अरुण माहेश्वरी
यह रवीन्द्रनाथ के जन्म का 150वां वर्ष है। सांस्कृतिक रूप में सजग भारत के किसी भी व्यक्ति को रवीन्द्रनाथ ने आकर्षित न किया हो, ऐसा संभव नहीं है। ऊपर से, यदि आप बंगाल के निवासी है तो रवीन्द्रनाथ की उपस्थिति का अहसास निश्चत तौर पर आप पर बना ही रहेगा। रवीन्द्रनाथ के समूचे व्यक्तित्व पर कोई जितना ही विचार करता है, सबसे पहले उस जीवन और व्यक्तित्व की विशालता और विपुलता का वैभव आश्चर्यचकित करता है। रवीन्द्रनाथ कहीं से ऐसे इंसान नहीं थे जिनमें एक गुलाम देश के नागरिक की किसी भी प्रकार की कुंठा का लेश मात्र मौजूद हो। स्वतंत्रता उनकी कामना नहीं, उनकी नैसर्गिकता थी। तुलसीदास लिखते हैः ‘मति अकुंठ हरि भगति अखंडी’। एक अकुंठ, अखंड और संपूर्ण मानवता को समर्पित रवीन्द्रनाथ के समान विराट वैभवशाली व्यक्तित्व का भारत की तरह के गरीब और गुलाम देश में कैसे निर्माण हुआ, यह किसी के लिये भी विस्मय का विषय हो सकता है।
सात मई 1861 के दिन कोलकाता के प्रसिद्ध ठाकुर परिवार में जन्मे रवीन्द्रनाथ के पूरे जीवन काल को सिर्फ आधुनिक भारत के इतिहास का ही नहीं, बल्कि सारी दुनिया के इतिहास का एक भारी उथल-पुथल और संक्रमण का काल कहा जा सकता है। तत्कालीन बंगाल में उनके जन्म के पहले ही नवजागरण के युग का प्रारंभ होगया था। योरप के रेनेसांस की तुलना में इस नवजागरण का दायरा बहुत सीमित और प्रभाव काफी मामूली था, लेकिन यह निश्चित तौर पर ब्रिटिश साम्राज्य की छत्र-छाया में पनप रहे क्षीणकाय पूंजीवाद पर ही आधारित था। 19वीं सदी के मध्य में हमारे देश में ब्रिटिश पूंजी के बल पर पूंजीवादी अर्थ-व्यवस्था की आधारशिला रखी गयी थी। सन् 1853 में भारतीय रेल की स्थापना हुई, 1852 में चाय बागान बनें, 1853 में मुंबई में पहली कपड़ा मिल बनी, 1854 में रानीगंज में पहली कोयला खदान शुरू हुई, 1855 में पहली चटकल की स्थापना की गयी। यह सब ब्रिटिश पूंजी के बल पर हुआ था। 1857 तक हमारे देश के बुद्धिजीवी ब्रिटिश कंपनियों के दलाल, मुसद्दी थे या सरकारी नौकरियां कर रहे थे। बंगाल में अंग्रेजों द्वारा जमीन के इस्तमारी बंदोबस्त से जिस नये जमींदार वर्ग का जन्म हुआ उनमें से अधिकांश इन मुसद्दियों के बीच से आते थे। स्वयं ठाकुर परिवार भी इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। रवीन्द्रनाथ के दादा प्रिंस द्वारकानाथ ठाकुर सरकारी अमीन भी थे। यह तबका एक ओर जहां नयी-नयी जमींदारियां खरीद रहा था, वहीं अंग्रेज व्यापरियों की तर्ज पर नील कोठी सहित तमाम प्रकार के व्यवसाय-वाणिज्य में लगा हुआ था। उसकी अपनी आर्थिक बुनियाद उतनी मजबूत न होने और इसी वजह से चेतना के स्तर पर भी पिछड़े हुए होने के कारण ही संथाल विद्रोह, सिपाही विद्रोह, नील विद्रोह की तरह के जन-विद्रोहों को किसी प्रकार का नेतृत्व देने में वह वर्ग पूरी तरह से विफल रहा था। उनके जीवन और विचारों में बुद्धि और भक्ति, आध्यात्म और वस्तुवाद तथा सुधार और क्रांति के विचारों की भारी गड्ड-मड्ड स्थिति दिखाई देती है। सुधार की ओट में साम्राज्यवाद और सामंतवाद के साथ एक प्रकार का समझौता करके चलने की मानसिकता ही प्रबल थी।
बहरहाल, जैसे दुनिया के सभी सुधारवादी आंदोलनों की इतिहास में एक विशेष भूमिका रही है, वैसे ही भारतीय इतिहास में भी नवजागरण के उस प्रारंभिक सुधारवादी दौर की भूमिका को छोटा करके नहीं देखा जा सकता है। इसके अलावा, भारत के परंपरागत जड़ीभूत समाज में ब्रिटिश साम्राज्य की लुटेरी किंतु साथ ही एक ठहरे हुए समाज की जड़ों को हिला देने वाली भूमिका ने भी यहां के उदीयमान बुद्धिजीवी समुदाय की मानसिकता को तैयार करने में एक भूमिका अदा की थी। बंगाल और भारतीय नवजागरण के इस दौर के सर्वश्रेष्ठ व्यक्तित्व राजा राममोहन राय ने जिस आवेग और अध्यवसाय, विद्वता और निष्ठा के साथ भारतीय समाज की तमाम जड़ताओं को चुनौती दी, योरप के बुद्धिवाद की प्रतिष्ठा की और साथ ही स्वतंत्रता और समानता के संघर्ष का सूत्रपात किया, उसने बिल्कुल सही राममोहन को आधुनिक भारत और भारत की राष्ट्रवादी चेतना का प्रवर्त्तक बना दिया। राममोहन राय और उनके साथ जुड़े भारतीय नवजागरण और नवजागरणकालीन तमाम व्यक्तित्वों की अपनी-अपनी लंबी कहानियां हैं। यहां हमारे लिये इतना ही काफी है कि ठाकुर परिवार (रवीन्द्रनाथ के दादा प्रिंस द्वारकानाथ ठाकुर, पिता महर्षी देवेन्द्रनाथ ठाकुर और रवीन्द्रनाथ सहित उनके सभी भाई-बंदों का विशाल परिवार) इस पूरे नवजागरणकालीन विमर्श का एक अभिन्न हिस्सा था। जन्मकाल से ही रवीन्द्रनाथ की मज्जा में इस नवजागरण और राष्ट्रीय विमर्श का रक्त प्रवाहित हो रहा था।
