सोमवार, 28 अगस्त 2017

डोकलाम गतिरोध का अंत अन्य कई गतिरोधों की गांठों को खोलने में सहायक हो सकता है

-अरुण माहेश्वरी

येन केन प्रकारेण डोकलाम पर भारत और चीन के बीच का गतिरोध खत्म हुआ । छः दिन बाद ही प्रधानमंत्री को चीन जाना है । पूर्वी चीन के शिया मन शहर में ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका (ब्रिक्स) के राष्ट्र प्रमुखों की बैठक होने वाली है । वहां मोदी जी की चीन के राष्ट्रपति से भी मुलाकात होगी ।

महीना भर पहले चीन और भारत ने संयुक्त रूप से डब्लूटीओ के स्तर पर चल रहे कृषि उत्पादों के मसले पर अमेरिका, यूरोपीय संघ, कनाडा, जापान, स्वीट्जरलैंड और नार्वे की तरह के देशों में दी जा रही क्षतिपूर्ति के मसले को एक प्रस्ताव के जरिये उठाया था । डब्लीटीओ के 164 देशों की यह बैठक आगामी दिसंबर महीने में होने वाली है और इस बैठक में अपने इस संयुक्त मत के पक्ष में इन दोनों देशों को दुनिया के तमाम देशों को लामबंद करने का अपना आधार तैयार करना है । डोकलाम की तरह के फिजूल के तनाव के चलते साझा आर्थिक हितों की ऐसी अन्तरराष्ट्रीय पहलकदमी भी प्रभावित हो सकती थी ।

2008 की दोहा वार्ता के समय ही अमेरिका और इन पश्चिमी देशों ने अपने यहां में कृषि को दी जाने वाली भारी क्षतिपूर्ति को जारी रखने और भारत अथवा चीन जैसे देशों में दी जा रही मामूली क्षतिपूर्तियों को भी खत्म कर देने की बेजा मांग उठा कर कृषि उत्पादों पर वैश्विक वाणिज्य के मसले पर वार्ता में गतिरोध पैदा कर दिया था । अब नौ साल बाद, जब फिर इस मसले के उठने और उस पर गंभीरता से विचार किये जाने की पूरी संभावना है, तब चीन और भारत के बीच चल रहे सीमा पर इस अनावश्यक तनाव की छाया दोनों देशों के हित को ही नुकसान पहुंचा सकती थी ।

डोकलाम के गतिरोध की समाप्ति का दोनों देशों को यह एक तत्काल और सीधा लाभ साफ दिखाई देता है ।

अभी इस गतिरोध के अंत के बारे में दोनों पक्षों के बयान में जो फर्क दिखाई देता है, उसकी एक बड़ी वजह भूटान की अब तक की चुप्पी भी है । यह सच है कि खास डोकलाम के पहाड़ी मैदान में यदि कोई सीमा-विवाद है तो वह भारत और चीन के बीच का नहीं है, चीन और भूटान के बीच का है । भारत का कहना था कि उसने भूटान के साथ अपने रक्षा संबंधी रिश्तों को देखते हुए अपने सैनिकों को वहां चल रही चीन की गतिविधियों को रोकने के लिये भेजा था ।

और चीन लगातार इस बात पर आपत्ति कर रहा था कि (1) चीन जो भी कर रहा है, अपने देश की सीमा में कर रहा है जो किसी भी सार्वभौम राष्ट्र के अख्तियार में पड़ता है ; (2) अगर इसमें कोई मसला हो भी सकता है तो वह चीन और भूटान, दो सार्वभौम राष्ट्रों के बीच का मसला है, उसमें तीसरे किसी देश की कोई भूमिका नहीं हो सकती है ।

इसके विपरीत भारतीय पक्ष संकेतों-संकेतों में यह कह रहा था कि (1) भूटान सरकार की चिंता और उसके आग्रह पर ही भारत के सैनिकों ने चीन के सैनिकों को सड़क बनाने से रोका है और ; (2) भारत के सिक्किम की सीमा के इतना नजदीक चीन के सड़क बनाने से भारत को अपनी खुद की सुरक्षा के लिये खतरा लगता है और इसीलिये हम चीन की इस गतिविधि से आंख मूंद कर नहीं रह सकते हैं ।

जून महीने से शुरू हुआ यह वितंडा लगभग तीन महीने तक चलता रहा । दोनों पक्षों से एक-दूसरे को धमकाने वाले चरम बयान जारी किये जाते रहे । चीन के सरकारी बयानों का तुर्की पर तुर्की जवाब भारत के मीडिया और उसमें बैठे बयान-वीर पूर्व फौजी मूंछों के जरिये दिलाया जा रहा था । और स्थिति यहां तक बदतर हो गई कि दोनों ओर से इन सीमाओं के नजदीक बाकायदा सैनिक अभ्यास शुरू हो गये । भारत के जनरल रावत अढ़ाई मोर्चे पर युद्ध चलाने की अपनी ताकत के बारे में गैर-जरूरी बयान देने लगे ; 1962 को याद किया जाने लगा । हमारे यहां कुछ इतने उत्साही लोग थे जो कागज के नक्शों पर रोजाना लकीरें खींच-खींच कर चीन की निश्चित भारी पराजय और 1962 का प्रतिशोध लेने की तरह की बातों से अपने राष्ट्रवाद की फड़कती भुजाओं का अंग- प्रदर्शन करने लगे थे ।

बहरहाल, आज कहा जा सकता है कि अंत भला तो सब भला ।

भारत के विपक्ष ने इस पूरे विषय पर अनोखी राजनीतिक परिपक्वता का परिचय दिया । सुषमा स्वराज ने विपक्ष के साथ जो बैठक बुलाई थी उसमें सबने एक स्वर में पूरे मामले का एक कूटनीतिक समाधान निकालने की कोशिशों पर बल दिया था और देखा गया कि उसी रास्ते से भारत सरकार ने इस विषय को एक बार के लिये सुलझा लिया है ।

जो तमाम लोग युद्ध-युद्ध की रट लगा रहे थे उन्हें इस बात का जरा भी अनुमान नहीं है चीन के साथ लगी इतनी बड़ी सीमा के लगातार सुलगते रहने का क्या अर्थ होता है ? इनमें से अधिकांश आर्थिक विषयों पर पूरी तरह से शून्य लोग हैं ; ये नोटबंदी की तरह के तुगलकीपन के भी समर्थक रहे हैं ; ये पुराने नोटों को गिनते-गिनते हांफ रहे भारत के रिजर्व बैंक के गवर्नर के विदूषक की तरह के चेहरे को देख कर तालियां बजाते हुए नाचा करते हैं । इन सबके लिये राजनीति महज एक तमाशा है जिसके बारे में हर शाम गोस्वामियों के चैनल में चीखते हुए जानवरों की अलग-अलग आवाजों का लुत्फ उठा कर ये अपनी शामों को आबाद रखते हैं । ये लोग ही इस बार चीन के साथ युद्ध का कुछ अतिरिक्त मनोरंजन ढूंढ रहे थे ।

भारत सरकार को धन्यवाद कि कम से कम इस बार उसने ऐसे 'देशभक्त' तमाशबीनों की खुशी के लिये इस प्रकार के युद्ध की तरह के खतरनाक आयोजन से परहेज किया । प्रधानमंत्री कहते थे, 21वीं सदी एशिया की सदी होगी । ये 'देशभक्त' इसे एशिया में महायुद्ध की सदी में बदल देना चाहते थे । प्रधानमंत्री ने इनकी ख्वाहिश को पूरा न कर चीन से सहयोग के बल पर सही दिशा से 'एशिया की सदी' को साकार करने की ओर कदम बढ़ाया है । हम इसका स्वागत करेंगे ।



'तथ्य-भक्ति' की कल्पनाशून्यता

- अरुण माहेश्वरी

हर स्वयंसिद्ध सामान्य ज्ञान की बात साधारण, लकीर के फ़क़ीर, बौद्धिक दृष्टि से अधकचरे लोगों के लिये किसी ईश्वरीय सत्य से कम नहीं हुआ करती है । इसी प्रकार की एक स्वयंसिद्ध बात यह भी है कि 'क़ानून अंधा होता है' । इसीलिये क़ानून की मामूली जानकारी के आधार पर अक्सर ये लोग पूरे दंभ के साथ किसी भी मामले की परिणति के बारे में अंतिम राय दिया करते रहते हैं ।

लेकिन जीवन का अनुभव बार-बार यह साबित करता है कि जज की कुर्सी पर बैठा हुआ आदमी क़ानून की पोथियों से कितना ही बँधा क्यों न हो, वह अपनी राय उन पोथियों के अनुसार करने के बजाय अक्सर अपनी राय के पक्ष में पोथियों से समर्थन के संदर्भ ढूँढता है । इसे ही न्याय शास्त्र (jurisprudence) कहते हैं ।

यह जीवन के यथार्थ की तरह ही है । जैसे यथार्थ कभी स्थिर, एकायामी नहीं होता, उसी प्रकार इसमें शीलाचरण के नियम-क़ायदे भी हमेशा एक ही प्रकार के नहीं होते और एक से अर्थ नहीं देते । इसीलिये क़ानून के 'अंधेपन' की कितनी ही बात क्यों न की जाए, न्यायशास्त्र इसमें हमेशा नई-नई संभावनाओं को बनाये रखता है । अंधा क़ानून मृत क़ानून नहीं होता है ।

आज जब बलात्कारी गुरमीत को सीबीआई अदालत में सज़ा सुनाई गई, शुरू में यही बताया गया था कि उसे दस साल की जेल की सज़ा दी गई है । अन्य अनेक लोगों की तरह ही हमें भी लगा था कि इस अपराधी को इतनी सी सज़ा यथेष्ट नहीं है । हमने एक पोस्ट लगाई कि सीबीआई के वक़ील ने इस बलात्कारी के लिये अधिकतम सज़ा की माँग से सज़ा को दस साल तक सीमित करवा के उसे राहत दिलाई है ।

हमारी इस पोस्ट पर कुछ लोगों ने सच्ची भावना के साथ हमें क़ानूनी प्राविधानों की सीमा के बारे में बताने की कोशिश की, जिनसे पूरी तरह से वाक़िफ़ होने के बावजूद सिर्फ न्यायशास्त्र (jurisprudence) के मानदंडों पर हम उसे ग़लत मान रहे थे । लेकिन ख़ास तौर पर Kuldeep Kumar का तेवर तीखा और लांक्षणकारी था । वे बीड़ा उठा कर यह साबित करने लगे जैसे हम उन मूर्खों में हो जो तथ्यों के कथित 'विवेक' से चालित होने के बजाय कोरी भावनाओं के आधार पर चलते हैं । वे हमें सिखा रहे थे कि जिस मामले में इससे ज़्यादा (अर्थात दस साल से ज़्यादा) सज़ा संभव ही नहीं है, उसमें इस सज़ा को कम मान कर सीबीआई पर किसी प्रकार की लांक्षणा बेतुकापन है ।

लेकिन बाद में पता चला कि असलियत में ख़ुद अदालत ने उचित न्याय की ज़रूरत को समझते हुए ही उस बलात्कारी को एक से दो मामलों का दोषी मान कर दस के बजाय बीस साल की सज़ा सुनाई है ।
हमने कुलदीप कुमार को लिखा - "Kuldeep Kumar तथ्य-भक्ति भी भक्ति ही है । तथ्यों के परे जाकर ताक-झाँक करना किसी भी मायने में बुरा नहीं होता, बल्कि जरूरी होता है । कथित प्रकट तथ्यों की बेड़ी आख़िर बेड़ी ही होती है । वामपंथियों को इतना भी निर्बीज न माना जाना चाहिए । वैसे अभी-अभी पता चला है कि इस बलात्कारी को बीस साल की सज़ा सुनाई गई है । इसलिये मैंने उसे सीरियल रेपिस्ट मानते हुए दस साल की सज़ा को कम बताया था, जो अदालत के इस फैसले से पुष्ट हुआ है।"

सामान्य ज्ञान की अटलता पर टिका बौद्धिक अहंकार इसीलिये हमेशा कल्पनाशून्य और निर्बीज होता है ।

रविवार, 27 अगस्त 2017

अगस्त का यह आखिरी हफ्ता मोदी-शाह-भाजपा-आरएसएस चौकड़ी को जीवन भर याद रहेगा !

—अरुण माहेश्वरी


पिछले एक हफ्ते के सारे घटनाक्रम से ऐसा लगता है जैसे अब भारतीय राजनीति का यह 'गाय, गोबर, गोमूत्र, बीफ, बाबावाद, लव जेहाद, लींचिग और 'देशभक्ति' के शोर के युग के सारे लक्षण बिल्कुल प्रकट रोग के रूप में सामने आने लगे हैं और राष्ट्र के अस्तित्व के लिये ही इनका यथाशीघ्र इलाज करना जरूरी ही नहीं शुरू भी हो चुका है ।

इस हफ्ते  सुप्रीम कोर्ट का पहला फैसला आया मुस्लिम धार्मिक कट्टरपंथ पर एक तमाचा जड़ने वाला तीन तलाक का फैसला । मुस्लिम कट्टरपंथ उसी दकियानूसी सोच के सिक्के का दूसरा पहलू है जो राजनीति में अभी के उपरोक्त 'गोबरवाद' के रूप में छाया हुआ दिखाई देता है — कह सकते हैं देश भर को कांग्रेस-विहीन बनाने के नाम पर गोबर और मूत्र से लीप देने का वाद । मुस्लिम कट्टरपंथ इसी के लिये खाद का काम करता रहा है । सुप्रीम कोर्ट ने उनकी इस औरत-विरोधी सामाजिक प्रथा को अतार्किक स्वेच्छाचार घोषित करके गैर-कानूनी करार दिया है ; इस प्रथा का पालन अब कानूनन अपराध होगा ।

सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले पर प्रधानमंत्री मोदी ने तो खुशी जताई । पिछले दिनों यूपी चुनाव के मौके पर वे इसे जिस प्रकार जोर-शोर से उछाल रहे थे, उस पर लगी वैद्यता की मोहर के जरिये उन्होंने अपनी राजनीति का झंडा भी लहराने की कोशिश की । लेकिन आम तौर पर भाजपा और आरएसएस के नेता इस पर लगभग चुप ही रहे । उनके लिये यह मसला मुसलमानों को लगातार लांक्षित और अपमानित करने का मुद्दा था, और इसीलिये वे इसे पूरी ताकत से पीट रहे थे । वे यह कल्पना ही नहीं कर पा रहे थे कि अपनी पीनक में 'हिंदुत्व को जीने का एक तरीका' बता देने वाला सुप्रीम कोर्ट इस विषय में भारतीय संविधान के मूलभूत विवेक, मनुष्यों की मर्यादा की रक्षा के पक्ष में खड़ा हो जायेगा ।

भारतीय संविधान में नागरिक संहिताओं के बारे में यह मूलभूत समझ है कि यह किसी न किसी प्रकार से इस समाज के धर्मीय वैविध्य से जुड़ी हुई है और इसलिये इसमें चली आ रहे रीति-रिवाजों, अलग-अलग प्रथाओं से जल्दबाजी में अनावश्यक छेड़-छाड़ करने की जरूरत नहीं है । लेकिन तीन तलाक का मसला अपने एक अजीब से बेहूदा आदिमपन के चलते देखते-देखते मुस्लिम महिलाओं की अस्मिता से जुड़ा उनके सम्मान-बोध का मसला बन गया था । खुद मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के पास इसके खिलाफ इतने आवेदन थे कि उन्होंने ही इसे जल्द बदल डालने की कसमें खानी शुरू कर दी थी । कहना न होगा, सुप्रीम कोर्ट का फैसला मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड को इस सही दिशा में बढ़ने में सहायक होगा ।

और इसी आधार पर कहा जा सकता है कि समाज के सभी स्तरों पर पोंगापंथ के अग्रदूत आरएसएस की तरह के धार्मिक कट्टरपंथियों के लिये यह फैसला किसी बड़े धक्के से कम नहीं है । इसीलिये कट्टरपंथियों के इस पूरे परिवार को तीन तलाक पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने काफी चिंतित कर दिया है क्योंकि कोई भी आंखों वाला आदमी इतना तो देख ही सकता है कि इससे अभी की 'गाय, गोबर, गोमूत्र...' को भी न्यायपालिका की ऐसी अनेक चपतें लग सकती है !


इसने फिर एक बार इतना तो बता ही दिया है कि केंद्र में किसी प्रकार सत्ता पा लेने के बावजूद भारतीय राज्य का संवैधानिक ढांचा ऐसा है कि इसके किसी भी एक अंग के लिये पूरी राजसत्ता को अपनी जकड़बंदी में लेना उतना आसान नहीं है । इसके पहले दो साल पहले ही, अक्तूबर महीने में 'नेशनल ज्यूडिशियल ऐपोयंटमेंट्स कमीशन' (एनजेएसी) के जरिये जजों की नियुक्ति में कार्यपालिका, अर्थात सरकार की प्रमुख भूमिका को तय करने के लिये कॉलेजियम के मामले में मोदी-जेटली की तख्ता-पलट की कोशिशों को सुप्रीम कोर्ट ने सही भाप कर उसे एक सिरे से खारिज करके अपनी दूरदर्शिता का परिचय दिया था । उस समय लेखकों द्वारा पुरस्कारों को लौटाने का दौर चल रहा था । तभी हमें याद है कि सुप्रीम कोर्ट के एनजेएसी के बारे में फैसले पर हमने लिखा था कि “भारत के सभी जनतंत्रप्रिय नागरिकों को सुप्रीम कोर्ट के प्रति हमेशा के लिये आभारी होना चाहिए कि उसने पूरी स्पष्टता और दृढ़ता के साथ एनजेएसी के प्रस्ताव को यमलोक पहुँचा कर भारत को संविधान के ज़रिये हिटलरी तानाशाही की जकड़ से बचा लिया है । यह अकेला उदाहरण इस बात का प्रमाण है कि भारत का राजनीतिक नेतृत्व इस प्रकार के भयानक ख़तरे की संभावना को समझने में पूरी तरह से विफल रहा है, वह भले दक्षिणपंथी हो या वामपंथी या मध्यपंथी । इनमें से कोई भी भारत में हिटलर के उदय के इस क़ानूनी रास्ते को नहीं देख पाया और सभी संसद की तथाकथित सार्वभौमिकता का राग अलापते रहें । भारत के सुप्रीम कोर्ट ने एनजेएसी के ज़रिये सारी सत्ता को हड़प कर निरंकुश शासक बनने की वर्तमान सरकार की आतुरता को बिल्कुल सही पकड़ा और उस पर हमेशा के लिये विराम लगा दिया ।“



अब, तीन तलाक पर फैसले के दूसरे दिन ही, 24 अगस्त 2017 को सचमुच सुप्रीम कोर्ट ने फिर वह कर दिखाया, जो आरएसएस और मोदी के लिये किसी कहर से कम नहीं था । इसे कह सकते हैं — भारत में एक नई संवैधानिक क्रांति । भारतीय संविधान के इतिहास में लगता है अब तक का एक सबसे महत्वपूर्ण मील का पत्थर ; निजता के अधिकार पर सर्वसम्मत (9-0) फैसला । ऐसा निर्णय जिसे वैश्विक परिप्रेक्ष्य में देखें तो कहना होगा कि अगर राजशाही के ज़माने में 1804 की नेपोलियन संहिता ने दुनिया में राज्य और नागरिक के अधिकारों के रूप को बदल डाला था तो आज भारत के सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला डिजिटल युग में सारी दुनिया में इन अधिकारों के पुनर्विन्यास का हेतु बनेगा ।


जाहिर है, हम जब यह कह रहे हैं, तब हमारे परिप्रेक्ष्य में परिस्थिति में किसी अन्य सामाजिक क्रांति-प्रतिक्रांति के प्रभाव शामिल नहीं है । वह एक नई परिस्थिति होगी, जब ढांचागत समायोजन की किसी चर्चा का ही कोई अर्थ ही नहीं होगा । लेकिन सभ्यता के वर्तमान चरण में अभी वह एक दूरस्थ बात है । भारत में मोदी की आक्रमकता में प्रतिक्रांति के सारे खतरे मौजूद है, और संभवतः इसीलिये यहां की जमीन से इस संवैधानिक क्रांति की फसल भी तैयार हुई है ।


बहरहाल, इधर मोदी सरकार ने आधार कार्ड से लेकर अपनी नाना योजनाओँ से भारत के नागरिकों को पूरी तरह से राज्य का गुलाम बना देने का जो जाल बुनना शुरू किया था, सुप्रीम कोर्ट ने एक झटके में उसे छिन्न-भिन्न कर दिया । येन केन प्रकारेण चुनाव जीत कर आई सरकार नागरिक के अधिकारों से ऊपर नहीं है, संविधान की रक्षा के लिये ज़िम्मेदार न्यायपालिका के लिये जनतंत्र और नागरिक की रक्षा जरूरी है — इस बात की सुप्रीम कोर्ट ने मकान की छत पर खड़े हो कर घोषणा की है। जिस सुप्रीम कोर्ट ने चंद महीनों पहले ही बहुत साफ सबूतों के होते मोदी पर जांच की मांग को संज्ञान लेने से इंकार कर दिया था, उसी ने उसके सारी सत्ता को हड़प लेने के और पूरे समाज को अपने इशारों पर नचाने के इरादों पर एक प्रकार की स्थायी बाधा पैदा कर दी । इसने एक बहुमतवादी समाज, कि कोई क्या पहनेगा, कोई क्या खायेगा इसे बहुमत के स्वघोषित प्रतिनिधि तय करेंगे की तरह की जघन्य और जंगली अवधारणा को भारत से दूर रखने का एक निर्णायक काम किया है ।


सच कहा जाए तो नाजुक स्थिति सिर्फ नागरिकों के अधिकारों के लिये ही नही हैं । आज सारी संवैधानिक संस्थाओं के लिये अस्तित्व का खतरा है । खुद न्यायपालिका के अस्तित्व पर सीधे प्रहार की कोशिश को वह कॉलेजियम के मामले में प्रत्यक्ष देख चुकी थी । इधर, नोटबंदी को मामले में मोदी ने रिजर्व बैंक की और भारत की मुद्रा नीति की जो दुर्गति कर रखी है, इसे भी सारी दुनिया देख रही है । सत्ता के शीर्ष पर बैठा एक तानाशाह, और बाकी सब कुछ, गले में पट्टा बांधे स्वामिभक्तों की भीड़ — हिटलर के अनुयायियों का यही सबसे बड़ा सपना होता है । निजता के अधिकार के मामले में मोदी की दलील थी कि चूंकि संविधान के मूलभूत अधिकार में निजता का अधिकार शामिल नहीं है, इसीलिये इसे संवैधानिक अधिकार नहीं माना जा सकता है । भारत सरकार के पूर्व एटर्नी जनरल रोहतगी ने सुप्रीम कोर्ट के सामने पूरी बेशर्मी से कहा था कि किसी भी नागरिक का अपने खुद के शरीर पर भी अधिकार नही है । और अभी के एटर्नी जनरल वेणुगोपाल ने और दो कदम आगे बढ़ते हुए कहा कि 'जो लोग सरकारी खैरातों पर पलते है, उनकी निजता का कोई अधिकार नही हो सकता हैं । यह सिर्फ संपत्तिवानों की चोचलेबाजी है ।'

इस पर न्यायमूर्ति जे चेलमाश्वर ने अपनी राय में लिखा है कि संविधान के बारे में यह समझ बिल्कुल 'बचकानी और संवैधानिक व्याख्याओं के स्थापित मानदंडों के विपरीत है' ।...“नागरिकों के अधिकारों और उनकी स्वतंत्रताओं के प्रति यह दृष्टिकोण हमारी जनता की सामूहिक बुद्धिमत्ता और संविधान सभा के सदस्यों के विवेक का अपमान है ।“


न्यायमूर्ति संजय किशन कौल ने कहा कि नागरिकों को उनके बारे में न सिर्फ झूठी बातों से नहीं, बल्कि उनके बारे में 'कुछ सच्ची बातों' से भी अपने सम्मान की रक्षा करने का अधिकार है । “यह नहीं कहा जा सकता है कि किसी के भी बारे में ज्यादा सही राय तभी कायम की जा सकती है जब उसके जीवन की निजी बातों जान लिया जाता है — लोग हमें गलत ढंग से समझते हैं, वे हमें हड़बड़ी में समझते हैं, संदर्भ से हट कर समझते हैं, वे बिना पूरी कहानी सुने राय बनाते हैं और उनकी समझ में मिथ्याचार होता है ।... निजता लोगों को अपने बारे में इन परेशान करने वाली रायों से सुरक्षा देती है । इस बात का कोई तुक नहीं है कि सारी सच्ची सूचनाओं को सार्वजनिक किया जाए ।... कौन से प्रसिद्ध व्यक्ति का किसके साथ यौन संबंध है इसमें लोगों की दिलचस्पी हो सकती है, लेकिन इसका जन-हित से कोई मतलब नहीं है और इसीलिये वह बात निजता का हनन हो सकती है । इसीलिये वह सच्ची बात जो निजता का हनन करती है, उससे भी सुरक्षा की जरूरत है ।...प्रत्येक नागरिक को अपने खुद के जीवन पर नियंत्रण और दुनिया के सामने अपनी छवि को बनाने के लिये काम करने का अधिकार है और अपनी पहचान के व्यवसायिक प्रयोग का भी।“

न्यायमूर्ति कौल ने आगे और कहा कि “निजता का अधिकार एक मूलभूत अधिकार है ; यह वह अधिकार है जो व्यक्ति के अंतरजगत में राज्य के और राज्य के बाहर के लोगों के हस्तक्षेप से उसे बचाता है और व्यक्ति को स्वायत्त हो कर जीवन में चयन की अनुमति देता है ।

“घर के अंदर की निजता में परिवार, शादी, प्रजनन, और यौनिक रुझान की सुरक्षा ये सब गरिमा के महत्वपूर्ण पहलू हैं ।“

सर्वोपरि, अपने अलावा अन्य चार जजों की ओर से भी लिखे गये न्यायमूर्ती डी वाई चंद्रचूड़ के फैसले ने इस विषय से जुड़े सभी अहम मुद्दों को समेटते हुए लिखा कि “ निजता का अधिकार मनुष्य के सम्मान-बोध का एक तत्व है । निजता की पवित्रता सम्मान के साथ जीवन से इसके कारगर संबंध में निहित है । निजता इस बात को सुनिश्चित करती है कि एक मनुष्य अपने मानवीय व्यक्तित्व के एकांत में बिना अवांछित हस्तक्षेप के सम्मान के साथ जी सकता है ।“


ट्रौल उद्योग के जरिये राजनीतिक लक्ष्यों को साधने की रणनीति बनाने वाले मोदी-शाह की तरह के राजनीतिज्ञों के मंसूबों पर सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले से पानी फेरने का काम किया है । नागरिक की गरिमा को केंद्रीय महत्व की बात घोषित करके यह फैसला गोस्वामी की तरह के चरित्र-हननकारी पत्रकारों-ऐंकरों पर आगे अंकुश लगाने का रास्ता आसान करेगा । जो ट्रौल बेझिझक गंदी गालियाँ देते थे और बेधड़क घूमते थे, आने वाले समय में सोशल मीडिया या अख़बारों में इन गाली-गलौज करने वालों पर एफआईआर की तलवार लटकती रहेगी ।  स्वाती चतुर्वेदी ने अपनी किताब ‘I am a Troll’ में जिन ट्रौल उद्योगों की सिनाख्त की थी उनके ठिकानों पर क़ानूनी कार्रवाई की संभावना बनेगी ।

पश्चिमी देशों के कानून में चरित्र-हनन को हत्या से कम बड़ा अपराध नहीं माना जाता । आगे यहां भी ट्रौलिंग एक बड़ा फ़ौजदारी अपराध होगा । इस प्रकार, सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला ट्रौल उद्योग और उस पर टिकी राजनीति की जड़ों में मट्ठा डालने का काम करेगा ।


इस महान फैसले पर प्रधानमंत्री की चट्टान की तरह की चुप्पी पर आज कोई भी सवाल करेगा कि निजता के अधिकार पर सुप्रीम के इस ऐतिहासिक फैसले पर बात-बात में ट्वीटर-प्रेमी प्रधानमंत्री ख़ामोश क्यों हैं ? और, भाजपा की चुप्पी क्या यह बताने के लिये काफी नहीं है कि वह पूरी नग्नता के साथ नागरिकों की निजता के हनन के पक्ष में है  !

इस नये घटना-क्रम की बहुत सी कमियों और पूरा कर दिया गुरमीत राम रहीम मामले में 'तोता' मान ली गई सीबीआई की अदालत ने । जिस शैतान के सामने 'हर विरोधी का पत्ता साफ कर दो' की तरह की माफियाई तर्ज पर काम करने वाले अमित शाह अपने नेतृत्व में हरियाणा के मुख्यमंत्री खट्टर सहित पूरे मंत्रिमंडल को दंडवत करा आए थे, उस शैतान को सीबीआई की अदालत ने (शायद जीवन भर के लिये) जेल भेज दिया । आज सिर्फ डेरा वाले ही नहीं, आरएसएस की आत्मा के प्रवक्ता साक्षी महाराज जैसे भी यह मानते हैं कि उनके साथ धोखा हुआ है । सौदा यह हुआ था कि मुकदमे को हटा लिया जायेगा, क्योंकि ये सभी माने हुए थे कि मोदी की धौंस अब जिस जगह पहुंच गई है उससे पहले से ही सारे तोतों की सांसे फूली हुई है । एक मामूली स्वत्त्र उड़ान की भी उनमे ताकत नहीं है, इसीलिये उनको कुछ कहने की जरूरत नहीं है — 'बुद्धिमान को इशारा ही काफी होता है' ।

लेकिन नियति का तर्क देखिये कि डेरे के गुंडों की हिंसा के चरम रूप आने तक मौन बने रहे मोदी जी भी अब कह रहे हैं कि 'हिंसा को बर्दाश्त नहीं किया जायेगा' । व्यवस्था इसी प्रकार अपने विरोधियों की भी नकेल कस देती है ।


इधर राजनीति के मोर्चे पर जब अमित शाह कांग्रेस के सारे कूड़े से भाजपा को कांग्रेस का कूड़ाघर बना कर अपनी अपराजेयता का ढिंढोरा पीट रहे थे, उसी समय एड़ी-चोटी का पसीना एक कर देने, खुले आम विधायकों का भाव-तोल करके कुछ को खरीद लेने पर भी वे गुजरात से राज्य सभा में कांग्रेस के प्रत्याशी को जाने से रोक नहीं सके । और इस मामले में भी उनकी योजना को विफल बनाया उन्हीं के लाये हुए चुनाव आयुक्त ने, लेकिन वास्तव में एक और संवैधानिक संस्था ने ! कांग्रेस के दो दल-बदलू विधायकों के भ्रष्ट आचरण का संज्ञान ले कर उनके वोट को रद्द करने में उसने जरा भी संकोच नहीं किया ।

ये चाहते हैं बाबाओं के जरिये, गोरक्षक गुंडों के जरिये, तुगलकी आर्थिक नीतियों से जन-जीवन को अस्त-व्यस्त करके समाज के निकृष्टतम लोगों से व्यवस्था का एक पवित्र व्यूह तैयार करें और उसमें किसी सूरमा की तरह तानाशाह मोदी 2019 के चुनाव में सत्ता के शीर्ष पर बैठ जाए । इजारेदाराना पूंजीवाद में समाज के 'उद्धार' की सचमुच यह एक अनोखी प्रक्रिया है जिसमें सत्ता पर आसीन लोग जितने संकीर्ण और स्वार्थी होते जाते हैं, उसी अनुपात में समाज का 'उद्धार' होता जाता है । हमारे यहां जितनी नग्नता से खुद प्रधानमंत्री अंबानी, अडानी मात्र के हितों को जिस प्रकार साधते हैं, माना जाता है कि उसी अनुपात में समाज का उपकार हो रहा है ! इसमें स्वस्थ और जनतांत्रिक मूल्यों की छोटी से छोटी आवाज को देशद्रोह बता कर लांक्षित किया जाता है । और इसी उपक्रम में यह भी बार-बार देखने को मिलता है कि जिन बाबाओं, योगियों, धर्म के पंडों को, गली के लुच्चे-लफंगों को एक समग्र अराजकता पैदा करने के काम में नियोजित किया जाता है, एक समय के बाद उन्हें ही न सिर्फ लात मार कर धकियाया जाता है, बल्कि रात के अंधेरे में चारपाइयों से उठा कर जेल की काल कोठरियों में ठूस दिया जाता है । तब एक बार के लिये नौकरशाही, पुलिस और बाकी प्रशासन भी चंगा हो जाता है । डेरा सच्चा सौदा के अपराधियों को इस सचाई का स्वाद मिलने का समय आ गया था । उन्होंने जिस अमित शाह और उनके गुर्गे खट्टर को अपने शैतान गुरू का चेला मान रखा था, ऐसे चेले ही अब कभी उनकी गली में झांक कर भी नहीं देखेंगे । अपने पैदा किये गये ऐसे सभी तत्वों की पिसाई से ही तो आगे उनके चेहरे को चमकाने वाला लेप बनने वाला होता है !

बहरहाल, गोरखपुर में योगी की नाक तले आक्सीजन रोक कर की गई बच्चों की हत्या के बाद इनका मंत्री जब अगस्त के महीने के ऐसे शिशु-संहारक महात्म्य का बखूबी बखान कर रहा था तब हमें लगा कि वे शायद किसी प्राकृतिक दुर्योग का बात कर रहे हैं । लेकिन इस महीने के अंतिम हफ्ते में गूंगी नजर आती संवैधानिक संस्थाओं का एक साथ बोल उठना आने वाले दिनों की कुछ और ही कहानी के संकेत दे रहा है ।


भारत की संवैधानिक संस्थाएँ किसी बहुमत की सरकार की मुखापेक्षी न होकर अगर अपने दायित्वों को बेख़ौफ़ निभायें तो फासीवाद जरूर पराजित होगा । जीवन की परिस्थितियां कुछ भी क्यों न हो, व्यवस्था के ढांचे का अपना तर्क भी अंदर से कई संरचनाओं को बने रहने की शक्ति देता है ।

'निजता के अधिकार' पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले में कहा गया है कि 'मौन निजता के एक दायरे को तैयार करता है ।' इस ऐतिहासिक फैसले पर आज तक की प्रधानमंत्री मोदी की अटूट चुप्पी से लगता है कि सुप्रीम कोर्ट के इस कथन को उन्होंने पूरी आंतरिकता से ग्रहण किया है । और, मोदी की इस बेतार की चुप्पी ने पूरी भाजपा को तो गूँगा बना दिया है ! हमारी कामना है कि नागरिकों के गले में पट्टा लगाने की हसरत के कारण यह उनकी ज़ुबान पर किसी गहरी दुश्चिंता की वजह से मारा गया लकवा न हो, बल्कि मनन की गुहा में उतरने का उपक्रम हो ! यह हार्डवर्क वनाम हार्वर्ड की थोथी जुमलेबाजी से उनकी मुक्ति की साधना हो !

और भाजपा, जिसे गुमान है कि यह देश भारतवासियों का नहीं, उनकी निजी संपत्ति है, उसे समझ जाना चाहिए कि सच्चा जनतंत्र धार्मिक कट्टरपंथियों का कभी भी निजी क्षेत्र नहीं बन सकता । हर प्रकार के आशारामों, रामरहीमों की अंतिम और असली जगह जेल की सींखचों के पीछे ही होती है ।

आज सचमुच मोदी जी का 'मौन-मोहन सिंह' वाला जुमला बहुत याद आता है !

शुक्रवार, 25 अगस्त 2017

निजता के अधिकार पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला किसी संवैधानिक क्रांति से कम नहीं है

—अरुण माहेश्वरी


सुप्रीम कोर्ट का निजता के अधिकार पर ऐतिहासिक सर्वसम्मत (9-0) निर्णय भारतीय संविधान के इतिहास में एक बहुत बड़ा मील का पत्थर साबित होगा । वैश्विक परिप्रेक्ष्य में देखें तो कहना होगा कि अगर राजशाही के ज़माने में 1804 की नेपोलियन संहिता ने दुनिया में राज्य और नागरिक के अधिकारों के रूप को बदल डाला था तो आज भारत के सुप्रीम कोर्ट का फैसला डिजिटल युग में सारी दुनिया में इन अधिकारों के पुनर्विन्यास का हेतु बनेगा । सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने भाजपाइयों की कोरी लफ़्फ़ाज़ियों के विपरीत सचमुच में भारत को विश्व गुरू की तरह के एक सम्मान का हक़दार बनाया है ।

भारत में मोदी सरकार ने आधार कार्ड आदि के नाम पर भारत के नागरिकों को गुलाम बना कर रखने का जो जाल बुना था, सुप्रीम कोर्ट ने एक झटके में उस जाल को छिन्न-भिन्न कर दिया ।

यह मोदी सरकार और संघ वालों को अब तक की सबसे बड़ी चपत है । चकमाबाजी से चुनाव जीत कर आई सरकार नागरिक के अधिकारों से ऊपर नहीं है, सुप्रीम कोर्ट ने आज के फैसले से यह एक साफ घोषणा की है । सुप्रीम कोर्ट की राय बताती है कि संविधान की रक्षा के लिये ज़िम्मेदार न्यायपालिका ने जनतंत्र और नागरिक की रक्षा को जरूरी माना है । इसके साथ खुद न्यायपालिका का भविष्य भी जुड़ा हुआ है । आने वाले काल में इस फैसले के गभितार्थों को समझते हुए निःसंकोच कहा जा सकता है कि भारत की संवैधानिक संस्थाएँ किसी बहुमत की सरकार की मुखापेक्षी न होकर अगर अपने दायित्वों को बेख़ौफ़ निभायें तो फासीवाद जरूर पराजित होगा ।

इस फैसले का भारत के जन-संचार माध्यमों पर क्या असर पड़ सकता है, इसे देखे तो कहा जा सकता है कि निजता के आधिकार पर आज का फैसला गोस्वामी की तरह के चरित्र-हननकारी पत्रकारों-ऐंकरों को अपराधी के कठघरे में ले जाने में मददगार होगा । सुप्रीम कोर्ट का फैसला एक झूठ को लेकर चीख़ने-चिल्लाने वाले 'गोस्वामियों ' की पत्रकारिता के अवसान का सूचक है ।

इसमें नागरिक की गरिमा को केंद्रीय महत्व की बात घोषित किया गया है । जो ट्रौल बेझिझक गंदी गालियाँ देते थे और बेधड़क घूमते थे, क्रमश: उनकी करतूतों को प्रथम दृष्ट्या अपराध मान कर एफआईआर होने लगेंगे । पुलिस अगर हिचकेगी तो अदालत उसे बाध्य करेगी क्योंकि नागरिक की गरिमा से समझौता नहीं हो सकता है । इसलिये आने वाले समय में सोशल मीडिया या अख़बारों में गाली-गलौज करने वालों पर एफआईआर की तलवार लटकती रहेगी । इससे मीडिया के ब्लैक मेलर्स और किसी को भी मनमाने ढंग से अपमानित करने वालों पर भी अंकुश लगेगा ।

निजता के अधिकार के मामले में मोदी सरकार की दलील थी कि चूंकि संविधान के मूलभूत अधिकार में निजता का अधिकार शामिल नहीं है, इसीलिये इसे संवैधानिक अधिकार नहीं माना जा सकता है ।

इस पर न्यायमूर्ति जे चेलमाश्वर ने अपनी राय में लिखा है कि संविधान के बारे में यह समझ बिल्कुल 'बचकानी और संवैधानिक व्याख्याओं के स्थापित मानदंडों के विपरीत है' ।

“नागरिकों के अधिकारों और उनकी स्वतंत्रताओं के प्रति यह दृष्टिकोण हमारी जनता की सामूहिक बुद्धिमत्ता और संविधान सभा के सदस्यों के विवेक का अपमान है ।“

न्यायमूर्ति संजय किशन कौल ने साफ किया कि कैसे नागरिकों को उनके बारे में न सिर्फ झूठी बातों से बल्कि उनके बारे में 'कुछ सच्ची बातों' से भी अपने सम्मान की रक्षा करने का अधिकार है ।
“यह नहीं कहा जा सकता है कि किसी के भी बारे में ज्यादा सही राय तभी कायम की जा सकती है जब उसके जीवन की निजी बातों जान लिया जाता है — लोग हमें गलत ढंग से समझते हैं, वे हमें हड़बड़ी में समझते हैं, संदर्भ से हट कर समझते हैं, वे बिना पूरी कहानी सुने राय बनाते हैं और उनकी समझ में मिथ्याचार होता है ।“
कई विदेशी लेखकों को उद्धृत करते हुए उन्होंने कहा, “ निजती लोगों को अपने बारे में इन परेशान करने वाली रायों से सुरक्षा देती है । इस बात का कोई तुक नहीं है कि सारी सच्ची सूचनाओं को सार्वजनिक किया जाए ।“
कौन से प्रसिद्ध व्यक्ति का किसके साथ यौन संबंध है इसमें लोगों की दिलचस्पी हो सकती है, लेकिन इसका जन-हित से कोई मतलब नहीं है और इसीलिये वह बात निजता का हनन हो सकती है । इसीलिये वह सच्ची बात जो निजता का हनन करती है, उससे भी सुरक्षा की जरूरत है ।“

“प्रत्येक नागरिक को अपने खुद के जीवन पर नियंत्रण और दुनिया के सामने अपनी छवि को बनाने के लिये काम करने का अधिकार है और अपनी पहचान के व्यवसायिक प्रयोग का भी।“

न्यायमूर्ति कौल ने आगे और कहा कि “निजता का अधिकार एक मूलभूत अधिकार है ; यह वह अधिकार है जो व्यक्ति के अंतरजगत में राज्य के और राज्य के बाहर के लोगों के हस्तक्षेप से उसे बचाता है और व्यक्ति को स्वायत्त हो कर जीवन में चयन की अनुमति देता है ।

“घर के अंदर की निजता में परिवार, शादी, प्रजनन, और यौनिक रुझान की सुरक्षा ये सब गरिमा के महत्वपूर्ण पहलू हैं ।“

इस प्रकार, सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला ट्रौल उद्योग और उस पर टिकी राजनीति  की जड़ों में मट्ठा डालने का काम करेगा । कहा जा सकता है कि ट्रौल्स ! सावधान ! अब आपके सीधे जेल की सींखचों के पीछे पहुँचने का रास्ता खुल गया है । आपके आका अब आपको बचा नहीं पायेंगे । माँ-बहन की गालियाँ देने वाले ट्रौल अब सीधे जेल में जायेंगे क्योंकि इन गालियों को एक नज़र में चरित्र-हनन बताना हर जज के लिये आसान । पार्टियों के जो मुखपात्र हर किसी को गद्दार-गद्दार कह के गालियाँ दिया करते हैं, उनकी अनियंत्रित ज़ुबान पर अंकुश लगायेगा यह फैसला ।

चरित्र-हनन की राजनीति करने वालों ने कोर्ट में निजता को मूलभूत अधिकार मानने से मना किया था । भारत सरकार के पूर्व एटर्नी जनरल रोहतगी ने सुप्रीम कोर्ट के सामने पूरी बेशर्मी से कहा था कि किसी भी नागरिक का अपने खुद के शरीर पर भी अधिकार नही है । और अभी के एटर्नी जनरल वेणुगोपाल ने तो और भी निर्लज्ज होकर कहा था कि जो लोग सरकारी खैरातों पर पलते है, उनकी निजता का कोई अधिकार नही हो सकता हैं । यह सिर्फ संपत्तिवानों की चोचलेबाजी है । सुप्रीम कोर्ट ने इन्हें पूरी तरह से गलत बताते हुए एक सिरे से ठुकरा दिया । डिजिटल इंडिया के धोखे से आधार कार्ड नागरिकों को राज्य और देशी-विदेशी व्यापारियों का गुलाम बनाने का औज़ार बन रहा था । वह अब और मुमकिन नहीं होगा।

कहना न होगा, ट्रौल उद्योग के जरिये राजनीतिक लक्ष्यों को साधने की रणनीति बनाने वाले राजनीतिज्ञों के मंसूबों पर सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले से पानी फेरने का काम किया है । स्वाती चतुर्वेदी ने अपनी किताब में जिन ट्रौल उद्योगों की सिनाख्त की थी उनके ठिकानों पर क़ानूनी कार्रवाई का अब सही समय आ रहा है । आगे ट्रौलिंग एक फ़ौजदारी अपराध होगा ।
पश्चिमी देशों के कानून में चरित्र-हनन को हत्या से कम बड़ा अपराध नहीं माना जाता । यह फैसला यहाँ भी सार्वजनिक जीवन को स्वच्छ करेगा । अभी तक निजता को मौलिक अधिकार न माने जाने के कारण इन मामलों पर मुक़दमों में जल्दी और सही फैसले नहीं हो पाते थे । अब क्रमश: सही फ़ैसलों की श्रृंखला तैयार होने लगेगी । तत्काल नहीं, लेकिन नागरिकों की निजता के इस अधिकार के साथ नागरिकों के समग्र अधिकारों के पुनर्विन्यास का प्रारंभ होगा जो नागरिक मात्र के लिये एक स्वच्छ सामाजिक परिवेश तैयार करने में मददगार होगा ।

अब अंत में हमारे दो सवाल हैं — निजता के अधिकार पर सुप्रीम के इस महान ऐतिहासिक फैसले पर बात-बात में ट्वीट करने वाले हमारे प्रधानमंत्री ख़ामोश क्यों हैं ? और, इस ऐतिहासिक फैसले पर भाजपा की चुप्पी से क्या यह समझा जाए कि वह नागरिकों की निजता के हनन के पक्ष में है  !

सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने भारत के नागरिक के नाते हमारे गौरव-बोध से को सातवें आसमान पर पहुंचा दिया है । इस क्रांतिकारी कदम का हर जनतंत्र और स्वतंत्रता प्रेमी नागरिक को शानदार स्वागत करना चाहिए ।

मंगलवार, 22 अगस्त 2017

साहित्य के साथ निरामिष घृणा का व्यवहार अनुचित है

- अरुण माहेश्वरी


मैंने हॉसदा सोवेन्द्र शेखर की कहानियों के इस संकलन The Adivasi will not dance की कहानियों को पढ़ा है ।

'They eat meat' इसकी पहली 27 पेज की कहानी है जिसमें साफ-सुथरी प्रवाहमय भाषा में एक आदिवासी अफसर बिराम सोरेन की केंद्र सरकार की नौकरी ( निदेशक, ग्रामीण विद्युत निगम ) में गुजरात के वडोदरा में तबादला होता है । एक कट्टर शाकाहारी शहर में मांसाहारी दंपत्ति का तबादला । फिर भी बिराम की पत्नी पानमुनी झी को वडोदरा अपनी साफ सफाई के कारण ही भाने लगता है । बीच-बीच में उनका पारंपरिक भोजन, सीखी हुई नई-नई रेसिपी की उसे याद भी आती है, लेकिन वहां के सहज-पाच्य निरामिष खाने के साथ सिर्फ साफ-सफाई के अपने संस्कारों की वजह से ही वह निभाती जाती है । घर में चोरी-छिपे कभी-कभी एक अंडा पकाती है, लेकिन इस बात का ख़याल रखते हुए कि उसकी गंध बाहर न जाए क्योंकि दक्षिण भारतीय मकान मालिक की आमिष भोजन के बारे में गुजरातियों के निरामिषपन की वर्जना की वजह से ही ऐसा कुछ न करने सख़्त हिदायत थी ।

इसी बीच 2002 के गोधरा कांड और उसके बाद के दंगें और उनकी कॉलोनी में रह रहे इकलौते मुस्लिम परिवार की स्त्रियों पर हमले के लिये आई दंगाइयों की भीड़ के एक डरावने अनुभव से इस परिवार को गुज़रना पड़ता है । कॉलोनी के लोगों ने, खास कर स्त्रियों ने दंगाइयों का जो हाथ में था उसी से डट कर मुक़ाबला किया और पूरे एक महीने तक पहरेदारी करके उस कालोनी के लोगों ने अपनी कालोनी को दंगाइयों से बचा लिया ।

इस डरावने अनुभव के बाद जो पानमुनी झी पहले वडोदरा की सफाई और गुजराती भोजन को पसंद करने लगी थी, उसे अब भुवनेश्वर के दिनों की आजादी की यादें आने लगती है । 2004 में बिराम का राँची तबादला हो जाता है । पानमुनी झी को लगता है जैसे वह घर वापिस आ गई । कहानी की अंतिम पंक्तियाँ हैं - 'No one minds what we eat here' she would say marinating silver carp with salt and turmeric powder, without a care in the world. 'And we don't mind what others eat.'


इसके बाद शायद कहानी के व्यापक सामाजिक निहितार्थों पर कहने के लिये कुछ नहीं रह जाता । बंदिशों से भरी सभ्यताओं के विकास पर यह एक मार्मिक चोट करने वाली कहानी है । मांस खाने पर मनाही, मनुष्यों की हत्या पर नहीं ।

लेकिन इसी में एक और 25 पृष्ठों की लंबी कहानी हैं - Merely whore । कोयला खान इलाक़े के लक्खीपुर के रेड लाइट इलाक़े में झर्ना दी के कोठे की एक वैश्या सोना पर केंद्रित कहानी । कोयला खानों की खोज से आदिवासियों के जीवन में आए तूफान, दीकुओं(बाहरी लोगों) के प्रवेश के साथ गुँथी हुई इस कहानी में लंबे-लंबे ब्यौरे ऐसे हैं जिन्हें अंग्रेज़ी के किसी भी पौर्न उपन्यास से उठाया हुआ कहा जाए तो ग़लत नहीं होगा । सोना अपनी मनुष्यता को गँवा कर शुद्ध रंडी बन गई थी, इसे बताने के लिये इतने विस्तार के साथ बार-बार पौर्नोग्राफिक विवरण निहायत अनावश्यक है और कहानी को वस्तुत: पौर्नोग्राफी में बदल देती है ।

संकलन के शीर्षक 'The Adivasi will not Dance' की कहानी विकास के साथ नष्ट हो गयी आदिवासियों के जीवन की अपनी धुन की त्रासदी के बारे में दिया गया एक विस्तृत बयान है । कहानी के अंत में एक थर्मल पावर प्लांट के उद्घाटन के लिये आए राष्ट्रपति जी के सामने गाँव का बुज़ुर्ग और आदिवासियों की नृत्य मंडली का मुखिया कथित विकास के प्रत्येक काम से आदिवासी समाज की बढ़ती हुई दुर्दशा पर एक वक्तव्य के अंत में अपने प्रतिवाद को दर्ज कराते हुए कहता है - 'The Adivasi will not dance' ।

इन तीन कहानियों के ब्यौरों से ही कोई भी सोवेंद्र शेखर की कहानियों की शक्ति और कमज़ोरी, दोनों का एक अनुमान लगा सकता है ।

जो लोग एक प्रकार की नैतिक पुलिसिंग के जरिये कथाकार पर राय देना चाहते हैं, उनका यह सात्विक क्रोध किसी कट्टर निरामिषवादी के अंदर पल रही मानव-विरोधी हत्यारी घृणा की तरह ही है । वे आज के 'नैतिकतावादी' ज़माने में साहित्य में ऐसे मानदंडों के प्रयोग से अपना उल्लू सीधा करने वाले अवसरवादी है । झारखंड में उनकी सरकार है, इसलिये इस संकलन पर प्रतिबंध लगा दिया गया है । जो भी आज साहित्य अकादमी से सोवेंद्र शेखर की कहानियों में अश्लीलता के नाम पर उनके खिलाफ कार्रवाई की पैरवी कर रहे हैं, वे इस कथाकार की लेखनी के दूसरे तमाम शक्तिशाली पक्षों पर पर्दा डालने के भी दोषी हैं । इसमें कोई शक नहीं है कि सोवेंद्र शेखर एक बहुत सशक्त कथाकार है ।

हम यहां वायर का वह लिंक दे रहे है जिसमें कतिपय तत्वों ने सोवेन्द्र से साहित्य अकादमी का अनुमोदन छीन लेने की बात कही है ।

https://thewire.in/167245/jharkhand-hansda-sowvendra-shekhar-book-banned/

सोमवार, 21 अगस्त 2017

'तर्क और विवेक' के पागलपन में कैसे छूट जाते हैं महत्वपूर्ण विचारधारात्मक सवाल



Supreme Court Asks the Wrong Questions in Kerala ‘Love Jihad’ Case - Vaksha Sachdeva in 'The Quint'.

—अरुण माहेश्वरी


17 अगस्त 2017 के दिन हमने फेसबुक की अपनी वाल पर एक छोटी सी पोस्ट लगाई, फेसबुक की हाईलाइटिंग की सुविधा का प्रयोग करते हुए —

Arun Maheshwari
17 August at 21:07 •
“अन्तर-धर्मीय शादियों में पुलिस बल (एनआईए)से नमूना जाँच के जरिये सुप्रीम कोर्ट की दख़लंदाज़ी शुद्ध रूप से एक विवेकहीन कार्रवाई है ।“

इस पर एक प्रतिक्रिया आई शीतल पी सिंह की, और उनसे विमर्श का जो सिलसिला शुरू हुआ, उसे यहां दर्ज करके रख रहा हूं —

Sheetal P Singh यह मामला अलग है । कृपया विस्तार में जांय । ऐसा न हो कि हम पैन इस्लामी प्रचार के औज़ार के रूप में इस्तेमाल हो जांय !

Arun Maheshwari मैं ऐसा नहीं समझता । इस प्रकार की नमूना जाँच से हिंदुत्ववादियों के लिये तर्क जुटाने की एक वैसी ही पेशकश की जा रही है जैसी हिंदुत्व को एक जीवन शैली बताने की सुप्रीम कोर्ट की अतार्किक राय के जरिये की गई थी ।

Sheetal P Singh Arun Maheshwari आपको नहीं पता कि प्रसंग क्या है ? विवाद शादी पर नहीं शादी से काफ़ी पहले एक ऐसे संगठन की सदस्याओं के साथ जो केरल के एक कट्टर इस्लामी संगठन के लिये काम करती हैं , धर्म परिवर्तन से शुरू हुआ । मामला हाई कोर्ट में चला । लड़की बालिग़ थी और दूसरी तरफ़ से लीगल फ़ौज और केरल । एक वकील अदालत की तौहीन में जेल गया । इस पूरे दौरान लड़की एक ऐसे गेस्टहाउस में रही जो वही कट्टर मुस्लिम संगठन चलाता है । मुक़दमे के पहलू बदलने के दौरान लड़की के निकाह के काग़ज़ हाईकोर्ट में पेश किये गये जो ताज़े ताज़े थे , यानि की बचाव की कोशिश के तौर पर ! हाईकोर्ट ने दोजजों की बेंच से इस शादी को नल एंड वायड कर दिया । पति सुप्रीम कोर्ट पहुँचा जहाँ पुलिस की एक रिपोर्ट की तसदीक का काम NIA को सौंपा गया है जिसका पति विरोध कर रहा है जिस पर अदालत को शक गहरा रहा है ।
आप क्या समझते हैं ये आप समझते रहें पर तथ्यों को देख जरूर लें ।

Arun Maheshwari Sheetal P Singh मैं समझ रहा हूँ । किसी फौजदारी मामले में अदालत के द्वारा शादी को स्वीकारना या अस्वीकारना ख़ुद में बेहद हास्यास्पद लगता है । हाईकोर्ट के बाद अब सुप्रीम कोर्ट भी ग़लत ट्रैक में गया है । किसी की शादी होने न होने से उसके किसी अपराधपूर्ण काम पर राय नहीं दी जा सकती है ।
Arun Maheshwari Sheetal P Singh शायद आप 'लव जेहाद' के नाम पर चलाये जा रहे अभियान के पीछे के तर्कों को, 'हिंदू लड़कियों को फंसाने' की शरारतपूर्ण बातों से या तो अपरिचित है या उन्हें इस मामले से जोड़ नहीं पा रहे हैं ।

Sheetal P Singh Arun Maheshwari कमाल है कि आप तथ्यों को (जो निहायत ही गंभीर हैं ) एक पोस्ट की रक्षा में हवा में उड़ा रहे हैं । जिस व्यक्ति से शादी बताई गई वह उससे (लड़की से)संबंधित नहीं है । एकाएक गल्फ़ से लौटा और यह लड़की जो एक मदरसे के हास्टल में महीनों से कोर्ट केस के चलते एक कट्टर इसलामी संगठन की नज़रबंद थी , उससे ब्याह दी गई और काग़ज़ कोर्ट में लगा दिये गये ।
लड़की के पिता ने इस लड़के के कुछ पुराने आपराधिक मामलों के डिटेल्स , शिक्षा दीक्षा, संबंधित न होने को सामने रखकर कोर्ट से पुनर्विचार को कहा !
ध्यान रहे कि पहले इसी हाईकोर्ट ने लड़की को धर्मपरिवर्तन कर पिता से अलग रहने की मंज़ूरी दी हुई थी ।
नये तथ्यों के समय केरल से २१ लोगों के ISIS के लिये सीरिया जाकर लड़ने की रिपोर्ट आ चुकी थी । यह लड़का संदिग्ध था ही और हाईकोर्ट के सवालों पर उसके जवाब अनियमित और गलत निकले , तब हाई कोर्ट ने पुलिस से रिपोर्ट माँगी और संदेह सच पाने पर यह फैसला दिया ।
Arun Maheshwari Sheetal P Singh कमाल की बात यह है कि जो एक फ़ौजदारी मामला हो सकता है , उसे शादी का मामला बना दिया जा रहा है । कौन आईसिस का है, कौन नहीं , यह मेरी पोस्ट का विषय ही नहीं है । किसी अपराधी की शादी के मामले पर विचार का कोई दूसरा मानदंड नहीं हो सकता है । यह शुद्ध रूप से दो वयस्कों के बीच का निजी मामला है ।

Sheetal P Singh Arun Maheshwari आप पीडीपी से परिचित हैं या नहीं ? चूँकि RSS लव जिहाद नामक राजनैतिक हथकंडा अपनाता है तो आप इसी वजह से सचमुच के ISIS भर्ती प्रकरण पर आँख मूँद लेंगे ? (अगर यह सच हुआ तो भी )? जाँच ही तो हो रही है , वह भी सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज के अधीन ! हो लेने दें तब खारिज करें ।

Arun Maheshwari और मामले की गंभीरता ! हमारे यहाँ मुसलमानों से जुड़ा हर मामला कुछ लोगों के लिये हमेशा बहुत गंभीर ही होता है ! इसे अदालत पर छोड़ दीजिए ।

Arun Maheshwari Sheetal P Singh मैंने कहा न इस आइसिस या नक्सल या अन्य आतंकवादी के विषय को अदालत और कानून और व्यवस्था की मशीनरी पर छोड़ दीजिए । हमारी पोस्ट शादी को विवाद में लाने के पीछे की मानसिकता के बारे में है ।

जब भी संक्षेप में, हाईलाइट करते हुए किसी नुक़्ते को उठाया जाता है को यह नहीं मान लेना चाहिए कि उसके पीछे के दूसरे विषयों से लेखक अनजान है ।

Sheetal P Singh Arun Maheshwari काश आप इसे अदालत पर छोड़े होते ? आपने तो अदालत के निर्देश पर ही (बिना संदर्भ लिये) कटाक्ष किया है ! जो उस उग्र इसलामी संगठन का sponsored प्रचार है(अनजाने में ), जो इस मामले में वकील / पैसा / दूल्हा (petitioner) सब मुहैया करा रहा है ।

Arun Maheshwari Sheetal P Singh पूरे मामले के इस शादी वाले पहलू को हम इसलिये सिर्फ अदालत पर छोड़ना नहीं चाहते क्योंकि इसके दूसरे व्यापक विचारधारात्मक आयाम भी है । जैसे 'हिंदुत्व' को जीवन शैली बताने वाले सुप्रीम कोर्ट के फैसले को हम अदालत की राय मान कर स्वीकार नहीं सकते हैं ।


21 अगस्त 2017 को हमने फिर 'टेलिग्राफ' में प्रकाशित मानिनी चटर्जी के लेख को साझा करते हुए एक पोस्ट लगाई —

Arun Maheshwari
""कोई नहीं कह सकता कि परिवार, समाज और राज्य की ताकत के भारी दबाव के बाद भी हादिया की आस्था और उसकी स्वतंत्र इच्छा बरक़रार रहेगी । लेकिन इतना तय है कि यदि हादिया जन्मजात मुसलमान होती और उसने हिंदुत्व के कट्टरपंथ का रास्ता अपना लिया होता, किसी गौ रक्षक से शादी करके अपना नाम अखिला रख लिया होता, तो उसकी नियति कुछ और ही होती ।"

यह है केरल के बहुचर्चित अखिला और सफीन जहाँ की शादी के मामले पर आज के 'टेलिग्राफ' में मानिनी चटर्जी का लेख जिसे सुप्रीम कोर्ट ने 'लव जेहाद' और उग्रवाद के कोण से जाँच के लिये एनआईए को सौंपने का अविवेकपूर्ण फैसला किया है :

Of Akhila and Hadiya
At first glance, the special leave petition before the Supreme Court of India in the matter of Shafin Jahan (petitioner) and Asokan K.M. & others (respondents) may seem like a page out of a hackneyed screenplay.

इसी दिन Sheetal P Singh ने अपनी वाल पर केरल हाईकोर्ट की पूरी राय को देते हुए लिखा —

कुछ लोग सिमी(SIMI) नामके एक प्रतिबंधित इस्लामी आतंकवादी संगठन को विक्टिम मानते हैं । ये तालिबान अल कायदा ISIS और दुनिया भर के इसलामी आतंकी संगठनों को भी अमरीकी कारगुज़ारी मानते हैं और इनके कारनामों पर बात उठते ही उसे एक फलसफाना सवाल बना देते हैं !
कुछ लोग नहीं मानते कि RSS दंगे orchestrate करता है / कर सकता है , कि गांधी जी की हत्या में उसकी भूमिका थी , कि इस्लाम से घृणा फैलाना राजनीति है इससे वोट मिलते हैं ! बहुत से लोग इसपर बात होते ही नेहरू के पूर्वज मुसलमान थे,औरंगज़ेब कसाई था और बांग्लादेश / पाकिसतान में हिंदुओं के हाल देख लो पर पहुँचा देते हैं !
माहौल यह है कि गोरखपुर का डा० कफ़ील या तो हीरो है या विलेन ! इन्सान तो नहीं ही है ।
सच इस कश्मकश का रियल विक्टिम है ।
सरकार / कोर्ट्स / ख़ुफ़िया तंत्र के रिकार्ड में सिमी भारत में मुसलमानों के एक हिस्से के नौजवानों का आतंकवादी संगठन है जो प्रतिबंधित है । इससे निकल कर केरल में एक संगठन सामने आया पीपुल्स फ़्रंट आफ इंडिया । तमाम हिंसक / आतंकी घटनाओं में यह फँसा और निशाने पर आ गया तो तीसरा नाम सामने आया SDPI, इस पर भी अब तक कई हिंसक मामले दर्ज हुए हैं । २०१५ में सीपीएम के दो कार्यकर्ताओं पर हुए हिंसक हमले के सीसीटीवी फ़ुटेज टीवी चैनलों पर चल जाने से इसने वह घटना स्वीकार भी कर ली । बाद में NIA ने इसके कुछ लोगों को ISIS से संबंध में पकड़ा !
वक़्त फ़िलहाल इस पोस्ट में इसकी चर्चा केरल की एक बालिग़ हिंदू लड़की के इस्लाम में धर्म परिवर्तन और एक कोर्ट केस की सुनवाई के दौरान अचानक इसी संगठन के एक कार्यकर्ता से किये गये विवाह से उभरी है । जिस पर बहस छिड़ गई है ।
केरल हाई कोर्ट ने सुनवाई के दौरान (कई महीनों लगातार चली ) पाया कि धर्म परिवर्तन करने वाली लड़की के चारों तरफ़ इसी संगठन के लोग हैं । वे ही बड़े बड़े वकील मुहैया करा रहे हैं (लड़की बेरोजगार है) , उन्हे बदल रहे हैं , लड़की के ठहरने / भोजन/ वस्त्र के इंतज़ाम कर रहे हैं और वह कोर्ट के आदेश से इनसे मुक्त होकर अपनी पढ़ाई पूरी न कर सके इसलिये अचानक उसकी शादी के दस्तावेज़ कोर्ट में पेश कर दे रहे हैं !
अपनी इकलौती लड़की के मांबाप दर दर की ठोकरों पर हैं क्योंकि लड़की बालिग़ है , वेजानते हैं कि लड़की (gullible ) है , पढ़ने लिखने में कमज़ोर थी , पढ़ाई बीच में छोड़ SDPI वालों के साथ मुसलमान बनने चली गई ,बहकाई जा सकती है और किसी आतंकी घटना में human bomb बनाकर चिथड़ों में बदली जा सकती है (सारे human bomb नाबालिग़ ही तो नहीं थे )! मांबाप की पहली याचिका केरल हाईकोर्ट ने खारिज कर दी थी ,भावुक वकील को कोर्ट की अवमानना में
एक महीने की जेल कर दी थी ।
दूसरी याचिका तब सुनी गई जब केरल के २१ युवाओं (ज़्यादातर बालिग़) के सीरिया में ISIS में होने का मामला खुल गया ।
लड़की के बाप ने याचिका दी कि केरल के कई युवा (नये बने मुसलमान ) कट्टरवादी मुस्लिम संगठनों के क़ब्ज़े में हैं जो सीरिया भेजे जा सकते हैं , उनकी लड़की भी उनमें से एक है ।
सुनवाई के दौरान कोर्ट ने लड़की से पूछा कि वह अपनी होमियोपैथिक डाक्टर की डिग्री पूरी क्यों नहीं कर रही ? उसका ख़र्च कौन और क्यों उठा रहा है ? उसके लिये वकील कौन खड़े कर रहा है ? जवाब में लड़की ने हास्टल में रहकर डिग्री पूरी करने की बात कही , कोर्ट ने मान लिया और लड़की के बाप ने हास्टल की फ़ीस चुकाने का एफेडेविट दिया !
हफ़्ते बाद अगली सुनवाई पर लड़की के वकील ने कोर्ट को बताया कि पिछली सुनवाई के दिन ही शाम को लड़की ने SDPI के सोशल मीडिया प्रमुख से निकाह कर लिया है । लड़का बेरोजगार निकला । माँ UAE में घरों का सफाई का काम करती है ।
आप समझ सकते हैं कि क्या हुआ होगा ?
कोर्ट ने पुलिस रिपोर्ट में पाया कि लड़का AIYF के एक युवा पर जानलेवा हमले का अभियुक्त है । प्रेमसंबंध की जगह मैट्रीमोनियल विवाह का आधार बताया गया । लड़के का दोस्त कुछ दिन पहले NIA द्वारा आतंकवाद के संदेह में धरा जा चुका था । और लड़का वापस विदेश जाना चाहता है !
कोर्ट ने आदेश में सब तिथिवार दर्ज किया है । लड़की के चार चार नाम (परिवर्तित धर्म के ) चार भिन्न एपीडेविट पर हैं ।
तीन बार वकील बदले , सिर्फ एक वकालतनामा साइन हुआ ।
लड़की के इर्द गिर्द के सारे लोग SDPI से मिले , सब बेरोजगार !
केरल हाईकोर्ट ने शादी null n void कर दी । पुलिस द्वारा बड़ी जाँच के आदेश दिये ।
इस फ़ैसले को सुप्रीम कोर्ट में मिली चुनौती पर SC ने केस जाँच के लिये NIA को सौंपा है









और इसके साथ ही जवाब-सवाल का यह सिलसिला शुरू हुआ —

Arun Maheshwari मैं यहाँ आज के टेलिग्राफ़ में मानिनि चटर्जी के लेख का लिंक दे रहा हूँ। आप मामले की जिन तफसीलों का जिक्र कर रहे हैं, वैसी नोटिंग्स के बिना तो मामला ही नहीं बनता । ये सब फ़ौजदारी के विषय है । वादी प्रतिवादी के वक़ील अगर इतनी बातें नहीं कहेंगे तो कहेंगे क्या ? यह सामान्य ज्ञान की चीज है ।
इस मामले का दूसरा पहलू, जो खतरनाक विचारधारात्मक रुझान की ओर संकेत करता है , वह 'लव जिहाद' का पहलू हैं । हत्या षड़यंत्र के अपराधियों को फाँसी दो, जेल में सड़ाओ। लेकिन इससे हत्यारे की शादी तोड़ देने का मसला विचार का विषय कैसे बन सकता है ?
मानिनि चटर्जी के इस लेख से शायद आपको कुछ समझ में आयें, यदि आपने 'लव जेहाद' के बारे में अपनी कोई राय न बना ली हो ।

https://www.telegraphindia.com/.../story_168199.jsp...



Of Akhila and Hadiya
At first glance, the special leave petition before the Supreme Court of India in the matter of Shafin Jahan…
TELEGRAPHINDIA.COM

Arun Maheshwari Sheetal P Singh आप मामले की जिन तफसीलों का जिक्र तर रहे हैं, वैसी नोटिंग्स के बिना तो मामला ही नहीं बनता । ये सब फ़ौजदारी के विषय है । वादी प्रतिवादी के वक़ील अगर इतनी बातें नहीं कहेंगे तो कहेंगे क्या ? यह सामान्य ज्ञान की चीज है ।
इस मामले का दूसरा पहलू, जो खतरनाक विचारधारात्मक रुझान की ओर संकेत करता है , वह 'लव जिहाद' का पहलू हैं । हत्या षड़यंत्र के अपराधियों को फाँसी दो, जेल में सज़ाओं । लेकिन इससे हत्यारे की शादी तोड़ देने का मसला विचार का विषय कैसे बन सकता है ।
मानिनि चटर्जी के इस लेख से शायद आपको कुछ समझ में आयें, यदि आपने 'लव जेहाद' के बारे में अपनी कोई राय न बना ली हो ।

Sheetal P Singh मैंने द वायर और मानिनी दोनों के लेख पढ़े । पर आप तीनों ने बुनियादी डाक्यूमेंट (केरल हाई कोर्ट का आदेश)ही नहीं पढ़ा यह शर्मिंदगी की बात है ।
मैंने जो लिखा है वह सिर्फ तथ्य भर है , आपके पास इनको गलत साबित करते तथ्य हों तो दें ।
गल्प में मेरा यक़ीन नहीं है ।

Sheetal P Singh क्यूँकि आप पढ़ते तो पाते कि यह कहीं भी लव जिहाद का मामला ही नहीं है । पक्ष विपक्ष किसी के दर्जनों एफेडेविट या बहस में यह शब्द तक नहीं आया ।

Arun Maheshwari Sheetal P Singh लव जिहाद अपने में विषय नहीं है, एक लड़की को जो बालिग़ है, उसे फँसा कर शादी करने का

Sheetal P Singh Arun Maheshwari आपका क्या जवाब दूँ । मैं ५८ वर्ष का हूँ आपको लगता है कि मुझे क ख ग घ फिर पढ़ना चाहिये ?

Arun Maheshwari Sheetal P Singh और, सुप्रीम कोर्ट किस ठौर बैठेगा, अभी कहना मुश्किल है । लेकिन 'हिदुत्व' को एक जीवन पद्धति कहने वाला भी यही सुप्रीम कोर्ट है । इसीलिये इस ख़तरे की आशंका पर चिंतित न होने का कोई कारण नहीं है ।

Sheetal P Singh यह शादी का मामला था ही नहीं ! शादी का मामला आख़री पेशी पर बना । तीस पेशियों और दो दो पिटीशनों में यह दूसरा मामला था । फिर अनुरोध करूँगा कि अखबारी कतरनों की जगह सौ पृष्ठ से ज्यादा में पसरा बहुत अच्छी साफ़ भाषा में लिखा केरल हाईकोर्ट का जजमेंट पढ़ लें और उसे किसी पत्रकार की सौ लाइनों से खारिज न करें ।

Arun Maheshwari Sheetal P Singh क्या कहा जाए । आरएसएस के हमारे अपने अनुभव और अध्ययन भी बताते हैं कि कैसे धोखे से सम्मानित लोगों और पीठों की सम्मतियों को वसूल करके उनकी राजनीति ( संस्कृति) का कारोबार चलता रहा है ।

Arun Maheshwari Sheetal P Singh अदालतों के पेपर बुक्स में सारा कचरा भरा होता है ।
Sheetal P Singh

http://www.livelaw.in/kerala-hc-nullifies-marriage-muslim-convert-fathers-habeas-corpus-petition-read-judgment/
http://www.livelaw.in/kerala-hc-nullifies-marriage.../
Kerala HC Nullifies Marriage Of Muslim Convert In Her Father’s…
LIVELAW.IN

Sheetal P Singh Arun Maheshwari ऐसे सरलीकरण पर मैं क्या कह सकता हूँ ।

Arun Maheshwari Sheetal P Singh इसमें अदालत ने एक बालिग़ लड़की को उसकी शादी को खारिज करके सुरक्षित हाथ में सौंपने का फैसला सुनाया है ! ' लव जेहादी' तो यही करते हैं ।
"This court, exercising parens patriae jurisdiction, is concerned with the welfare of a girl of her age. The duty cast on the court to ensure the safety of at least the girls who are brought before it can be discharged only by ensuring that Akhila is in safe hands."

Sheetal P Singh Arun Maheshwari आप इधर उधर के टुकड़े से बहस में विजयी होने के लिये स्वतंत्र हैं , बधाई । मैंने जजमेंट कमेंट में लगा दिया है । जिसकी रुचि होगी पढ़ लेगा और विवेक होगा तो सही गलत जान लेगा ।

Arun Maheshwari Sheetal P Singh यह 'इधर उधर' का कमेंट नहीं, सौ पेज के फैसले का मुख्य आपरेटिंग पार्ट , अर्थात सार तत्व है ।

Arun Maheshwari Sheetal P Singh मुश्किल है कि जजमेंट को पढ़ना भी एक खास प्रकार की योग्यता की माँग करता है । जो भी बातें कही जा रही है, वे सब जजमेंट पर ही आधारित है , उससे बाहर की नहीं है । फिर भी आप बेधड़क इन्हें 'शर्मनाक' बता दे रहे है ।

Sheetal P Singh Arun Maheshwari मैंने तो अयोग्यता स्वीकार कर ली सर ! आपके पास तो मानिनी चटर्जी / द वायर का रेफरेन्स भी है । आप जीते सर ।

Arun Maheshwari Sheetal P Singh हमारे लिये जीत हार का सवाल ही नहीं है । हमारी नज़र दूसरी ओर है - धर्म-निरपेक्षता के दायरे में 'तर्क और विवेक के पागलपन' के जरिये भी आरएसएस के एजेंडा के अनुप्रवेश की ओर । अन्यथा मैं कत्तई इस बहस में नहीं पड़ता ।

Arun Maheshwari Sheetal P Singh आपकी जानकारी के लिये ही सिर्फ और एक बात कहना चाहता हूँ । आपने हमें पढ़ने के लिये केरल हाईकोर्ट के सौ पेज के जजमेंट को रैफर कर दिया । क्या आप जानते है कि सुप्रीम कोर्ट के जज या किसी भी उच्चतर अदालत के जज भी नीचे की अदालत की भारी-भरकम पूरी राय को नहीं पढ़ा करते हैं । इस काम में उनकी मदद के लिये ही अदालत के सीनियर कौंसिल हुआ करते हैं जो निचली अदालत की राय के पोथों में से मुद्दे की बात को उच्चतर अदालत के सामने रखते हैं । इसके बाद उच्चतर अदालत अपने विवेक के अनुसार मामले को आगे बढ़ाती है ।

इसीलिये जब केरल हाईकोर्ट के फैसले को चुनौती देते वक़्त प्रतिवादी पक्ष के साथ ही सरकार के पक्ष के कौंसिल की ब्रीफ़ अदालत के सामने जाती है, वह अदालत के निर्णय की दिशा को तय करने में एक प्रमुख भूमिका अदा करती है । ऐसे मामलों में, जिसके फ़ौजदारी चरित्र के कारण किसी तरह से राज्य उसमें शामिल हो जाता है, सरकारी पक्ष की एक भूमिका हो जाती है । और यहीं पर आकर हम जैसों या किसी भी सच्चे पत्रकार की शक की सुईं अटक जाती है । क्योंकि मामले को सरकार के विचारधारात्मक रुझान के अनुसार एक खास रंगत दिये जाने का डर बना रहता है ।



बुधवार, 16 अगस्त 2017

त्रिपुरा के मुख्यमंत्री माणिक सरकार का वह भाषण जिसे भारत के संघीय ढाँचे के सिद्धांतों का नग्न उल्लंघन करते हुए स्वतंत्रता दिवस के मौक़े पर आकाशवाणी ने प्रसारित करने से इंकार कर दिया :




त्रिपुरा के प्रियजनो,

स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर आप सबका अभिनंदन और सबको शुभकामनाएं । मैं भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के शहीदों की अमर स्मृतियों को श्रद्धांजलि देता हूँ । उन स्वतंत्रता सेनानियों में जो आज भी हमारे बीच मौजूद है उन सबके प्रति अपनी आंतरिक श्रद्धा व्यक्त करता हूँ ।
स्वतंत्रता दिवस को मनाना कोई आनुष्ठानिक काम भर नहीं है । इसके ऐतिहासिक महत्व और इस दिन के साथ जुड़ी भारतवासियों की गहरी भावनाओं के चलते इसे राष्ट्रीय आत्म - निरीक्षण के एक महत्वपूर्ण उत्सव के तौर पर मनाया जाना चाहिए ।

इस स्वतंत्रता दिवसके मौक़े पर हमारे सामने कुछ अत्यंत प्रासंगिक, महत्वपूर्ण और समसामयिक प्रश्न उपस्थित हैं । विविधता में एकता भारत की परंपरागत विरासत है । धर्म निरपेक्षता के महान मूल्यों ने भारत को एक राष्ट्र के रूप में एकजुट बनाये रखा है । लेकिन आज धर्म-निरपेक्षता की इसी भावना पर आघात किये जा रहे हैं । हमारे समाज में अवांछित जटिलताएँ और दरारें पैदा करने के षड़यंत्र और प्रयत्न किये जा रहे हैं ; धर्म, जाति और संप्रदाय के नाम पर, भारत को एक खास धर्म पर आधारित देश में बदलने तथा गाय की रक्षा के नाम पर उत्तेजना फैला कर हमारी राष्ट्रीय चेतना पर हमला किया जा रहा है । इनके कारण अल्प-संख्यक और दलित समुदाय के लोगों पर भारी हमले हो रहे हैं । उनके बीच सुरक्षा का भाव ख़त्म हो रहा है । उनके जीवन में भारी कष्ट हैं । इन नापाक रुझानों को कोई स्थान नहीं दिया जा सकता है, न बर्दाश्त किया जा सकता है । ये विभाजनकारी प्रवृत्तियाँ हमारे स्वतंत्रता संघर्ष के उद्देश्यों, स्वप्नों और आदर्शों के विरुद्ध हैं । जिन्होंने कभी स्वतंत्रता आंदोलन में हिस्सा नहीं लिया, उल्टे उसमें भीतरघात किया, जो अत्याचारी और निर्दयी अंग्रेज़ लुटेरों के सहयोगी थे और राष्ट्र-विरोधी ताक़तों से मिले हुए थे,, उनके अनुयायी अभी विभिन्न नामों और रंगों की ओट में भारत की एकता और अखंडता पर चोट कर रहे हैं ।प्रत्येक वफ़ादार और देशभक्त भारतवासी के आज एकजुट भारत के लिये और इन विध्वंसक साज़िशों और हमलों को परस्त करने के लिये शपथ लेनी चाहिए ।

हम सबको मिल कर संयुक्त रूप में अल्प-संख्यकों, दलितों की सुरक्षा को सुनिश्चित करने और देश की एकता और अखंडता को बनाये रखने की कोशिश करनी चाहिए ।

आज ग़रीबों और अमीरों के बीच का फर्क तेज़ी से बढ़ रहा है । मुट्ठी भर लोगों के हाथ में राष्ट्र के विशाल संसाधान और संपदा सिमट रहे हैं । आबादी का विशाल हिस्सा ग़रीब है । ये लोग अमानवीय शोषण के शिकार हैं । उनके पास न भोजन है, न घर, न कपड़ें, न शिक्षा, न चिकित्सा और न निश्चित आय के रोजगार की सुरक्षा । यह भारत के स्वतंत्रता संघर्ष के लक्ष्यों और उद्देश्यों के विपरीत है । इन परिस्थितियों के लिये हमारी आज की राष्ट्रीय नीतियाँ सीधे ज़िम्मेदार हैं । इन जन-विरोधी नीतियों को ख़त्म करना होगा । लेकिन यह काम सिर्फ बातों से नहीं हो सकता । इसके लिये वंचित और पीड़ित जनों को जागना होगा, आवाज उठानी होगी, और निर्भय हो कर सामूहिक रूप से बिना थके प्रतिवाद करना होगा । हमारे पास निश्चित तौर पर ऐसी वैकल्पक नीति होनी चाहिए जो भारत के अधिकांश लोगों के हितों की सेवा कर सके । इस वैकल्पिक नीति को रूपायित करने के लिये वंचित, पीड़ित भारतवासियों को इस स्वतंत्रता दिवस पर एकजुट होकर एक व्यापक आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक आंदोलन शुरू करने की प्रतिज्ञा करनी होगी ।

बेरोज़गारी की बढ़ती हुई समस्या ने हमारे राष्ट्रीय मनोविज्ञान में निराशा और हताशा के भाव को पैदा किया है । एक ओर लाखों लोग अपना रोजगार गँवा रहे हैं, दूसरी ओर करोड़ों बेरोज़गार नौजवान काम की प्रतीक्षा में हैं, जो उनके लिये मृग मरीचिका की तरह है । राष्ट्रीय आर्थिक नीतियों को बिना बदले इस विकराल समस्या का समाधान संभव नहीं है । यह नीति मुट्ठी भर मुनाफ़ाख़ोर कारपोरेट के स्वार्थ को साधती है । भारत की आम जनता की क्रय शक्ति में कोई वृद्धि नहीं हो रही है । इसीलिये इस स्वतंत्रता दिवस पर छात्रों, नौजवानों और मेहनतकशों को इन विनाशकारी नीतियों को बदलने के लिये सामूहिक और लगातार आंदोलन छेड़ने का प्रण करना होगा ।

केंद्र की सरकार की जन-विरोधी नीतियों की तुलना में त्रिपुरा की सरकार अपनी सीमाओं के बावजूद दबे-कुचले लोगों के उत्थान पर विशेष ध्यान देते हुए सभी लोगों के कल्याण की नीतियों पर चल रही है । यह एक पूरी तरह से भिन्न और वैकल्पिक रास्ता है । इस रास्ते ने न सिर्फ त्रिपुरा की जनता को आकर्षित किया है बल्कि देश भर के दबे हुए लोगों में सकारात्मक प्रतिक्रिया पैदा की है । त्रिपुरा में प्रतिक्रियावादी ताकतों को यह सहन नहीं हो रहा है । इसीलिये शांति, भाईचारे और राज्य की अखंडता को प्रभावित करने के लिये जनता के दुश्मन एक के बाद एक साज़िशें रच रहे हैं । विकास के कामों को बाधित करने की भी कोशिश चल रही है । इन नापाक इरादों का हमें मुक़ाबला करना होगा और प्रतिक्रियावादियों ताक़तों को अलग-थलग करना होगा । इसी पृष्ठभूमि में, स्वतंत्रता दिवस पर, त्रिपुरा के सभी शुभ बुद्धिसंपन्न, शांतिप्रिय और विकासकामी लोगों को इन विभाजनकारी ताक़तों के खिलाफ आगे आने और एकजुट होकर काम करने का संकल्प लेना होगा ।

रविवार, 13 अगस्त 2017

कार्ल मार्क्स : जिसके पास अपनी एक किताब है (32)


-अरुण माहेश्वरी

'पवित्र परिवार', या आलोचनात्मक आलोचना की आलोचना 
(ब्रुनो बावर एंड कंपनी के खिलाफ)

हम पहले ही उस कहानी का बखान कर चुके है कि कैसे पेरिस में समाजवादियों के साथ एक बैठक में मार्क्स और एंगेल्स की मुलाकात हुई और उन्होंने संयुक्त रूप से ब्रुनो बावर और उनके शागिर्दों की दर्शनशास्त्रीय बकवासों का एक भरपूर जवाब लिखने का फैसला किया ।  'पवित्र परिवार' उनके इसी निर्णय की उपज है । इसीसे से यह भी पता चलता है कि जिन परिस्थितियों में यह किताब लिखी गई वह तब यूरोप चल रहे सामाजिक-राजनीतिक संघर्षों और विचारधारात्मक विमर्शों में परंपरागत सोच से बिल्कुल अलग रूप में अपने विचारों को रखने की मार्क्स-एंगेल्स की एक खास जद्दोजहद का काल था । यही वजह है कि इस किताब का उनके दर्शनशास्त्रीय और सामाजिक-राजनीतिक दृष्टिकोण के निर्माण में एक महत्वपूर्ण स्थान माना जाता  है ।

इसमें वे यंग हेगेलियन्स के आत्मनिष्ठ भाववाद से टकराये, वे हेगेल के जिस भाववादी दर्शन पर आधारित थे, उसके समग्र रूप से भी टकराये और दोनों पर ही सुसंगत भौतिकवादी नजरिये से कस कर प्रहार किये । बावर कंपनी के तर्कों का खंडन करते हुए उन्होंने दिखाया कि युवा हेगेलपंथियों का आत्मनिष्ठ भाववाद हेगेल के दर्शन से भी पीछे की ओर बढ़ाया गया कदम है ।


हम यह पहले ही बता चुके हैं कि किस प्रकार यहूदी प्रश्न और हेगेल के कानून का दर्शन की समीक्षा से लेकर '1844 की आर्थिक और दर्शनशास्त्रीय पांडुलिपियों' की तरह की कृतियों में वे धर्म संबंधी चर्चा से  इतिहास की भौतिकवादी अवधारणा के सिद्धांतों की दिशा में कदम बढ़ा चुके थे । 'पवित्र परिवार' को इस दिशा में उनका एक बहुत बड़ा कदम कहा जा सकता है । इसमें उन्होंने '1844 की पांडुलिपियों' की तुलना में सामाजिक विकास में भौतिक उत्पादन की निर्णायक भूमिका को और भी साफ तौर पर रखा है । मार्क्स ने अब इसमें समूची मानवता की ऐतिहासिक प्रगति के आधार को देख लिया था । वे बहुत ही साफ ढंग से यह कह पाये थे कि किसी भी एक ऐतिहासिक काल को तब तक समझना असंभव है जब तक कि “उस काल के उद्योग को, खुद जीवन के उत्पादन के तात्कालिक रूप को नहीं जाना जाता है ।“ (MECW, Vol. 4, page – 150)

किसी भी समाज विशेष की राजनीतिक व्यवस्था उसके आर्थिक ढांचे से कैसे संबद्ध रहती है, इनके बीच किस प्रकार के द्वंद्वात्मक संबंध होते हैं और कैसे ये परस्पर को प्रभावित करते हैं, इन सबके बारे में मार्क्स के गहन सोच का रूप इस कृति में साफ तौर पर देखने को मिलता है । इतिहास की भौतिकवादी अवधारणा के इस सिद्धांत के साथ ही ऐतिहासिक विकास में जनता की निर्णायक भूमिका, और विकास के फलस्वरूप इस भूमिका में वृद्धि के बारे में भी इसमें उनकी साफ समझ दिखाई देती है । मार्क्स ने कहा था कि मनुष्य के सामने और भी गहरे सामाजिक रूपांतरणों का दायित्व है, जिसके निर्वाह के बीच से “ऐतिहासिक आंदोलन की गहनता के साथ ही इस आंदोलन से जुड़ी जनता की तादाद भी बढ़ेगी ।“ (वही, पृष्ठ – 82)


'पवित्र परिवार' के तीक्ष्ण वैचारिक विवाद के बीच से ही मार्क्स ने समाजवादी समाज के निर्माण में सर्वहारा की विश्व-ऐतिहासिक भूमिका के विचार को रखा था । “सर्वहारा के जीवन की परिस्थितियां आज समाज में जीवन की परिस्थितियों को उनके सबसे अमानवीय रूप में पेश करती है ।“ एक वर्ग के तौर पर अपने ऐतिहासिक अस्तित्व की बदौलत ही सर्वहारा “खुद को मुक्त कर सकता है और करेगा ।“ (वही, पृष्ठ – 36-37) मार्क्स के ये प्रसिद्ध कथन इसी पुस्तक में आए थे । उन्होंने यह भी बताया कि सर्वहारा की सामाजिक मुक्ति का अर्थ होगा समूचे समाज की शोषण से मुक्ति । इस प्रकार उन्होंने सर्वहारा के वर्ग संघर्ष के सार्वलौकिक मानवीय महत्व पर, उसके सच्चे मानवीय अर्थ पर बल दिया । 'पवित्र परिवार' में ही पहली बार पूंजीवाद-विरोधी क्रांतिकारी और मुक्ति संघर्ष में मार्क्स ने सर्वहारा की नेतृत्वकारी भूमिका के मूलभूत मार्क्सवादी विचार को रखा था । लेनिन कहते हैं कि 'पवित्र परिवार' में “सर्वहारा की क्रांतिकारी भूमिका के बारे में मार्क्स की दृष्टि लगभग पूरी तरह से विकसित हो चुकी थी ।“ (V.I.Lenin, Collected Works, Vol.38, page – 26)


क्रांतिकारी संघर्ष में सर्वहारा की नेतृत्वकारी भूमिका के निष्कर्ष के अलावा यही वह कृति है जिसमे मार्क्स-एंगेल्स ने इतिहास में विचारों की भूमिका की भी भौतिकवादी व्याख्या पेश की थी। हेगेल के न्याय दर्शन की समीक्षा के प्रयास में मार्क्स ने बताया था कि कैसे सिद्धांत एक भौतिक शक्ति का रूप ले लेते हैं, जिसका हम पहले जिक्र कर चुके हैं । इसी बात की और गहराई से व्याख्या करते हुए 'पवित्र परिवार' में वे बताते हैं कि कैसे विचार जब वास्तविक जीवन की जरूरतों से संगति रखते हुए प्रगतिशील वर्गों के हितों को व्यक्त करते हैं, वे समग्र सामाजिक विकास की प्रभावशाली शक्ति बन जाते हैं । इसे वे सत्रहवीं सदी से लेकर उन्नीसवीं सदी के प्रारंभ तक के दर्शनशास्त्र के इतिहास के उदाहरणों के जरिये पुष्ट करते हैं । भौतिकवाद और भाववाद की दो बुनियादी धाराओं के बीच के संघर्ष का विश्लेषण करते हुए वे सामाजिक जीवन में एक प्रगतिशील दर्शन के रूप में भौतिकवाद के महत्व को बताते हैं ; खास तौर पर 1789 की फ्रांसीसी बुर्जुआ क्रांति के लिये एक विचारधारात्मक जमीन तैयार करने में भौतिकवाद की भूमिका को रेखांकित करते हैं । भौतिकवादी विचारों और प्राकृतिक विज्ञानों के क्षेत्र की उपलब्धियों के बीच कैसा जैविक संबंध होता है, वह भी इस पुस्तक में मार्क्स के तर्कों के बीच से निकल कर आता है । वे जोर देकर कहते हैं कि भौतिकवादी दार्शनिक चिंतन का आगे और रचनात्मक विकास  निश्चित रूप से दर्शनशास्त्र को कम्युनिस्ट निष्कर्षों तक ले जायेगा ।


इसमें सबसे दिलचस्प, गौर करने लायक बात यह है कि मार्क्स और एंगेल्स अतीत की प्रगतिशील दार्शनिक धाराओं का विवेचन करते हुए सिर्फ अतीत तक ही सीमित नहीं रह जाते हैं । 'पवित्र परिवार' में उन्होंने हेगेल के दर्शन के तार्किक तत्वों, उसकी द्वंद्वात्मकता को जिस प्रकार भौतिकवादी दृष्टि से विकसित करके पुनर्व्याख्यायित किया और पहले के भौतिकवादियों में जिस चीज की कमी थी, उसे दूर करते हुए उसके साथ द्वंद्वात्मकता को जैविक रूप से उससे जोड़ा, इसे भी 'पवित्र परिवार' में बखूबी देखा जा सकता है । ध्यान से देखने पर पता चलता है कि किस प्रकार 'पवित्र परिवार' के पूरे पाठ में द्वंद्वात्मकता का कितने रचनात्मक तरीके से प्रयोग किया गया है । सामाजिक-आर्थिक और विचारधारात्मक विषयों पर द्वंद्वात्मक दृष्टि के साथ किस प्रकार बढ़ा जाता है और सामाजिक तथा बौद्धिक प्रक्रियाओं में द्वंद्ववाद के मूलभूत वस्तुवादी नियम, खास तौर पर विरोधों की एकता और संघर्ष के नियम किस प्रकार काम करते है, इन्हें इस किताब के पूरे विन्यास में साफ देखा जा सकता है ।

(क्रमशः)

शनिवार, 12 अगस्त 2017

प्रशासन मोदी - योगी के वश की बात नहीं है



-अरुण माहेश्वरी

हैरोल्ड लास्की ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'राजनीति का व्याकरण' में लिखा था कि जनतंत्र में राज्य का संचालन विशेषज्ञों का काम है क्योंकि उसे उस जनता के हितों के लिये काम करना होता है जो अपने हितों के प्रति ही ज़्यादातर बेख़बर रहती है । ऐसे में सिर्फ वोट में जीतने से वास्तव में कोई प्रशासक नहीं हो जाता । ख़ास तौर पर जो लोग जनता के पिछड़ेपन का लाभ उठाने की राजनीति करते हैं, सत्ता पर आने के बाद वे जनता के जीवन में सुधार के नहीं, और ज्यादा तबाही के कारक बन जाते हैं ।

हैरोल्ड लास्की के इस कथन के क्लासिक उदाहरण हैं हमारे देश की मोदी सरकार और यूपी की योगी सरकार ।
मोदी जी को जब और कुछ नहीं सूझा तो उन्होंने नोटबंदी की तरह का तुगलकी कदम उठा कर पूरी अर्थ-व्यवस्था को ही पटरी से उतार दिया ।

जनता के हितों के लिये काम करने के लिये बनी सरकार ने एक झटके में लाखों लोगों के रोजगार छीन लिये; किसानों के उत्पादों के दाम गिरा कर पूरी कृषि अर्थ-व्यवस्था को चौपट कर दिया । जीडीपी का आँकड़ा 2016-17 की चौथी तिमाह में गिरते हुए सिर्फ 6.1 प्रतिशत रह गया है ; औद्योगिक उत्पादन मई महीने में -0.01 प्रतिशत की गिर कर इसमें वृद्धि की दर 1.7 प्रतिशत रह गई है। यहाँ तक कि बैंकों की भी, ख़ुद रिजर्व बैंक की हालत ख़राब कर दी । नोटबंदी के धक्के के कारण इस बार आरबीआई ने केंद्र सरकार को मात्र 30659 करोड़ रुपये का लाभ दिया है जो पिछले पाँच सालों में सबसे कम और पिछले साल की तुलना में आधा है । जाहिर है इससे अपने वित्तीय घाटे से निपटने में केंद्र सरकार की समस्या और बढ़ जायेगी जिसकी गाज जनहित के ही किसी न किसी प्रकल्प पर गिरेगी ।


पूरी अर्थ-व्यवस्था अभी इस क़दर बैठती जा रही है कि अब अर्थशास्त्री मुद्रास्फीति की नहीं, मुद्रा-संकुचन को आज की मुख्य समस्या बताने लगे हैं । मुद्रा संकुचन का अर्थ होता है कंपनियों के मुनाफ़े में तेज़ी से गिरावट और उनके ऋणों के वास्तविक मूल्य में वृद्धि । इसकी वजह से बैंकों का एनपीए पहले के किसी भी समय की तुलना में और तेजी से बढ़ेगा ।



इसी प्रकार,गोरखपुर अस्पताल में आक्सीजन की आपूर्ति की समस्या को जानने के बावजूद मुख्यमंत्री योगी बच्चों की मृत्यु का कारण उनकी बीमारियों को बता रहे है जबकि इन बीमारियों से जूझने के लिये ही उन्हें आक्सीजन दी जा रही थी । उन्होंने ख़ुद माना कि आक्सीजन के सप्लायर को उसका बक़ाया नहीं चुकाया गया था, फिर भी बच्चे और कुछ वयस्क भी, जो आक्सीजन पर थे, उनके अनुसार अपनी बीमारियों की वजह से मरे !

योगी की इन बेवक़ूफ़ी की बातों को क्या कहा जाए ? गनीमत है कि अभी तक उन्होंने अस्पताल पर किसी प्रेतात्मा के साये को ज़िम्मेदार नहीं बताया और यज्ञ-हवन के जरिये अस्पताल को उससे मुक्त करने का उपाय नहीं सुझाया है । लेकिन वे कल यदि ऐसे ही किसी भारी-भरकम आयोजन में बैठ जाए तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए ।

केंद्र सरकार से लेकर भाजपा की तमाम सरकारें पर्यावरण से लेकर दूसरी कई समस्याओं के समाधान के लिये आज किसी न किसी 'नमामि' कार्यक्रम में लगी हुई है । मोदी जी के पास देश की हर समस्या का समाधान प्रचार के शोर में होता है । वह भले स्वच्छ भारत का विषय हो या कोई और विषय हो ।

केंद्र और राज्य सरकारों के इन कार्यक्रमों में लाखों लोग शामिल होते है, अर्थात जनता ख़ुश होती है । लेकिन वास्तविकता यह है कि इन सारे प्रचारमूलक कामों से जनता का ही सबसे अधिक नुक़सान होता है । जन हितकारी प्रकल्पों के लिये धन में कमी करनी पड़ती है ।


मोदी सरकार पहली सरकार है जिसने उच्च शिक्षा और शोध में खर्च को पहले से आधा कर दिया है । मनरेगा का भट्टा पहले से ही बैठा दिया गया है । किसानों के कर्ज-माफी के सवाल पर भी बहुत आगे बढ़ कर कुछ करने की इनकी हिम्मत जवाब देने लगी है । ऊपर से कूटनीतिक विफलताओं के चलते सीमाओं पर युद्ध की परिस्थति पूरे परिदृश्य को चिंताजनक बना दे रही है ।

इसीलिये आज हैराल्ड लास्की बहुत याद आते हैं - जनतंत्र में प्रशासन खुद में एक विशेषज्ञता का काम है । यह कोरे लफ्फाजों के बस का नहीं होता है । मोदी और योगी के तमाम कदमों के पीछे की विवेकहीनता को देख कर इस बात को और भी निश्चय के साथ कहा जा सकता है ।

कार्ल मार्क्स : जिसके पास अपनी एक किताब है (31)


-अरुण माहेश्वरी

'युवा मार्क्स' की लंबी विचार यात्रा पर

इस प्रकार दर्शन, धर्म, राज्य और समाज से होते हुए राजनीतिक अर्थशास्त्र के अध्ययन की दिशा में मार्क्स की वैचारिक यात्रा के प्रस्थान की पूरी पृष्ठभूमि को हम बहुत साफ रूप में देख पा रहे हैं । मार्क्स के अध्येताओं ने उनके वैचारिक जीवन के इसी काल को युवा मार्क्स के काल के रूप में विवेचित किया है और बहुतेरे तो उनके इसी काल के लेखन पर इस हद तक फिदा है कि आगे के लगभग तीस साल के उनके महान कार्य को इसके सामने गौण समझते हैं । इसमें उन्हें एक बेहद प्रतिभाशाली युवक की वह ताजगी दिखाई देती है, जिसकी खुशबू और जिसकी संभावनाओँ के असीम विस्तार की कल्पना पर कौन नहीं मुग्ध होगा ! लेकिन सारी दुनिया जानती है कि यह तो किसी महान वैज्ञानिक की अनोखी परिकल्पनाओं की झलक भर थी । उनका आगे का समूचा कृतित्व जब इन परिकल्पनाओं की ठोस रूप में पुष्टि करता है, मनुष्य के द्वारा उसके भौतिक उत्पादन से उत्पन्न जीवन के जिन तमाम रूपों की साक्षात तस्वीर पेश करता है, तब मार्क्स हाथ में अपनी किताब थामे किसी सचमुच देवदूत से कम प्रतीत नहीं होते । आज भी जब हम नई से नई वैज्ञानिक खोजों के साथ बदलते मनुष्य के भौतिक उत्पादनों की संगति में सामाजिक संबंधों में आने वाले बदलावों की व्याख्या की कोशिश करते हैं तो उसके आधारभूत सूत्र मार्क्स के अलावा और कहीं नहीं मिलते । ये सूत्र कोई आधिभौतिक सूत्र नही, बल्कि परिवर्तन के नियम के सूत्र है । एंगेल्स ने लिखा था कि “(मनुष्य के इतिहास में ही नहीं) प्राकृतिक विज्ञान के क्षेत्र में हर युगांतकारी खोज के साथ भौतिकवाद को अपना रूप बदलना पड़ता है।“ इसीलिये मार्क्सवाद का यह तकाजा है कि प्राकृतिक-दार्शनिक प्रस्तावनाओं में भी मनुष्य द्वारा भौतिक उत्पादन की परिस्थितियों में परिवर्तन के अनुरूप हमेशा परिवर्तन किये जाते रहे । सचमुच विचारों की दुनिया में यह ऐसी कापरनिकस क्रांति है, जिसने आगे के सोच के पूरे परिप्रेक्ष्य और तौर-तरीकों को बुनियादी रूप से बदल दिया है ।



बहरहाल, अभी इन विषयों में जाने के पहले जरूरी है कि सन् 1838 से लेकर सन् 1844-45 तक के युवा मार्क्स की वैचारिक यात्रा के साथ ही हम इस काल के उनके जीवन की घटनाओँ के वृत्तांत पर से अपनी नजर न हटाए । अब तक के ब्यौरों से ही साफ है कि सन् '38-'39 के यंग हेगेलियन्स वाले काल में मार्क्स बॉन विश्वविद्यालय से बर्लिन पहुंच चुके थे, लेकिन 1843 में जब उन्होंने हेगेल के न्याय दर्शन पर काम शुरू किया और बावर बंधुओँ के जवाब देते हुए 'पवित्र परिवार' लिखा तब वे पेरिस में थे और फिर जब 'न्याय दर्शन की समीक्षा' वाली किताब की उन्होंने भूमिका लिखी, तब वे लंदन में जा बसे थे ।

इस प्रकार, मार्क्स का एक शहर से दूसरे शहर में ठौर खोजते हुए भटकना कभी उनका कोई स्वैच्छिक या पेशेवर चयन नहीं था, वे अपने लिये किसी कैरियर की तलाश में नहीं भटक रहे थे । इसके पीछे शुद्ध राजनीतिक कारण थे, जर्मनी, बेल्जियम, फ्रांस की सरकारों द्वारा उन्हें जलावतन की सजाएं थी । यह अकेला तथ्य इतना बताने के लिये काफी है मार्क्स के जरिये यूरोप के वैचारिक जीवन में पैदा हुए तूफानों का संपर्क सिर्फ मार्क्स के मस्तिष्क की हलचलों से ही नहीं था, भौतिक जीवन की उन सभी परिस्थितियों से भी था जो मानो किसी प्रयोगशाला की तरह उनकी प्रत्येक वैचारिक खोज को पुष्ट करती हुई उनका सैद्धांतिक निरूपण कर रही थी ।

इसके पहले कि हम सन् 1838 में मार्क्स के पिता हेनरिख की मृत्यु से लेकर 1844 तक के उनके घटना-बहुल जीवन की तफसील में जाएं, जिसमें 1843 में जेनी के साथ उनकी शादी का प्रसंग भी शामिल है, हम चाहते हैं कि इस काल में उनके विचारों की अब तक की श्रंखला में जिसमें हमने विस्तार के साथ धर्म के बारे में, और फिर न्याय दर्शन, समाज और राज्य के बीच संबंधों के पर दृष्टिपात किया, उसी क्रम में, संक्षेप में ही क्यों न हो, उनकी महत्वपूर्ण कृति 'पवित्र परिवार' के बारे में थोड़ी चर्चा कर लें। इसे भी मार्क्स के भौतिकवादी विचारों के द्वंद्वात्मक स्वरूप के निर्माण को सूचित करने वाली एक सबसे अहम कृति माना जाता है । इसके कुछ अंशों पर हम यदि सूक्ष्मता से नजर डालेंगे तो उनसे मार्क्स के लेखन की उस विशेष शैली का भी अनुमान मिलेगा जो हमें यह बताती है कि कैसे लेखक, कलाकार की शैली भी उसका एक प्रमुख परिचय हुआ करती है ।
                                      (क्रमशः)   

शुक्रवार, 11 अगस्त 2017

सीपीआई(एम) पर बहुमतवादियों का यह कैसा मकड़जाल है !

- अरुण माहेश्वरी


सीपीआई(एम) के अंदर 1996 के बाद से ही जब मतदान और बहुमत के जरिये संयुक्त मोर्चा के सर्वसम्मत चयन के बावजूद ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनने से रोक दिया गया, प्रकाश करात के नेतृत्व में बहुमतवादियों ने एक अनोखी परिपाटी चला दी है कि देश और पार्टी के सबसे महत्वपूर्ण से महत्वपूर्ण विषयों पर मतदान के जरिये निर्णय लिये जाएं । मजे की बात यह है कि पार्टी की काम करने की इस पद्धति को जनवादी केंद्रीयतावाद कह कर महिमामंडित किया जाता है । सीपीआई (एम) के अंदर के लोग इसी बात पर खुश हो लेते हैं कि वे पार्टी के संचालन की सर्व-स्वीकृत लेनिनवादी लाइन का पूरी निष्ठा से पालन कर रहे हैं । और अपनी इस सिद्धांत-निष्ठा के जोश में वे न सिर्फ पार्टी के लगातार पतन की सच्चाई से आंख मूंदे रहते हैं बल्कि खुद अपनी पार्टी के संविधान को भी पूरी तरह से भूल जा रहे हैं ।

सीपीआई(एम) के संविधान के जिस परिच्छेद में 'जनवादी केंद्रीयतावाद के सिद्धांतों' के बारे में विस्तार से कहा गया है, उसमें बहुत साफ शब्दों में यह भी कहा गया है कि “ जब किसी पार्टी कमेटी में गंभीर मतभेद पैदा हो जाए तो सहमति पर पहुंचने की हर संभव कोशिश की जानी चाहिए । इसमे विफल होने पर निर्णय को टाल दिया जाना चाहिए ताकि आगे और बहस के जरिये मतभेदों को दूर किया जा सके, बशर्ते पार्टी और जन आंदोलन की जरूरतों को देखते हुए तत्काल फैसला करना आवश्यक न हो ।“(धारा – 13, 2सी)

अपने ही संविधान की इस धारा की भावना के विपरीत, कोरे संख्या बल से सारी चीजों को तय करने की इन बहुमतवादियों की जकड़बंदी ने आज सीपीआई(एम) को किस प्रकार हंसी का पात्र बना कर छोड़ दिया है, यह पिछले सभी अनुभवों के बाद एक बार फिर कामरेड सीताराम येचुरी को राज्य सभा से वापस बुला लेने की घटना में देखा गया ।  कहना न होगा, सीपीआई(एम ) के बहुमतवादियों ने कामरेड सीताराम येचुरी को राज्य सभा से विदा होने के लिये मजबूर करके एक बार फिर पार्टी के अंदर अपनी एक महान जीत अर्जित कर ली और संसद में सीपीआई(एम) की आवाज को कमज़ोर करके उसे संसदवादी भटकाव से बचाने और 'क्रांतिकारी' रास्ते पर अडिग रखने की दिशा में एक और बड़ी सैद्धांतिक सफलता भी प्राप्त कर ली । यद्यपि बहुत सारे लोगों के मन में आज भी यह सवाल बना रह गया है कि यदि कांग्रेस पार्टी ने सीताराम येचुरी के बजाय सीपीआई(एम) के बहुमतवादियो में से किसी नेता या नेत्री को अपना समर्थन देने की पेशकश की होती तब भी क्या सीपीआई(एम) अपनी उस विचारधारात्मक शुद्धता पर इसी भाव के साथ डटी रहती !


हम जानते हैं, जब यूपीए-1 को समर्थन देने का फैसला किया गया था, इन्हीं बहुमतवादियों को कांग्रेस को समर्थन देने में कोई सैद्धांतिक संकोच नहीं हुआ था, क्योंकि पर्दे के पीछे, अंधेरे में काम करने के अभ्यस्त सीपीआई(एम) के इस 'क्रांतिकारी' समूह के लिये इसमें अंदर-अंदर अपने वर्चस्व के दिखावे का खेल खेलने की पूरी संभावना नज़र आ रही थी । और, अपनी इसी थोथी हेकड़ी के प्रदर्शन के चक्कर में बेबात ही इस तबके ने यूपीए-1 सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया था । तभी से प्रकाश करात और उनके साथ के बहुमतवादियों अंध कांग्रेस-विरोध की जो गांठ बांध ली उसने जैसे पूरी पार्टी के ही हाथ-पांव बांध कर रख दिये । इस एक नीति ने सीपीआई(एम) को एक कागजी शेर बना कर छोड़ दिया है । वह सिर्फ बयानबाजी की पार्टी बन कर रह गई है । सांप्रदायिकता के खिलाफ जनता की अधिकतम एकता की उसकी सारी बातें यथार्थ की जमीन पर खोखली हो जाती है, क्योंकि हमारी राजनीतिक सच्चाई यह है कि कांग्रेस को अलग करके साप्रदायिकता के खिलाफ किसी भी व्यापक लड़ाई की कल्पना भी नहीं की जा सकती है ।

इस प्रकार, सीपीआई(एम) का बहुमतवादी समूह कांग्रेस से दूरी रखने की अपनी नीति पर तो अटल है, लेकिन वह सांप्रदायिक ताकतों के खिलाफ जनता के व्यापक एकजुट आंदोलन को बड़ी आसानी से भूल जा रहा है । फलतः, थोथी बयानबाजियों और इस प्रकार राजनीति के रंगमंच पर पूरी तरह से अप्रासंगिक हो जाने के अलावा उसके पास कुछ नहीं रह जा रहा है ।

हाल में सीपीआई(एम) के मुखपत्र 'पीपुल्स डेमोक्रेसी' में, जिसके संपादक प्रकाश करात है, बिहार में नीतीश के विश्वासघात के प्रसंग में निहायत अप्रासंगिक तरीक़े से कांग्रेस को घसीट कर यह फैसला सुनाया है कि भाजपा के खिलाफ ऐसा कोई भी संयुक्त प्रतिरोध सफल नहीं हो सकता है जिसमें कांग्रेस दल शामिल होगा । इसमें कांग्रेस को नव-उदारवादी नीतियों को लादने के लिये मुख्य रूप से ज़िम्मेदार बताते हुए कहा गया है कि भाजपा को हराने के लिये जरूरी है कि हिंदुत्व की सांप्रदायिकता के साथ ही नव-उदारवाद से भी लड़ा जाए ।
हमारा इन 'सिद्धांतकारों' से एक छोटा सा सवाल है कि नव-उदारवाद से उनका तात्पर्य क्या है ? क्या यह इक्कीसवी सदी के पूँजीवाद से भिन्न कोई दूसरा अर्थ रखता है ? तब क्या फासीवाद-विरोधी किसी भी संयुक्त मोर्चे की यह पूर्व-शर्त होगी कि उसे पूँजीवाद-विरोधी भी होना पड़ेगा ? क्या मार्क्सवादी सिद्धांतकारों ने फासीवाद को पूँजीवाद के दायरे में भी एक अलग स्थान पर नहीं रखा था ? स्टालिन ने जब कहा था कि जनतंत्र के जिस झंडे को पूँजीवाद ने फेक दिया है, उसे उठा कर चलने का दायित्व कम्युनिस्टों का है, तब क्या वे प्रकारांतर से पूँजीवाद की ताक़तों के साथ संयुक्त मोर्चा बनाने की पैरवी ही नहीं कर रहे थे ?

प्रकाश करात ने ही कुछ दिनों पहले 'इंडियन एक्सप्रेस' में यह लिखा था कि वे अभी भाजपा को फासीवादी नहीं कहेंगे । इस पर भारी विवाद हुआ था, लेकिन किसी भी सवाल का जवाब देने के बजाय वे चुप्पी साध कर बैठे रहे थे । यही वह बहुमतवादी समूह है जिसने यूपीए-1 से निकल कर वामपंथ के 'अभूतपूर्व विस्तार' की दिशा में छलाँग लगाई थी । इसके पहले के ज्योति बसु वाले प्रसंग की हम पहवे ही चर्चा कर चुके हैं जब केंद्रीय कमेटी में बहुमत जुटा कर भारतीय राजनीति में वर्चस्व की लड़ाई से वामपंथ को हमेशा के लिये अलग कर लिया गया था और प्रकारांतर से इसकी लगाम को भाजपा के सुपुर्द करने का महान कृत्य किया गया ।

वास्तविकता यह है कि कोई भी दल सत्ता में हो, परिस्थिति अंतर्विरोधों से रहित नहीं रह सकती । उसकी दरारों में हमेशा बदलाव के लक्षणों को पाया जा सकता है । संसदीय राजनीति में जनवादी ताक़तों की कार्यनीति की भूमिका यह है कि उन दरारों का लाभ कैसे क्रमश: प्रगतिशील शक्तियों के पक्ष में उठाया जाए न कि प्रतिक्रियावादियों को उनका लाभ उठाने की अनुमति दी जाए । कार्यनीति कभी भी तथाकथित शुद्धतावाद की बहादुरी से तय नहीं की जाती है । शुद्धतावाद आपको पार्टी में गुटबाज़ी के लिये एक आड़ तो प्रदान कर सकता है, कभी किसी दल के साथ संयुक्त मोर्चा बनाने की अनुमति नहीं दे सकता । जैसा कि ट्राटस्कीपंथियों की लंबी-चौड़ी, लेकिन खोखली दलीलों में देखा जा सकता है ।

कार्यनीति का मतलब ही है राजनीति में अपने वर्तमान के हित को साधो, अपने मित्रों के दायरे को बढ़ाओ । और जो अपने वर्तमान को नहीं साध सकते वे भविष्य के लिये भी किसी काम के नहीं रहते हैं । जिस महान नैतिकता के लक्ष्य के लिये ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनने से रोका गया और फिर भारत को साम्राज्यवाद से मुक्त करने के जिस महान लक्ष्य के लिये यूपीए-1 से समर्थन वापस लिया गया, भारतीय वामपंथ उन्हीं 'शौर्य गाथाओं' के खोखलेपन का भुक्त भोगी है । आज फिर सीपीएम में ये बहुमतवादी अपनी गुटबाज़ी के स्वार्थ में उसी प्रकार का थोथी वीरता के प्रदर्शन वाला डान क्विगजोटिक खेल खेल रहे हैं ।

नव-उदारवाद से लड़ाई का जो अर्थ पश्चिम के विकसित साम्राज्यवादी देशों में है, भारत की तरह के विकासशील देश में नहीं है । अमेरिका में ओबामा केयर के लिये लड़ाई भी नव-उदारवाद के खिलाफ लड़ाई है । यह वहाँ विकसित हुए व्यापक सामाजिक सुरक्षा के नेटवर्क की रक्षा की लड़ाई है जिसके हवाले से पश्चिम के बुद्धिजीवी इन विकसित देशों को साम्यवाद से सिर्फ एक कदम पीछे बताने की तरह की व्याख्याएँ भी किया करते है। उस लड़ाई को गोरक्षा, लिंचिंग और राममंदिर में अटके हुए भारत की लड़ाई बताना स्वयं में एक बहुत बड़ी विच्युति है ।

जनतंत्र पर तंज करता हुआ इक़बाल का यह मशहूर शेर है -
'जम्हूरियत इक तर्ज़-ए-हुकूमत है कि जिस में
बंदों को गिना करते हैं तौला नहीं करते'

सीपीएम के बहुमतवादी प्रकाश करात के नेतृत्व में पार्टी के अंदर इसी प्रकार के जनतंत्र को साधने में लगे हुए हैं। इन्हें ऐतिहासिक क्षणों में भी शुद्ध संख्याबल पर निर्णय लेने में कोई संकोच नहीं होता और उसे 'आंतरिक जनतंत्र' की जीत बता कर डुगडुगी बजाते हैं । ऐसा लगता है कि सीपीआई(एम) में प्रकाश करात के नेतृत्व में बहुमतवादियों ने भाजपा के खिलाफ एकजुट प्रतिरोध में कांग्रेस को शामिल करने के मामले में चल रहे मतभेदों को उनकी अंतिम परिणति तक ले जाने, अर्थात पार्टी को तोड़ डालने तक का निर्णय ले लिया है ।