ने इस विशाल भारत वर्ष के महामिलन के रूप में, यहां के वैविध्यमय रूप के महाविलय के उत्सव के रूप में की थी । यह सबके मिलन और भारतवर्ष की एकता का उत्सव है ।

आरएसएस और संघ परिवार ने इस महान मिलन के पर्व को ही कलुषित करने, इसके जरिये समाज में मेल के बजाय हिंदुओं पर अपने राजनीतिक प्रभुत्व को कायम करने के उद्देश्य से उनके बीच ही आपसी वैमनष्य के बीज बोने का घिनौना कृत्य शुरू कर दिया है । दुनिया जानती है कि मोदी और आरएसएस 2019 में अपनी डूबती नैया को पार लगाने के लिये अयोध्या में राममंदिर के विवादित मुद्दे से लाभ उठाने की हर संभव कोशिश में लगी हुई है । इसी क्रम में वे इस बार के प्रयाग के कुंभ मेले का भी नग्न रूप में इसी उद्देश्य से इस्तेमाल करना चाहते हैं । इस उपक्रम में वे न सिर्फ हिंदू धर्म और कुंभ मेले को ही एक मजाक बना दे रहे हैं, बल्कि भारत के संविधान को भी खुली चुनौती दे कर आधुनिक भारत की एकता और अखंडता की मूल जमीन पर आघात कर रहे हैं ।

कुंभ मेले में अभी आरएसएस ने धर्म के नाम पर राजनीतिक प्रतिस्पर्धा का जो अभियान शुरू किया है, वह सचमुच भारतीय चित्त और हिंदू आस्था के खिलाफ उनका एक ऐसा अपराध है जिसके लिये किसी भी आस्थावान हिंदू को उन्हें कभी क्षमा नहीं करना चाहिए । उनकी ये सारी करतूतें राष्ट्र-विरोधी करतूतें भी है । कुंभ मेला भारतवासियों के लिये कोई मजाक का विषय नहीं है ।               

रविवार, 27 जनवरी 2019

प्रियंका इस चुनाव में फेल नहीं हो सकती है


—अरुण माहेश्वरी


प्रियंका इस चुनाव में फेल नहीं हो सकती है
—अरुण माहेश्वरी
आज के समय में प्रियंका गांधी के राजनीति में आने के बारे में जितना सोचता हूं, बार-बार एक ही नतीजे पर पहुंचता हूं कि वह इस चुनाव में फेल नहीं हो सकती है ।

प्रियंका का ताजगी से भरा रूप-रंग, जनता से सीधे संपर्क स्थापित करने की उनकी सामर्थ्य, गांधी परिवार की विशाल विरासत और सर्वोपरि किसिम-किसिम के नेताजनों के थके हुए बोदे और बदनाम चेहरों से बना हुआ ऊबाऊ और मटमैला सामान्य राजनीतिक परिप्रेक्ष्य । प्रियंका की निश्चित सफलता की पटकथा के लिये इतनी सामग्री काफी लगती है ।

आदमी का मानस काफी हद तक उसके परिवेश के जीवंत दृश्यों से ही बनता है । उसका निजी परिवेश भी सामान्य परिदृश्य के प्रभाव से लगातार बनने-बिगड़ने की प्रक्रिया में रहता है । वह नैसर्गिक तौर पर सिर्फ अपने प्रकृत परिवेश में नहीं जीता है, बल्कि बार-बार इसका अतिक्रमण करता है । अन्यथा हम वास्तुकला, चित्रकला, फिल्म, फैशन की बदलती हुई शैलियों में और उनसे अपने जीवन को नाना रूपों में बनते-बिगड़ते हुए नहीं देखते । वर्ग, वर्ण, संप्रदाय के साथ आदमी के संबंधों का विषय भी इससे परे नहीं है । परिवेश के दृश्यों की बुनावट में लिखित और मौखिक शब्दों की निर्मितियों, वैचारिक-सांस्कृतिक तंतुओं  की एक बड़ी भूमिका होने पर भी भारत की तरह के निराश्रयी अशिक्षितों की बड़ी आबादी पर दृश्य मीडिया का तात्कालिक असर सबसे अधिक निर्णायक होता है । इस दृश्य में दाखिल होने की जद्दोजहद के बीच से ही आदमी अपने मत के बारे में एक निर्णय पर पहुंचता है । इसमें किसी नये और आश्वस्तिदायक बलशाली व्यक्तित्व की क्या भूमिका हो सकती है, इसे समझना ज्यादा कठिन नहीं है । विज्ञापनों में जिस प्रकार खूबसूरत और प्रभावशाली अभिनेता मॉडल को अचूक माना जाता है, वही तर्क राजनीति के सामयिक परिदृश्य पर भी लागू होता है ।

