प्रिय नन्द भारद्वाज जी,
‘नया पथ’ और उसकी सामग्री को पुस्तकाकार में प्रकाशित किये जाने के प्रसंग पर जलेस के एक और वरिष्ठ अधिकारी जवरीमल पारीख का भी एक खुलासा आया है। इसमें वे लिखते हैं : ‘‘ नया पथ के अंकों की सामग्री लेकर जो पुस्तकें तैयार की गयी, वह किया जाना उचित था या अनुचित मैं नहीं जानता. लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि पुस्तकों की जरूरत थी... इन अंकों के पुस्तकाकार छपने से नया पथ को भी लाभ हुआ है. मसलन १८५७ वाले अंक का पूरा खर्चा नया पथ का बच गया था क्योंकि प्रकाशक ने पत्रिका छाप कर दे दी थी और उसके बदले में नया पथ को एक भी पैसा नहीं देना पड़ा था. उसमें जो विज्ञापन मिले थे वह नया पथ की आय हो गयी थी. पिछले चार पांच सालों में निकलने वाले कुछ विशेषांक ही पुस्तकाकार प्रकाशित हुए हैं अन्य बहुत से अंकों का व्यय नया पथ के ही अकाउंट से किया गया है.”
पारीख जी के उत्तर से जाहिर है, संजीव कुमार के जिस उत्तर को आप ‘सटीक और तथ्यपूर्ण’ मान रहे थे, वह सही नहीं था। वैसे मेरे लिये तो वह जानकारी भी मेरी जानकारी से काफी ज्यादा थी। लेकिन अब जवरीमल जी की पोस्ट से पता चलता है कि संजीव कुमार के पत्र में बताया कम, छिपाया ज्यादा गया था।
मसलन संजीव कुमार का पत्र इस ओर जरा भी इशारा नहीं करता कि ‘नया पथ’ की सामग्री को पुस्तकाकार देने के लिये किसी भी प्रकाशक से किसी प्रकार का कोई आर्थिक लेन-देन किया गया था, जबकि जवरीमल जी बता रहे हैं कि प्रकाशक के पैसों से ही नया पथ का एक पूरा अंक प्रकाशित हुआ।
इसी से संजीव के जवाब का यह तर्क भी बेबुनियाद साबित होता है कि ‘‘ भारतीय भाषा परिषद् वाले मामले के साथ इन किताबों का मामला तुलनीय नहीं है। भारतीय भाषा परिषद् ने किताबें खुद छापीं और उन्हें, जैसी कि अरुण जी की जानकारी है, बड़ी संख्या में पुस्तकालय ख़रीद का हिस्सा बनवाया। इसका मतलब है कि उसने बाकायदा व्यवसाय किया”।
नया पथ की सामग्री को पुस्तककार में निकालने के लिये ‘नया पथ’ अर्थात जलेस को बाकायदा भुगतान किया गया था।
संजीव कुमार ने अपने पत्र में यह भी बताया है कि ‘‘ किताबों में शामिल सभी लेखकों को मानदेय भेजे गए हैं, किताबें भी भेजी गयी हैं। ‘नया पथ’ की ओर से (पत्रिका में प्रकाशन के लिए) मानदेय अलग और प्रकाशक की ओर से अलग।“
अपने अनुभव के आधार पर मैं इस बात की गवाही दे सकता हूं कि संजीव की इस बात में सचाई नहीं है। नया पथ द्वारा लेखकों को मानदेय दिया जाता है, मैं नहीं जानता। मेरी भी एकाध चीज नया पथ में छप चुकी है, लेकिन न किसी प्रकार का कोई मानदेय मिला और न ही हमने उसकी कोई उम्मीद की। इसके अलावा जिस रचना के लिये लेखक को संगठन की ओर से मानदेय दिया गया, उसे किसी व्यवसायिक प्रकाशक को मुहैय्या कराके उसपर निजी स्वत्वाधिकार कायम कर लिया गया ! यह तो और भी अजीब सा लगता है।
ऐसी स्थिति में संजीव कुमार की इस बात में भी कोई दम नहीं लगता कि ‘‘ हममें से कौन नहीं जानता कि श्रेय ही महत्वपूर्ण है, स्वत्वाधिकार के नाम पर रोयल्टी का अंश इतना भी नहीं होता कि साल भर में एक-एक बार किताब के contributors से फोन पर बात कर लेने का खर्चा निकल आये।“
भाषा परिषद के मामले में तो अशोक जी ने बताया था कि वागर्थ के दो अंकों के पुस्तकाकार रूप की साढ़े चार सौ प्रतियां बाकायदा राजा राममोहन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन को बेची गयी थी। इन पुस्तकों की वैसी कोई थोक खरीद नहीं हुई, इसे शपथ लेकर कौन कह सकता है ! प्रकाशकों ने इनके प्रकाशन में घाटा उठाने के लिये तो निवेश नहीं ही किया होगा !
नन्द जी, यह सब कुछ अजीब प्रकार का गोरखधंधा सा लगने लगा है। इसपर भगवान दास मोरवाल जी ने जो सवाल उठाया है कि ‘‘ कहीं ऐसा तो नहीं है कि जनवादी लेखक संघ का यह निर्णय कुछ बड़े प्रकाशकों और उनसे जुड़े प्राध्यापक किस्म के कुछ लेखकों को लाभ पहूंचाने के लिए लिया गया है ? समझ में नहीं आता कि आज तक मैंने कभी किसी लेखक संगठन को किसी लेखक के हक में रॉयल्टी वाले मामले में बोलते नहीं सुना l हम इस सच्चाई को क्यों नहीं स्वीकारते कि हमारे लेखक संघों का इस्तेमाल कुछ लोगों द्वारा निजी जायदाद की तरह किया गया है ? " वह जरा भी अनुचित नही जान पड़ता।
अब जहां तक इसप्रकार का काम करके साहित्य और संगठन की सेवा करने की जो बात है, उसके बारे में क्या कहूं ! जवरीमल जी लिखते हैं - ‘‘ नया पथ के अंकों की सामग्री लेकर जो पुस्तकें तैयार की गयी, वह किया जाना उचित था या अनुचित में नहीं जानता. लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि पुस्तकों की जरूरत थी” । कुछ और मित्रों ने भी साहित्य की इस महती सेवा का जिक्र किया है।
ये दलीलें फिर मेरा ध्यान आस्ट्रेलिया के अपराधी जोसेफ फ्रिजल वाली घटना की ओर खींच ले जाती है। ‘‘उसने अपने बच्चों को दुनिया की बुराई से बचाने के लिये सालों तक अपने घर के तहख़ाने में क़ैद रखा और उनसे तमाम प्रकार के दुष्कर्म किये । बाहर के ख़तरों से अपनी बेटी को बचाने के लिये उसे बेटी को नष्ट कर देना मंज़ूर था । वह अपने पक्ष में ऐसी ही दलील देता था कि यदि मैंने ऐसा न किया होता और बेटी को बाहर के बुरे संसार में जाने दिया होता तो उसकी बेटी ज़िन्दा नहीं रहती । उसने कम से कम उसकी हत्या तो नहीं की ! वह चाहता तो उन्हें मार भी सकता था , लेकिन उसने जिंदा रखा ।’’
मैं नहीं जानता, जनवादी लेखक संघ के सदस्यों को इन सब बातों की कितनी जानकारी रही है। इन्हें स्वीकारने के तर्कों से भी मेरी गहरी आपत्ति है। इन सबसे यह जरूर पता चलता है कि पिछले दिनों नया पथ के अंकों का भारी-भरकम संकलनों की शक्ल में आने और उनके पीछे की 'मेहनत' का सच क्या रहा है।
चंद्रबली जी की मृत्यु पर उनके प्रति श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए इस लेखक ने अपने लेख में लिखा था कि ‘‘ यह खिलखिलाहटों का, और गंभीरता का भान करने वालों के लिये सुंदर पैकेजिंग में मुर्दा सामानों को चलाने का समय है।“ यह सच है कि हमारे उस मंतव्य के पीछे नयापथ का वर्तमान स्वरूप ही काम कर रहा था।
उस लेख के अंत में हमने लिखा था : प्रगतिशील साहित्य आंदोलन के क्षय को उन्होंने देखा था और उन्हीं अनुभवों के आधार पर नये जनवादी मूल्यों पर टिके एक नये और व्यापक साहित्य-आंदोलन को नेतृत्व दिया था। इसीलिये उनमें हौसला कम नहीं था। लेकिन प्रश्न था कि अब लड़े तो किससे लड़े और कैसे विकल्प के भरोसे! उल्टे, उन्होंने अपने को संगठन में ही एक अजीब किस्म के कुत्सित परिवेश से घिरा पाया।“
यह सब जो सामने आरहा है, उन्हीं बातों की पुष्टि करता है। अंदर ही अंदर सब कितना बदला जाता है, जो उससे जुड़े होते हैं, उन्हें भी इसका पता नहीं होता! इसीलिये बाहर से सवाल उठाने की अहमियत बची रहती है।
हम यहां आपकी सुविधा के लिये जवरी मल पारीख के खुलासे का लिंक दे दे रहे हैं :
https://www.facebook.com/jawarimal.parakh?fref=ts&ref=br_tf
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