सीसैट और उससे जुड़े भाषा-विवाद के पूरे प्रसंग से एक बात बिल्कुल साफ है कि भारतीय नौकरशाही भारत की शासन-प्रणाली के स्वाभाविक विकास के रास्ते की सबसे बड़ी बाधा है। किसी भी जनतांत्रिक देश की शासन-प्रणाली के विकास की स्वाभाविक दिशा उसे अधिक से अधिक सरल बनाने की दिशा होती है। शासन-प्रणाली के विकास का अर्थ है उसे लगातार इस रूप में ढालना ताकि एक अदना से अदना आदमी भी प्रशासन के काम को बड़ी आसानी से शासन की नीतियों की धुरी पर चला सके। लेनिन की शब्दावली में, शासन-प्रणाली ऐसी हो कि कोई रसोइया भी इसे चला सके।
आज के तकनीकी-विस्फोट के युग में शासन-प्रणाली के विकास की इस दिशा में बड़ी तेजी से बढ़ा जा सकता है। आधुनिक तकनीक सारी दुनिया में पूरे नागरिक जीवन को सरल बनाने की दिशा में भारी योगदान कर रही है।
लेकिन जब भी प्रशासन के स्वाभाविक विकास का यह काम प्रशासनिक अधिकारियों को सौंपा जाता है, इसमें एक स्वाभाविक अड़चन पैदा होजाती है - प्रशासन की सरलता और प्रशासनिक अधिकारियों के असंख्य विशेषाधिकारों की रक्षा के बीच के अन्तर्विरोधों से पैदा होने होने वाली अड़चन। प्रशासन को जितना विशिष्ट माना जाता रहेगा, प्रशासनिक अधिकारियों के विशेषाधिकार उतने ही स्वाभाविक होंगे। इसीप्रकार, प्रशासन का काम जितना सरल होगा, प्रशासनाधिकारियों के विशेषाधिकार उतने ही अस्वाभाविक लगने लगेंगे।
इस मामले में औपनिवेशिक शासकों और नौकरशाहों के हित हमेशा समान रहे हैं। इसी वजह से अंग्रेजों का ‘कानून का शासन’ इस देश में क्रमश: एक जटिलतम शासन-प्रणाली में पर्यवसित हुआ है। दुर्भाग्य की बात यह है कि आजादी के बाद भी शासन की नीतियों पर नौकरशाही की भारी जकड़बंदी के चलते हमारी शासन प्रणाली का स्वाभाविक विकास अवरुद्ध है।
संघ लोक सेवा आयोग की तरह के संस्थान की वर्तमान भूमिका प्रशासनिक अधिकारियों के सेवक की ज्यादा है, बजाय शासन-प्रणाली की सेवा की। यही दशा भारत की न्यायपालिका के प्रशासन की भी है। दुनिया के दूसरे किसी भी स्वतंत्र और जनतांत्रिक देश में, जिसे हमारी तरह लंबी, आततायी औपनिवेशिक गुलामी के दंश को नहीं सहना पड़ा है, ऐसा दूसरा उदाहरण नहीं मिलेगा। सीसैट और उससे जुड़ा समूचा भाषा-विवाद इसी बात को प्रमाणित करता है।
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