शिवनाथ शास्त्री ने सन् 1856 से 1861 के काल के बारे में लिखा है कि “इस काल को बंग समाज के लिये ‘माहेन्द्रक्षण’ कहा जा सकता है। इस काल में विधवाविवाह का आंदोलन, इंडियन म्यूटिनी, नील का हंगामा, हरीश का आविर्भाव, सोमप्रकाश का अभ्युदय, देशी रंगशाला की स्थापना, ईश्वरचंद गुप्त की मृत्यु और मधुसुदन का आविर्भाव, केशवचंद्र सेन के ब्राह्म समाज का प्रवेश और ब्राह्म समाज में नयी शक्ति का संचार इत्यादि तमाम घटनाएं घटी थी। इनमें से प्रत्येक ने बंग समाज को प्रबल रूप में आलोड़ित किया था।...” (‘रामतनु लाहिड़ी उ तत्कालीन बंगसमाज’, पृः 224-225)
एक ओर देवेन्द्रनाथ ठाकुर और केशवचंद्र का हिंदू समाज के कुसंस्कारों के खिलाफ आंदोलन और ब्राह्म धर्म का प्रचार, दूसरी ओर डिरोजियों के ‘यंग बंगाल’ का धर्म के खिलाफ विद्रोह और योरप की संस्कृति और जनवादी चेतना का आंदोलन बंगाल के तत्कालीन शिक्षित समाज में एक नये प्रकार के जागरण और जीवन का संचार कर रहा था। अक्षय कुमार दत्त, देवेन्द्रनाथ ठाकुर, राजनारायण बसु, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, प्यारीचंद मित्र, रामगोपाल घोष, रसिककृष्ण मल्लिक, रेवरेंड कृष्णमोहन, माईकेल मधुसुदन, दीनबंधु मित्र, राजेन्द्रलाल मित्र, और हरीश मुखोपाध्याय की तरह के प्रतिभाशाली और व्यक्तित्वशाली लोगों के उदय ने तत्कालीन जातीय संस्कृति और चरित्र में एक उल्लेखनीय परिवर्तन का सूत्रपात किया।
इसीप्रकार, ‘हिंदू पैट्रियट’, ‘सोमप्रकाश’, और ‘तत्वबोधिनी पत्रिका’ तथा साहित्य के क्षेत्र में माईकेल मधुसुदन और दीनबंधु मित्र की तरह के साहित्यकारों के आविर्भाव ने बांग्ला भाषा और बंग साहित्य में एक नये युग का प्रारंभ किया था। कुल मिला कर यह युग एक राष्ट्र के उदय का युग था। परवर्ती दिनों में क्रमशः राष्ट्रवाद और स्वाभिमान की भावना प्रबल होने लगी थी। रवीन्द्रनाथ अपनी ‘जीवनस्मृति’ में लिखते हैं, “बचपन में मेरे लिये सबसे बड़ा सुयोग यह था कि घर में दिन-रात साहित्य का वातावरण बना रहता था। ...साहित्य और ललित कला में उनके (परिवार के लोगों के) उत्साह की सीमा नहीं थी। वे जैसे सभी कोणों से बंगाल के आधुनिक युग का आह्वान करने की कोशिश कर रहे थे। वेश-भूषा, कविता-गीतों, चित्रों-नाटकों, धर्म-स्वदेशीपन - प्रत्येक विषय में उनके अंदर एक स्वयंसंपूर्ण जातीयता का विचार जाग गया था। ...बांग्ला में देशभक्ति के गीत और कविताओं का प्रारंभ उन्होंने ही किया था। कितने दिन की तो बात है, गणदादा रचित ‘लज्जित मन से भारतयश का गान कैसे करू’ हिंदू मेले में गाया जाता था।” (जीवनस्मृति: पृः 65)
कुल मिला कर, ठाकुर परिवार एक ऐसा परिवार था जिसने प्राचीन सनातन हिंदू धर्म के खिलाफ संघर्ष शुरू किया था और उसके साथ ही वह आधुनिक युग के आहृान और उसकी रचना के काम में दीवानगी की हद तक लगा हुआ था। इससे बचपन में ही रवीन्द्रनाथ के मन में धर्म और आध्यात्मिकता, स्वदेशीपन और राष्ट्रीयता, साहित्य और कला साधना - इन सबके बीज पड़ चुके थे।
सन् 1867 में पहले ‘हिंदू मेला’ का आयोजन हुआ, तब रवीन्द्रनाथ सिर्फ 5 वर्ष के थे। चैत्र संक्रांति के दिन आयोजित किये जाने वाले इस मेले का प्रमुख उद्देश्य जनचित्त में देशभक्ति की भावना का प्रसार था। इस मेले के आयोजन में ठाकुर परिवार की एक प्रमुख भूमिका हुआ करती थी। कोलकाता के पारसी बगान में इस मेले के नवम अधिवेशन में किशोर कवि रवीन्द्रनाथ ने अपनी देशभक्ति की कविता ‘हिंदू मेला का उपहार’ का पाठ किया था जिसे रवीन्द्रनाथ अपने जीवन की एक महत्वपूर्ण घटना के रूप में हमेशा याद करते थे। रवीन्द्रनाथ के शब्दों में, ”हमारे घर की सहायता से हिंदू मेला नामके एक मेले की सृष्टि हुई थी। नवगोपाल मित्र महाशय को इस मेले का कर्णधार बनाया गया था। पहली बार भारतवर्ष को स्वदेश मान कर उसके प्रति भक्ति भाव को अर्जित करने की कोशिश हुई थी। मंझले दादा ने तब प्रसिद्ध राष्ट्रीय गीत ‘मिले सभी भारत संतान’ की रचना की थी। ...लार्ड कर्जन के काल में दिल्ली दरबार के बारे में एक लेख लिखा था, लार्ड लिटन के काल में कविता लिखी थी ‘हिंदू मेला का उपहार’- तत्कालीन अंग्रेज गवर्नमेंट विरोध से डरती थी लेकिन चौदह-पंद्रह साल के बाल्य कवि की लेखनी से नहीं डरती थी। ...हिंदू मेला में पेड़ के तले खड़े होकर उसका पाठ किया था।” ‘हिंदू मेला का उपहार’ कविता की कुछ पंक्तियां है:
1
“हिमाद्रि शिखरे शिलासन ’परि/गान व्यास-ऋषि वीणा हाते करि-/कांपाये पर्वतशिखर कानन,/कांपाये निहार शीतल वाय।”
4
झंकारिया वीणा कविवर गाय,/केनोरे भारत केनो तुई, हाय,/आबार हासिस! हासिबार दिन/आछे कि एखोनो एक घोर दुःखे।
(हिम शिखरों की शिलापर बैठ/वीणा थामे व्यास ऋषि गाते हैं-/पर्वतशिखरों का वन कांप उठता है/कांप उठती है बर्फीली शीतल वायु।)
(झंकृत कर वीणा को कविवर गाते हैं,/ क्यों भारत क्यों तू, हाय/फिर हंस रहे हो!/हंसने के दिन /बचे है अबभी इस घनघोर दुख में। )
