रविवार, 16 अगस्त 2015

मस्जिद में प्रधानमंत्री

-अरुण माहेश्वरी



प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी यूएई के आबू धाबी की शेख ज़ायेद मस्जिद में गये। यह उनका एक स्वागतयोग्य, महत्वपूर्ण कदम है।

ये वही प्रधानमंत्री है जिन्होंने एक खास मौके पर मुसलमानी टोपी पहनने से सार्वजनिक तौर पर इंकार कर दिया था। ये वही प्रधानमंत्री है जो ईद के मौके पर कोई इफ्तार पार्टी नहीं देते। वे जिस संघ परिवार की संस्कृति में पले-बढ़े हैं उसमें भारत के लगभग 20 करोड़ मुसलमानों की धार्मिक-सांस्कृतिक पहचान के किसी भी पहलू को तवज्जो देना तुष्टीकरण माना जाता है। गुजरात के 2002 के जनसंहार की बात को एक बार छोड़ देते है। उसके बाद से, जब इन्होंने अपनी छवि को एक कुशल प्रशासक के रूप तैयार करना शुरू किया, तब भी मुसलमानों के प्रति उनका नजरिया हमेशा कुछ ऐसा ही रहा कि हम आपके अस्तित्व से इंकार नहीं करते, भारतीय नागरिक के रूप में आपके अधिकारों को भी स्वीकारते हैं, लेकिन इससे अधिक आपके साथ हमारा कोई ज्यादा करीबी रिश्ता नहीं हो सकता। दूर से दुआ-सलाम बनी रहे, यही काफी है।

दरअसल, यही खास संघी संस्कृति है। पिछले दिनों इसका सबसे जघन्य रूप लव जेहाद वाले मसले में सामने आया था। जिसको आपने हमेशा के लिये अपना शत्रु मान लिया है, उससे हमेशा दूरी रख कर चलना ही आपकी मजबूरी है। जब भी आप किसी व्यक्ति को करीब से जानने लगेंगे तो उससे कभी नफरत नहीं कर पायेंगे। इसीलिये संघ की सांप्रदायिक घृणा की राजनीति का तकाजा है कि मुस्लिम समाज से लोगों को अधिक से अधिक दूर रखा जाए। वे उन्हें समाज की एक बुराई के तौर पर देखते हैं और समाज या सरकार में महत्व के किसी भी स्थान पर उनकी उपस्थिति को संदेहास्पद बनाने की भरसक कोशिश करते हैं। हमारे वर्तमान उपराष्ट्रपति को लेकर पिछले दिनों वे जिस प्रकार के झूठे विवाद पैदा करते रहे हैं, उसके पीछे भी मूलत: उनकी यही मंशा काम कर रही थी।

दरअसल, नफरत और हिंसा पर टिकी राजनीति के लिए जरूरी होता है कि आदमी के अंदर हमेशा एक ऐसा स्थायी भाव बना रहे कि वह शत्रु को मनुष्य ही न समझे। वह यह मान कर चले कि ‘जिसे हमने मारा वह मनुष्य नहीं, अपराधी कुत्ता था’। ऐसे आदमी या समुदाय के बारे में जानना नहीं, बल्कि न जानना इस राजनीति के लिए जरूरी होता है। अगर आप ‘शत्रु’ को मनुष्य के रूप में जान लेंगे तो उसकी हत्या करने पर खुद को मनुष्य की हत्या का दोषी मानने लगेंगे। यह मनुष्यत्व-बोध सांप्रदायिक-बोध के बिल्कुल विपरीत है।

गौर करने लायक बात यह है कि सभी समाजों के रूढि़वादी, पारंपरिक रीति-रिवाजों और आदमी की आदतों की समाज के विभिन्न समुदायों के बीच दूरियों को बनाये रखने में एक बड़ी भूमिका होती है। प्रगतिशील मनुष्य इसीलिये हमेशा इन पारंपरिक रीति-रिवाजों और कर्मकांडों से टकराता है, इन्हें चुनौती देता है।

कुछ लोगों का मानना है कि विकास एक ऐसा मंत्र है जिसके फूंक देने से इसप्रकार की सामाजिक-सामुदायिक दूरियां स्वत: खत्म होजाती है। लेकिन हम तो यह देख रहे हैं कि इस उपभोक्तावादी समाज में भी अच्छा उपभोक्ता बनाने के साथ ही हिंदुत्ववादी और मुस्लिम-विद्वेषी बनाने की प्रक्रिया भी साथ-साथ चलती रहती है।  सहनशीलता की हदों की दुहाई देते हुए, सहनशील न बनने का संदेश पहुंचाया जाता है।

