-अरुण माहेश्वरी
शोध प्रबंध
‘प्रकृति के बारे में डेमोक्रीटियन और एपीक्यूरियन दर्शन के बीच के फर्क’ शोध प्रबंध का पहला वाक्य है — “ऐसा लगता है कि यूनानी दर्शन एक ऐसी जगह पहुंच गया है जहां किसी अच्छे दुखांत का अंत ऊबाऊपन में नहीं होता है । मकदुनिया के युनानी दर्शन के सिकंदर अरस्तू और यहां तक कि स्टोइक्स की तरह के पुरुषार्थी भी वह नहीं कर पायें, जिसे स्पार्टन्स ने अपने मंदिरों में कर दिया, एथीना को हिराक्लस की जंजीरों से बांध दिया, ताकि वह उड़ न सके ।“ (देखें, MECW, vol. 1, page – 34)
हरक्यूलियस
यहां यह बता देना उचित होगा कि सिकंदर की मृत्यु ( 323 ईसा पूर्व) से रोमन साम्राज्य के उदय (31 ईसा पूर्व) के बीच के अरस्तू के बाद के युनान के प्राचीन काल को उसका क्लासिक हेलेनिक काल कहते है । इसी काल में यूनान के दो बड़े वैज्ञानिक दार्शनिक डेमोक्रिटस (460 ईसापूर्व से 370 ईसापूर्व) और एपीकुरस (341 ईसापूर्व से 270 ईसापूर्व) के अंध-विश्वासों के विरोधी अणुवादी विचारों का बोलबाला था । अर्थात एथीना (स्वर्ग) को शक्ति के देवता हरक्युलियस से बांध कर रख देने का जो काम अपने पुरुषार्थ पर भारी भरोसा रखने वाले स्टोइक नहीं कर सके, उसे इन स्पारटावासियों ने अपने मंदिरों में कर के दिखा दिया । इसीमें मार्क्स अरस्तू के बारे में कहते हैं कि ‘किसी भी नायक की मृत्यु सूरज के अस्त होने की तरह होती है, न कि फूल कर कुप्पा हुए जा रहे मेढ़क के फट जाने की तरह ।’ (वही, पृष्ठ – 35)
एपीक्युरस
कहना न होगा, डेमोक्रीटियन और एपीक्यूरियन दर्शन अस्त हो रहे अरस्तू के काल की चमक ही थी । मार्क्स ने एपीक्यूरियन दर्शन को डेमोक्रीटियन भौतिकी और कायरेन्को की सुखवादी नैतिकता (हेडोनिजम) का मिश्रण कहा था और एपीक्युरस को 'युनानी प्रबोधन का सर्वश्रेष्ठ प्रतिनिधि' ।
बहरहाल, अपने इस प्रबंध के अंत में उनका निष्कर्ष था कि “परमाणुवादी एपीक्युरस अपने सारे अन्तर्विरोधों के साथ आत्म चेतना के प्राकृतिक विज्ञान को पेश करते हैं । इस प्रकार वे परमाणुवाद को उसकी अंतिम परिणति, अर्थात अंत तक पहुंचा देते है, जो किसी भी सार्वकालिकता का सचेत विरोधी है । दूसरी ओर डेमोक्रिटस के लिये परमाणु समग्र प्रकृति के ठोस आकलन की सामान्य वस्तुवादी अभिव्यक्ति है । इसीलिये परमाणु उनके लिये एक शुद्ध और अमूर्त श्रेणी, एक अटकल है, अनुभव का परिणाम है, उसका सक्रिय सिद्धांत नहीं । यह अटकल इसीलिये कभी वास्तवायित नहीं हो सकी क्योंकि यह प्रकृति के वास्तविक अन्वेषण को तय करने में आगे और भूमिका अदा नहीं कर पाई ।“ (MECW, Vol.1, page – 73)
(क्रमशः)
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