इसीप्रकार दिल्ली दरबार के बारे में कविता में उस दरबार में शामिल होने वाले देशी राजाओं पर रवीन्द्रनाथ ने जो तीखा व्यंग्य किया था, वह देखते बनता है।
ठाकुर परिवार ने सिर्फ हिंदू मेला ही नहीं, इटली के क्रांतिकारी गुप्त संगठन की तर्ज पर ‘संजीवनी सभा’ नामक एक गुप्त संगठन भी बनाया था जिसे चलाने वाले प्रमुख व्यक्ति थे राजनारायण बसु और ज्योतिरिंद्रनाथ ठाकुर।
रवीन्द्रनाथ एक चिर यायावर थे। अपने लंबे जीवन में देश-विदेश की उन्होंने जितनी यात्राएं की तब बहुत थोड़े लोग ही उतनी यात्राएं कर पाते थे। और, ये सभी यात्राएं किसी सांस्कृतिक मिशन से कम नहीं हुआ करती थी। सिर्फ 17 साल की आयु में 20 सितंबर 1878 के दिन अपनी पहली विलायत यात्रा के पहले उन्होंने अंग्रेजी भाषा और योरोपीय साहित्य का विषद अध्ययन किया। पूरी तरह से ग्रहण न कर पाने के बावजूद दांते, गोथे तक को उनके अंग्रेजी अनुवाद के माध्यम से पढ़ा। कुल मिला कर इस समूची तैयारी का प्रभाव उनके मानस के विस्तार और खुलेपन के रूप में सामने आया। उनके अंदर की संस्कारगत धार्मिक जड़ता और दूसरे प्रकार की तमाम संकीर्णताएं इस पहली यात्रा से काफी हद तक टूट गयी। अपनी ‘जीवनस्मृति’ में इसपर उन्होंने विस्तार से लिखा है। रवीन्द्रनाथ के व्यक्तित्व के निर्माण में उनकी यात्राओं की बड़ी भारी भूमिका रही।
इन सबके बावजूद यही सच है कि रवीन्द्रनाथ पर सबसे गहरा असर उनके परिवार के धार्मिक और आध्यात्मिक वातावरण का था जिससे वे कभी भी पूरी तरह मुक्त नहीं हो पायें। वे जब सिर्फ 11 वर्ष के थे, तभी उनका उपनयन संस्कार हुआ था। पिता देवेन्द्रनाथ ने इस आयोजन को अपने ढंग से एक अभिनव आयोजन बनाने के लिये ही इसमें ब्राह्म धर्म के उपादानों का प्रयोग किया। आचार्य आनन्दचन्द्र वेदांतवागीश की सलाह पर वैदिक मंत्रों का पाठ किया गया। उस समय गायत्री मंत्र का जो पाठ किया गया था, उसके प्रभाव को रवीन्द्रनाथ सारा जीवन याद किया करते थे। उनके शब्दों में, “उस उम्र में ऐसी बात नहीं है कि मैं समझता था कि गायत्री मंत्र का मायने क्या है, लेकिन आदमी के अंतर में कुछ ऐसा है कि पूरी तरह से न समझने पर भी उसका प्रभाव रहता है। इसीलिये मुझे एक दिन की बात याद आती है जब हमारी पढ़ाई के कमरे में ईंटों से बने फर्श के एक कोने में बैठ कर गायत्री जाप करते करते अनायास ही मेरी दोनों आंखें भर आयी और लगातार जल गिरने लगा। जल क्यों गिर रहा था इसे मैं जरा सा भी समझ नहीं पाया। ...असल बात यह है कि अंतर के अंतःपुर में जो काम चल रहा है बुद्धि के क्षेत्र में हमेशा उसकी खबर नहीं पंहुचती है।” (जीवनस्मृति, पृः 40-43)
न सिर्फ उपनिषदों के मंत्रों पर, बल्कि आदि ब्राह्म समाज के नाना विधि-विधानों और संस्कारों पर काफी लंबे अर्से तक उनकी अंध-श्रद्धा थी। हालांकि परवर्ती दिनों में बुद्धिवाद के तीखे तर्कों ने उन्हें काफी झकझोरा भी। रवीन्द्रनाथ ने अपने अंतिम दिनों में लिखे ‘मानुषेर धर्म’ शीर्षक ग्रंथ में बचपन से ही खुद पर धर्म के प्रभाव के बारे में विस्तार से लिखा है। “हमारा जन्म जिस परिवार में हुआ उस परिवार की धर्म साधना एक खास प्रकार की थी। उपनिषद और पितृदेव के अनुभव, राममोहन और अन्य साधकों की साधना ही हमारी पारिवारिक साधना थी। मैं पिता का छोटा बेटा था। जातकर्म से शुरू करके मेरे सारे संस्कार वैदिक मंत्रों से हुए थे, निश्चित तौर पर ब्राह्ममत के अनुरूप।”
जाहिर है कि रवीन्द्रनाथ के इन गहरे धार्मिक संस्कारों ने उनकी रचनाशीलता को खास आध्यात्मिक रूप दिया, वह हमेशा उनकी कवि सत्ता का अभिन्न अंग बना रहा। वे जब सिर्फ 21 साल के थे तभी उन्होंने ‘प्रभात संगीत’ संकलन की कविताएं लिख ली थी। इन कविताओं की व्याख्या करते हुए खुद रवीन्द्रनाथ ने अपनी सृजनात्मकता के इस आध्यात्मिक पहलू को खुले मन से स्वीकारा है। ‘प्रभात संगीत’ की दूसरी कविता है, ‘निर्झरेर स्वप्नभंग’(निर्झर का स्वप्न-भंग)। इस कविता वे लिखते है कि “एक अभूतपूर्व अद्भुत हृदय-स्फूर्ति के दिन निर्झरेर स्वप्नभंग लिखी गयी थी, लेकिन उस दिन कौन जानता था कि उस कविता में मेरे समस्त काव्य की भूमिका लिखी जा रही है।”(जोर हमारा - अ.मा.)
आजि ऐ प्रभाते रविर कर/केमने पासिलो प्राणेर ‘पर /केमने पासिलो गुहार आंधारे/प्रभात पाखीर गान!/ना जानि केनोरे एतो दिन परे/जागिया उठिलो प्राण!/जागिया उठेछे प्राण, /उरे उथलि उठेछे बारि,/उरे प्राणेर वासना प्राणेर आवेग/रूधिया राखिते नारी।
(आज के इस प्रभात काल में सूर्य की किरणें/ प्राणों के भीतर कैसे प्रवेश कर गयीं?/ गुहा के अंधकार में प्रभात-पक्षी का गान कैसे समा गया?/ न जाने, इतने दिनों बाद प्राण क्योंकर जाग उठे हैं?/ प्राण जाग उठे हैं,/ अरे पानी उछल कर उमड़ पड़ा है। / अरे! प्राणों की वेदना, प्राणों के आवेग को रोक रखना संभव नहीं अब!)
प्राणों के इस प्रवाह की गति महा, विषाल समुद्र की ओर थी, “न जाने, आज क्या हुआ कि जाग उठे हैं प्राण/ मानो, कानों में पड़ा हो दूरस्थ महासागर का गान“। इस महासागर की प्रतिमा ही रवीन्द्रनाथ में बाद में विराट पुरुष, महामानव का रूप लेती है। परवर्ती दिनों की रवीन्द्रनाथ की संपूर्ण राजनीतिक चेतना का बीज रूप जैसे इस कविता में दिखाई देता है। गीतांजलि की प्रसिद्ध कविता ‘भारत तीर्थ’ के ‘एई भारतेर महामानवेर सागरतीरे’ के पूरे रूपक के आधार को आध्यात्मिक अखंड विश्व, असीम और अनन्त ब्रह्मांड से जुड़े उनके विस्तृत हृदय, अकुंठ व्यक्तित्व में देखा जा सकता है। भारत की गुलामी की जंजीरों ने उनमें आक्रोश तो पैदा किया लेकिन कभी भी पराजय या किसी प्रकार की कुंठा का भाव पैदा नहीं हुआ।
बुनियादी तौर पर भारतीय आध्यात्म पर आधारित इस उदार और विषाल हृदय की जमीन पर खड़े होकर ही रवीन्द्रनाथ ने अपने वक्त के सभी राजनीतिक और सामाजिक विमर्शों में नितांत मौलिक ढंग से हस्तक्षेप किया। वह विमर्श भले उग्र राष्ट्रवाद की दलीलों को अस्वीकारने का हो या कथित मॉडरेट नेशनलिस्ट राजनीति के खिलाफ विवेक और तर्क के साथ जन-जन को जगाने वाली देशभक्ति की कार्रवाई का हो। बंकिम युग की परिपाटी पर जिस समय प्राचीन हिंदू राजाओं की वीरगाथाएं लिख कर उग्र राष्ट्रवाद का संदेश दिया जा रहा था, उसी समय रवीन्द्रनाथ ने अपनी रचना ‘बउठाकुरानी का हाट’ में राजा प्रतापादित्य को एक नृशंस और अत्याचारी राजा के रूप में पेश किया और बंगाल के जन-जीवन का एक यथार्थ चित्र प्रस्तुत किया। जिस समय अलबर्ट बिल (1883) की तरह के मुद्दों पर चंद बुद्धिजीवियों को इकट्ठा करके कोरे विरोध प्रस्तावों की ‘एजिटेशनल’ राजनीति की जा रही थी, उस समय ऐसी राजनीति को भिक्षा की राजनीति बता कर फटकारने से भी उन्होंने परहेज नहीं किया। “हमारे देश में पॉलिटिकल एजिटेशन करना भिक्षावृत्ति करने जैसा है।...भिखारी का मंगल नहीं हो सकता, भिखारी जाति का भी मंगल नहीं हो सकता। ...अंग्रेजों से भीख में हमें और सबकुछ मिल सकता है, लेकिन आत्मनिर्भरता नहीं मिल सकती।...सरकार को जगाने के लिये वे जितनी मेहनत कर रहे है, अपने देश के लोगों को जगाने में उतनी मेहनत करने से काफी अधिक सुफल मिलेगा।”
रवीन्द्रनाथ का यह आध्यात्मिक आधार ही था जिसके चलते सारी दुनिया के श्रेष्ठतम मस्तिष्कों से अन्तर्क्रिया करते हुए भी वे पश्चिमी सभ्यता के मोहपाश में कभी नहीं फंसे। 1890 में अपनी दूसरी विलायत यात्रा के बाद पश्चिमी सभ्यता को चुनौती देते हुए वे कहते हैं:“तुमने बहुत जान लिया है, काफी पाया है लेकिन सुख मिला है क्या? हम विश्वसंसार को माया बता कर बैठे हुए हैं और तुम उसे ही ध्रुव सत्य बता कर खट-खट कर मर रहे हो, तुम क्या हमसे ज्यादा सुखी हो गये हो?” इसप्रकार के तमाम सवालों के तीरों से रवीन्द्रनाथ ने अपने लेख ‘नूतन और पुरातन’ में पश्चिमी सभ्यता को बुरी तरह बींधा था। दुनिया भर में योरोपीय जातियों के साम्राज्यों की दुर्दशा पर उनकी यह टिप्पणी बहुत प्रसिद्ध है कि “योरोपीय जाति योरप में जितनी सभ्य, जितनी दयावान, जितनी न्यायपूर्ण है योरप के बाहर उतनी नहीं है। अब तक इसके अनेक प्रमाण मिल चुके हैं।”
सन् 1885 में कांग्रेस की स्थापना होगयी थी। लेकिन रवीन्द्रनाथ में कांग्रेस की प्रारंभिक अनुनय-विनय और शिष्टमंडलों की राजनीति के प्रति जरा भी आकर्षण नहीं था। वे कांग्रेस के मंच की भाषा से कोसों दूर थे। उस समय सुधीन्द्रनाथ ठाकुर ‘साधना’ पत्रिका निकालते थे। रवीन्द्रनाथ ही इस पत्रिका के प्रमुख लेखक और केन्द्रीय आकर्षण थे। इस मंच का प्रयोग उन्होंने खुल कर अपने राजनीतिक विचारों को व्यक्त करने के लिये किया। मॉडरेटों और कांग्रेस के मंच की थोथे वागाडंबर पर टिकी राजनीति पर कटाक्ष करते हुए वे कहते हैं: ”आज पृथ्वी की रणभूमि में हम कौन सा हथियार लेकर खड़े है। सिर्फ भाषण और निवेदन? कौन से कवच पहन कर अपनी आत्म-रक्षा करना चाहते हैं। सिर्फ छद्मवेश? इस तरह कितने दिनों तक काम चलेगा और कितना तो फल मिलेगा।”
और भी गौर करने लायक बात यह है कि रवीन्द्रनाथ की औपनिषदिक शिक्षा उन्हें पुनरुत्थानवाद की ओर नहीं ढकेलती। काफी दबाव के बावजूद वे तिलक के गणपति उत्सव और वीर शिवाजी के मिथक की तर्ज पर किसी देवी-देवता की वंदना के सार्वजनिक उत्सव या बंगाली राजा की वीरगाथा का आख्यान खड़ा नहीं करते। न , ‘गोरक्षणी सभा’ के गोरक्षा की तरह के आंदोलन के प्रति उनकी कोई सहानुभूति थी। इसके विपरीत रवीन्द्रनाथ की सहानुभूति संथाल विद्रोह और सिपाही विद्रोह के प्रति थी। अंग्रेजों की ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति को वे काफी पहले से ही समझने लगे थे। और यही वजह है कि वे हमेशा कविता के कल्पनालोक से निकल कर लड़ाई के मैदान में उतर पड़ने के लिये आकुल रहा करते थे। उनकी अमर कविता ‘एबार फेराओ मोरे’ के ये शब्द:
“एबार फेराओ मोरे, लोये जाओ संसारेर तीरे/हे कल्पने रंगमयी। दोलाओ ना समीरे समीरे/तरंगे तरंगे आर, भुलाओ ना मोहिनी मायाय। /विजन विषादघन अन्तरेर निकुंजछायाय/रेखो ना बोसाये आर। ...”
(अब मुझे लौटा कर संसार के तट पर ले आओ/हे कल्पना की रंगमयी। मत झुलाओ हवा हवा में/लहर लहर में, न मोहित करो मोहिनी मायासे। /निर्जन घने विषाद भरे अंतर की लताओं की छाया में/ मत रखो और बैठा कर। ...”)
इसीप्रकार उनका असाधारण ‘आहृान गीत’: “चलो दिवालोक, चलो लोकालये, /चलो जन कोलाहले - /मिसाबो हृदय मानवहृदये/असीम आकाश तले।” (चलो दिवालोक में, लोकालय में/चलो जनकोलाहल में -/मिलाऊंगा हृदय मानव हृदय से/असीम आकाश के तले।)
रवीन्द्रनाथ की लेखनी का यह ‘साधना युग’ इसलिये काफी उल्लेखनीय है कि उस दौरान अपने लेखों के जरिये उन्होंने अपनी खुद की राजनीति की एक साफ रूपरेखा रखी थी। कांग्रेस के साथ उनका मतभेद मुख्यतः इस बात पर था कि उन्हें राजनीतिक विचारधारा के मामले में इंगलैंड और उसकी सौ नियमों से बंधी पार्लियामेंट्री राजनीति स्वीकार्य नहीं थी। योरप के बाहर, भारत सहित हर जगह उन्होंने अंग्रेजों को एक घृणित शोषक और उत्पीड़क के रूप में देखा था। कांग्रेस के लोगों की अंग्रेज भक्ति उन्हें सहन नहीं थी।
फिर भी, रवीन्द्रनाथ को कांग्रेस-विरोधी कहना उचित नहीं होगा। इसीप्रकार, ब्रिटिश साम्राज्य के जघन्य रूप के प्रति गहरी नफरत के बावजूद, इंगलैंड के भी मुट्ठीभर विवेकवान लोगों के प्रति अपनी आंतरिक श्रद्धा व्यक्त करने में भी उन्होंने कभी किसी प्रकार की कृपणता का परिचय नहीं दिया। सिडिशन एक्ट और 1897 में रानाडे हत्या मामले में तिलक की गिरफ्तारी, लार्ड कर्जन का यूनिवर्सिटी बिल (1902), बंगभंग का प्रस्ताव (1905), स्वदेशी आंदोलन, साम्राज्यवादियों का पहला विश्वयुद्ध - इन तमाम मामलों में रवीन्द्रनाथ जनता के जनतांत्रिक अधिकारों के एक प्रबल पक्षधर और भारत की राष्ट्रीय एकता के एक जागरूक प्रहरी के रूप में उभर कर सामने आये थे।
यही वह काल था जब 1901 के अंतिम दिनों में रवीन्द्रनाथ ने शांतिनिकेतन में ब्रह्मचर्य आश्रम की स्थापना की। यह रवीन्द्रनाथ के व्यक्तित्च का एक महत्वपूर्ण रचनात्मक पहलू था जिसके केंद्र में भी उनके आध्यात्मिक संस्कारों की बड़ी भूमिका थी। शान्तिनिकेतन के पीछे प्राचीन भारत के तपोवन की पूरी अवधारणा काम कर रही थी। बाद के दिनों में शिक्षा संबंधी उनके विचारों में काफी परिवर्तन हुए। फिर भी अपने इस तपोवन से उनका क्या तात्पर्य था, इसे 1909 में ‘तपोवन’ शीर्षक लेख में बताते हैंः
“भारतवर्ष ने जिस सत्य को अपने निश्चित भाव से उपलब्ध किया है वह सत्य क्या है? वह सत्य प्रधानतः वणिक-वृत्ति नहीं है, स्वादेशिकता नहीं है, स्वराज्य नहीं है - वह है विश्व-बोध। इस सत्य की भारत के तपोवन में साधना हुई है। इसका उपनिषद् में उच्चारण हुआ है...भारत ने प्रबलता को नहीं, परिपूर्णता को चाहा था। इस परिपूर्णता का अर्थ है निखिल के साथ योग, और योग विनम्र होकर, अहंकार को दूर करके ही स्थापित हो सकता है।”
स्वदेशी आंदोलन का जो दबाव कवि को जनकोलाहल के बीच चले आने के लिये प्रेरित कर रहा था, राजनीतिक उथल-पुथल के इसी दौर में गिरडीह में बैठ कर रवीन्द्रनाथ ने देशभक्ति के जो चंद अमर गीत लिखे, उन्होंने बांग्ला जातीय चेतना के निर्माण में अकल्पनीय भूमिका अदा की थी। 1.जदि तोर डाक सुने केउ ना आसे तबे ऐकला चलो रे 2. बांग्लार माटी, बांग्लार जल, बांग्लार वायु, बांग्लार फल-/पूण्य होक, पूण्य होक, पूण्य होक हे भगवान 3. ओ आमार देशेर माटी, तोमार ’परे ठेकाई माथा 4.आमार सोनार बांग्ला, आमि तोमाय भालोबासि 5.सार्थक जनम आमार जन्मेछी ए देशे 6.एबार तोर मरा गंगे बान एसेछे, ‘जय मा’ बोले भासा तरि - रवीन्द्रनाथ के ये सारे गीत इसी काल की देन है।
इसीकाल में राष्ट्रीय शिक्षा और ग्राम्य समाज के संगठन के बारे में रवीन्द्रनाथ ने कई लेख लिखे। बंगभंग-विरोधी आंदोलन के साथ ही हिंदू-मुस्लिम समस्या ने भी एक विकट रूप लेना शुरू कर दिया था। रवीन्द्रनाथ इस समस्या से काफी विचलित थे। उन्होंने यह साफ देखा था कि अंग्रेज यदि हिंदू और मुसलमानों के बीच विद्वेष पैदा करने में सफल होरहे है तो इसका संबंध हमारे समाज की सचाई से है जिसे रवीन्द्रनाथ हमारा ‘पाप’ कहते हैं। “हम सैकड़ों वर्षों से साथ-साथ रहते है, एक खेत की उपज, एक नदी के जल, एक सूरज के प्रकाश का भोग करते आरहे हैं, हम एक भाषा में बात करते हैं, हम एक ही सुख-दुख के लोग है - फिर भी पड़ौसी के साथ पड़ौसी का जो मानवोचित संबंध है, जो धर्म से अलग है, वह हमारे बीच नहीं है।
“हम जानते हैं बांग्लादेश में बहुत सी जगहों में हिंदू-मुसलमान एक चटाई पर साथ-साथ नहीं बैठते हैं - घर में मुसलमान के आने पर जाजम का एक हिस्सा लपेट दिया जाता है, हुक्के के पानी को फेंक दिया जाता है।
‘... यदि शास्त्रों में ऐसा विधान है तो ऐसे शास्त्र को लेकर स्वदेश-स्वजाति-स्वराज की स्थापना कभी भी नहीं की जा सकती है।”
सभी जानते हैं कि बंगभंग-विरोधी आंदोलन के बाद का काल ही बंगाल में उग्रराष्ट्रवादी क्रांतिकारियों के उभार का भी काल था। रवीन्द्रनाथ को इस जन-विच्छिन्न उग्रवाद से बेहद परहेज था। इसके साथ वे अपने को वैचारिक रूप में ही अलग नहीं पाते थे बल्कि ऐसे उग्रवाद को वे एक चारित्रिक व्याधि के रूप में देखते थे। उनका भारी विवादास्पद उपन्यास ‘घरे बाइरे’ और अंतिम उपन्यास ‘चार अध्याय’ इसके सबसे बड़े प्रमाण है।
इसके साथ ही गौर करने लायक बात एक और है कि बीसवीं सदी के प्रारंभ में विवेकानंद, रवीन्द्रनाथ, निवेदिता, उकाकुरा आदि सभी मनीषियों में एकप्रकार के उग्र प्राच्यवाद का स्वर सुनाई देता था। लेकिन, स्वदेशी युग के अंतिम दौर में इनमें से सबसे पहले रवीन्द्रनाथ ने ही उग्र प्राच्यवाद और उसके साथ ही हिन्दूपन के खिलाफ लड़ाई की जरूरत का आहृान करते हुए कहा कि “ पश्चिम के साथ पूरब को मिलना ही होगा।” इसके बाद से ही रवीन्द्रनाथ में पूरब और पश्चिम के बीच मिलन के स्वर क्रमशः प्रबल होने लगे। “यह मिलन ज्ञान-विज्ञान, शिक्षा, कला, साहित्य, संस्कृति आदि तमाम विषयों पर आपसी आदान-प्रदान पर आधारित होगा।” वे पश्चिमी उग्रवाद के भी समान रूप से विरोधी थे। मूलतः, आध्यात्मिक अन्तरराष्ट्रीयतावाद ही उनके इन तमाम विचारों का मूल आधार था।