इसीलिये हमारा तो मानना है कि अधिक से अधिक जरूरत समुदायों के बीच करीबियत, उनके आपसी मेल-जोल पर बल देने की है। प्रधानमंत्री ने मस्जिद में कदम रख कर अपने अंदर की एक बाधा को तोड़ा है, मुस्लिम समाज के धार्मिक-सांस्कृतिक प्रतीकों के प्रति सम्मान का संकेत दिया है। इसीलिये हम उनके इस कदम का स्वागत करते हैं।

अरुण माहेश्वरी

शुक्रवार, 14 अगस्त 2015

असम में डायन के नाम पर हत्या के खिलाफ कड़ा कानून


सरला माहेश्वरी



कल (13 अगस्त को) असम विधान सभा ने डायन हत्या निवारक कानून (Prevention and Protection from Witch-Hunting Bill 2015) पारित किया है। इस कानून में प्राविधान है कि कोई भी यदि किसी स्त्री को डायन बताता है तो उसे तीन से पांच साल की सख्त सजा होगी और पचास हजार से पांच लाख रुपये तक का जुर्माना देना होगा। डायन बता कर जुल्म करने वाले को 5 से 10 साल की सजा और एक से 5 लाख रुपये तक का जुर्माना भरना होगा। अगर इस प्रकार के किसी काम में किसी समूह को दोषी पाया जाता है तो उस समूह के हर व्यक्ति को 5 से 30 हजार रुपये तक का जुर्माना देना होगा। डायन बता कर किसी की हत्या करने पर धारा 302 के तहत मुकदमा चलेगा। डायन बता कर यदि किसी को आत्म-हत्या के लिए मजबूर किया जाता है तो उसे 7 साल से उम्रकैद तक की सजा और एक लाख से 5 लाख तक का जुर्माना देना होगा। इसप्रकार के मामलों की जांच में गफलत करने वाले जांच अधिकारी को भी दंडित किया जायेगा। उसे 10 हजार रुपये का जुर्माना भरना होगा।

असम का यह कानून बिहार, उड़ीसा, झारखंड और महाराष्ट्र के ऐसे ही कानून से ज्यादा सख्त कानून है। असम में पिछले पांच सालों में 70 औरतों को डायन बता कर उनकी हत्या कर दी गई थी। जांच करने पर पता चला है कि इनमें से अधिकांश मामलों के मूल में जमीन और संपत्ति का विवाद था।

हम सभी जानते है कि इसी 8 अगस्त को झारखंड में पाँच औरतों को डायन बताकर मार डाला गया था। पिछले  दस वर्षों में वहाँ इस तरह अब तक 1200 औरतों को डायन बताकर मारा जा चुका है ।

देश के अन्य भागों में भी इस तरह की घटनाएँ अक्सर घटती रहती हैं। जिनकी इस प्रकार हत्या की जाती हैं उनमें अधिकांश नहीं, बल्कि सर्वांश ग़रीब, कमज़ोर और विधवा औरतों का है । उन्हें कभी चुड़ैल, डायन या कुलटा बताया जाता है तो कभी सती बना कर चिता पर चढ़ा दिया जाता है । इस विषय में धर्म और परम्पराओं के ये खूनी रक्षक और सारे प्रतिगामी विचारों के लोग एक हैं ।

हिंदू कोड बिल का इतिहास हम भूले नहीं हैं। हम कैसे भूल सकते हैं कि 1987 में राजस्थान के दिवराला में 18 वर्ष की रूपकंवर को उसके मृत पति के साथ जिन्दा जला दिया गया था । इन सभी अवसरों पर परम्परा की रक्षा के नाम पर संघ परिवार वालों ने चरम प्रतिक्रियावादी भूमिका अदा की थी । संसद तक में सती प्रथा कानून में संशोधन का भाजपा ने विरोध किया था। आज वही भाजपा सत्ता में है । तमाम बाबाओं के, कर्मकांडियों के हौसले परवान चढ़े हुए हैं। कभी लव-जेहाद तो कभी खाप पंचायतें मानवाधिकारों का सरे आम मज़ाक़ उड़ा रही हैं ।

याद आती है वह कविता जो रूपकंवर को सती के नाम पर जला कर मार डालने की घटना पर लिखी गई थी :

यकीन नहीं होता

यकीन नहीं होता कैसे बरदाश्त किया होगा तुमने
आग की उन लपटों को
कैसे बरदाश्त किया होगा तुमने
सती मां की जय-जयकार करती
उस उन्मादित भीड़ को
जिसने सुनकर भी अनसुना कर दिया
तुम्हारी चीखों-चिल्लाहटों को

यकीन नहीं होता रूपकंवर
कि तुम्हारे रुकते, सहमते
फिर-फिर लौट आते कदमों को
जबरन मौत के मुंह में धकेलती
इस भीड़ को तुमने जल्लादों के रूप में नहीं देखा होगा

यकीन नहीं होता रूपकंवर
कि तुम्हारे रोएं रोएं ने
अपनी सम्पूर्ण शक्ति से इन्हें धिक्कारा नहीं होगा
यकीन नहीं होता रूपकंवर
कि इस बर्बर मौत की तरफ बढ़ते तुम्हारे कदमों ने
आगे बढ़ने से इंकार नहीं किया होगा।

यकीन नहीं होता रूपकंवर
कि तुम्हें मारकर तुम्हारा परलोक
और अपना इहलोक सुधारने वाली
कूट स्वार्थों से भरी उन निगाहों को तुमने पढ़ा नहीं होगा

यकीन नहीं होता रूपकंवर
कि तुमने अपने होशो-हवाश में
चुनी होगी ऐसी मौत

सच बतलाना रूपकंवर
किसने किसने किसने
तुम्हारे इस सुंदर तन-मन को आग के सुपुर्द कर दिया
क्या तुम्हें डर था
कि देवी न बनी तो डायन बना दी जाओगी
क्या तुम्हे डर था
अपने उस समाज का
जहां विधवा की जिंदगी
काले पानी की सजा से कम कठोर नहीं होती
लेकिन फिर भी
यकीन नहीं होता रूपकंवर
कि हिरणी की तरह चमकती तुम्हारी आंखों ने
यौवन से हुलसते तुम्हारे बदन ने
आग की लपटों में झुलसने से इंकार नहीं किया होगा।

यकीन नहीं होता रूपकंवर
कि मौत की लपटों से जूझते हुए
तुम्हारी आंखों ने
इंतजार नहीं किया होगा किसी और राममोहन का
जो बुझा देता उन दहकते अंगारों को
खींच कर बाहर ले आता तुम्हें इस अग्नि ज्वाला से
यकीन नहीं होता रूपकंवर
अविरामवार्य एधि!
हे प्रकाश हमारे बीच तुम्हारा आविर्भाव परिपूर्ण हो।




मंगलवार, 4 अगस्त 2015

सुमित्रा महाजन और हिटलर का संसदीय इतिहास

अरुण माहेश्वरी


हिटलर, गोरिंग, गोयेबल्स और हेस

लोक सभा से कांग्रेस के 25 सांसदों को निष्काषित करके जिस प्रकार लोक सभा को चलाने की कोशिश की जा रही है, वह अनायास ही हिटलर के पार्लियामेंट (राइखस्टाग) की यादों को ताजा कर देती है। आइये, यहां हम संक्षेप में राइखस्टाग के उस काले अध्याय के पृष्ठों पर सरसरी तौर पर नजर डालते हैं।

हिटलर ने जर्मनी के चांसलर के रूप में सबसे पहले 30 जनवरी 1933 के दिन शपथ ली थी। चुनाव में जर्मन पार्लियामेंट की 583 सीटों में नाजी पार्टी और उसकी सहयोगी संरक्षणवादी नेशनलिस्ट पार्टी के पास कुल मिला कर 247 सीटें थी। द्वितीय विश्वयुद्ध में जर्मनी की पराजय के बाद न्यूरेमबर्ग में हिटलर और उसके सहयोगी नाजियों के अपराधों पर जो मुकदमा चला था, उसमें रखे गये दस्तावेजों से पता चलता है कि शाम के पांच बजे हिटलर के चांसलर बनने के पांच घंटे बाद ही उसके कैबिनेट की एक बैठक हुई थी। इस बैठक में विचार का मुख्य विषय यह था कि कैसे पार्लियामेंट में उनके गठबंधन के अल्पमत को बहुमत में बदला जाए। तब सेंटर पार्टी के पास 70 सीटें थी और यह तय किया गया कि उस पार्टी के नेताओं के साथ संपर्क किया जाए। हिटलर ने अपने सहयोगी गोरिंग को इस काम का जिम्मा दिया।

सेंटर पार्टी के नेताओं से बातचीत करके गोरिंग ने कैबिनेट को बताया कि उनकी शर्तें ऐसी है कि जिनके कारण उनका समर्थन नहीं मिल सकता है, इसलिये फिर से चुनाव कराने के अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं है। हिटलर गोरिंग के इस प्रस्ताव से तत्काल सहमत होगया था, लेकिन नेशनलिस्ट पार्टी के नेता हगेनबर्ग तैयार नहीं थे। उन्हें लगता था कि अगर अभी फिर से चुनाव होता है तो हिटलर राज्य की पूरी ताकत झोंक कर चुनाव जीत लेगा और तब उसे किसी सहयोगी पार्टी के समर्थन की जरूरत नहीं होगी। उल्टे, हगेनबर्ग ने कैबिनेट में राजसत्ता के प्रयोग से कम्युनिस्टों को कुचल देने का प्रस्ताव रखा, जिनके पास तब 100 सीटें थी।

हिटलर इसके लिये तैयार नहीं हुआ और उसने खुद सेंटर पार्टी के नेताओं से बात करने का जिम्मा ले लिया। बिल्कुल सोचे-समझे ढंग से इस बातचीत को विफल करने के उद्देश्य से ही हिटलर ने सेंटर पार्टी के नेता मोनसेनियर कास से बात शुरू की। कास ने हिटलर के सामने कई शर्ते रखी, उनमें एक शर्त यह भी थी कि वह संविधान के अनुसार काम करें। लेकिन हिटलर ने दुनिया को बताया कि कास ने उनके सामने बिल्कुल असंभव शर्ते रखी है, इसलिये उनसे समझौते की कोई गुंजाइश नहीं है। और, राष्ट्रपति से पार्लियामेंट को भंग करके फिर से चुनाव कराने की सिफारिश कर दी गई। 5 मार्च 1933, नये चुनाव की तारीख मुकर्रर हुई।

30 जनवरी 1933 के दिन हिटलर चांसलर बना और 31 जनवरी को गोयेबल्स ने अपनी डायरी में लिखा कि ‘‘हमने फ्युहरर के साथ बैठक करके लाल आतंक से लड़ने का पूरा खाका तैयार कर लिया है। हम उनसे सीधे नहीं टकरायेंगे, बल्कि पहले बोल्शेविक क्रांति का विस्फोट होने देंगे। तभी मौका देख कर वार करेंगे।’’

चुनाव की घोषणा के बाद ही हिटलर ने सबसे पहले पूंजीपतियों की एक बड़ी सभा बुलाई जहां लगभग डेढ़ घंटे का लंबा भाषण दे कर उन्हें तमाम प्रकार की सुविधाएं देने और कम्युनिस्टों से हमेशा के लिये बचाने का वादा करके हिटलर के प्रचार अभियान को पूरा समर्थन देने का आह्वान किया। उधर सरकार में गोरिंग ने सभी महत्वपूर्ण पदों पर नाजी पार्टी के ‘तूफानी दस्तों’ के लोगों को बैठाने का काम शुरू कर दिया। हिटलर ने पुलिस को यह साफ निर्देश दे दिया कि वह नाजी पार्टी के ‘तूफानी दस्तों’ के लोगों से कभी न उलझे और साथ ही हिटलर के विरोधियों के खिलाफ बंदूक का प्रयोग करने से कभी न हिचके। गोरिंग ने अलग से पचास हजार लोगों का एक सहयोगी पुलिस बल तैयार किया। और इसप्रकार पुलिस का काम नाजी गुंडे करने लगे। हिटलर के चुनाव-प्रचार में राज्य की पूरी मशीनरी को झोंक दिया गया।

इसके साथ ही कम्युनिस्ट पार्टी के मुख्यालय पर छापे मारे गये। उकसावे की और भी कई कार्रवाइयां हुई। लेकिन इन उकसावों के बावजूद, कहीं से कम्युनिस्ट क्रांति की ऐसी कोई ‘लपट’ नहीं उठी जिसकी प्रतीक्षा में हिटलर का पूरा कुनबा बैठा हुआ था। तभी, 27 फरवरी 1933 का दिन आया। हिटलर गोयेबल्स के घर पर एक डिनर में गया था। गोयेबल्स के अनुसार, जिस समय वे ग्रामोफोन पर गाने सुन रहे थे, उसी समय एक फोन आया कि राइखस्टाग में आग लग गयी है। हिटलर और गोयेबल्स तत्काल आग की जगह पहुंच गये और वहां जाते ही बिना किसी जांच के हिटलर ने चिल्लाते हुए यह घोषणा कर दी - ‘यह कम्युनिस्टों का अपराध है’।

राइखस्टाग में लगी इस आग की सचाई अब तक भी पूरी तरह से सामने नहीं आई है, लेकिन तत्कालीन चीफ आफ जर्मन जैनरल स्टाफ, जैनरल फ्रैंज हाल्डर ने न्युरेमबर्ग में यह गवाही दी थी कि ‘‘1942 में हिटलर के जन्मदिन पर हुए भोज में जब राइखस्टाग की इमारत की कलात्मकता पर गप चल रही थी तब मैंने अपने कानों से गोरिंग को उस बातचीत में हस्तक्षेप करके ऊंची आवाज में यह कहते सुना था कि ‘सिर्फ एक आदमी राइखस्टाग के बारे में सच को जानता है और वह मैं हूं, क्योंकि मैंने ही उसमें आग लगाई थी।’’

बहरहाल, राइखस्टाग की आग और कम्युनिस्ट क्रांति का भूत खड़ा करके ही हिटलर ने राष्ट्रपति हिंडेनबर्ग को मजबूर किया और संविधान के उन सातों प्राविधानों को खारिज करवाने का अध्यादेश जारी करवा लिया जिनमें व्यक्ति और नागरिक के अधिकारों को सुरक्षा प्रदान की गई थी। कहा गया कि यह कदम राज्य को कम्युनिस्टों की हिंसक कार्रवाइयों से बचाने लिये उठाये गये आत्म-रक्षा के कदम हैं।

इस प्रकार, भारी उत्तेजना की परिस्थतियों में जर्मनी में 5 मार्च 1933 का चुनाव हुआ जिसे हिटलर के काल का अंतिम चुनाव कहा जा सकता है। तमाम सरकारी, गैर-सरकारी संसाधनों का पूरी नग्नता से इस्तेमाल करके और दमन और आतंक की खुली कार्रवाइयों के बावजूद, इस चुनाव में भी नाजियों को अकेले पूर्ण बहुमत नहीं मिल पाया। नेशनलिस्ट पार्टी का समर्थन जोड़ लेने पर उसे बहुमत से सिर्फ 16 सीटें ज्यादा मिली थी। दो तिहाई बहुमत तो बहुत दूर की बात थी।

15 मार्च 1933 के दिन हिटलर के कैबिनेट की एक बैठक हुई। इस बैठक में विचार का एक प्रमुख विषय था, कैसे इस पूर्ण बहुमत को दो तिहाई बहुमत में बदला जाए। उसीमें यह तय किया गया कि कम्युनिस्ट पार्टी के जो 81 सदस्य है, उन्हें पार्लियामेंट में घुसने से रोक कर समस्या का थोड़ा सा समाधान हासिल किया जा सकता है। इसके अलावा, गोरिंग ने यह प्रस्ताव भी रखा था कि सोशल डैमोक्रेटिक पार्टी के भी कुछ सदस्यों को पार्लियामेंट में घुसने से रोका जा सकता है। और इसप्रकार, साधारण बहुमत को आसानी से दो-तिहाई बहुमत में बदल देने की रणनीति तैयार कर ली गई।

इतिहासकारों ने इस तथ्य पर गौर किया है कि उस काल में हिटलर तो पूरे जोश में था। 28 फरवरी के राष्ट्रपति के अध्यादेश से उसे यह अधिकार मिला हुआ था कि वह किसी भी व्यक्ति को बिना कोई कारण बताए गिरफ्तार कर सकता है। कैबिनेट की इसी बैठक में कैथोलिक सेंटर पार्टी का भी प्रश्न उठा था और हिटलर ने साफ कहा था, उनकी परवाह न करें। वे हमारे खिलाफ एक शब्द नहीं बोल पायेंगे। नेशनलिस्ट पार्टी के हगेनबर्ग को हिटलर के हाथ में सारी सत्ता के संकेंद्रण से चिंता थी, लेकिन उसे भी डरा-धमका कर दबा दिया गया।

और इसप्रकार, हिटलर ने जर्मन पार्लियामेंट में अपनी अल्पमत की पार्टी को दो-तिहाई बहुमत की पार्टी में बदल कर खुद को जर्मनी का एकछत्र शासक बना लिया। इसके बाद के उसके जुल्मों और दरींदगी की कहानी सारी दुनिया जानती है।

लोकसभा में कांग्रेस के 25 सदस्यों को एकमुश्त सदन से निकाल कर सुमित्रा महाजन ने सदन को चलाने की जो पेशकश की है, उसमें संसद पर एकक्षत्र अधिकार कायम करने की हिटलरी जोर-जबर्दस्ती की झलक मिलती है।