-अरुण माहेश्वरी
गत रात जगजीत सिंह की आवाज़ में ग़ालिब पर एक पूरी पटकथा को सुन रहा था । इसमें उन्होंने कई ग़ज़लें भी सुनाईं । इसी में उनकी एक महत्वपूर्ण ग़ज़ल आई जहाँ हम क्षणभर ठहर गए । ग़ज़ल थी -
बाजीचा-ए-अत्फ़ाल है दुनिया मेरे आगे
होता है सबो-रोज़ तमाशा मेरे आगे।
इक खेल है औरंग-ए-सुलेमाँ मेरे नज़्दीक,
इक बात है ईमान किए जाता है क्या-क्या।
जितना कि ज़बाँ खोलो और सुनने में आये,
उससे भी ज़ियादा है जो ख़ामोश है मुझसे।
दुनिया मेरे आगे है और मैं तमाशबीन,
गोया कोई खेल है जो रोज़ खेला जा रहा है।
होगा कोई ऐसा भी जो ग़ालिब को न जाने,
शायर तो वो अच्छा है, मगर बदनाम है।
सुबह मन में आया कि क्यों न इसे लकानियन कसौटियों पर पढ़ा जाए । दुनिया का तमाशा, औरंग-सुलेमां और अहम् का स्वातंत्र्य, बोलने से ज़्यादा अबोला रह जाना, तमाशा और तमाशबीन का संबंध और अंत में जो भी है, आख़िर एक अपनी पहचान तो है का उल्लासोद्वेलन । यह ग़ज़ल प्रमाता की पहचान की लकानियन कसौटी को बताने के लिए बिल्कुल माकूल प्रतीत हुई।
लकान के प्रतिबिंब चरण (mirror stage) में प्रमाता किसी खाँचे (gestalt) में अपनी छवि को पहचानता है । बच्चा अपने विखंडित अनुभव को एक “संपूर्ण शरीर” की आकृति में देखता है। इसी छविमूलक स्थिरता से प्रमाता को एक तात्कालिक आश्वस्ति मिलती है। पर लकान के अनुसार, आख़िरकार वह एक भ्रांति ही है । प्राणीसत्ता पर भ्रांति की क़ैद ।
ग़ालिब पहले शेर में ही अपने उल्लासोद्वेलन (जुएसॉंस) से इस खांचे के चौखटे को तोड़ देते हैं और इसे बच्चों का तमाशा समझ कर अपने को इससे मुक्त करते हैं। उनका जुएसॉंस सिर्फ़ समग्रता की अनुभूति का आनंद या सुख नहीं है, वह इस आकृति की सीमाओं को तोड़ने का उल्लास है । वे अपने को इन दुनियावी खाँचों के बाहर खड़ा कर उनका मज़ाक उड़ाते हैं ।
यहाँ बहुत दिलचस्प है कि दूसरे शेर में वे दुनिया के इस खेल-तमाशे को ‘औरंग-ए-सुलेमाँ’, यानी प्रभु-सत्ताओं, ‘नाम का पिता’ (Name-of-the-Father) का एक खेल बताते हैं। लकान के अनुसार यही, ‘नाम का पिता’ वह बिंदु होता है जो प्रतीकात्मक व्यवस्था (symbolic order) को स्थिरता और वैधता प्रदान करता है। और, विद्रोही ग़ालिब उसी की सत्ता को अपने सामने तुच्छ बताते हैं । उनका अहम् (आत्मबोध) ऐसी हर बाहरी, दबावकारी सत्ता से ऊँचा है । यह उनकी कोरी ज़िद नहीं, उनका शुद्ध स्वातंत्र्य है। उनके तई राजसत्ता या ईमान तक की प्रतीकात्मकता का हर स्वरूप महज एक मरीचिका है। उस तमाशे का हिस्सा जो मनुष्य से न जाने “क्या-क्या” करवाता जाता है !
लकानियन भाषा में यह भी एक प्रतीकात्मक आदेश है जो प्रमाता को इच्छा की भाषा में बाँधता है।
यहाँ उत्पलदेव-अभिनवगुप्त की “अस्फुट” चेतना की संकल्पना याद आती है । भाषा और प्रतीकात्मक जगत से पहले का जो आदिम उद्दीपन ( primordial drive) है, वही मनुष्य का अपना सत्य है और ग़ालिब की नज़र कहीं उसी ओर है ।
ग़ज़ल के अगले शेर में ग़ालिब अपने प्रमातृत्व (subjectivity) को परिभाषित करते हुए आगे बढ़ते हैं। वे साफ़ शब्दों में कहते हैं कि भाषा तो उनके अनुभव के अंश मात्र को पकड़ पाती है। उनका यथार्थ (real) तो वह है जो उनके पास ही बचा रह जाता है । जुबान जो कह पाती है, वह कुछ नहीं है । “उससे भी ज़ियादा है जो ख़ामोश है मुझसे।
यही लकान का aphanisis (अंतर्धान) है। प्रमाता (subject) की सच्चाई हमेशा कुछ न कुछ छूट ही जाने में होती है।
ग़ालिब आगे फिर एक बार दोहराते हैं कि दुनिया महज तमाशा है और वे तमाशबीन । अब वे अपने प्रमात्व को दोहरी स्थिति में रखते है । वे इस दुनिया में शामिल भी हैं और इसके बाहर भी है । यह विश्लेषक और विश्लेष्य का टिपिकल लकानियन संबंध है । लकान के “discourse of the analyst” की तरह । यहाँ प्रमाता वस्तु को देखता ही नहीं है, उसके स्वरूप के निर्धारण में भूमिका भी अदा करता है, अर्थात् उसमें शामिल भी होता है। वह खुद को विश्लेषण की प्रक्रिया में शामिल एक विक्षुब्ध चित्त के रूप में पाता है। यही रचनाकार का विरेचन है, जिससे वह अपनी जड़ता को तोड़ता हुआ हर अर्थ की स्थिरता को प्रश्नांकित करता है।
इस ग़ज़ल के अंतिम शेर की अंतिम पंक्ति हैः
“शायर तो वो अच्छा है, मगर बदनाम है।”
प्रतीकात्मक जगत में ‘नाम का पिता’ अर्थात् प्रतिस्थापित मान्यताओं के आधार पर ही प्रमाता को नाम मिलता है। ग़ालिब भी एक नामचीन शायर हैं, पर वे कहते हैं कि ‘बदनाम’ हैं। अर्थात् कहीं न कहीं उन नाम के खांचे से बाहर है। उनकी यह सचाई ही कहती है कि प्रमाता का नाम ही उसकी अंतिम पहचान नहीं होता। पहचान तो असल में उसका ऐब बनाता है। लकान इसे जुएसॉंस का दाग ( stain of jouissance) कहते हैं। यह नाम के भीतर ही वह अवशिष्ट असंस्कारित अंश होता है जो लाख छिपाने पर भी छिपता नहीं है।
इस प्रकार, ग़ालिब की यह ग़ज़ल शायर की एक समग्र गतिशील उपस्थिति से पैदा होने वाली ग़ज़ल की संरचना में अलग-अलग शेरों की एकसूत्रता को बखूबी पेश करती है । ग़ज़ल किसी विखंडित प्रमाता (split subject) की तरह प्रतीकात्मक जगत के तमाशे के अस्फुट सूत्रों को खोलती हुई एक ज़्यादा समृद्ध प्रति-संसार की रचना करती है। बहुत कुछ नया कह कर आगे और नया पाने की ललक पैदा करती है ।
बढ़िया विवेचना ,और ज्यादा स्पष्ठ हुई कुछ बातें
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हटाएंशास्त्रीय एवं तार्किक व्याख्या।
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