भारत का न्यूज मीडिया जो राजनीतिक विमर्शों को सबसे अधिक प्रभावित करता है, उसका राजनीतिक दलों के संदेश के वाहक के रूप में खुद का एक व्यापारिक मॉडल है, जिसकी सफलता को टीआरपी के जरिये मापा जाता है । न्यूज चैनल भी राजनीति के मटमैले थके हुए बेनूर चेहरों से बनने वाले दृश्यों को प्रतिबिंबित करते-करते खुद भी अक्सर बेजान से दिखाई देने लगते हैं । राजनीति की जड़ता उन्हें भी जड़ बना देती है । ऊपर से जब ढंग से दो बात न कह पाने वाले अपराधी चेहरे उन पर किसी भी वजह से बलात् लदते चले जाते हैं तब तो चैनलों की कूबड़ ही निकल आती है । अमित शाह जब बोल रहे होते हैं, कितने लोग उस चैनल को देखना तक पसंद करते होंगे !  मोदी का हमेशा लकदक, साफा बांध कर रंग-बिरंगी जैकटों में सजे हुए छैल-छबीले के रूप में मीडिया के सामने आना अनायास नहीं है ।

लेकिन अभी की स्थिति में मोदी की मुसीबत बन गये है उन्हें सीधे ललकारने वाले नौजवान राहुल गांधी । इस दौरान वे जन-संप्रेषण के मामले में अपनी प्रारंभिक कमियों से भी पूरी तरह उभर चुके हैं । राहुल की जुझारू तस्वीर की तुलना में मोदी छीट के रंगीन छापेदार कपड़ों में इतराते, बातूनी बुढ़ापे की तरह की वितृष्णा पैदा करने लगे हैं । उनकी छवि क्रमश: तमाम प्रकार के फर्जीवाड़ों, भ्रष्टाचारों और सत्ता के नग्न दुरुपयोग के कीचड़ से और गदली होती जा रही है । झूठ उनकी खास पहचान बन गया है । उनकी उपस्थिति का आकर्षण लगभग लुप्त हो चुका है, यह उनके तेजी से गिरते राजनीतिक ग्राफ से भी जाहिर है ।

ऐसी स्थिति में मीडिया पैसों के लोभ में जितना भी मोदी-शाह की तस्वीरों को क्यों न टांगे रहे, किसी भी चैनल पर इन चेहरों की उपस्थिति की अतिशयता उन चैनलों के प्रति दर्शकों में विकर्षण का एक बड़ा कारण बनेगी। दर्शक गंवा कर, अर्थात् टीआरपी गिरा कर कोई भी चैनल अपने व्यापार मॉडल को स्थायी तौर बिगाड़ने का जोखिम नहीं लेना चाहेगा । जिन चैनलों को लोग देखना पसंद नहीं करेंगे, वे मोदी-शाह से लदे होने पर भी उनकी सेवा नहीं कर पायेंगे । अंतत: मोदी-शाह भी उनसे चूस लिये गये गन्ने के छुतकों से अच्छा व्यवहार नहीं करेंगे ।

चैनलों पर जगह घेरने के लिये मोदी विपक्ष के नेताओं के घरों में छापामारी और सरकारी जांच एजेंशियों की बेजा अश्लील हरकतों का प्रयोग करेंगे, जैसा कि उन्होंने करना शुरू भी कर दिया है । लेकिन इस प्रकार की सारी अश्लीलताएं उनके पहले से चमक खो चुके चेहरे को और अधिक दूषित करने के अलावा दूसरी कोई भूमिका अदा नहीं करेगी । चैनलों के लिये उनकी काली पड़ती सूरत के बोझ को लाद कर चलना भी कठिन होता जायेगा । देखते-देखते राजनीतिक छापामारियों की घटनाएं चैनलों की न्यूज स्ट्रिप में बदलने लगेगी । राहुल-प्रियंका जोड़ी का आकर्षण उसी अनुपात में बढ़ता चला जायेगा ।

जर्मन दार्शनिक हाइडेगर का इस ज्ञात और दृष्ट जगत, जिसे वे जर्मन भाषा में डेसिन कहते हैं, के बारे में प्रसिद्ध कथन है कि यह दृष्ट ही तत्वमीमांसा की संभावना है । सारे विवेचन दृष्ट की तत्वमीमांसक संभावनाएं हैं । (All research is an ontical possibility of Dasein) । किसी भी द्वंद्वात्मक अंतर्निहित प्रक्रिया का प्रकट रूप दृष्ट है । अर्थात दृष्ट से ही अंतर के तात्विक सत्य की थाह पाई जा सकती है ।

इसीलिये, जब प्रचार अभियान की तेजी के साथ पूरे राजनीतिक परिदृश्य में जो नई उत्तेजना और जो नये नजारे सामने आयेंगे, उनमें प्रियंका गांधी की निश्चित उपस्थिति के दृश्य से पैदा होने वाली परिघटना को देखना महत्वपूर्ण हो जाता है । प्रियंका परिघटना । यह परिघटना सिर्फ मोदी को ही अपसारित करेगी, यह सोचना भी एक बड़ी भूल होगी । इसका असर अब तक के स्थापित हर दल पर पड़ेगा । मायावती और अखिलेश की तरह के दलितों और पिछड़ों के मतों पर एकाधिकार के दावेदारों पर भी ।

विचारधारात्मक जुनून अक्सर आदमी को सतह पर दिखाई देने वाले दृश्यों के प्रति अंधा बना देता है । जो परिघटना हेमा मालिनी, धर्मेन्द्र आदि की जीत को अपेक्षाकृत आसान बना देती है वही परिघटना कुछ हद तक गांधी परिवार की भाई-बहन की नौजवान जोड़ी की भूमिका में दिखाई देगी । ज्योति बसु के आकर्षक व्यक्तित्व ने जब धुर कम्युनिस्ट-विरोधियों तक को उन्हें प्रधानमंत्री मान लेने के लिये तैयार कर दिया था, तब विचारधारा से परे व्यक्तित्व के आकर्षण के पहलू से क्या कोई इंकार कर सकता है ?  बंगाल में कांग्रेस ने सीताराम को राज्य सभा में भेजने के प्रति अपनी सहमति किसी विचारधारात्मक रूझान के कारण नहीं दी थी । इसके अलावा मायावती और अखिलेश की पुरानी पड़ चुकी सूरतों से दलितों-पिछड़ों का चिपके रहना कोई ईश्वरीय अटल सत्य नहीं है,  इसे काफी हद तक 2014 में भी देखा जा चुका है । 




इसीलिये किसी भी जुनून या जिद में यदि मायावती-अखिलेश राहुल के साथ प्रियंका के उतरने से पैदा होने वाली नई परिस्थिति की अवहेलना करते हैं तो हमारे अनुसार ठोस चुनावी परिस्थिति का आकलन करने में वे एक बड़ी भारी भूल करेंगे । वे अपने सिवाय किसी और का कोई नुकसान नहीं करेंगे । संघी कूढ़मगज तो इसके शिकार बनेंगे ही । उन्होंने अभी से प्रियंका की तुलना रावण की बहन सूर्पनखा और हिरणकश्यप की बहन होलिका से करते हुए व्हाट्स अप मैसेज के जरिये अपनी रणनीति तय कर ली है । कुल मिला कर इतना जरूर कहा जा सकता है कि मायावती-अखिलेश का उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को बाहर रखने का फैसला गठबंधन के खिलाफ मोदी को सहारा तो देगा, लेकिन अब कुछ भी मोदी की सूरत को चमका नहीं पायेगा । न संघी गंदा प्रचार भी । अधिक से अधिक, चुनाव प्रचार के दौरान काफी दिनों तक बौद्धिकों के मन में परिस्थिति की द्रव्यता की तस्वीर जरूर बनी रहेगी । कुछ दिनों तक लोग मायावती और सपा के कैडरों की अपराजेय शक्ति का कीर्तन उसी प्रकार करेंगे जैसे वे मोदी-शाह के 'बूथ संगठन' का और आरएसएस के थोथे शौर्य और संजाल का करते रहे हैं । लेकिन कैडर की बाधा परिवर्तन के किसी भी मुकाम पर किस प्रकार महज बालूई दीवार साबित होती है, इसे हम राजनीति में बार-बार देखते हैं । हाल में मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ के चुनावों से बड़ा इसका दूसरा कोई प्रमाण क्या होगा । सभी जगह मायावती के कंक्रीट की दीवार माने जाने वाले मतों में भी गिरावट देखी गई है । आज के तकनीकि संपर्कों के युग में कांग्रेस की तरह के इतने पुराने शासक दल का सांगठनिक तानाबाना तैयार करना उतना भी कठिन काम नहीं है, जितना अक्सर बताया जाता है ।

हमें लगता है कि मोदी के चरम कुशासन, तुगलकीपन और दमन चक्र के बाद स्वाभाविक यही है कि भारत में एक कुशल, बुद्धिमान और उदार जनतांत्रिक शासन स्थापित हो । राहुल और प्रियंका की जोड़ी से कांग्रेस में लोगों का उस संभावना को देखना ही अधिक स्वाभाविक जान पड़ता है । इसीलिये हमें अभी के समय में प्रियंका का फेल होना संभव नहीं लगता है ।


गुरुवार, 24 जनवरी 2019

प्रियंका गांधी के जोश में अपने लक्ष्य का होश बनाये रखना जरूरी है


—अरुण माहेश्वरी


कांग्रेस की दैनन्दिन राजनीति में प्रियंका गांधी के आने के फैसले को भारत की राजनीति के वर्तमान परिदृश्य की एक बड़ी घटना के रूप में लिया जा रहा है । खास तौर पर उत्तर प्रदेश और उसके पूर्वांचल के संदर्भ में इसकी विशेष चर्चा हो रही है ।

यद्यपि राहुल गांधी ने इसे प्रस्तावित करते हुए इसे 2019 के चुनाव से जोड़ कर देखने के बजाय कांग्रेस दल के दूरगामी लक्ष्यों से जोड़ कर देखने की बात कही है । लेकिन मीडिया का अपना एजेंडा होता है, जिसमें ज्यादा दूर तक सोचने को तरजीह नहीं दी जाती है । इसीलिये राहुल की इस बात को ज्यादा महत्व नहीं दिया जा रहा है ।

जहां तक 2019 और उत्तर प्रदेश का सवाल है, इसका मामला तो उसी दिन तय हो गया था जिस दिन मायावती और अखिलेश ने महागठबंधन की घोषणा की थी । अब यदि किसी भी राजनीति का लक्ष्य मोदी की तानाशाही को पराजित करना है तो उसकी हरचंद कोशिश इस महगठबंधन को बल पहुंचाने की ही हो सकती है, इसे कमजोर करने की नहीं । राहुल ने भी प्रियंका और ज्योतिरादित्य की घोषणा करते हुए मायावती और अखिलेश के गठबंधन के प्रति अपने सम्मान के भाव को जाहिर किया है । लेकिन गठबंधन के तर्क हमेशा कुछ इस प्रकार के भी होते है जिसमें इस बात की आशंका बनी रहती है कि हर पार्टी उस पीछे वाली पार्टी पर दुलत्ती झाड़ती रहती है जो आगे वाली को पीछे से दबाती है, और इस उपक्रम में वह लड़खड़ा कर अजीबो-गरीब कलाबाजियां दिखाने के बाद मुंह के बल गिर पड़ती है ; लक्ष्य पीछे छूटता जाता है ।

हाल के सर्वेक्षण यह साफ बता रहे हैं कि मायावती और अखिलेश के साथ आने से उत्तर प्रदेश में मोदी-योगी का पतन तय हो चुका है और यदि उसमें कांग्रेस भी किसी प्रकार शामिल हो जाती है तो पूरे प्रदेश से भाजपा का पूर्ण सफाया हो जायेगा, जो आज कांग्रेस दल और दूसरे विपक्षी दलों का भी घोषित लक्ष्य है । प्रियंका के अतिरिक्त आकर्षण से निश्चित तौर पर यह काम और ज्यादा आसान होगा । फिर भी अपनी 'विचारधारा की श्रेष्ठता' को स्थापित करने का वह लोभ जिसका यथार्थ में कोई निश्चित स्वरूप नहीं होता है, बल्कि वह एक कल्पना ही होता है, लोगों में नींद में चलने का रोग पैदा कर सकता है और उनके हमेशा किसी न किसी खड्डे में गिर जाने का खतरा बना रहता है । राहुल गांधी की उत्तर प्रदेश में अपनी पूरी ताकत के साथ स्वतंत्र रूप में उतरने की घोषणा से ऐसे रोग के भी कुछ लक्षण दिखाई देते हैं । जैसे मायावती ने भी अखिलेश के साथ गठबंधन की घोषणा के वक्त भाजपा के साथ ही कांग्रेस को भी आड़े हाथों लेने का जो भाव जाहिर किया था, वह भी कुछ इसी प्रकार की अहम्मन्यता कहलायेगा ।


