(सत्य के बरक्स प्रमाता के चित्त की एक नई त्रिकोणात्मक संरचना की प्रस्तावना)
−अरुण माहेश्वरी

“वर्तमान भू-राजनीति का एक नया मनोविश्लेषणात्मक रेखाचित्र”1 लेख के बीच से ही हमारे सामने प्रमाता के चित्त के गठन की यथार्थ, प्रतीकात्मक और छविमूलक (Real, Symbolic, Imaginary)(RSI) बोरोमियन गॉंठ की जॉक लकान की अवधारणा के समानांतर अभिनवगुप्त के तंत्रालोक से कश्मीर शैव दर्शन में प्रमाता के चित्त की जो एक और संरचना का चित्र उभर कर आता है, वह है चिति–आनन्द–इच्छा की त्रिकोणीय संरचना का चित्र । लकान जिस बोरोमियन गांठ से प्रमाता के चित्त के सिंथोमिक गठन अर्थात् प्रमाता की अपनी फैंटेसी, उसके विश्वबोध, कुल मिला कर उसकी topology से निर्मित लक्षणों में अधिष्ठित संरचना और उसकी स्थिर-गत्यात्मकता की व्याख्या करते हैं और उससे RSI की बोरोमियन गांठ की एक पूरी गतिशील अवधारणा बनती है, बिल्कुल वैसे ही अभिनवगुप्त के प्रमाता के चित्त की चिति-आनंद-इच्छा की त्रिकोणीय संरचना में भी उसकी फैंटेसी की भूमिका को ‘विश्व चित् रूपी संविद्’ के रूप में लिया गया है जो वस्तु के प्राथमिक बोध को प्रमाता के ‘अपने धर्म’ (अर्थात् लक्षणों) से नया विस्तार देता है । उनके शब्दों में “यह (गन्ध रूप स्पर्श रस आदि से प्रतिबिंबित रूप) विश्व चित् रूपी संविद में प्रतिबिंबित होता हुआ प्रकाशत्व स्वतंत्रत्व आदि धर्मों के विस्तार को प्राप्त करता है।”2
लेकिन, जैसा की हम जानते हैं, सन् 1972 तक आते-आते topology अर्थात् प्रमाता के पारमार्थिक पक्ष के बारे में लकान ने अपनी पहले की अवधारणा में एक और नया पहलू जोड़ा था । Topology पर उन्होंने 1965 में जो चार विमर्श तैयार किए, वे थे − मालिक (master), विश्वविद्यालय (university), विद्रोह (hysteric) और विश्लेषक (analyst) के विमर्श । पर 1972-73 के अपने सेमिनारों में जो Encore शीर्षक से संकलित किए गये हैं उन्होंने इऩ चार विमर्शों में एक जरूरी पाँचवे विमर्श के रूप में ‘पूंजीपति का विमर्श’ (discourse of the capitalist) को जोड़ना जरूरी माना था ।3 ‘पूंजीपति का विमर्श’ एक ऐसी पारमार्थिक संरचना है जिसमें सामाजिक संबंधों की असंभवता को, जिसकी चर्चा कार्ल मार्क्स ने कम्युनिस्ट घोषणापत्र में विस्तार से की थी कि इसमें अब तक के सारे पवित्र माने जाने वाले संबंध शुद्ध नगद-कौड़ी के संबंध में बदल कर काफूर हो जाते है, उजागर करने के बजाय उसे छिपाने, आवृत करने की प्रवृत्ति मुख्य रूप से काम करती है । लकान के अनुसार यह एक ऐसा विमर्श है जो इच्छा के प्रतीकात्मक (symbolic) बंधनों को नकारता है और प्रमाता को “नाम के पिता” (Name-of-the-Father) अर्थात् परंपरा द्वारा आरोपित निषेधों के अनुभव से वंचित करता है।
बहुत दिलचस्प ढंग से लकान कहते हैं कि पूंजीपति के इस विमर्श’ में “प्रेम की चीजों को पहले से ही खारिज कर दिया जाता है।” (“forclusive of the things of love”)
उनके अनुसार, प्रेम की मूलभूत भूमिका होती है — उल्लासोद्वेलन (jouissance) को इच्छा (desire) के स्तर तक लाना।4
वैसे उनकी यह दृढ़ मान्यता थी कि यदि मनोविश्लेषण को हमारे समय की किसी नैतिकता का गठन करना है तो उसे हर हाल में प्रमाता के उल्लासोद्वेलन (jouissance) के साथ खड़ा होना होगा । लेकिन उन्होंने इसके साथ ही यह भी कहा था कि −
“Pleasure limits the scope of human possibility… Desire, on the other hand, finds its boundary, its strict relation, its limit, and it is in the relation to this limit that this is sustained as such, crossing the threshold imposed by the pleasure principle.”5
(आनंद (pleasure) मानव संभावनाओं की सीमा को सीमित करता है... इसके विपरीत, इच्छा (desire) इसकी सीमा, इसके निश्चित संबंध, इसके बंधन को पहचानती है, और वह इस बंधन के संबंध को कायम रखने के लिए आनंद सिद्धांत की लक्ष्मण रेखा को पार करती है ।)
इस प्रकार इच्छा (desire) में लकान ने मानव संभावनाओं की सीमा के उल्लंघन के उस तत्त्व की उपस्थिति को देखा था जो उसके जुएसॉंस में बेहद प्रबल और आत्म-घाती रूप में दिखाई देता है ।
इसी बात को अभिनवगुप्त की पदावली में कहें तो कहेंगे आनंद तत्त्व, चेतन सत्ता की स्वाभाविक वैचित्र्य और स्वतंत्रशक्ति को सीमित करता है, प्रमाता को स्थिर बनाता है, उसके अनुभव का संकुचन होता है । परंतु ‘इच्छा’, जो आत्म-स्फुरण की उन्मेषशक्ति है, वह अपनी मर्यादा को पहचानती है, फिर भी ‘आनंद-सिद्धांत’ द्वारा आरोपित सीमा को लांघते हुए अपनी स्वातंत्र्यशक्ति को बनाए रखती है।
जाहिर है कि फ्रायड-लकान के Pleasure Principle को अभिनवगुप्त के शैव तत्त्वमीमांसा में प्रमाता के स्थिरीकरण, अनुभव-संकोचकारी रूप में ही देखा गया है, न कि किसी ‘ब्रह्मानंद’ रूप में । खुद लकान ने भी जुएसॉंस का पक्ष लेते हुए आनंद सिद्धांत को इसी प्रकार देखा था । जाहिर है कि हम यहां लकानियन Desire (इच्छा) और अभिनवगुप्त की इच्छाशक्ति में अनोखा साम्य पाते हैं । अभिनवगुप्त के यहाँ भी इच्छा को स्वभावतः विक्षोभ से जोड़ा गया है — यानी ‘मर्यादा’ की उपस्थिति ही उसे उद्दीप्त करती है। यह इच्छा सीमा की स्वीकृति नहीं, बल्कि सीमा के पार जाने की तत्परता की द्योतक है। इसमें लकान के जुएसॉंस वाली तीव्रता का भी एक अंश है, जिसे अभिनवगुप्त स्वातंत्र्य या चित्त की विमर्शशक्ति कहते हैं, पर इच्छा की एक अपनी मर्यादा भी है।
बहरहाल, लकान के उपरोक्त उद्धरण में भी गौर करने की बात यही है कि इसमें लकान jouissance (उल्लासोद्वेलन) की नहीं, pleasure (आनंद) की बात करते हैं, वह आनंद जो एक सीमा का पालन करता है, homeostatic (अर्थात् संतुलनकारी) होता है । और जाहिर है कि जहां भी सीमा होगी, वहीं उसे लांघने की संभावना भी होगी, जिसे desire (इच्छा) कहा जाता हैं । पर लकान ही जब प्रेम की भूमिका की बात करते है तो, जैसा कि हमने ऊपर उल्लेख किया है, वे यह कहने से नहीं चूकते कि उसकी मूलभूत भूमिका “उल्लासोद्वेलन (jouissance) को इच्छा (desire) के स्तर तक लाना है”।
