शुक्रवार, 1 जनवरी 2016

दिल्ली में बाबुओं की 'कामबंदी' के व्यापक राजनीतिक निहितार्थ


-अरुण माहेश्वरी


दिल्ली की केजरीवाल सरकार और केंद्र की मोदी सरकार के बीच अभी जो चल रहा है वह एकदलीय शासन की कोशिशों के उन पुराने काले, पिछली सदी के सत्तर के दशक की यादों को ताज़ा कर देता है जब राज्यपाल पूरी नग्नता से केंद्र सरकार के राजनीतिक दलाल की भूमिका अदा किया करता था और गाहे-बगाहे, बेवजह ही धारा 356 के प्रयोग से चुनी हुई राज्य सरकारों को गिरा कर राज्यों में केंद्र की शासक पार्टी की परोक्ष सरकार क़ायम कर दी जाती थी ।
उन दिनों, केंद्र की ऐसी तमाम साजिशाना हरकतों ने केंद्र और राज्यों के बीच तनाव को इस स्तर तक पहुँचा दिया कि साम्राज्यवादी देशों ने फिर से एक बार भारत के बल्कनाइजेशन की संभावनाओं को देखना शुरू कर दिया था । देश के तमाम राज्यों में किसी न किसी रूप में 'धरती पुत्रों' के नारों ने ज़ोर पकड़ना शुरू कर दिया ; राष्ट्रीयता के बजाय प्रांतीय और जातीय पहचान के विषय राजनीति के प्रमुख विषय बन गये ।
1975 का आंतरिक आपातकाल भी मूलत: उसी एकदलीय तानाशाही के रुझान की उपज था ।
इंदिरा गांधी ने आपातकाल के बाद जनता द्वारा बुरी तरह से ठुकरा दिये जाने से शिक्षा ली, 1983 में केंद्र- राज्य संबंधों के पुनर्विन्यास के लिये सरकारिया आयोग का गठन किया गया । धारा 356 का प्रयोग राजनीति का एक अत्यंत संवेदनशील मुद्दा बन गया । सुप्रीम कोर्ट तक ने इसके बेजा प्रयोग के खिलाफ रायें दी । 1951 से काम कर रहे वित्त आयोग को राज्य की ज़रूरतों के प्रति संवेदनशील बनाया गया । सत्ता का विकेंद्रीकरण बाद की सभी सरकारों की नीतियों का प्रमुख आधार बना । पश्चिम बंगाल के भूमि-सुधार के अनुभवों की प्रेरणा से 1992 के 73वें संविधान संशोधन और पंचायती राज क़ानून ने गाँवों तक सत्ता को ले जाने में एक अहम भूमिका अदा की ।
इन सभी राजनीतिक पहलकदमियों का फल हुआ कि जो राष्ट्र एक समय में पूरी तरह से बिखराव के कगार पर पहुँच गया दिखाई दे रहा था, उस राष्ट्र के एकीकरण को अभूतपूर्व बल मिला । इस मामले में आर्थिक उदारीकरण की भूमिका से भी इंकार नहीं किया जा सकता । 1991 ने आर्थिक विषयों में केंद्र की प्रत्यक्ष, राजनीतिक उद्देश्यों से की जाने वाली भेद-भावपूर्ण दखलंदाजियों के युग का अंत कर दिया । राज्यों के बीच आर्थिक विषयों में प्रतिद्वंद्विता के लिये मैदान काफ़ी हद तक समतल कर दिया गया । इस उदार अर्थनीति के दूसरे जो भी सामाजिक-आर्थिक परिणाम क्यों न निकले हो, पूरे देश के आर्थिक एकीकरण को इसने इतना बल पहुँचाया कि आज भारत के बल्कनाइजेशन, उसके बिखराव की कल्पना किसी सिरफिरे की सनक जान पड़ती है ।
बहरहाल, इस पूरी पृष्ठभूमि में जब हम दिल्ली को लेकर राज्य सरकार के खिलाफ केंद्र के एक के बाद एक, तमाम घिनौने षड़यंत्रों को देखते हैं तो लगता है जैसे अन्य सामाजिक मामलों की तरह ही केंद्र- राज्य संबंधों के मामले में भी मोदी सरकार इतिहास के चक्के को पीछे की ओर घुमाना चाहती है । दिल्ली राज्य की कुछ ख़ास परिस्थितियों , राज्य की पुलिस पर राज्य सरकार के बजाय केंद्र सरकार के नियंत्रण की तरह की स्थितियों के चलते केंद्र सरकार को दिल्ली सरकार के सभी मामलों में प्रत्यक्ष दख़लंदाज़ी का एक अवसर मिला हुआ है । और आज यह साफ़ है कि वह अपने इस अधिकार का पूरी नग्नता और धृष्टता के साथ प्रयोग करने से ज़रा भी परहेज़ नहीं कर रही है ।
मोदी सरकार ने अपने मंत्री, अरुण जेटली को भ्रष्टाचार के आरोपों से बचाने के लिये सीधे मुख्यमंत्री के दफ़्तर पर सीबीआई से छापा मरवा कर जेटली संबंधी फ़ाइलें को हथियाने की कोशिश की है ।
दिल्ली सरकार के खिलाफ मोदी सरकार की साज़िशें कितनी शर्मनाक स्तर पर चली गई है, इसका सबसे ताज़ा उदाहरण दिल्ली सरकार के नौकरशाहों को लेकर की जा रही खींच-तान है । दिल्ली सरकार अपने जिस अफ़सर को हटाती है उसे मोदी सरकार अपने विशेषाधिकारों के प्रयोग से निरस्त करके फिर से बहाल कर देती है । अब यह खेल अपने चरम पर पहुँच गया है जब दिल्ली के कई वरिष्ठ अधिकारियों ने केंद्र सरकार के उकसावे पर कामबंदी की घोषणा कर दी है ।
ज़ाहिर है कि यह दिल्ली में एक बड़ा राजनीतिक और प्रशासनिक गतिरोध पैदा करने की मोदी सरकार की सुनियोजित कोशिश है । इस प्रकार के गतिरोध के बहाने वह दिल्ली सरकार को अस्थिर करने, उसे बर्खास्त तक करके सीधे केंद्र का शासन क़ायम करने का पुराना, एकदलीय तानाशाही के दिनों का घिनौना खेल खेलना चाहती है । अरुण जेटली को डीडीसीए के भ्रष्टाचार के आरोप से बचाने का उसके पास दूसरा कोई उपाय शायद नहीं रह गया है !
यदि मोदी सरकार दिल्ली की जनता के ऐतिहासिक निर्णय से चुन कर आई केजरीवाल सरकार के खिलाफ इस प्रकार की कोई सीधी कार्रवाई करती है, जिसकी पूरी संभावना है, तो यह सीधे तौर पर भारतीय लोकतंत्र और इसके संघीय ढाँचे पर कुठाराघात होगा । इसके दूरगामी राजनीतिक परिणाम होंगे । यह तेज़ी के साथ जनता का विश्वास खो रही मोदी सरकार का सिर्फ़ अपने एक मंत्री को बचाने के लिये उठाया गया एक आत्मघाती क़दम साबित होगा । इसकी जितनी निंदा की जाए, कम होगी ।
नये साल का यह पहला दिन ही मोदी सरकार के ग़ैर-जनतांत्रिक इरादों का प्रतिरोध करने की शपथ लेने का दिन बने !

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