इसके अलावा, जो लोग भी प्रियंका के आने को लेकर 'परिवारवाद' की एक पिटी हुई बहस को उठाने की कोशिश कर रहे हैं, उनके बारे में मार्क्स की शैली में हम सिर्फ इतना कहेंगे कि यह 'परिवारवाद' वह रात है जिसमें हर बिल्ली सफेद होती है और जिसके हवाले से रात का संतरी अपनी घिसी पिटी प्रेतों की कहानी को बेधड़क दोहरा सकता है ।


बहरहाल, गनीमत यह है कि मोदी पार्टी बन चुकी भाजपा की तरह अभी विपक्ष में कोई भी दूसरी पार्टी अपने साधनों को उनकी तरह बढ़ा चढ़ा कर पेश नहीं करती है, और परिस्थिति के बारे में मोदी-शाह की तरह की गैर-संजीदगी के साथ अपने को धोखे में नहीं डालती है । 2019 के चुनाव से मोदी को अपनी वास्तविक स्थिति का ज्ञान हो जायेगा । चूंकि 2014 में विपक्ष के मतों में बटवारे के राजनीतिक गणित ने मोदी को पूर्ण बहुमत दे दिया तो इसे उन्होंने अपने कल्पित देवत्व के प्रति 125 करोड़ जनता का पूर्ण समर्पण मान लिया और अपना आपा खोकर जनतंत्र के काल में भी इस सपने में खो गये कि उनके चरणों पर झुके हुए ये दास जन उनके इशारे पर हमेशा मर-मिटने को तैयार रहेंगे ! अमित शाह हाल में जब देश भर से बटोर कर लाये गये भाजपा के लोगों से कह रहे थे कि 'अगर इस बार हम हार गये तो हम गुलाम बन जायेंगे', तब उनके लोगों में व्यापी हुई पथरीली चुप्पी यह बताने के लिये काफी थी कि साधारण लोग नेताओं के अपराध से जुड़े भय-बोध के बोझ को कभी अपने कंधों पर नहीं लादा करते हैं ।

2014 के पूर्ण बहुमत ने मोदी के अंदर से उनके संघी, हिटलरी तत्व को उभार दिया । राजसत्ता की दमनकारी शक्ति के एक झटके में उन्होंने भाजपा को मोदी पार्टी में तब्दील करके खुद को अकेला कर लिया । रातो-रात इतिहास पुरुष बनने के उन्माद में उन्होंने अजीबो-गरीब ढंग से भारतीय इतिहास के नेहरू, गांधी और बाकी सभी व्यक्तित्वों पर आघात करना शुरू कर दिया । क्रमश: वे अपनी पहचान अपने से बाहर स्थित कांग्रेस और अन्य दलों के बड़े-बड़े लोकप्रिय नेताओं में स्थिर करते चले गये । और बार-बार अपने को उनके जैसा न पाकर वे एक प्रकार के आत्म-प्रताड़क भय से ग्रस्त होते चले गये । जिस प्रकार से उन्होंने अन्य सभी दलों के बड़े-बड़े लोकप्रिय नेताओं की छवि को बिगाड़ने और उन्हें निजी तौर पर प्रताड़ित करना शुरू किया वह उनके इसी आत्म-प्रताड़क मनोरोग का परिणाम रहा है । पूर्ण बहुमत से सत्ता पर आसीन होने का अहंकार उनमें आत्ममुग्धता का, अपनी छवि में कैद हो जाने का रोग पैदा करता है और क्रमश: वही उनके व्यक्तित्व की कमियों को छिपाने का साधन बन जाता है । झूठ उनकी आदतों में शरीक होता चला गया ।

मोदी शायद भारत के पहले ऐसे शासक बने हैं जिन्होंने अपनी छवि के लिये सरकारी आंकड़ों तक से हेरा-फेरी करने से परहेज नहीं किया । सर्वज्ञता के दिखावे में उन्होंने सरकारी तंत्र से उपलब्ध मानव संसाधनों का भी सही ढंग प्रयोग नहीं किया जिसके परिणाम स्वरूप हमने फटी आंखों से नोटबंदी और जीएसटी की तरह के तुगलकी कदमों और राफेल की खरीद की तरह के नग्न भ्रष्टाचार को देखा । अर्थ-व्यवस्था पटरी से उतर गई और मोदी उसे आंकड़ों की हेरा-फेरी से सुधारने में लग गये ! बाजार में भारी मंदी ने बेरोजगारों की समस्या को अकल्पनीय विकराल रूप दे दिया और व्यापक किसान जनता के जीवन को दूभर बना कर छोड़ दिया ।

बहरहाल, आज अब जब 2019 के चुनाव में तीन महीने भी बाकी नहीं रहे हैं, चारों दिशाएं जैसे एक साथ मोदी शासन के अंत की ध्वनि-प्रतिध्वनि से गूंजने लगी है । कहा जा सकता है कि मोदी का भविष्य अब तक तय हो चुका है । मोदी की व्यक्तिगत स्थिति यह है कि उनकी उपस्थिति अब किसी में भी कोई सकारात्मक भाव पैदा नहीं करती है । और प्रथम दृष्टया जब हम किसी को नकारात्मक रूप में ग्रहण करते हैं तो हमें जितना भी उन पर सोचने के लिये मजबूर किया जायेगा, वह सोचना नकारात्मकता के अलावा किसी दूसरे रास्ता पर नहीं जाया करता है । मोदी आज सभाओं में जितना ज्यादा बोलते हैं, उतना ही उनकी फेंकू के रूप में बन गई छवि लोगों में मजबूत होती जाती है ।

जाहिर है कि इसी प्रकार के माहौल की गूंजों से राजनीति में नाना प्रकार के मतिभ्रमों की आशंका भी बनी रहती है । तब आदमी सीधे चलने के बजाय जो दृश्य में नहीं है, उसे ही खोजने के लिये इधर-उधर घूम-फिर कर चलने लगता है । 2019 के बाद मोदी की जगह प्रधानमंत्री कौन बनेगा, इस चीज को टटोलने की कोशिश कमोबेस उसी प्रकार के एक नकारात्मक मतिभ्रम के अलावा कुछ नहीं है । लेकिन जब भी आप किसी नेता से इसके बारे में सवाल करेंगे तो वह इसका सीधा जवाब देने के बजाय घुमा-फिरा कर विचारधारा और जनता और देश के हितों की बात कहने लगेगा ।

प्रियंका गांधी के मैदान में उतरने से कांग्रेस के कार्यकर्ताओं में एक नया जोश आयेगा और जनता के एक हिस्से में कांग्रेस के प्रति अतिरिक्त आकर्षण भी पैदा होगा, इसमें कोई शक नहीं है । लेकिन इस जोश में यदि कोई 2019 से जुड़े अपने राजनीतिक लक्ष्य के प्रति निष्ठा से डोल जाता है तो आज मोदी का भविष्य जिस प्रकार तय नजर आता है, वह छंद फिर से टूटता हुआ दिखाई दे सकता है । फासीवाद के विरुद्ध लड़ाई में इस प्रकार का भटकाव काफी महंगा साबित हो सकता है । इसे सभी राजनीतिक दलों के नेतृत्व को अच्छी तरह से समझ कर चलना चाहिए ।                         

मंगलवार, 15 जनवरी 2019

एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ : एक फालतू फिल्म

-अरुण माहेश्वरी


आजऐक्सिडेंटल प्राइममिनिस्टर फिल्म देखी किसी अभिनेता के काम पर उसकी विचारधारा के हावी हो जाने पर वह चरित्र को भूल कर अपनी विचाधारा से कैसे चालित होने लगता है और इसी उपक्रम में फिल्म के तमाम दृश्यों को बेढब बनाता जाता है, इसका इस फिल्म में एक क्लासिक उदाहरण है अनुपम खेर   

यह फिल्म एक ऐसे पेशेवर पत्रकार की लिखी हुई किताब पर आधारित है जो राजनीति में सत्ता की शक्ति को तो जानता है, लेकिन राजनीति के बाहर का व्यक्ति होने के कारण उस सत्ता की संरचना से पूरी तरह से अनभिज्ञ है सत्ता के बाहरी स्वरूप की चमक-दमक उसके लिये राजनीति के बारे में अज्ञता और अंधता का सबब बनी हुई है इसीलिये प्रधानमंत्री के इस मीडिया एडवाइजर को उनमें देश के सबसे ताकतवर व्यक्ति की छवि के अलावा और कुछ नहीं दिखाई देता था और शायद उनके इसी मनोविज्ञान ने उन्हें ऐन 2014 के चुनाव के समय मोदी की सहायता के लिये उतार दिया वह मोदी की लफ्फाजी से प्रभावित था या कांग्रेस दल की आंतरिक राजनीतिक संरचना के प्रति अपनी अज्ञानता का शिकार कहना मुश्किल है, लेकिन वह मनमोहन सिंह का एक नादान दोस्त साबित हुआ इस नादानी में उसने उसी व्यक्ति के प्रति शत्रुता का काम किया जिसे वह अपनी नजर से न्याय दिलाना चाहता था  


यही वजह है कि मनमोहन सिंह के इस नादान शुभाकांक्षी की किताब ने मनमोहन सिंह का तो कुछ भला नहीं किया, 2014 में उनके दुश्मन मोदी की सेवा ज्यादा की उस किताब पर बनाई गई फिल्म भी प्रधानमंत्री पर बनी फिल्म के बजाय उनके मीडिया एडवाइजर पर बनी फिल्म में बदल गई और, जहां तक फिल्म में प्रधानमंत्री के चरित्र का सवाल है, अनुपम खेर ने संजय बारू की किताब की वास्तविक राजनीतिक भूमिका के मर्म को पकड़ कर अपनी चाल-ढाल और संवेदनशून्य भाव-भंगिमाओं से मनमोहन सिंह को मनुष्य के बजाय लगभग एक मवेशी का रूप दे दिया अनुपम खेर का दुर्भाग्य है कि मनमोहन सिंह आज भी राजनीति के परिदृश्य में उपस्थित एक जीता जागता चरित्र है इसीलिये वे मनमोहन सिंह की छवि को तो बिगाड़ पाने में सफल नहीं हुए, लेकिन एक अभिनेता के नाते उन्होंने खुद को दो कौड़ी का जरूर साबित कर दिया  

इस पूरी फिल्म को एक बुरी किताब पर आधारित बुरी स्क्रिप्ट और उसके केंद्रीय चरित्र के रूप में काम कर रहे अभिनेता के बुरे इरादों की दोहरी मार ने ऐसा चौपट किया कि यह एक बचकानी सी फिल्म बन कर रह गई अनुपम खेर ने मनमोहन सिंह को क्षति पहुंचाने के चक्कर में इस फिल्म की ही जान निकाल दी मनमोहन सिंह अपनी जगह अक्षुण्ण रह गये और मीडिया एडवाइजर संजय बारू का चरित्र अपनी नादानी में एक कमजोर कथा के जुनूनी सूत्रधार से अधिक और कुछ नजर नहीं आया इस फिल्म में आए सोनिया गांधी, राहुल गांधी और अन्य नेताओं के चरित्र भी विशेष कुछ कहते नहीं दिखाई दिये  

वैसे, दिल्ली में आज की सरकार का जो जघन्य, षड़यंत्रकारी और अपराधी स्वरूप है, उसकी पृष्ठभूमि में मनमोहन सिंह और कांग्रेस दल की सरकार का इस फिल्म में दिखाया गया स्वरूप बहुत स्वच्छ, उजला और मुद्दों पर केंद्रित दिखाई देता है समय इसी प्रकार किसी भी पटकथा के अर्थों को निदेशक की मंशा के विरुद्ध जाकर बदल दिया करता है

कुल मिला कर इसे एक फालतू फिल्म कहना ही सही होगा संजय बारू की मौके का फायदा उठाने के लिये लिखी गई एक नासमझी भरी किताब का लगभग वैसा ही समय का लाभ उठाने मंशा से निर्मित एक बुरा फिल्मी प्रतिरूप  

-अरुण माहेश्वरी