सन् 1912 में रवीन्द्रनाथ तीसरी बार विलायत की यात्रा पर गये और साथ ही अमेरिका भी पंहुचे। अमेरिका से लिखे उनके पत्रों से पता चलता है कि उनके मन में तभी शान्तिनिकेतन के लिये विदेश से वित्त-संग्रह का विचार आया था। वहीं पर उन्हें मैकमिलन कंपनी द्वारा ‘गीतांजलि’ के अंग्रेजी संस्करण के प्रकाशन की खबर भी मिली। 13 नवंबर 1913 के दिन ‘गीतांजलि’ के लिये नोबेल पुरस्कार की घोषणा की गयी। और, 1914 की जुलाई के अंतिम दिनों में पहला विश्वयुद्ध शुरू होगया। रवीन्द्रनाथ ने इसे अपनी भाषा में विश्वपाप कहा। उस समय की उनकी कविताओं और लेखों में उनकी इस भावना का सीधा प्रभाव दिखाई देता है।
रवीन्द्रनाथ ने सच्चे अर्थों में यदि किसी भारतीय व्यक्तित्व के साथ खुल कर किसी विमर्श में हिस्सा लिया तो वे थे महात्मा गांधी।
गांधीजी 1915 में भारत आयें। रवीन्द्रनाथ के साथ उनका संपर्क उनके दक्षिण अफ्रीका प्रवास के समय ही होगया था। जब वे भारत आयें उस समय शान्तिनिकेतन में उनके दक्षिण अफ्रीका के ‘फीनिक्स’ विद्यालय के कुछ छात्र ठहरे हुए थे। लेकिन मजे की बात यह है कि जिस समय गांधीजी ‘हिंद स्वराज’ में पश्चिमी सभ्यता और विज्ञान को एक सिरे से नकार रहे थे, उसी समय पश्चिम के साथ निरंतर संपर्क के चलते रवीन्द्रनाथ क्रमशः अपने आध्यात्मिक खोल से निकल कर वैज्ञानिक चेतना की ओर बढ़ने लगे थे। सी.एफ.एन्ड्रूज, जिनसे रवीन्द्रनाथ की मुलाकात तीसरी विलायत यात्रा में हुई थी और जो परवर्ती दिनों में शांतिनिकेतन से जुड़ गये थे, उनको लिखे एक पत्र में कवि कहते हैः ‘We all hope here, science in the end will help man. She will make the necessities of life easily accessible to every man, so that humanity will be freed from the tyranny of matter which now humiliates her. This struggling mass of men is great in its pathos, in its latency of infinite power.’
1916 में रवीन्द्रनाथ जापान की यात्रा पर गये और वहीं से फिर एकबार अमेरिका गये। जापान में रहते हुए ही उन्होंने साम्राज्यवाद और राष्ट्रवाद की तीव्र निंदा करने वाले वे भाषण लिखे जो उनकी पुस्तिका ‘नेशनलिज्म’ में संकलित है। जापान तब एशियाई शक्ति का प्रतीक माना जाता था। ‘जापान में राष्ट्रवाद’ शीर्षक लेख में रवीन्द्रनाथ लिखते हैः “पुरातन प्राच्य के शिशु जापान ने, आधुनिक युग के सभी उपहारों पर, निस्संकोच अपना अधिकार जताया है। उसने पुरानी आदतों की जकड़न एवं सुस्त दिमाग के व्यर्थ ढेर को त्यागने में साहसिक जीवट का परिचय दिया है; जो अन्यथा मितव्ययिता और ताले-चाभी की सुरक्षा में ही रहना पसंद करते हैं। फलस्वरूप वह वर्तमान समय के संपर्क में आया है और उसने आधुनिक सभ्यता की जिम्मेदारियों को उत्सुकता व पूरी योग्यता से स्वीकार किया है।” इसी लेख में आगे जाकर रवीन्द्रनाथ पश्चिमी राष्ट्रवाद के युद्धोन्माद की तीखी निंदा करते हुए जापान के बारे में कहते हैं कि “पश्चिमी राष्ट्रों ने उसे तब तक आदर नहीं दिया, जब तक कि उसने यह सिद्ध नहीं कर दिया कि शैतान के जासूसी कुत्ते न केवल युरोप के कुत्ताघरों में पलते हैं बल्कि जापान में भी उन्हें पालतू बनाया जा सकता है और उन्हें खाने को मानव के दुख-त्रास दिए जा सकते हैं।
“पूर्व ने अपने सहज-ज्ञान से यह अनुभव कर लिया था, भले ही अरुचि के साथ, कि उसे योरप से बहुत कुछ सीखना है।...इन सभी चीजों से बढ़कर योरप ने सदियों के बलिदान तथा उपलब्धता के सहारे हमारे सामने स्वतंत्रता के परचम को ऊंचा उठाए रखा है...क्योंकि योरप को हमने अपना गहन सम्मान दिया है, इसीलिये जहां कहीं भी वह दुर्बल तथा झूठा दिखाई देता है, वहीं वह हमारे लिए उतना ही ज्यादा हानिकारक भी हो उठता है-श्रेष्ठ भोजन के साथ परोसे गए विष की तरह।” जापान से वे निवेदन करते हैं: “आपमें आस्था की शक्ति एवं सोच की स्पष्टता होनी चाहिए ताकि आप यह साफ-साफ देख सकें कि प्रगति का यह भद्दा ढांचा, जो कुशलता के ‘बोल्टों’ से कसा हुआ है और महत्वाकांक्षा के पहियों पर दौड़ता रहता है, ज्यादा दिनों तक टिक नहीं पाएगा। ...क्या हमें आज इसके संकेत नहीं दिख रहे? क्या हमें युद्ध के शोर, नफरतकी चीखों, निराशा भरे रुदन, सदियों के मंथन से राष्ट्रवाद के तल में जमे बेशुमार कीचड़ से आती वह आवाज सुनाई नहीं दे रही- एक ऐसी आवाज जो हमारी आत्मा को चिल्ला-चिल्ला कर कह रही है कि राष्ट्रीय स्वार्थ की मीनार, जो देशभक्ति के नाम पर निर्मित की गई है और जिसने स्वर्ग के विरुद्ध अपना परचम फहराया हुआ है, उसे अब अपने ही बोझ से हहराकर ढह जाना चाहिए।”
रवीन्द्रनाथ के इन भाषणों पर जापान, अमेरिका और योरप में तीव्र प्रतिक्रिया हुई थी। अमेरिका यात्रा के दौरान उनसे इसके बारे में काफी सवाल-जवाब किये गये थे।
बहरहाल, 1916 में भारत सचिव मॉन्टेग्यू भारत आयें। यहां की शासन-व्यवस्था में सुधार के लिये उन्होंने विभिन्न राजनीतिक संस्थाओं से मुलाकात की। पूरे देश में इसे लेकर काफी उत्तेजना थी। इस बारे में रवीन्द्रनाथ का साफ मत था कि “ भिक्षा लेकर हम स्वाधीन नहीं होंगे - कभी नहीं। स्वाधीनता अन्तर की बात है!
“तपस्या के बल पर हम इस दान के अधिकार को हासिल करेंगे, भीख के अधिकार को नहीं, किसी भी लालच में पड़ कर हमें इस बात को नहीं भूलना चाहिए।”
उस समय विश्वयुद्ध चल रहा था। गांधीजी और कांग्रेस ने इस युद्ध में ब्रिटिश साम्राज्य के साथ पूर्ण सहयोग का रास्ता अपनाया था। मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार की घोषणा विश्वयुद्ध की समाप्ति के थोड़ा पहले ही होगयी थी। नवंबर 1928 में जब विश्वयुद्ध खत्म हुआ उसके तत्काल बाद कांग्रेस के मंच से भारत को आत्म-नियंत्रण का अधिकार देने की मांग जोरदार ढंग से उठी। उसी काल में 23 दिसंबर 1918 के दिन शान्तिनिकेतन में एक अन्तरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय के रूप में विश्वभारती की आधारशिला रखी गयी। विश्वभारती की ओर से रवीन्द्रनाथ का यही संदेश थाः “हम मानवविधाता के राजपथ पर महामानव के गीत गाते जायेंगे। ...महाविश्व के पथ को ही हम देश के अनुरूप ग्रहण करेंगे।” रवीन्द्रनाथ को विश्वभारती के लिये सारी दुनिया के नागरिकों से सक्रिय सहयोग की भारी उम्मीद थी।
13 अप्रैल 1919 के दिन जलियांवाला बाग के जनसंहार से विक्षुब्ध रवीन्द्रनाथ ने 1915 में मिली अपनी नाइटहुड की उपाधि को ठुकरा दिया। इस घटना के ठीक एक दिन पहले ही रवीन्द्रनाथ ने गांधीजी को पत्र लिख कर यह कहा था कि “स्वाधीनता की महान भेंट जनता को दान में कभी नहीं मिल सकती। हमको इसे उपलब्ध करने के लिए इसे जीतना होगा...मैं अत्यंत हार्दिक प्रार्थना करता हूं कि आपके मार्ग में कोई रोड़ा न अटके जिससे हमारी आध्यात्मिक स्वाधीनता कमजोर पड़ जाय”।
विश्वभारती के लिये सारी दुनिया के लोगों की शुभकामनाएं और सहयोग लेने के लिये ही 12 मई 1920 के दिन कवि योरप और अमेरिका की यात्रा पर निकल पड़े। लगभग 14 महीने तक अमेरिका और योरप के नाना देशों की यात्रा के बाद 16 जुलाई 1921 के दिन मुंबई से वर्द्धमान होकर शान्तिनिकेतन लौटे। इस दौरान उन्होंने शान्तिनिकेतन में एन्ड्रूज के नाम ढेरों पत्र लिखे। भारत की तत्कालीन उत्तेजनापूर्ण राजनीतिक परिस्थति पर उनकी नजर लगातार टिकी हुई थी। यह समय भारत में रौलट एक्ट के खिलाफ और खिलाफत और गांधीजी के असहयोग आंदोलन का समय था।
अपने एक पत्र में वे एन्ड्रूज को लिखते हैं: ‘ Keep Santiniketan away from the turmoils of politics---we must never forget that our mission is not political. Where I have my politics, I do not belong to Santiniketan.’
वे इस बात पर हमेशा बल दे रहे थे कि राजनीतिक ‘स्वराज’ से ही मोक्ष नहीं है; हमारी लड़ाई आत्मा की है - मनुष्य की मुक्ति की लड़ाई सिर्फ राजनीतिक स्वाधीनता नहीं है।
रवीन्द्रनाथ जब भारत लौटै, गांधीजी का असहयोग आंदोलन शुरू हो चुका था। शान्तिनिकेतन भी उसके प्रभाव से मुक्त नहीं रहा था। शान्तिनिकेतन का कोलकाता विश्वविद्यालय के साथ जो थोड़ा सा संपर्क पहले बना था, वह टूट गया। जहां तक खिलाफत आंदोलन के समय सामयिक तौर पर बनी हिन्दू-मुस्लिम एकता का सवाल था, रवीन्द्रनाथ के मन में इसके बारे में काफी संदेह था और बाद में दिनों में वह संदेह सच भी साबित हुआ।
असहयोग आंदोलन की घोषणा के साल भर बाद, 6 सितंबर 1921 के दिन गांधीजी कोलकाता आये थे। कवि से उनके जोड़ासांकू के घर पर मुलाकात हुई और दोनों के बीच एन्ड्रूज की उपस्थिति में लगभग चार घंटे तक वार्ता चली। भारत की स्वतंत्रता के साध्य और साधन पर हुई इस वार्ता का कोई फल नहीं निकला, लेकिन, जैसाकि रोम्यां रोला ने लिखा है, ‘ It seems as if it were a controversy between a St. Paul and a Plato’। गांधीजी और रवीन्द्रनाथ के बीच 1915 से लेकर कवि की उम्र की आखिरी घड़ी 1941 तक लगातार भाषा नीति, असहयोग, सत्याग्रह, सत्य और प्रेम, चरखा और स्वराज्य, पूना समझौता, बिहार का भूकंप तथा विश्वास और अंधविश्वास, आदि विभिन्न विषयों पर वार्ताएं और पत्राचार होते रहें। इस समूचे विमर्श को अनेक अर्थों में भारी ऐतिहासिक महत्व का एक राष्ट्रीय विमर्श कहा जा सकता है।
1922 की 20 सितंबर से दिसंबर महीने के तीसरे हफ्ते तक रवीन्द्रनाथ पश्चिम भारत, श्रीलंका और फिर पश्चिम भारत की यात्रा पर रहे। वहां से लौट कर आने के कुछ दिनों बाद ही उत्तर भारत की यात्रा (काशी, लखनऊ से अहमदाबाद, मुंबई होकर कराची, सिंध के हैदराबाद से स्टीमर से काठियावाड़ के पोरबंदर) पर चल दिये। इन यात्राओं का एकमात्र लक्ष्य शांतिनिकेतन के उद्देश्यों का प्रचार करना था। तब से सन् 1926 तक कवि चीन, जापान, दक्षिण अमेरिका के अर्जेन्टिना, दो बार इटली, जर्मनी और योरप के अनेक देशों की लंबी-लंबी यात्राएं करते रहे। इटली के फासिस्ट शासक मुसोलिनी के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर उन्होंने उसकी प्रशंसा में कुछ बातें कह दी जिनका मुसोलिनी ने सारी दुनिया में प्रचार कराके काफी लाभ उठाया। इस दौरान उन्होंने कई नाटक और कविताएं लिखी और साहित्य, संस्कृति, शिक्षा संबंधी तमाम विषयों पर भाषण दिये।
1927 में भारत आकर भी वे देश के कोने-कोने में विश्वभारती के काम से ही घूमते रहे। 1929 में फिर कनाडा, जापान की यात्रा पर निकल गये। 1930 में योरप की अपनी अंतिम यात्रा पर गये। इसी यात्रा में 11 सितंबर 1930 के दिन रवीन्द्रनाथ सोवियत संघ पहुंचे। सोवियत संघ को देखने की उनकी लालसा काफी अर्से से थी। रूस की इस यात्रा पर उन्होंने लिखा, “अंत में रूस आना होगया। जो देखा अचरज हुआ। दूसरे किसी देश जैसा ही नहीं था। एकदम बुनियादी तौर पर अलग। नीचे से ऊपर तक सब लोगों को इन्होंने समान रूप से जगा दिया है।”
रूस से ही अपने बेटे रथीन्द्रनाथ को ‘जमींदारी प्रथा’ के बारे में उन्होंने लिखा, “जैसे दिन आरहे हैं, उनमें जमींदारी पर अब भरोसा नहीं किया जा सकता है। उस चीज के प्रति काफी लंबे अर्से से मेरे मन में धिक्कार था, अब वह और भी दृढ़ होगया। जिन सब बातों को काफी अर्से से सोचता था, इसबार रूस में उसकी सूरत देख आया। इसीलिये जमींदारी व्यवसाय पर मुझे शर्म आती है।”
रवीन्द्रनाथ की ‘रूस की चिट्ठी’ में सोवियत संघ की समाजवादी व्यवस्था की जिस प्रकार भूरि-भूरि प्रशंसा की गयी है, वह उनके गहन मानवतावादी दृष्टिकोण में एक बड़े विस्तार का सूचक है।
सोवियत संघ से रवीन्द्रनाथ सीधे अमेरिका की यात्रा पर चले गये। यह उनकी अमेरिका की अंतिम यात्रा थी। वहां से 31 जनवरी 1931 के दिन भारत आयें। 1932 में इरान और ईराक की यात्रा पर गये। 1934 में रवीन्द्रनाथ एकबार फिर, तीसरी बार श्रीलंका की यात्रा पर गये थे और वहीं पर उन्होंने अपने सबसे अधिक विवादास्पद उपन्यास ‘चार अध्याय’ को पूरा किया।
सन् ‘35 से ’38 तक के काल में कवि मूलतः देश के कुछ स्थानों की यात्राओं के अलावा शान्तिनिकेतन की गतिविधियों में ही अधिक मुब्तिला रहे। 17 सितंबर 1940 के दिन वे शांतिनिकेतन से अंतिम बार निकले थे।
इस समय तक द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू होगया था। इसमें शक नहीं कि यह विश्वयुद्ध रवीन्द्रनाथ के जीवन की सबसे बड़ी राजनीतिक घटना था। वस्तुतः 1939 से लेकर अपनी मृत्यु (7 अगस्त 1941) तक वे इस युद्ध की परिस्थितियों के बारे में लगातार चिंतित रहे। इस युद्ध में वे साफ तौर पर पूरी मनुष्यता के अस्तित्व पर खतरे को देख रहे थे और इसीलिये फासिस्ट ताकतों के खिलाफ मित्र शक्तियों के प्रति उनकी सहानुभूति और समर्थन में किसी प्रकार का कोई संकोच नहीं था। रूस का अनुभव उनके साथ था और उसके प्रति प्रकट सहानुभूति भी। अपने अंतिम दिनों के इसीकाल में कवि ने अंतिम इच्छा के रूप में ‘सभ्यता का संकट’ ऐतिहासिक लेख लिखा जिसे 14 मई 1941 के दिन शान्तिनिकेतन में पढ़ा गया। कवि तब अस्सी साल के होगये थे। इस लेख का प्रारंभ वे इन शब्दों से करते हैंः
“आज मेरे जीवन के अस्सी वर्ष पूर्ण हुए। अपने जीवन-क्षेत्र का दीर्घ विस्तार आज मेरे सामने आता है।...
“पाश्चात्य जातियों को अपनी सभ्यता पर जो गर्व है उसके प्रति श्रद्धा रखना अब असंभव होगया है। वह सभ्यता हमें अपना शक्ति रूप दिखा चुकी है लेकिन मुक्ति रूप नहीं दिखा सकी। मनुष्य का मनुष्य के साथ वह सम्बन्ध, जो सबसे अधिक मूल्यवान है और जिसे वास्तव में सभ्यता कहा जा सकता है, यहां नहीं मिलता। ...
इसीबीच मैंने देखा कि योरप में मूर्तिमन्त र्बबरता अपने नखदन्त बाहर निकालकर विभीषिका की तरह बढ़ती जा रही है। मानव-जाति को पीड़ित करने वाली इस महामारी का पाश्चात्य सभ्यता की मज्जा में जन्म हुआ। वहां से उठकर आज उसने मानव-आत्मा का अपमान करते हुए दिग्दिगन्तर के वातावरण को कलुषित कर दिया है। हमारे अभागे, निःसहाय, जकड़े हुए देश की दरिद्रता में क्या हमें उसका आभास नहीं मिलता?
“एक न एक दिन भाग्यचक्र पलटा खायेगा, और अंग्रेजों को अपना भारतीय साम्राज्य छोड़कर जाना होगा। लेकिन किस तरह के भारत को वे पीछे छोड़ जायेंगे?...जीवन के प्रथम भाग में मेरा हार्दिक विश्वास था कि सभ्यता-दान ही योरोप की आन्तरिक सम्पत्ति है। आज जब जीवन से विदा होने का दिन समीप आ रहा है मेरे इस विश्वास का दिवाला निकल चुका है। ...लेकिन मनुष्य के प्रति विश्वास खो देना पाप है। अन्तिम क्षण तक इस विश्वास की रक्षा करूंगा। ...जो लोग प्रबल और प्रतापशाली है उनकी शक्ति, गर्व और आत्माभिमान अजेय नहीं है। ...निश्चय ही इस सत्य का हमें प्रमाण मिलेगा...
महामानव का आगमन है।
दिशा-दिशा में घास का तिनका-तिनका रोमांचित है।
देवलोक में शंख बज उठा...
‘जय-जय-जय रे मानव अभ्युदय’ -”
रवीन्द्रनाथ के जीवन के इस पूरे आख्यान को यदि कोई गहराई से देखेगा तो उसे इसमें शुरू से अंत तक महाविश्व के महामानव की प्रतिमा का एक ऐसा सूत्र पिरोया हुआ दिखाई देगा जिस प्रतिमा को उन्होंने अपने जीवन के प्रारंभ में ही अपने आध्यात्मिक संस्कार से हृदय में बहुत गहरे बसा लिया था, और उम्र की अंतिम घड़ी तक वे उसी महामानव की जयकार का गीत गाते रहे। उसमें किसी भी प्रकार की लघुता का कोई स्थान नहीं था।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें