बुधवार, 30 सितंबर 2020

एक पत्रिका के पृष्ठों पर बोलते साहित्य जगत पर दृष्टिपात

  

—अरुण माहेश्वरी



पांच दिन पहले ‘आलोचना’ पत्रिका का 62वां (अक्तूबर-दिसंबर 2019) अंक मिला । कोई विशेषांक नहीं, एक सामान्य अंक । आज के काल में जब पत्रिकाओं के विशेषांकों का अर्थ होता है कोरा पिष्टपेषण, एक अधकचरी संपादित किताब, तब किसी भी साहित्यिक पत्रिका का साधारण कविता, कहानी, आलोचनात्मक निबंधों, समीक्षाओं से तैयार किया गया ‘सामान्य’ कहलाने वाला अंक ही आज के गहरे वैचारिक गतिरोध के काल में पत्रिकाओं के लिए बची हुई न्यूनतम भूमिका का कहीं ज्यादा सही तरीके से पालन करता जान पड़ता है । इसकी बहुविधता कम से कम साहित्य जगत की एक छोटी सी तस्वीर तो पेश करती है । बाकी सब बातें बहुत हद तक निरर्थक कवायदें हो कर रह गई है । इसी वजह से हमने इस अंक की पूरी सामग्री को शुरू से अंत तक गंभीरता से टटोलने की कोशिश की । 


इस अंक के ‘संपादकीय’ में आज के समय के बारे में इतिहास में प्रविष्टी की चिंता का रूपक मानव सभ्यता के स्वरूप पर महामारियों के प्रभाव की तरह के एक सभ्यता के विषय को बेहद हल्का बना देता है । मनुष्यों के लिए इस पर विचार के तमाम आयामों का अपना एक व्यापक परिप्रेक्ष्य है । एक सदी पहले ही स्पैनिश इंफ्लुएंजा में तकरीबन पांच करोड़ लोग मारे गए थे । प्रथम विश्वयुद्ध और महामंदी के बीच के उस काल ने दुनिया की गति को किस प्रकार प्रभावित किया, इसे समाजवादी व्यवस्था के उदय से लेकर केन्सवाद तक के अक्ष से समझा जा सकता है । और अब नवउदारवाद के अबाध दो दशकों के बाद 2008 के मेल्टडाउन से आँख मूंदे बैठी व्यवस्थाओं के लिए भी कोरोना का संदेश बहुत साफ है कि मानव समाज की किसी समस्या का निदान अनियंत्रित बाजार के पास नहीं है, बल्कि बाजार खुद सबसे बड़ी समस्या है । इसके नियम और जंगल के नियम में कोई फर्क नहीं होता है । जन कल्याण के कामों के प्रति अवहेलना का ही परिणाम है कि यह महामारी अमेरिका, इंगलैंड से लेकर भारत तक के लिए एक भारी सर्वव्यापी त्रासदी का रूप ले चुकी है । दुनिया की जो भी सरकार, वह महाबली ट्रंप की हो या बहुरुपिया मोदी की, इसके संदेश को सुनने से इंकार करेगी, वह सिर्फ और सिर्फ भारी तबाही का सबब बनेगी, और उसके लिये इतिहास का कूड़ाघर प्रतीक्षा कर रहा है । 

   

अंक का प्रारंभ लाल्टू की कविता ‘मुंशीगंज की वे’ से होता है । वेश्याओं की एक बस्ती के जीवन का इसमें एक ऐसा प्रकृतिवादी चित्र है जिसकी त्रासदी में जैसे अपने कोई द्वंद्व नहीं है । कोई उन पर रोये, यह उनका निजी मामला है । “उनका हर दिन एक जंग है ऐसा कवि सोचते हैं, पर ऐसा कुछ होता नहीं था ।” प्रकृतिवाद और त्रासदी का अस्तित्व साथ-साथ, इसी पर इस कविता की पूरी नाटकीय संरचना खड़ी है ।

 

दूसरी कविता है हिंदी की प्रसिद्ध कहानी ‘दाज्यू’ के लेखक शेखर जोशी की । उनकी कविता को देखना सुखकर था, कि वे आज भी सक्रिय है और पहाड़ों और फौज के जीवन के चित्रों को अपने अंदर वैसे ही संजोये हुए हैं। फर्क यह है कि बढ़ती हुई उम्र ने उनके दाज्यू के भाव बोध को ‘भुला’ (अनुज के लिए संबोधन) में बदल दिया है । सचमुच, मानव मनोविज्ञान के आयामों पर उस समय तक कोई चर्चा संभव नहीं है जब तक उसके अवचेतन के पहलू को नहीं समझ लिया जाता है जिसमें स्मृतियां एक बहुत बड़ी जगह घेरे रहती है । 


इसके साथ ही इस अंक में शुरू होती है लेखों और टिप्पणियों की श्रृंखला । 


नामवर सिंह पर पंकज कुमार बोस का लेख ‘दूसरी परंपरा के नामवर सिंह : खोज के कुछ बिंदु’ में परंपरा के इस अध्यापकीय जंजाल के बारे में किसी विशेष पहलू को तो उजागर नहीं किया गया है पर वे इस एक जरूरी बात को जरूर रख पाए हैं कि साहित्य और ज्ञान के क्षेत्र में विचारकों के बीच मतभेदों को खेमेबाजी के नजरिये से नहीं देखा जाता है । यह अकादमिक दुनिया से उत्पन्न अध्यापकों का दिया हुआ रोग है जिसमें विचारशीलता को पक्षधरता/खेमेबंदी  से स्थानापन्न किया जाता है । यह छात्रों के लिए विश्वविद्यालीय शोधों की सफलता का एक सबसे सरल नुस्खा है — वर्गीकरण का एक और सूत्र — जो पीढ़ीयों तक संक्रमित होता रहता है ।

 

स्वयंप्रकाश पर पल्लव का लेख एक श्रृद्धांजलि लेख है जिसकी अपेक्षित सीमाओं में भी किसी पूर्व-निश्चित ढांचे की जकड़न में दम तोड़ती कहानी की बात कही गई है । किस्सागोई का कोई भी फार्मूलाबद्ध जड़ ढांचा रचना से उसके स्वत्व को हर लेता है । 

 

‘विचार’ स्तंभ में कवयित्री शुभा की एक छोटी सी टिप्पणी है, ‘अधूरी बातें’ जिसमें प्रसंग तो कई हैं, पर शीर्षक के अनुरूप ही हैं, सब आधे-अधूरे । वे मांग करती है कि ‘समय का सांचे में ढलना जरूरी है और उसकी सिनाख्त करने वाले का होना भी’ । हम नहीं जानते कि जीवन और प्रकृति के किस रूप में समय नहीं होता । जो अभी अदृश्य है, दृष्ट होने को है, उस अदृश्य-दृष्ट के खेल में जरूरत है एक सचेत भूमिका अदा करने की । वे कहती है — “सबसे ज्यादा अलगाव होता है ट्रेडयूनियन लीडर का तो हिसाब-किताब देखता है पर श्रमिक का सौंदर्य नहीं देख पाता ।”


कम्युनिस्ट घोषणा पत्र का एक बहुत प्रसिद्ध कथन है — पूंजीवाद के युग में ‘“सभी स्थिर और जड़ीभूत संबंध, जिनके साथ प्राचीन और पूज्य पूर्वाग्रहों और मतों की एक पूरी श्रृंखला होती है, मिटा दिये जाते हैं, और सभी नये बनने वाले संबंध जड़ीभूत होने के पहले ही पुराने पड़ जाते हैं । जो कुछ भी ठोस है वह हवा में उड़ जाता है, जो कुछ पावन है, वह भ्रष्ट हो जाता है, और आखिरकार मनुष्य संजीदा नजर से जीवन की वास्तविक हालतों को, मानव जीवन के आपसी संबंधों को देखने के लिये मजबूर हो जाता है ।” यह है मनुष्य के चित्त पर  पूंजीवाद वह प्रभाव, जो अंततः जीवन के 'आपसी संबंधों' को सभी प्रकार के 'पूज्य पूर्वाग्रहों' अर्थात रूढ़ियों से मुक्त करके मनुष्य को इन संबंधों को 'संजीदा नजर' से देखने के लायक बनाता है ।

 

बहरहाल, शुभा ने इस टिप्पणी में ‘पत्थर’ और ‘स्मृति’ को अपना विशेष उपादान बनाया है । यथार्थ और इतिहास की सीमा स्मृति की अपनी सीमा है । जैसे भाषा की भी सीमा है । वह मनुष्य के जीवन के तमाम आयामों को अपने में नहीं समेट सकती है । जीवन का व्यवहार, जो किसी मान्य दस्तूर की तरह जारी रहता है, संकेतकों की किसी श्रृंखला में उकेरा नहीं जा सकता है । यह व्युत्पति और संरचना का तनाव है । पत्थर भी व्युत्पति की एक संभावना है । 


जो भी हो, इसके बाद आती है मनमोहन की ‘डायरी का अंश’ । कुछ  तत्त्वमीमांसक प्रकार की टिप्पणियों से संवलित अंश । दरअसल तत्त्वमीमांसक टिप्पणियां तभी कुछ अर्थवान होती है जब वे सुपरिभाषित धारणाओं पर टिकी होती है । मसलन् इन टिप्पणियों के स्वरूप से यह सवाल पैदा होता है कि लेखक का ‘यथास्थिति’ से तात्पर्य क्या है, ‘जड़ता और खोल’ से किस बात का इंगित किया जा रहा है । ‘प्रतिक्रिया’, ‘प्रतिरोध’, ‘वर्चस्व’, ‘शासक राजनीति’ की तरह के अति-परिचित शब्द भी यहाँ एक भिन्न स्तर की मीमांसा की मांग करते जान पड़ते हैं । गंभीर सवालों से विखंडन की रोशनी में किसी भी साहित्यिक पाठ की ‘आकर्षक’ जटिलता के साथ ही कैसे पूरा पाठ ही हवा में कहीं विलीन हो जाता है, इसे शायद अलग से कहने की जरूरत नहीं है । मनस्तात्विक आधार पर देखें तो जिसे आप यथास्थिति कहते हैं, वह आपके अंदर ही ‘अन्य का क्षेत्र’ होता है, आपका भी एक जरूरी, प्रत्यक्ष का ज्ञान कराने वाला अंश । प्रत्यभिज्ञा दर्शन का वह प्रत्यक्ष जिसके अनुसंधानमूलक निरूपण पर ही यथार्थ का आपका ज्ञान आश्रित होता है । 


बहरहाल, अंक में इसके आगे हैं, प्रवीण कुमार की कहानी । कहानी के प्लाट, उसके चरित्र के बारे में किसी भी क्लीशे, घिसेपिटेपन से पैदा होने वाली रचनात्मक समस्या से जुड़ी कहानी । पर अंततः यह कहानी भी एक क्लिशे से दूसरे क्लीशे के बीच डोलने की मजबूरी लिए हुई है । वजह, रचना का स्रोत जीवन का ठोस यथार्थ नहीं, बल्कि कुछ अवधारणाएं ही है । पर कहानी बुनावट सही बनी है ।

 

‘आलेख’ में बजरंग बिहारी तिवारी के लेख को अधिक से अधिक शूद्रक के नाटक ‘मृच्छकटिक’ में न्याय के पहलू को दर्शाने वाला एक लेख तो कहा जा सकता है, पर साहित्य मात्र का अर्थ सिर्फ न्याय की बात है, ऐसी समझ का कोई तुक नहीं है । क्रौंच के शोक का श्लोक रूप काव्य की आत्मा के रूप में शोक के स्थायिभाव का करुण रस से प्रवाहित वह स्वरूप है जिसे ध्वन्याकार चर्वणा के योग्य कहते हैं । चर्वणा की गणना विभाव और अनुभाव के बीच की जाती है । साहित्य में इस चर्वणा की ही अभिव्यक्ति होती है । “प्रमाणों के व्यापार के समान उसका ज्ञापन नहीं होता है और न हेतु के व्यापार के समान उसकी उत्पत्ति होती है ।” (अतश्र्चर्वणात्राभिव्यञ्जनमे, न तु ज्ञापनम्, प्रमाणव्यापारवत् । नाप्युत्पादनम् हेतुव्यापारवत् ) शोक मुनि का नहीं, क्रौंच का है । रचना लेखक की चर्वणा से, अनुभूति के विश्लेषणात्मक निरूपण के संकेतों, शब्द व्यापारों से बनती है, किसी प्रकार के शुद्ध ज्ञान या न्यायबोध मात्र से नहीं । 


कहना न होगा, एक शास्त्रीय संस्कृत नाटक के आधार पर इस लेख में की गई यह साहित्य चर्चा किसी गंभीर विमर्श की मांग नहीं करती है ।

 

पंकज झा का लेख है —‘इतिहास, सत्ता और साहित्य : मध्यकालीन परिप्रेक्ष्य में’ । सब जानते हैं कि ज्ञान मीमांसा के समग्र क्षेत्र में सत्ता का विषय एक केंद्रीय स्थान ले चुका है । इतिहास के कालक्रम में अन्तरनिहित निरंतरता का यह एक केंद्रीय तत्त्व है । मिशैल फुको का प्रसिद्ध कथन है “ लगता है जैसे विचार, ज्ञान, दर्शन,  साहित्य का इतिहास अधिक से अधिक दरारों को देखने और खोजने की कोशिश करता है जबकि खुद इतिहास की भूमिका स्थिर विन्यासों की तलाश में परिवर्तनकारी विस्फोटों को अस्वीकारने की लगती है ।...इतिहास का काम दस्तावेजों को स्मारकों में बदलने का होता है ।” ऐसे में इतिहास और सत्ता को खास तौर पर साहित्य से जोड़ कर देखने के लिए स्वाभाविक है कि पहले साहित्य की प्रकृति की विशेषता को सामने लाया जाए । इसके लिए पंकज झा ने टेरी ईगलटन के एक उद्धरण का प्रयोग किया है । उनका ही कहना है कि “कोई भी साहित्यिक पाठों के बारे में तब तक कोई राजनीतिक या सैद्धांतिक प्रश्न नहीं उठा सकता है, जब तक उसमें उनकी भाषा के प्रति एक खास संवेदनशीलता न हो ।...साहित्य के छात्र आम तौर पर जो भूल करते हैं वह यह है कि वे सीधे इस बात पर चले जाते हैं कि इस कविता अथवा उपन्यास में क्या कहा गया है, इसे दरकिनार कर देते हैं कि वह कैसे कहा गया है । ...साहित्यिक कृति वह है जिसमें जो कहा गया है उसे कैसे कहा गया है के रूप में लिया जाना चाहिए ।” (Terry Eagleton, How to read literature, page  ix – 4)


कहना न होगा, ईगलटन का यही कथन इतिहास की सामग्री के रूप में साहित्य की सीमित उपयोगिता बताने के लिए भी काफी है । बजरंग बिहारी तिवारी के लेख के इसी मूलभूत दोष के चलते हमने ऊपर साहित्य में स्थायिभाव की चर्वणा की उद्दीपक अभिव्यक्ति पर बल दिया था । जैसे सत्ता को उसके विमर्श की भूमि से अलग करके विवेचन का विषय नहीं बनाया जा सकता है, उसी प्रकार साहित्य भी विवेचन के लिए किसी को भी अपनी भूमि पर आमंत्रित करता है । तुलसी हो या कबीर, सिर्फ अपने कथित प्रतिक्रियावादी अथवा क्रांतिकारी वक्तव्यों के बल पर साहित्य में अपना स्थान नहीं बनाए हुए हैं । 


बहरहाल, आगे बढ़ते हुए हम डा. रामविलास शर्मा पर कृष्णदत्त शर्मा के लेख पर आते हैं । रामविलास जी के समग्र व्यक्तित्व को निरूपित करने वाला यह एक बहुत अच्छा लेख है । डा. शर्मा ने परिवर्तन मात्र के सिद्धांत के रूप में मार्क्सवाद के शाश्वत सत्य को अंगीकार किया था और यही वजह है कि नई-नई दिशाओं में अपनी तमाम शोधयात्राओं के बीच एक प्रकार की संगति बनाए रखने के लिए वे जीवन की अंतिम घड़ी तक अथक रूप से जूझते रहे । पोलेमिक्स विचार जगत के द्वांद्विक सच का ही दूसरा नाम है जिसके अभाव में कोई भी विद्वान ‘विचार के अंत’ के अलावा किसी दूसरे गंतव्य तक नहीं पहुंच सकता है । लेकिन इसका अर्थ कत्तई किसी प्रकार की खेमेबाजी नहीं होता । पोलेमिक्स के अभाव और शुद्ध खेमेबाजी से पटे पड़े अकादमिक जगत में इसके अघटन की तमाम कहानियों को कोई भी देख सकता है । आलोचना के आलोचकों का काम पोलेमिक्स की दिशा पर नजर रखने का होता है । डा. शर्मा की पोलेमिक्स में किसी सर्वकालिक सत्य की तरह काम कर रहे मार्क्सवाद ने उन्हें अपने प्रकार से हमेशा भारत की जनता की क्रांति की समस्याओं से जोड़े रखा और यही एक बात उन्हें अन्य सभी से अलगाती है । जरूरत है उन्हें इस आधार पर शुक्ल जी से भी अलग करने की जिनकी पोलेमिक्स लोक के नाम पर पूरी तरह से प्रतिक्रियावादी थी, जो विद्वानों के विचार में अंतःसादृश्यता को नहीं, अन्तर्विरोधों को दर्शाता है । शुक्ल जी और डा. शर्मा को सिर्फ उनके लेखन की पोलेमिकल प्रकृति के कारण ही एक कोष्ठक में नहीं रखा जा सकता है, भले डा. शर्मा ने शुक्ल जी के प्रति अपनी कितनी भी निष्ठा क्यों न जाहिर की हो ! बहरहाल, कृष्णदत्त जी ने अपने लंबे लेख में डा. शर्मा की पंक्ति में ही नामवर सिंह और मुक्तिबोध को रख कर एक सही दृष्टि का परिचय दिया है । उन्होंने रामविलास शर्मा रचनावली का संकलन किया है जो शीध्र ही राजकमल प्रकाशन से आने वाला है ।


‘आलोचना’ के इस अंक का एक बहुत दिलचस्प शोधपरक लेख है रतन लाल का “ ‘मनस्ताप’ बनाम ‘कैफियत’ : रामचंद्र शुक्ल का माफीनामा और काशीप्रसाद जायसवाल” । सचमुच बहुत कुछ कहने वाला और एक मंच पर आदमी की तुच्छताओं के प्रदर्शन से काफी हंसाने वाला । काशीप्रसाद जायसवाल के खिलाफ चलाए गए पूरे अभियान और अंत में जायसवाल के प्रति शुक्ल जी के मनस्ताप की पूरी कहानी का यह चित्र उस काल के हिंदी के बौद्धिक प्रभुओँ की मनोदशा का बहुत मानीखेज चित्र है । यह चित्र भी शुक्ल जी की पोलेमिक्स की प्रकृति के एक बुनियादी पहलू को उजागर करता है । 


इस 166 पृष्ठों के अंक के अंत में मणि कौल के सिनेमा पर जवरीमल्ल पारख का लेख है, चित्र कला पर मनोज कुलकर्णी की टिप्पणी और कुछ सद्य प्रकाशित पुस्तकों की समीक्षाएँ हैं ।          

 


मंगलवार, 22 सितंबर 2020

कृषि क़ानून मोदी की कब्र साबित होंगे

-अरुण माहेश्वरी 



मोदी के कृषि क़ानून कृषि क्षेत्र में पूंजी के एकाधिकार की स्थापना के क़ानून हैं  आगे हर किसान मज़दूरी का ग़ुलाम होगा  इसके बादभूमि हदबंदी क़ानून का अंत भी जल्द ही अवधारित है  तब उसे कृषि के आधुनिकीकरण की क्रांति कहा जाएगा  ये कृषि क़ानूनकिसान मात्र की स्वतंत्रता के हनन के क़ानून हैं  


आज मोदी के एमएसपी का अर्थ न्यूनतम समर्थन मूल्य नहींअधिकतम विक्रय मूल्य हो चुका  है - Maximum Saling Price एमएसपी फसल के ख़रीदार के लिए नहींकिसानों के लिए बाध्यता स्वरूप होगा ताकि कृषि व्यापार के बड़े घरानों को न्यूनतम मूल्य मेंफसल मिल सके ; उनका मुनाफ़ा स्थिर रह सके  आगे से फसल बीमा की व्यवस्था कृषि व्यापार के बड़े घरानों के लिए होगी ताकि उन्हेंफसल के अपने सौदे में कोई नुक़सान  होने पाए  किसान से कॉरपोरेट के लठैतपुलिस और जज निपट लेंगे 


अब क्रमशगन्ना किसानों की तरह ही आगे बड़ी कंपनियों के पास किसानों के अरबों-खरबों बकाया रहेंगे  ऊपर से पुलिस और अदालतके डंडों का डर भी उन्हें सतायेगा  कृषि क्षेत्रों तेज़ी के साथ धन की निकासी का यह एक सबसे कारगर रास्ता होगा  किसान क्रमशकॉरपोरेट की पुर्जियों का ग़ुलाम होगा  उसकी बकाया राशि को दबाए बैठा मालिक उसकी नज़रों से हज़ारों मील दूरअदृश्य होगा अदालत-पुलिस व्यापार की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए तत्पर होगी 


इन कृषि क़ानूनों से कृषि क्षेत्र में मंडियों के कारोबार और पूरे भारत के कोने-कोने से मोदीखानों के विशाल संजाल की पूर्ण समाप्ति कीदिशा में ठोस क़ानूनी कदम उठाया गया है। यह भारत में रोज़गार के एक बड़े अनौपचारिक क्षेत्र के समूल उच्छेदन की तरह होगा।


इस विषय पर आज बीजेपी की प्रमुख प्रवक्ता कंगना रनौत ने कहा है कि कृषि क़ानूनों का विरोध करने वाले तमाम लोग आतंकवादी हैं अर्थात् बीजेपी के अनुसार अब किसान मात्र आतंकवादी है  इसी से पता चलता है कि आने वाले दिनों में प्रवंचित किसानों के प्रतिमोदी सरकार का क्या रवैया रहने वाला है  


जो लोग कंगना को बीजेपी का प्रवक्ता कहने में अतिशयोक्ति देखते हैंउन्हें शायद यह समझना बाक़ी है कि तमाम फासिस्टों के यहाँभोंडापन और उजड्डता नेतृत्व का सबसे बड़ा गुण होता हैजो समय और उनके प्रभुत्व के विकास की गति के साथ सामने आता है  कंगनारनौत अनुपम खेरमनोज तिवारी और बॉलीवुड के कई बड़बोले मोदी-भक्तों का बिल्कुल नयाअद्यतन शक्तिशाली संस्करण है  सबजानते हैं कि उसे मोदी-शाह का वरद्-हस्त मिला हुआ है  


यदि किसी ने मनोज तिवारी की किसी भोजपुरी फ़िल्म को देखा हो तो कहते हैं कि वहाँ उसकी फूहड़ता अपने परम रूप में दिखाई देती है उसी से पता चलता है कि एक प्रदेश का अध्यक्ष बनने के लिये भाजपा में आदमी के किस गुण का सबसे अधिक महत्व होता है ? संबित पात्रा का उदाहरण भी भिन्न नहीं हैं  अब आगे कंगना ही उसके स्थान की हक़दार हो सकती है  उसे जेड सिक्योरिटी किसी गोदीमीडिया ने नहीं दी है  वह एब्सर्डिटी की मोदी राजनीति का एक स्वाभाविक रूप है  उसके ज़रिये राजनीति में कामुकता वाले एकअतिरिक्त कोण को भी लाया जा रहा है  वह हेमा मालिनी नहीं है  खुले आम अपनी अनीतियों का ढिंढोरा पीटती रही है  लातिनअमेरिका की राजनीति में कामुक प्रतीकों के प्रयोग की तरह ही कंगना भारत की राजनीति में सीधे कामुकता के एक नए तत्व के प्रवेशका हेतु बने तो इसमें अचरज की कोई बात नहीं होगी  वैसे यह भी कह सकते हैं कि वह भाजपा में संबित पात्रा और स्मृति इरानी कायोगफल है ; अर्थात् मोदी राजनीति में शीर्ष तक जाने का एक अचूक नुस्ख़ा है  उसकी झाँसी की रानी वाली छवि से सारे शस्त्रपूजकसंघ के स्वयंसेवक भी ईर्ष्या करेंगे 


कृषि क़ानूनों को पास करने का मोदी सरकार का तरीक़ा भी आगे के तेज राजनीतिक घटनाक्रम के बारे में बहुत कुछ कहता है  किसीभी घटना क्रम का सत्य कुछ शर्तों के साथ हमेशा उसमें अपनाई जा रही पद्धतियों के ज़रिये ही व्यक्त होता है  वे शर्तें निश्चित रूप मेंघटना विशेषख़ास परिस्थिति और अपनाई गई खास पद्धति से जुड़ी होती हैं  मोदी हिटलर के अनुगामी है जिसने राइखस्टाग को अचलकर दिया थाविपक्ष के सदस्यों की भागीदारी को नाना हिंसक-अहिंसक उपायों से अचल करके सारी सत्ता को अपने में केंद्रीभूत करलिया था मोदी के राजनीतिक अभियान की सकल दिशा हिटलर ही है  संसद में उनके हर कदम को इससे जोड़ कर देखा जाना चाहिए


मोदी ने राज्य सभा से इन क़ानूनों को जबरिया पास कराने में राज्य सभा के उपाध्यक्ष हरिवंश का इस्तेमाल किया है  आज वही हरिवंशसदस्यों के आचरण से दुखी होने का नाटक करते हुए उपवास पर बैठे हुए हैं  हरिवंश नहीं जानते कि वे क्या कर रहे हैं  इतिहास मेंउनके गले में हमेशा हिटलर का सक्रिय सहयोगी होने का पट्टा लटका हुआ दिखाई देगा  संसदीय पद्धतियों से इंकार सरासर संसद कीहत्या है  विषय का सत्य प्रयुक्त पद्धतियों से भी ज़ाहिर होता है 


आज भारत के कोने-कोने में किसान सड़कों पर उतर रहे हैं  हम फिर से दोहरायेंगे - ये क़ानून मोदी की कब्र साबित होंगे  

रविवार, 13 सितंबर 2020

‘सरकारों का बढ़ता हुआ क़र्ज़’


सरकारें उतना अधिक क़र्ज़ ले सकती है जितना पहले सोचा नहीं गया था )  





 इकोनोमिस्ट’ पत्रिका के ताज़ा 12 सितंबर के अंक में आज महामारी के काल में दुनिया की सरकारों के द्वारा उठाए जा रहे क़र्ज़ के मसले पर एक लेख है - Govt. Debt : Putting on weight’  जो भी सरकार की मुद्रा और क़र्ज़ नीति के विषय दिलचस्पी रखते हैंउनकी समझ के लिये यह एक अच्छा लेख है  हम यहाँ हिंदी में उस लेख को सरल रूप में रख दे रहे हैं  कोरोना के प्रारंभ से ही सरकारके खर्च को बढ़ाने के लिए ज़रूरी मुद्रा और क़र्ज़ नीति की बात बार-बार कही जाती रही हैपर मोदी सरकार के कान पर जूं तक नहींरेंगती है  ‘इकोनॉमिस्ट’ का यह लेख इस माँग के पीछे के सैद्धांतिक पक्षों को पेश करता है  हम यहाँ उस लेख के लिंक को भी साझाकर रहे हैं  


लेख का शीर्षक है -‘सरकारों का बढ़ता हुआ क़र्ज़

सरकारें उतना अधिक क़र्ज़ ले सकती है जितना पहले सोचा नहीं गया था ) 


मैक्रोइकोनोमिक्स के जन्मदाता जॉन मैनर्ड केन्स के बारे में सभी जानते हैं कि वे खास परिस्थिति में सरकारों के द्वारा भारी मात्रा में बाजारसे क़र्ज़ उठाने की नीति के पक्षधर थे  लेकिन परवर्ती दिनों में ‘नव-केन्सवादी’ इस मामले में उनके जितने उदार नहीं रहे  वे क़र्ज़ उठाने मेंलाभ से ज़्यादा ख़तरा देखने लगे  


लेकिन 2010 के बाद पेंडुलम फिर दूसरी दिशा में मुड़ चुका है  और कोई चारा  देखकर इधर कई सरकारों ने काफ़ी क़र्ज़ उठाया हैंऔर इसके लिए उन्हें अब तक कोई परेशानी नहीं आई है  


क़र्ज़ उठाने के बारे में केन्स के विचार मंदी के बारे में उनके नज़रिये से जुड़े रहे हैं  सन् ‘30 की महामंदी के वक्त उन्होंने अपनी किताबरोज़गारब्याज और मुद्रा का सामान्य सिद्धांत’ लिखी जिसमें इसे उन्होंने एक दुश्चक्र बताया था  मंदी तब आती है जब लोगों में धनसंचय की प्रवृत्ति अचानक बढ़ जाती हैइससे लोग खर्च कम करते हैंजिससे बेरोज़गारी बढ़ती है और फिर बेरोज़गारी के चलते लोगों केद्वारा खर्च और कम होता है इत्यादि  यदि सरकार क़र्ज़ उठा कर खर्च बढ़ा देती है तो लोगों के द्वारा खर्च में कमी को पूरा किया जासकता है अथवा उसे रोका जा सकता है  


द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद की परिस्थिति में वित्तीय प्रोत्साहन पर बहस उतनी महत्वपूर्ण नहीं रह गई थी  निर्माण के तेज कामों ने मंदी कीचिंता को वैसे ही दूर कर दिया था  कुछ अर्थशास्त्रियों ने कहना शुरू कर दिया था कि लोग अंत में प्रोत्साहक कदमों से इस प्रकार कामेल बैठा लेते हैं कि उनका असर कमजोर हो जाता है  इस सिद्धांत के एक प्रमुख प्रवर्त्तक राबर्ट बैरों का मानना था कि उल्टे इससे लोगखर्च में कटौती और ज़्यादा बचत करने लगते हैंक्योंकि उन्हें करों के बढ़ने का डर रहता है। सरकारी खर्च के लाभ का असर भी कम होजाता है  1970 और 1980 के जमाने की आर्थिक घटनाओं से केन्स की मूल चिंता का महत्व और कम हो गया  


सच यह है कि केन्स के सिद्धांतों को मानने वाली सरकारों ने तब जिस प्रकार अर्थ-व्यवस्था को चलायावे उसमें विफल रही थी  धीमाविकासमुद्रा स्फीति और बढ़ती हुई बेरोज़गारी के तिहरे असर ने प्रोत्साहन से मंदी से निपटने के सिद्धांत को अचल कर दिया 


अब सरकारों की मुद्रा नीति पर ज़ोर दिया जाने लगा  जब अर्थ-व्यवस्था धीमी हो तो मुद्रा नीति को ढीला कर दोक़र्ज़ उठाना आसानबना दो और इस प्रकार लोगों को खर्च के लिए प्रेरित करो  सरकार के द्वारा ज़्यादा क़र्ज़ मत उठाओ  जीडीपी के अनुपात में यदिसरकारें ज्यादा क़र्ज़ उठाती है तो बाज़ार आम लोगों को क़र्ज़ मुहैय्या नहीं करायेगा तथा ब्याज की दर बढ़ जाएगी  मुद्रा नीति कीउपयोगिता के लिए वित्तीय नीति के बारे में ज़्यादा संयम की माँग की जाने लगी। 


सन् 2000 के बाद से इस दृष्टिकोण की समस्याएँ फिर से सामने आने लगी। 1980 के जमाने के बाद से ही ब्याज की दर क्रमशगिरनेलगी थी  सन् 2000 तक वह सबसे कम स्तर पर पहुँच गई  इससे केंद्रीय बैंक के लिए ब्याज की दर में और कमी करके अर्थ-व्यवस्थाको प्रोत्साहित करने का रास्ता ही नहीं बचा  वैश्विक वित्तीय संकट के चलते ब्याज की दर लगभग शून्य तक पहुँच गई  सरकारों नेमुद्रा नीति के साथ नोट छाप कर मुद्रा की मात्रा बढ़ा कर उसकी उपलब्धता को आसान बनाने की तरह के और भी कई कदम उठाने शुरूकर दिये  लेकिन अर्थ-व्यवस्था चंगी नहीं हुई 


यहाँ से फिर एक बार सबका ध्यान केन्स की ओर जाने लगा  सन् 2012 में अमेरिका के एक पूर्व वित्त मंत्री और अर्थशास्त्री ब्रैड डी लौंगने क़र्ज़ उठा कर बड़े पैमाने पर केन्स का रास्ता अपनाने का सुझाव पेश किया  ब्याज की दर में कमी के चलते इससे जीडीपी में वृद्धि सेजो लाभ होगा वह क़र्ज़ पर पड़ने वाले सरकार के खर्च से कहीं ज़्यादा होगा  


आगे और भी कई केन्सवादी सामने आने लगे जो यह मानते हैं कि केन्सियन नीति कोई तात्कालिक नीति नहींबल्कि सरकारों की स्थाईनीति होनी चाहिए  आबादी की बढ़ती हुई उम्र और तकनीक के विकास की मंथर गति से वैसे ही माँग में दीर्घकालिक कमी पैदा होती है इसमें लंबे काल तक ब्याज की दर में कमी के बने रहने को भी माँग की कमी के प्रमाण के रूप में देखा गया  


जो सरकार के द्वारा क़र्ज़ उठाने की नीति पर संदेह करते हैंउनका तर्क है कि इससे ब्याज की दर बढ़ जाएगी  लेकिन जिस प्रकारलगातार ब्याज की दर कम बनी हुई हैउससे वित्तीय प्रोत्साहन के लिये क़र्ज़ उठाना और ज्यादा आकर्षक हो जाता है  बहुत कम ब्याजकी दर का अर्थ है कि अर्थ-व्यवस्था बहुत तेज़ी से बढ़ सकती है  कुछ देशों में जो नकारात्मक दर चल रही है उससे तो यह भी है कि क़र्ज़को चुकाने के वक्त क़र्ज़ ली गई राशि से कम का भुगतान करना पड़ेगा  


आधुनिक मुद्रा सिद्धांत’( एमएमटीको मानने वालों का तो और भी मानना है कि सरकारों को उस हद तक क़र्ज़ लेते जाना चाहिएजिससे वह सभी लोगों को रोज़गार में लगा सके। केंद्रीय बैंक को सिर्फ़ इस बात का ख़्याल रखना चाहिए कि ब्याज की दर  बढ़ने पाए अभी एमएमटी आर्थिक नीतियों के केंद्र में नहीं आया है  पर वामपंथियों ने इसे स्वीकारा  है  इसके समर्थकों में एक अमेरिकी सीनेटरबर्नी सैंडर्स भी हैं  


सरकार के क़र्ज़ के बारे में सोच में आए इस बदलाव के कारण ही आज जब महामारी के वक्त सरकारें भारी क़र्ज़ उठा रही है तो दुनियाके अर्थशास्त्री इससे जरा भी परेशान नज़र नहीं आते हैं  चर्चा इस बात पर है कि सरकारें किस हद तक क़र्ज़ उठाए ? जापान ने महामारीके पहले ही जीडीपी के 154 प्रतिशत जितना क़र्ज़ उठा लिया था  अब यदि महामारी के बाद भी जापान और क़र्ज़ उठा सकता है तोज़ाहिर है कि दूसरे देशों के लिए तो इसमें कोई बाधा नहीं होनी चाहिए  


पर ब्याज के दर का मसला बरकरार है  ऐसी नौबत भी  सकती है कि आज जिस दर पर क़र्ज़ लिया जा रहा हैउसे आगे जारी रखनेके लिये ज़्यादा दर चुकानी पड़े  


इसीलिये क़र्ज़ में उठाई गई राशि से लाभ का पहलू ध्यान में रखा जाना चाहिए  इसके अलावा यदि निजी कंपनियां क़र्ज़ पर ज़्यादाब्याज देती है तो सरकार को भी उससे संगति रखनी होगी  अमेरिका में पूँजी लगाने के लाभ के बावजूद वहाँ निवेश नहीं हो रहा है इससे पता चलता है कि निवेश के मामले में और भी कई कारण काम करते हैं  यह संभव है कि निवेश से वहाँ लोगों को अपेक्षित लाभनहीं हो रहा हो  इस मामले में सरकार के लिये बहुत कुछ करणीय होता है  जब तक निजी निवेश ज़्यादा नहीं होता हैसरकार के द्वाराक़र्ज़ उठाना लाज़िमी बना रहता है  सरकारी निवेश भी निजी निवेश को प्रोत्साहित करता है  


क़र्ज़ उठाने के बजाय व्यवस्थागत परिवर्तनों का रास्ता इस क्रानिक बीमारी से निकलने का एक रास्ता हो सकता है  लेकिन मुश्किल कीबात यही है कि माँग में कमी के कारण को कोई भी सटीक रूप में नहीं जानता है  क्या तकनीकी प्रगति के कारण ऐसा हो रहा है ? क्याग़ैर-बराबरी के कारण ऐसा है जिससे पैसे वालों के पास सारा धन चला जाता है ? क्या वित्तीय बाज़ार में अस्थिरता के कारण भी लोगऔर सरकारदोनों खर्च नहीं करते हैं ? क्या इन सबके पीछे आबादी की बढ़ती हुई उम्र है ? 


आबादी की उम्र को कम करना संभव नहीं है  माँग में बाधक दूसरी व्यवस्थागत समस्याओं से निपटने पर ब्याज की दर बढ़ सकती है जिन सरकारों पर पहले से ही क़र्ज़ का काफ़ी बोझ हैउनके लिए कठिनाइयाँ हो सकती हैं  लेकिन इससे होने वाले विकास से सरकारको आगे और क़र्ज़ की ज़रूरत कम हो जायेगीजीडीपी बढ़ेगा और कर-राजस्व में वृद्धि होगी  उससे सरकारों के लिए क़र्ज़ चुकाना आगेआसान होगा  बाज़ार की अस्थिरता को नियंत्रित किया जा सकता है  ग़ैर-बराबरी को भी कम किया जा सकता है  


अब सब मानने लगे हैं कि सरकार के द्वारा क़र्ज़ लेना और खर्च करना अर्थ-व्यवस्था को स्थिर करने का एक महत्वपूर्ण तरीक़ा है औरब्याज की दरों को सामान्य तौर पर कम रखना भी ज़रूरी है ताकि सरकारें न्यूनतम खर्च पर क़र्ज़ की शर्तों को पूरा कर सके  सरकार काक़र्ज़ लेना और खर्च करना प्रगति का सूचक है  


आज की दुनिया के अनेक दुखों को दूर करने का उपाय है सरकार के द्वारा क़र्ज़ उठाना  लेकिन इसमें दो बातों का ज़रूर ध्यान रखाजाना चाहिए : आमदनी से ज़्यादा खर्च करने पर यह हमेशा देखना चाहिए कि खर्च किस चीज़ पर किया जा रहा हैऔर दूसरा सरकारोंको अंततब्याज की दरों में वैश्विक परिवर्तन की परिस्थिति की तैयारी रखनी चाहिए  यह वैसा ही है जैसे 2020 ने बता दिया है किआपको किसी भी विरल क़िस्म की तबाही के लिये भी तैयार रहना चाहिए 


The Economist | Putting on weight 

https://www.economist.com/node/21791699?frsc=dg%7Ce