शुक्रवार, 6 जून 2014

वामपंथ के पास रास्ता क्या है ?

अरुण माहेश्वरी

विगत लोकसभा चुनाव में लगभग निश्चिन्ह हो जाने के बाद इसी 7 जून से सीपीआई(एम) के पोलिट ब्यूरो और 8-9 जून को केंद्रीय कमेटी की बैठक होने वाली है। यक्ष प्रश्न यह है कि अभी की परिस्थितियों में वामपंथ क्या करें ?
इसी 4 जून को सीपीआई(एम) की पश्चिम बंगाल राज्य कमेटी की बैठक हुई। अखबारों की खबरों के अनुसार इस बैठक में स्वाभाविक तौर पर कुछ उत्तेजना रही। नेताओं से पद-त्यागने और पूरी कमेटी को ही बदल देने की तरह की बातें भी की गयी। लेकिन सारी बात यहीं पर अटक गयी कि यदि नेताओं को हटाया जाना और कमेटियों को भंग करना ही सारी समस्या का समाधान हो, तो उस ओर बढ़ा जा सकता है। समस्या सिर्फ इतनी सी नहीं है। सबको हटा कर कुछ नये लोगों को ले आने से ही वामपंथ का आगे का राजनीतिक रास्ता खुलने वाला नहीं है। तब फिर, हड़बड़ी में इसप्रकार के किसी भी रास्ते पर कदम बढ़ाना सिवाय आत्म-हनन के अलावा और कुछ नहीं होगा। वामपंथ के साथ जो भी हुआ है, उसके लिये यदि नेतृत्व जिम्मेदार है तो यह सामूहिक जिम्मेदारी है, इसे कुछ चुनिंदा लोगों के मत्थे मढ़ कर बड़े राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति नहीं हो सकती है।

जहां तक राजनीतिक लाईन का सवाल है, कुछ लोगों ने शायद यह सवाल भी उठाया कांग्रेस के प्रति कुछ नरम रुख अपनाने का हर्जाना सीपीआई(एम) को भरना पड़ा है। इसपर पार्टी के महासचिव प्रकाश करात ने संवाददाता सम्मेलन में कहा कि ‘‘पार्टी ने तो इस चुनाव में कांग्रेस को पराजित करने और भाजपा को ठुकराने का आान किया था। ‘पराजित करना’ और ‘ठुकराना’ दोनों ही समान रूप से कड़े शब्द हैं, इसलिये एक के प्रति नरम और दूसरे के प्रति कड़े रुख की धारणा का कोई सवाल ही नहीं उठता।’’

कुल मिला कर, जो बात सामने आरही है वह सिर्फ अभी की राजनीतिक लाइन से जुड़ी बात नहीं है। इस पूरे पराभव के कहीं ज्यादा गहरे कारण हैं, और जरूरत उनपर ध्यान देने की है, न कि कुछ अवांतर बातों पर मगजपच्ची की।

हम भी यहां पर सीपीआई(एम) के मौजूदा नेतृत्व की भारी राजनीतिक भूलों के इतिहास पर नहीं जाना चाहते। इसमें संदेह नहीं है कि उन भूलों की वजह से ही सीपीआई(एम) ने एक राजनीतिक पार्टी के लिये जरूरी अपनी आंतरिक ऊर्जा को गंवाया है। किसी भी जीवंत पार्टी के लिये जरूरी होता है कि उसमें हमेशा तीव्र राजनीतिक सरगर्मियां जारी रहे। एक समय में भारतीय वामपंथ में कृषि क्रांति के मुद्दों पर, भूमि-सुधार और पंचायती राज की तरह के सवालों पर भारी उत्साह-उद्दीपन था। केरल, पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा में सीपीआई(एम) के नेतृत्व की सरकारों के काल में जो बड़े काम किये गये, वे सारे देश के लिये अनुकरणीय माने जाने लगे थे। इसीप्रकार, जनतंत्र की रक्षा और विस्तार से जुड़े भी ऐसे अनेक प्रश्न थे, जिनपर सीपीआई(एम) और वामपंथ ने आंदोलन की नेतृत्वकारी शक्ति की भूमिका अदा की थी।

