-अरुण माहेश्वरी
कानून के दर्शन की ओर
पिता के नाम 7 नवंबर 1837 के लंबे पत्र में ही मार्क्स ने सारे संकेत दे दिये थे कि कानून के दर्शन की समस्याओं ने अब उन्हें घेरना शुरू कर दिया है। उन्होंने पिता को लिखा सैविनी जिस प्रकार की भारी बौद्धिक चुनौती पेश करते हैं, उसे अच्छी तरह से पकड़ने के लिये मैं एक ठोस दर्शनशास्त्रीय आधार हासिल करना चाहती हूं । कांट और फिख्ते ने उनके राजनीतिक और नैतिक विचारों के निर्माण में जो प्रारंभिक भूमिका अदा की थी, इसे हम उनके ‘जिमनाजियम’ स्कूल के दिनों की चर्चा में देख चुके हैं। लेकिन अब मामला वास्तविक कानून का था, जिससे जुड़े सैद्धांतिक पक्षों को वे ठोस रूप में समझना चाहते थे ।
सेविनी कानून के इतिहास को रख रहे थे । उनका सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ था — ‘लॉ आफ पोसेसन’ (कब्जे/अधिकार का कानून) । इसमें वे बताते हैं कि रोमन कानून अधिकार को किसी कब्जे का सिर्फ परिणाम नहीं मानता, बल्कि कब्जे को किसी भी अधिकार की आधारशिला मानता है। इस प्रकार उन्होंने उस वक्त के बुद्धिवादी और आदर्शवादी, बल्कि कहा जा सकता है, नैतिकतावादी नजरिये के पूरी तरह से विरुद्ध, कानून के बारे में एक दूसरी अवधारणा पेश की । उनका कहना था कि कानून, खास तौर पर निजी संपत्ति की धारणा तर्क से उत्पन्न नहीं होती है । यह इतिहास में खास लोगों के तौर-तरीकों और दस्तावेजों / भाषाओं में निहित ‘उस पर कब्जे’ के तथ्यों से पैदा होती है ।
“सभी कानून जीवन की बदलती हुई जरूरतों और उन लोगों के बदलते हुए अभिमतों पर निर्भर होते हैं, जिनके आदेशों को ही कानून मान कर लोग उनका पालन किया करते हैं ।“ ( Friedrich Karvon Savigny, The History of the Roman Law during the Middle Ages, page – vi, xv और Von Savigny’s Treatise on Possession or The Jus possessionis of Civil Law, London, 1848, page – 3 ; Savigny’s – Roman Law – page – xii)
इस प्रकार, सेविनी कह रहे थे कि कानून ‘बनाये’ नहीं जाते, ‘पाये’ जाते है । उसी काल के जर्मन दार्शनिक और कवि जोहान गौटफ्राइड हर्डर ने कहा था कि कानून भाषा और संस्कृति से जुड़े होते हैं । हर्डर एक प्रकार से उस पूरे विवाद को प्रतिध्वनित कर रहे थे जो अठाहरवीं सदी के उत्तरार्द्ध में कांट की ‘विवेक’ की अवधारणा पर उठा था, जब 1783 में जे. जी. हम्मान ने उसे चुनौती देते हुए कहा था कि “विवेक का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं होता है, जब तक वह भाषा और व्यवहार से नहीं जुड़ा होता है । देश-काल से स्वतंत्र विवेक का कोई अस्तित्व नहीं है । विवेक का इतिहास भाषा और संस्कृति से जुड़ा होता है और भाषा और संस्कृति समय के साथ अलग-अलग स्थान पर बदलते रहते हैं । इसीलिये न्याय के किसी भी औपचारिक मानदंड में विवेक को शामिल नहीं किया जा सकता है ।“
वैसे सेविनी से भिन्न हर्डर यह मानते थे कि सभी राष्ट्रीय समाज पहले से विद्यमान परस्पर सौहार्द्र की परिस्थिति में साथ-साथ रहते हैं । (देखें — Frederick C Beiser, The Fate of Reason : German Philosophy from Kant to Fichte, Cambridge, Mass, Harvard University Press, 1987)
इस पूरे संदर्भ में एडमंड बुर्के ने अधिकारों को प्राकृतिक मानने के बजाय ऐतिहासिक मानते हुए भी परंपरा और क्रमिक परिवर्तन पर बल की बात को स्वीकारा लेकिन कहा कि “ कानून एक राष्ट्र का अंग होता है उसके अस्तित्व से जुड़ा हुआ और उसके अंत के साथ ही खत्म होता हुआ ।
कानून, राष्ट्र और उसके उद्भव और विकास से जुड़े इस लंबे और व्यापक विमर्श से उठे सवालों की पृष्ठभूमि में ही मार्क्स ने कानून के दर्शन पर लगभग तीन सौ पन्नों की एक पांडुलिपि तैयार की थी जिसमें उन्होंने रोमन कानून में विचारों के विकास का अध्ययन किया जिसकी सेविनी के ग्रंथ में जांच की गई थी ।
(क्रमशः)
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