इस प्रकार, जहां आनंद की सीमा के पार प्रमाता का Jouissance (उल्लासोद्वेलन) है, तो वहीं इसका एक और रूप ही उसकी इच्छा भी होता है । जुएसॉंस वह उद्वेलन है जब प्रमाता अपने भीतर के असहनीय यथार्थ की बाधाओं से टकराने के लिए मजबूर होता है — यह टकराहट अनुभवातीत, स्वात्मपरामर्शकारी होने पर भी समान रूप से वेदनादायी भी होती है । पर जब इसी अनुभवातीत अनुभव, और स्वात्मपरामर्शकारी वेदना-जन्य क्रिया से इच्छा रूपी मर्यादित स्वतंत्रशक्ति का जन्म होता है तो वही एक नैतिक प्रमातृत्व (ethical subjectivity) की उत्पत्ति का स्रोत बन जाती है। लकान के अनुसार, जुएसॉंस प्रमाता के अनुभवातीत अनुभव की स्वात्मपरामर्शकारी क्रिया का वह रूप है जो वस्तुतः पूंजीपति के विमर्श के माध्यम से घटित होता है । यह खास प्रक्रिया पूंजीवादी विमर्श की पारमार्थिकता के योग के चलते चेतना के वस्तु में रूपांतरण के उपभोक्तावादी, पीड़ादायी उन्माद का जाल तैयार करती है जिसमें प्रमाता फंस कर तड़फड़ाता रह जाता है, पर निकल नहीं पाता । (अभिनवगुप्त के शब्दों में, स्पर्श गन्ध रस आदि से शून्य वह केवल एक रूपवस्तु होता है ) ।6
लकान ने पूंजीवाद की आलोचना में कहा था कि पूँजीवादी समाज जुएसॉंस को एक "अधिकार" के रूप में देखता है और इसके मार्ग के तमाम प्रतीकात्मक निषेधों को अस्वीकारता है। उसमें “नाम का पिता” (Name-of-the-Father), जो सभ्यता के अन्य सभी कालों में हमेशा से सामाजिक विधान और सीमाओं का संकेतक हुआ करता था, वह केवल एक खोखला संकेतक बन कर रह जाता है। तमाम आदर्श और पारंपरिक सामाजिक अनुबंध बाजार के पण्य, उपभोक्ता वस्तुएं बन जाती हैं । लकान इस स्थिति के लिए एक खास शब्द का ईजाद करते हैं, holophrase । वह स्थिति जब संकेतक और संकेतित, प्रमाता और उसका कथन इतने एकाकार हो जाते हैं कि उनमें कोई वैयाकरणिक या प्रतीकात्मक अंतराल न रह जाने से किसी विमर्श, आलोचना या वैकल्पिक दृष्टिकोण की कोई गुंजाइश नहीं बचती। यह उपभोक्तावादी संस्कृति की वह स्थिति है जहाँ प्रमाता केवल प्रतिबिंबों और रूपकों में फँसा होता है। उसे जो दिखाया और सुनाया जाता है, वही उसके लिये अंतिम सत्य होता है । फ्रेंच चिंतक ज्यां बोदरियार ( Jean Baudrillard) इसे मरीचिका का हाता (Precession of simulacrum) कहते है । इसी शीर्षक के अपने लेख का प्रारंभ वे Ecclesiastes के इस कथन से करते हैं कि “मरीचिका वह नहीं है जो सत्य को छिपाती है, बल्कि मरीचिका तो सच है पर इसमें सत्य ही इस तथ्य को छिपाता है कि वहाँ कुछ नहीं है 7; कि उपभोक्तावादी संस्कृति में प्रमाता स्वयं को ही किसी विज्ञापन, ब्रांड, छवि और आभासी उपस्थिति के रूप में अनुभव करने लगता हैं — अर्थात् उसका स्वयं में एक प्रकार की मरीचिका (simulacrum) में रूपांतरण हो जाता है।
तंत्रालोक से यदि हम इस मानसिक और सांस्कृतिक संरचना के लिए किसी पद को तैयार करें तो कह सकते हैं − “मरीचकीय अविकल्पबोध” — एक ऐसी चेतना जो स्वयं को निर्विकल्प मानती है, परन्तु अनजान रूप में मरीचिका द्वारा निर्देशित होती है।”एक विशेष “अविकल्पबोध” — जहाँ प्रमाता और मरीचिका में कोई भेद नहीं रह जाता, जहाँ चेतना न किसी विकल्प का अनुभव करती है, न किसी अंतराल का। संविद, जो सामान्यतः स्व-प्रकाशी आत्मचेतना है, अपने ही भ्रामक प्रतिबिम्ब में फँस जाती है। यह अविकल्पता (non-differentiation) आत्म-साक्षात्कार नहीं, शुद्ध आत्म-छल होता है।
इस स्थिति में उपभोक्ता न केवल बाज़ार की वस्तु खरीदता है, वह स्वयं वस्तु बन जाता है — वह उस छवि में जीता है जिसे दिखाने के लिए उसे घेरा जाता है। लकान की दृष्टि में यह एक प्रकार से इच्छा (desire) की श्रृंखला का अवरुद्ध हो जाना है, जहाँ प्रमाता कांक्षित वस्तु (objet petit a) के स्थान पर ख़ुद को ही वस्तु मान उसी में फँसा रहता है। बोदरियार की भाषा में, यह वह चरण है जहाँ “there is no reality behind the image” — छवि स्वयं यथार्थ का पर्याय हो चुकी होती है।
‘मरीचकीय अविकल्पबोध’ में न केवल लकानियन प्रमाता की आत्मघाती व्यग्रता का पीड़ादायक यथार्थ (Real) आभासित होता है, बल्कि तंत्रालोक की वह चेतावनी भी व्यक्त होती है कि जब स्वात्मपरामर्श की प्रक्रिया माया में फँस जाती है तो वह मुक्ति की नहीं, बंधन की स्थिति तैयार करती है। पूंजीवादी उपभोक्ता-प्रमाता उसी स्थिति में जकड़ा हुआ है । वह अपने को पहचानता नहीं, लेकिन प्रचारित करता है; वह मुक्त नहीं होता, बल्कि एक मिथ्या छवि के भीतर स्थगित होता है।
यहां ध्यान देने की बात है कि ‘भू राजनीति के रेखाचित्र’ वाले पिछले लेख में हमने प्रोफेसर होरेसियो लेग्रास (Horacio Legras) के जिस लेख, Femicides, Psychoanalysis, and the Status of Social Desire in Our time ("स्त्रीहत्याएँ, मनोविश्लेषण और हमारे समय में सामाजिक कामना की स्थिति") को अपनी एक मूल स्थापना का आधार बनाया था, उसमें 2013 में मनोविश्लेषण के एक लकानियन स्कूल World Association of Psychoanalysis (AMP) के एक लेख का जिक्र था जिसमें संयुक्त राष्ट्र की स्त्रियों के विरुद्ध हिंसा पर एक रिपोर्ट का विश्लेषण करते हुए कहा गया था कि यह हिंसा “लैंगिक भेद (sexual difference) को बिल्कुल न स्वीकार पाने की आदमी की कमी” (a deficit in the traumatic negotiation of sexual difference) से उत्पन्न हुई थी । इस रिपोर्ट के समापन में यहां तक कह दिया गया था कि “violence cannot be conceived in terms of social inadaptation”। अर्थात् स्त्रियों के विरुद्ध हिंसा को केवल सामाजिक असंगति (inadaptation) के रूप में नहीं समझा जा सकता। यह हिंसा उस जगह से आती है जहाँ लैंगिक विभेद को मानने से तीव्र इंकार किया जाता है, अर्थात् प्रमाता पुंसत्वहानि (castration) और उल्लासोद्वेलन (jouissance) की समांतरालित सचाई को स्वीकारने के लिए तैयार नहीं है ।8
एएमपी के इस प्रकार के अद्भुत विश्लेषण से किसी को भी यही लगेगा कि जैसे मनोविश्लेषण के पास किसी वास्तविक सामाजिक समस्या से जुड़े विमर्श का जैसे कोई सटीक उत्तर ही नहीं है । इस प्रकार, मनोविश्लेषण यदि अपने को केवल क्लिनिकल (interpersonal) संदर्भों में ही सीमित रखेगा और सामाजिक-राजनीतिक संदर्भों से कट जाएगा, तो जाहिर है कि वह अपने को उन सामाजिक विमर्शों से अलग कर लेगा जिनमें कभी फ्रायड के युग में मनोविश्लेषण क्रांतिकारी भूमिका अदा किया करता था। ऐसे विश्लेषण में स्त्री पर हिंसा की प्रवृत्ति के पीछे काम कर रही पूँजीवादी संरचना की भूमिका से पूरी तरह से आँख मूँद ली जाती है।
मनोविश्लेषण के ऐसे विचित्र रुझानों के संदर्भ में जॉक लकान के 1972 के Topology संबंधी विमर्श से बहुत महत्वपूर्ण शिक्षा मिल सकती है । उसमें topology प्रमाता के चित्त की RSI की बोरोमियन गांठ को ऊपर से किसी छाते की तरह थामे रखती है जिसे हम भारतीय चिंतन परंपरा से परमार्थता कहते हैं । उस विमर्श में उनका यही निष्कर्ष था कि यदि मनोविश्लेषण अपने को केवल निजी-चिकित्सकीय संदर्भों तक सीमित रखेगा और अपने समय के सामाजिक-राजनीतिक संघर्षों से विमुख रहेगा, तो वह अपनी नैतिक और ऐतिहासिक प्रासंगिकता को गंवा देगा। उनका मानना था कि उल्लासोद्वेलन (jouissance) को किसी अधिकार के रूप में देखने वाली संस्कृति प्रमाता के चित्त के यथार्थ (Real) में उस नैतिक संभावना को खत्म करती है जिससे प्रमाता की सच्ची नैतिकता और सामाजिकता की उत्पत्ति हो सकती है। पूंजीवाद की यह मूलभूत प्रवृत्ति है कि वह शक्ति-क्षरण (castration) के सिद्धांत को अस्वीकारता है; वह प्रमाता की क्षति (loss) या अभाव (lack) को मानने के लिए तैयार नहीं होता है। पूंजीवाद में उत्पादक के साधनों के अंतहीन क्रांतिकरण की जिस आंतरिक गत्यात्मक की पहचान कार्ल मार्क्स ने की थी, वह भी इसी तथ्य की पुष्टि करता है कि पूंजीवाद स्वयं में किसी क्षरण, अभाव या क्षति को मानने के लिए तैयार नहीं है । इसी आधार पर मार्क्स इस नतीजे पर पहुँचे थे कि पूंजीवाद अपने ही अन्तर्विरोधों से दम तोड़ देने के लिए अभिशप्त है, वह अपने अंदर किसी नए नैतिक प्रमातृत्व (ethical subjectivity) को विकसित नहीं कर सकता । चरम हिंसक रूप में ही क्यों न हो, वह मरते दम तक अपने जुएसॉंस अर्थात् उल्लासोद्वेलन को कायम रखना चाहेगा । यह प्रमाता के चित्त में आदर्शों के पतन और शुद्ध मौज (enjoyment) की विक्षिप्त राजनीति का वह अवशिष्ट यथार्थ है, जो प्रमाता की सोच को उलट-पुलट करता रहता है । इसका ही एक सबसे जुगुप्सित रूप हम आज फिर सारी दुनिया में युद्ध और विध्वंस की नये सिरे से शुरू हुई होड़ में देख सकते हैं जिसका नेतृत्व अमेरिका, रूस आदि कर रहे हैं । और जिसका एक खोखला और हास्यास्पद प्रदर्शन भारत भी किया करता है । भारत का प्रधानमंत्री “घुस कर मारने” के इसी जुएसॉंस में फँसा हुआ है ।
इसीलिए जब लकान प्रमाता के जुएसॉंस के पक्ष में खड़ा होने के बावजूद प्रमाता के चित्त में आभासित यथार्थ में एक नैतिक प्रमातृत्व के उदय की संभावना तलाशते हैं, प्रमाता के अंतर के असहनीय यथार्थ में ही उस नैतिक प्रमाता का उत्स भी तलाशते हैं, तब हमारी दृष्टि में वे जैसे जुएसॉंस के पक्ष में होते हुए भी उसके पर कतर देने की कामना भी कर रहे होते हैं ! वे अपनी कामना में प्रेम की उस भूमिका में होते हैं जो जुएसॉंस को इच्छा के स्तर पर ले आता है !
लकान के अनुसार जुएसॉंस और रीयल के योग से ही नैतिक प्रमातृत्व की उत्पत्ति संभव है । इसका अर्थ यही है कि वे मानते हैं कि वास्तव में नैतिक प्रमाता के गठन के लिए प्रमाता को उस अनुभव से गुजरना होगा जो आनंद और पीड़ा के योग, उनके संगम को स्थल होगा।
जाहिर है कि वह पथ भी अपने प्रकार के एक संघर्ष का पथ होगा । उपभोक्तावादी संस्कृति जुएसॉंस को निर्द्वन्द्व भाव से भोगना चाहती है, पर लकान के लिए जुएसॉंस ऐसी चीज़ है जो क्षरण, अभाव और क्षति की प्रतीकात्मक (सांस्कृतिक) प्रक्रिया से गुजरते हुए ही अनुभूत की जा सकती है। इससे कन्नी काट कर नहीं चला जा सकता है, पर इसे पूरी तरह से हूबहू अपनाया भी नहीं जा सकता है ।
भू-राजनीति संबंधी अपने लेख में हमने चीन के उदय को एक ऐसी ही कठिन, तमाम विजयों-पराजयों से भरी प्रक्रिया से निर्मित हो रहे नैतिक प्रमातृत्व के उदय के रूप में चिह्नित किया है ।
लकान ने प्रमाता के ‘नाम का पिता’ (name-of-father) की जो अवधारणा पेश की थी, उसमें प्रमाता में ‘पिता’ की स्वीकृति और उससे इंकार, दोनों बातें अंतर्ग्रथित हैं । यह मानव प्राणी में संकेतक के रूप में प्रवेश करके उसे प्रमाता की शक्ल देता है । ‘नाम का पिता’ से इंकार के बाद भी यह संकेतक उसे उससे अलग नहीं होने देता । पर जब जुएसॉंस में सारी सीमाएं टूटने लगती हैं, तब सारे सामाजिक अनुबंध भी टूटने लगते हैं । सामाजिक अनुबंधों का यह पतन लकानियन भाषा में ‘अन्य में अभाव’ (lack in the Other) की विफलता है । जब सामाजिक संरचनाओं का जो पहलू प्रमाता की इच्छा (desire) का मार्ग प्रशस्त करता है, वही अब उसके पण्यीकरण (commodification) का कारण बन जाता है।
“मरीचकीय अविकल्पबोध” (holophrasing) से पीड़ित प्रमाता का बात तक करना मुश्किल हो जाता है क्योंकि उसमें और उसके कथन के बीच कोई दूरी नहीं रह जाती है । यह उस सामाजिक स्थिति का रूपक है जहाँ विचारों का भी पण्यीकरण (commodification) हो चुका है ।
यही वे तमाम कारण है जिनके चलते हमें जॉक लकान और अभिनवगुप्त की प्रमाता के चित्त की अलग-अलग त्रिकोणात्मक संरचनाओं के तुलनात्मक अध्ययन का पहलू बहुत सारवान लगता है । लकान जहां प्रमाता के चित्त के यथार्थ के पहलू को एक अनुभवातीत पीड़ादायी ऐसे सत्य के रूप में देखते हैं जिसका साक्षात्कार उसकी मजबूरी है और वही उसके सोच के तारतम्य को तोड़ कर प्रमाता को हमेशा विचलित रखता है, वहीं अभिनवगुप्त के प्रमाता के चित्त में यथार्थ की अभिव्यक्ति का यह पहलू उसके प्रकाश-स्वरूप चैतन्य के रूप में उसे स्थिर बनाता है । लकान का प्रमाता पूंजीवादी उल्लासोद्वेलन (jouissance) में फँसा हुआ है वहीं अभिनवगुप्त का प्रमाता पूंजीवाद के बवंडर के उठने के बहुत पहले के सभ्यता के उस आदिम वैदिक स्वरूप की उपज है जो अपने विश्वात्म-बोध से निर्मित आत्म-छवि में आनंदस्वरूप है और अपनी विधिक संरचना में इच्छा के सीमित स्फोट से स्पंदित है । लकान का प्रमाता सभ्यता की यात्रा में पूंजीवादी भटकाव की उपज है और उसे रात के भूले राही की तरह सुबह लौट कर वापस आना ही है । इसीलिए लकानियन प्रमाता की अवधारणा आज के युग के मनुष्य और समाज की व्याख्या का सबसे उपयोगी और कारगर उपकरण होने पर भी वह प्रमाता के विकास का दिग्दर्शक नहीं है । उसका गंतव्य की आदर्श तस्वीर तो हमें अभिनवगुप्त से ही मिल सकती है ।
कुल मिला कर यह विमर्श इसलिये भी है ताकि हम प्रमाता की गति को केवल उसकी चेतना की आंतरिक संरचना से नहीं, बल्कि उसकी कल्पनामूलक-लक्षणात्मक प्रतिक्रियाओं से भी समझ सकें । RSI और चिति–आनन्द–इच्छा की त्रिकोणात्मक संरचना से हम और भी गहराई से समझ पाते हैं कि कैसे सत्य के बरक्स प्रमाता अपनी स्वयं की छवि में उलझा रहता है — कभी शक्ति के रूप में, कभी पीड़ा के रूप में, तो कभी राष्ट्र या अस्मिता के अवबोध के रूप में भी। लगभग सात साल पहले 2018 के जुलाई महीने में सत्य के बरक्स प्रमाता की गति का हमने ऐलेन बाद्यू के ग्रंथ “Logics of Worlds” की एक तालिका को अपनी टिप्पणी में रखा था ।8 आज हम अपनी ओर से यहां एक तालिका पेश कर रहे हैं सत्य के बरक्स प्रमाता के चित्त की गति की तालिका जिसमें जॉक लकान और अभिनवगुप्त को आधार बना कर क्रमशः पूंजीवाद के दौर के प्रमाता और उसके पूर्व के काल के प्रमाता के चित्त की गति के स्वरूप को तुलनात्मक रूप में रखा गया है । हमें लगता है कि इससे प्रमाता के भावी रूपों के बारे में हमारे सोच के लिए कई संकेत मिल सकते हैं । #
प्रमाता की त्रिकोणात्मक संरचना – RSI बनाम चिति–आनन्द–इच्छा
चित्त वृत्त | लकान: RSI | अभिनवगुप्त;प्रत्यभिज्ञा चिति–आनन्द–इच्छा | प्रमाता के सिंथोम कारूप (काल्पनिक आत्मछवि सेजुड़े लक्षण) | राजनीतिकपरिणति | सत्य के साथ संबंध |
Imaginary (स्वयं कीकाल्पनिकआत्म-छवि, चिति) | आत्म-प्रतिमा, फैंटेसी, छाया-स्व | आनन्द (स्फुटित, कभी-कभी अहंकारीविसर्जन) | आत्ममुग्धता, राष्ट्र कीमहिमा का पागलपन, "हमें सबसे श्रेष्ठ होना है" | फासीवादी, राष्ट्रवादी उन्माद | सत्य कामिथ्याभास; Real से दूरी |
Symbolic (विधिक-संरचना) | भाषा, नियम, पिताका नाम | इच्छा (संयमित इच्छा, लौकिक अनुशासन) | नियमों का अति-सख्तया टूटता हुआ पालन; सत्ता का दमन | कानूनीअत्याचार, औपचारिकलोकतंत्र | सत्य को संरचना मेंढालने का प्रयास, कभी-कभी विकृत |
Real (विस्फोटकयथार्थ) | अनुभवातीत वहअसंभव अनुभव, जोभाषा में नहीं आता | चिति (प्रकाशस्वरूपचैतन्य, यथार्थ कीअभिव्यक्ति) | हिंसा, आतंक, पागलनिर्णय; युद्ध, प्रतिबंध, घेराबंदी | युद्ध-राज्य, आपात-तंत्र | सत्य का ध्वंस; भयावह वस्तु (das Ding) काआविर्भाव |
Sinthome* (फैंटेसीयुक्तलक्षणात्मकप्रतीति) | RSI को बाँधनेवाली कल्पनात्मकसंरचना | विसर्ग आमोद(विसर्जित आनंद कीस्वातंत्र्य-प्रक्रिया) | “हम कौन हैं?” की बेचैनखोज; एक गहरे असंतोषसे संचालित निरंतरता | सांस्कृतिक नीति, भाषा-संरचना, अस्मिताआंदोलन | सत्य की अप्रत्यक्षअनुभूति; मध्य मार्गका प्रयास |
*सिंथोम – आत्म-छवि से युक्त प्रमाता के संरचनात्मक लक्षण
Sinthome प्रमाता के उन जिद्दी लक्षणों का योग है जो उसकी स्वयं की कल्पनात्मक छवि से गुंथे होते हैं । — ये लक्षण उसके अस्तित्व को एक निश्चित (हालाँकि आभासी) पहचान प्रदान करते हैं, और Real, Symbolic व Imaginary के बीच के तनाव को उसके एक अस्थायी लेकिन प्रिय विन्यास में अधिष्ठित करते हैं। यह प्रमाता का कोई निजी रोग नहीं, बल्कि शक्ति, स्मृति, और पहचान के बीच का वह प्रतीकात्मक सूत्र है जिसे राष्ट्र और समाज अक्सर गौरव, पीड़ा या संस्कृति के नाम पर आत्मसात करते हैं।
मसलन् लकान के लिए James Joyce का लेखन ही उनका एक Sinthome था । वह रचनाशीलता का ऐसा विन्यास था जो उन्हें उनके मानसिक बिखराव से बचाए रखता था। किसी भी राष्ट्र के लिए, सिंथोम उसकी एक सांस्कृतिक कथा, ऐतिहासिक पीड़ा, या उसके अतीत की स्मृति हो सकती है, जो उसे अपनी पहचान का औचित्य देती है। प्रत्यभिज्ञा दर्शन में यही भूमिका 'विसर्ग-आमोद' की है, जहाँ इच्छा स्वयं को चिति में विसर्जित कर मुक्त होती है।
परिशिष्ट:
सैद्धांतिक वर्गीकरण बनाम ऐतिहासिक जटिलता
(Countries of Jouissance और Homeostasis को मूल्यनिर्धारण नहीं, टोपोलॉजिकल प्रतिबिंब के रूपमें पढ़ें)
लेख में प्रयुक्त “countries of jouissance” तथा “countries of homeostasis” की श्रेणियाँ किसी स्थायी, सांस्कृतिक या मूल्यगत निर्धारण की सूचक नहीं हैं, बल्कि राष्ट्र-प्रमाता की एक विशिष्ट टोपोलॉजिकल संरचना की विश्लेषणात्मक अभिव्यक्ति हैं। यह वर्गीकरण उस ऐतिहासिक क्षण में किसी राष्ट्र के सामूहिक चित्त की वर्चस्वशाली प्रवृत्ति को पहचानने का एक प्रयास है।
जॉक लकान के RSI (Real–Symbolic–Imaginary) ढाँचे में जिस प्रकार व्यक्तिगत प्रमाता की स्थिति उसके चित्त की बोरोमियन गाँठ में इन तीन छल्लों के आपसी तनाव और संतुलन से निर्धारित होती है, उसी प्रकार किसी राष्ट्र-प्रमाता की सामूहिक आकृति भी उसकी सांस्कृतिक फैंटेसी, विधिक-संरचना और अनुभवातीत यथार्थ के त्रिकोणीय द्वंद्व से निर्मित होती है।
उदाहरणार्थ, चीन की वर्तमान सांस्कृतिक-सामाजिक संरचना में यदि एक symbolic homeostasis की प्रवृत्ति — नियंत्रित इच्छा, प्रतीकात्मक अनुशासन, और स्थायित्व की चेतना — अधिक स्पष्ट होती है, तो उसे “country of homeostasis” के रूप में समझा गया है।
वहीं अमेरिका और रूस की समकालीन आक्रामक भू-राजनीतिक नीति, लोकतांत्रिक अस्थिरता और अस्मिता की आभासी छवियों का उन्माद — इन देशों को “countries of jouissance” की श्रेणी में रखता है, जहाँ इच्छा की सीमाओं को अस्वीकार कर जुएसॉंस को अधिकार की तरह भोगने की प्रवृत्ति हावी है।
किंतु यह वर्गीकरण स्थायी नहीं, बल्कि चित्त की एक गतिशील टोपोलॉजिकल गाँठ का प्रतिबिंब है, जो समय के साथ बदल सकती है। जैसे लकान में प्रमाता की स्थिर पहचान नहीं होती, वैसे ही राष्ट्रों की चित्त-संरचनाएँ भी ऐतिहासिक अनुभव और अंतर-बाह्य संघर्षों से लगातार बनती-बिगड़ती रहती हैं।
संदर्भ:
1. https://chaturdik.blogspot.com/2025/06/blog-post.html?m=1
2. तथा विस्वमिदं बोधे प्रतिबिम्बितमाश्रयेत् । प्रकाशत्वस्वतन्त्रत्वप्रभृतिं धर्मविस्तरम् ।। (तंत्रालोक, 3.46)
3. Jacques Lacan, Encore,(1972-73) p.16
4. On Anxiety, 179
5. The Four Fundamental Concepts of Psycho Analysis, p.33
6. रूपसंस्थानमात्रं तत्स्पर्शगन्धसादिभिः ।
न्यग्भूतैरेव तद्युक्तं वस्तु तत्प्रतिबिम्बितम् ।। (तन्त्रालोक, 3.16)
7. “The simulacrum is never what hides the truth—it is the truth which hides the fact that there is none. The simulacrum is true. (Simulacra and Simulation, English translation by Sheila Faria Glaser, Michigan,1994, p.1)
“The transition from signs that dissimulate something to signs that dissimulate that there is nothing marks the decisive turning point.” (Simulacra and Simulation, p. 6)
“This is how simulation appears in the phase that concerns us – a strategy of the real, of the noreal and the hyperreal that everywhere is the double of a strategy of deterrence.” (Simulacra and Simulation, p. 7)
“We live in a world where there is more and more information, and less and less meaning.” (Simulacra and Simulation; The implosion of meaning in the media; p. 79)
8. Routledge, Psychoanalysis as social and Political Discourse in Latin America and the Caribbean. Edited by Paolo Bohorquez and Veronica Garibotto (2022), p. 25)
9. https://chaturdik.blogspot.com/2018/07/blog-post_10.html
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