लेकिन, विगत बीस सालों के घटना-क्रम में कुछ गलत राजनीतिक निर्णयों के कारण सीपीआई(एम) ने एक बड़ी राजनीतिक ताकत के रूप में उत्तरण के अवसरों को गंवा कर अपनी इस आंतरिक ऊर्जा को ही खो दिया। उसके वर्तमान नेतृत्व की राजसत्ता के प्रति प्रकट विरक्ति ने जैसे उसे राजनीति से ही विरक्त कर दिया। संसदीय जनतंत्र में बड़ी भूमिका अदा करने की तैयारियों के बजाय उसका वर्तमान नेतृत्व नौकरशाही ढंग से पार्टी की जकड़बंदी में ही मुब्तिला रहा, बिना इस बात की परवाह किये कि इसके राजनीतिक परिणाम क्या होने वाले हैं।

बहरहाल, अभी विचार का विषय है कि भारतीय वामपंथ के लिये आगे क्या?

जहां तक भूमि संघर्ष का सवाल है, ग्रामीण क्षेत्रों में आज यह विषय कितना प्रासंगिक रह गया है, इसपर अध्ययन की जरूरत है। देहातों में भी पूंजीवाद के तेजी से हुए प्रसार से जो सामाजिक परिवर्तन हुए हैं, उन्हें समझने की जरूरत है। उसके एक पहलू, जल, जंगल, जमीन पर कॉरपोरेट के कब्जे को लेकर एक प्रकार का आंदोलन मेघा पाटकर के नर्मदा बचाओं आंदोलन की तरह के कुछ एनजीओज चला रहे हैं, जो आज ‘आम आदमी पार्टी’ के झंडे तले राजनीतिक शक्ल ले रहे हैं। वे स्थानीय स्वायत्त संस्थानों के लिये भी वैकल्पिक सोच का मंच प्रदान कर रहे हैं।

देहातों में कॉरपोरेट के प्रवेश को लेकर एक दूसरे प्रकार का सशस्त्र संघर्ष माओवादियों ने छेड़ रखा है। आज के संचार-क्रांति के युग में उस लड़ाई का कोई मायने नहीं दिखाई देता। उल्टे शासक दल बड़ी आसानी से उसका इस्तेमाल जनता के जनतांत्रिक आंदोलनों के खिलाफ कर लेता है, जैसा कि पश्चिम बंगाल में सबसे नग्न रूप में देख गया।

वामपंथी अभी मूलत: ट्रेडयूनियनों के मोर्चे पर ही सबसे अधिक सक्रिय है। लेकिन इस क्षेत्र में एक अर्से से शुद्ध अर्थनीतिवाद का बोलबाला है। सरकारी सहूलियतों और नाना कारणों से ट्रेडयूनियन आंदोलन में भी लंबे अर्से से एक प्रकार का निहित स्वार्थ विकसित होगया है, जिसके कारण इस क्षेत्र में भी वामपंथियों को दूसरी राजनीतिक पार्टियों की प्रतिद्वंद्विता का सामना करना पड़ रहा है। फिर भी, इस क्षेत्र में वामपंथ को आज भी एक बड़ी राजनीतिक ताकत माना जा सकता है।

ग्रामीण क्षेत्रों में स्थानीय सरकारों की जनतांत्रिक राजनीति में जातिवादी पार्टियों ने गांव के गरीबों में वामपंथ के प्रभाव की जड़ों को जमने नहीं दिया है।

कुल मिला कर, कहा जा सकता है कि वामपंथ के काम का सामाजिक क्षेत्र विगत कुछ सालों में संकुचित हुआ है। ऐसी स्थिति में वामपंथ कैसे अपने लिये आगे का रास्ता बनायेगा ?

यदि हम वामपंथ के संकुचित हो रहे सामाजिक आधार की इस पूरी परिघटना पर गहराई से गौर करें तो हम पायेंगे कि इसकी कोई ठोस वजह नहीं है कि शहरों और देहातों में स्थानीय स्वायत्त संस्थाओं की जनतांत्रिक राजनीति में वामपंथ की कोई राजनीतिक पैठ न बने। न इसकी कोई वजह है कि जातिवादी पार्टियां वामपंथ के रास्ते की ऐसी बाधा बन जाएं कि जिसे लांघा ही नहीं जा सके।

दरअसल, यह पूरी समस्या वामपंथ की अपनी अंदुरूनी समस्या है। देश के तीन राज्यों में अपना एक प्रकार का वर्चस्व कायम करके अन्य राज्यों, खास तौर पर हिंदी भाषी प्रदेशों के मामले में उसने कुछ ऐसे मानदंड विकसित कर लिये कि जैसे उस क्षेत्र में वामपंथ का कभी विस्तार संभव ही नहीं है। इसके लिये नवजागरण संबंधी तर्क दिये गये, हिंदी प्रदेशों में मध्यवर्ग का सही ढंग से उदय न होना और जातीय चेतना का अभाव, कुल मिला कर इस क्षेत्र के लोगों के सांस्कृतिक तौर पर पिछड़ेपन को भी इसके प्रमुख कारण के तौर पर गिनाया गया।

लेकिन आज की क्या स्थिति है? आज स्थिति इस हद तक बदलती जा रही है कि पश्चिम बंगाल और केरल तक में, आने वाले समय में कांग्रेस या तृणमूल कांग्रेस दल की विफलताओं का पूरा लाभ वामपंथ को ही मिलेगा, इसे निश्चित तौर पर नहीं कहा जा सकता।

और, गहराई से देखने पर जाहिर होगा कि पूरे हिंदी-भाषी क्षेत्र में भाजपा के उभार के पीछे बड़े पैमाने पर वहां मध्यवर्ग के उभार की भूमिका है, जिसने जातियों के दायरे को तोड़ कर भाजपा के प्रति अपना समर्थन जाहिर किया है। मध्यवर्ग का ही सचेत धर्म-निरपेक्ष तबका वामपंथ की ओर नहीं, आम आदमी पार्टी की तरह की पार्टियों की ओर देख रहा है।

मध्यवर्ग के बीच भाजपा का यह प्रभाव कितना स्थायी होगा, यह निश्चित तौर पर विचार का विषय है। रोजगार-विहीन विकास के इस दौर में इसके स्थायी रहने का कोई तार्किक आधार नहीं है। लेकिन खतरा इस बात का है कि इसके पहले कि मध्यवर्ग भाजपा के मोह से मुक्त हो, भाजपा इसके सहारे आसानी से अपना विस्तार व्यापक किसान जनता के बीच कर सकती है। उसका प्रतिरोध करने में जातिवादी पार्टियों की असमर्थता इसी चुनाव के बीच से जाहिर हो चुकी है। और मध्यवर्ग-किसान जनता की यह धुरी ही आने वाले दिनों में संघ परिवार की फासीवादी राजनीति के लिये रसद जुटायेगी, इसकी आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता। इटली के फासीवाद का इतिहास इसी बात की पुष्टि करता है।

मुश्किल सवाल यह है कि आने वाले चंद सालों में ही मध्यवर्ग के जिस बड़े हिस्से का भाजपा से मोहभंग होने की संभावना जतायी जा रही है, उसका लाभ क्या भारतीय वामपंथ उठाने के लिये तैयार है ? या, अभी तक जैसा लग रहा है, इसका लाभ स्वाभाविक तौर पर या तो कांग्रेस को मिलेगा, या आम आदमी पार्टी यदि वास्तव में एक संगठित और समंजित पार्टी का रूप ले पाती है तो संभवत: उसको भी कुछ मिल सकता है। इस पूरी जद्दोजहद में वामपंथ कहां है ?

सीपीआई(एम) और वामपंथ को अभी इसी मुद्दे पर सबसे गंभीरता से विचार करने की जरूरत है। सबसे ज्यादा जरूरत इस बात की है कि वह अपने पूरे सांगठनिक ढांचे को उसकी सालों की जर्जर और जंग खायी स्थिति से उबारने का उपक्रम शुरू करें। अपने जन-संगठनों को चंगा करें, उस पर नौकरशाही नेतृत्व के इशारों पर बैठा दिये गये लुंज-पुंज और अयोग्य लोगों से मुक्त करके उन्हें जनता के विभिन्न तबकों के साथ जीवंत संपर्क के संगठनों में तब्दील करें। ग्राम्शी ने बिल्कुल सही कहा था कि सिर्फ पार्टी के संगठन का ढांचा तैयार कर देने से ही क्रांति नहीं होजाती। उन ढांचों को जीवंत रखने में व्यक्तियों की भूमिका प्रमुख होती है। इस मामले में कुछ सीख तो कॉरपोरेट से भी ली जा सकती है।

पिछले दिनों भारतीय वामपंथ ने जिस चीज को सबसे ज्यादा गंवाया है, वह है बुद्धिजीवियों से अपने जीवंत संबंधों को। इसके कारण वामपंथी राजनीति में बाहर से नये-नये विचारों के प्रवेश के रास्ते रुक गये हैं, सामाजिक परिवर्तनों की गति के साथ तालमेल बैठाने वाले विचारों का प्रवाह रुक गया है। आज वामपंथी नेतृत्व के लिये एक सबसे जरूरी काम है कि वह अपनी अंदरूनी जड़ता को तोड़ने के लिये ही बुद्धिजीवियों के साथ अपने संपर्कों को किसी भी प्रकार से सुदृढ़ करें। समाज पर वामपंथ की वैचारिक धार की प्रभुता को कायम करने में कोई कोताही न बरते।

क्रांति आज भारत के एजेंडे पर कत्तई नहीं है। इसीलिये ‘क्रांतिवीरों’ की लफ्फाजियां कोरी ऐय्याशी के अलावा और कुछ नहीं है। जैसे कुछ सिद्धांतवीर लोकसभा चुनाव को ‘नव-उदारवाद’ के मुद्दे पर लड़ने की बात कर रहे थे! दरअसल, एक गैर-क्रांतिकारी परिस्थिति में काम करने की नीतियों पर ध्यान देने की जरूरत है।

अब 16 वीं लोकसभा चुनाव के बाद आने वाला समय उतनी राजनीतिक उत्तेजनाओं का समय नहीं रहेगा। इस समय का पूरा लाभ उठा कर वामपंथ को अपने सांगठनिक ताने-बाने को दुरुस्त करके, जनता के बीच नाना रचनात्मक कामों के जरिये बिल्कुल नीचे के स्तर से एक नया नेतृत्व तैयार करने की प्रक्रिया पर बल देना है। जन-संगठनों को उनके अस्तित्व की शर्तों पर, उनके अपने तर्कों पर, जनता के विभिन्न हिस्सों की जरूरतों की पूर्ति के लिये आंदोलनों-आयोजनों के जरिये पुनर्संगठित करने की जरूरत है। पार्टी की कमान प्रणाली को, जनसंगठनों के संचालन में नेताओं की सनक को पूरी तरह से ठुकराने की जरूरत है।

सीपीआई(एम) ने लगभग साढ़े तीन दशक पहले पार्टी को एक जन-क्रांतिकारी पार्टी के रूप में विकसित करने का निर्णय लिया था - जनता के सभी हिस्सों की एक प्रतिनिधित्वमूलक पार्टी। गुपचुप ढंग से काम करते हुए पार्टी पर अपनी जकड़बंदी कायम करने के लिये उत्साही पार्टी-नेताओं ने ‘जन’ को दबा कर ‘क्रांतिकारी’ पर बल देना शुरू कर दिया और इस ‘क्रांतिकारिता’ के आकर्षण के बल पर पार्टी पर नौकरशाही कमान-प्रणाली आरोपित कर दी। आज पूरा वामपंथ ‘जन’ से कटे इसी ‘क्रांतिकारिता’ के रोग के परिणामों को भोग रहा है।
उम्मीद करनी चाहिए कि अपने इस भारी पराभव से भारतीय वामपंथ शिक्षा लेता हुआ ‘जन-क्रांतिकारी’ संगठन के विकास की ओर ध्यान देगा। वही उसके आगे का रास्ता भी प्रशस्त करेगा।  

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें