-अरुण माहेश्वरी
छठ उत्सव और उसमें स्त्रियों के ललाट से नाक के अंत तक गाढ़े सिंदूर की लकीर, नदी में घुटनों तक पानी में खड़ी स्त्रियों का डूबते और उगते सूरज को अर्घ्य, केलों के गुच्छों और ठेकुआ को लेकर हिंदी के चंद लेखकों के बीच उठा विवाद सचमुच दिलचस्प तो लगा, लेकिन अस्वाभाविक नहीं लगा ।
यदि आस्तिकता और नास्तिकता के बीच संघर्ष विचारों की दुनिया के एक सनातन विषय की तरह हमें घेरे रहता है तो इस प्रकार के अन्य विषय तो उसी के अनुषंग मात्र हैं, आदमी के आत्मिक जीवन के विविध प्रकट रूपों में चयन से जुड़े विषय ही तो हैं ।
नास्तिकतावाद के साथ तर्क और विवेक की मानवतावादी परंपरा का एक संबंध है तो धर्म भी अतार्किकता और अंध-भक्ति की ऐसी दीर्घ परंपरा है जो समाज और मनुष्य की अस्मिता से ही जुड़ी हुई है ।
धर्म संबंधी एक लंबे विमर्श के बीच से ही मार्क्स ने सिर्फ नास्तिकतावाद के प्रसार से जीवन से धर्म के अंत को एक कपोल-कल्पना माना था और नास्तिकता के आरोपण को एक प्रकार का अमानवीय कृत्य - ऐसा कृत्य जो दुखी जन से उसकी सांत्वना के अंतिम आसरे को उससे छीन लेना चाहता है ।
इस विषय का एक सबसे उल्लेखनीय उदाहरण रहा है - सत्तर के दशक में चीन में माओ के नेतृत्व में हुई सांस्कृतिक क्रांति । इसके तहत तमाम प्रकार के प्रतिक्रियावादी अंधविश्वासों और कुरीतियाँ से चीनी समाज को मुक्त करने के लिये धर्म और कर्मकांड संबंधी किताबों को ज़ब्त करके उनकी लुब्दी बना दी गई थी और उस लुब्दी से बने काग़ज़ पर माओ के वचनों की लाल पुस्तिका को छाप कर धर्म की जगह समाजवाद के मंत्रों को घर-घर में पहुँचाया गया था । इसमें दो-चार सालों तक वहां के समाज में भारी उत्पात चला और अंत में यही सच सामने आया कि यह सब चीन की कम्युनिस्ट पार्टी में चल रहे एक सत्ता संघर्ष का ही रूप था ।
‘सांस्कृतिक क्रांति’ का माओ का सिपहसलार लिन ब्याओ हवाई दुर्घटना में मारा गया, चंडाल चौकड़ी के नाम से प्रसिद्ध उसके अन्य नेताओं को फांसी की सज़ा हुई और चीन के सांस्कृतिक जीवन में आज तक उस क्रांति को आम जनता के जीवन से सांस्कृतिक विरेचन (cultural catharsis) के एक सबसे कठिन दौर के रूप में नफरत के साथ याद किया जाता है ।
कहने का मतलब यह है कि किसी भी पारंपरिक धार्मिक पर्व या उत्सव के सांस्कृतिक पक्षों की अहमियत को न समझ कर उन्हें शुद्ध विवेकवादी तर्कवाद की कसौटी पर कसने की ज़िद से मनुष्यों के आत्मिक संसार में से एक प्रकार के जबरिया विरेचन से अधिक शायद कुछ हासिल नहीं हो सकता है ।
जीवन के सारे मसले जब क्रांति के एक झटके मात्र से तय नहीं होते, ‘क्रांति के बाद क्या’ का सवाल तब और भी अहम हो जाता है, तब आदमी के आत्मिक संसार का किसी झटके से रूपांतरण की कल्पना किसी मूर्ख सत्ताधारी या राजनीति की एक आततायी ज़िद के अलावा और कुछ भी साबित नहीं होती है ।
बिहार के लोगों का छठ-पर्व तो और भी विशिष्ट है । इसे बिहार क्षेत्र के हिंदू ही मनाते हैं, लेकिन फिर भी इसे सनातन हिंदू धर्म में कोई स्थान प्राप्त नहीं है । इसी कारण हर जगह के हिंदू इसका पालन नहीं करते हैं । मूलत: इसे एक प्रकार का स्थानीय लोकोत्सव कहा जा है, जो बिहार के लोगों के तमाम जगहों में फैलने के अनुपात में ही बिहार की सीमाओं के बाहर भी फैला है, लेकिन इसका मूल केंद्र मिथिलांचल, बिहार के अन्य हिस्सें और पूर्वी उत्तर प्रदेश के कुछ क्षेत्र हैं और दूसरी जगह पर बस गये इन क्षेत्रों के लोगों के परिवारों के बीच ही है ।
इस पर्व की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें किसी पंडित-पुरोहित की कोई भूमिका नहीं होती है । न इसमें मंदिर नामक किसी जगह की कोई महत्ता है । चूँकि इससे पंडे-पुरोहितों का, ब्राह्मणों का रत्ती भर का लाभ नहीं होता है, संभवत: इसीलिये छठ को लेकर किसी कहानी को पंडितों ने किसी वेद, पुराण, रामायण, महाभारत आदि में प्रवेश नहीं करने दिया है। इस पर्व में न कोई कथा वाचन होता है और न कोई मंत्रोच्चार । शुद्ध रूप से स्त्रियाँ लोक संगीत के गीतों का गान करती है । इसे स्त्रियों का खास त्यौहार कहा जाता है । यद्यपि काल-क्रम में इसमें अब कुछ पंडे-पुजारी जुगत भिड़ा कर घुसने लगे हैं ।
बहरहाल, इन्हीं तमाम कारणों से छठ पूजा या छठ-उत्सव को मूलत: भारत में ब्राह्मणवादी धार्मिक परंपरा के बाहर का, बल्कि उसके निषेध का उत्सव कहा जा सकता है । दीपावली की अंधेरी रात को ब्राह्मणवादी परंपरा में दीये जला कर प्रकाश लाने की बात की जाती है , इसके विपरीत इस गैर-ब्राह्मणवादी पर्व में प्रकृति के प्रकाश की कामना करते हुए उसकी उपासना की जाती हैं ।
दीपावली की अमावस्या के बाद ही एक प्रकार से छठ का पर्व शुरू हो जाता है और छठ के दिन से, जब चाँद की रोशनी लौटने लगती है, लोग उसके मूल स्रोत सूर्य की इसके अस्त और उदय के दोनों रूपों में लोक गीत-संगीत के साथ अभ्यर्थना में उतर जाते हैं । मंदिरों की परिधि के बाहर सूर्य, प्रकाश, शक्ति और प्रकृति के नाच-गान के सारे उत्सव भारत में वैदिक धर्म के आगमन के बहुत पहले से मौजूद रहे हैं । पश्चिमी भारत से आक्रमणकारी आर्यों के साथ आए वेदों की व्यवस्था को बिहार-बंगाल के पूर्वी क्षेत्र तक पहुंचने में निश्चय ही हज़ारों साल लगे होंगे । इसीलिये ब्राह्मणवादी धर्म व्यवस्था बिहार के क्षेत्र के इस लोक संस्कृति से जुड़े उत्सव को ठीक वैसे ही नहीं छू पाई, जैसे बंगाल-असम में दूर-दूर तक फैले तांत्रिक धर्मों की परंपरा को विस्थापित नहीं कर पाई । यह क्षेत्र मूलत: काली-कामाख्या के तंत्र-शास्त्र पर टिके धर्म का क्षेत्र बना रह गया । चैतन्य के साथ फैले वैष्णव धर्म के जरिये यहाँ हिंदू धर्म का प्रसार हुआ, वैदिक वर्णवादी राम भक्ति शाखा की जड़ें कभी नहीं जम पाई ।
बंगाल में सार्वजनिक दुर्गा पूजा का इतिहास तो मात्र दो -अढ़ाई सौ साल का इतिहास है और यह माना जाता है कि इसमें भी दशमी के दिन का सिंदूर-खेला बिहार के छठ-पर्व से ही आया है । स्त्रियों के सजने-धजने की लालसा से जुड़ा इन क्षेत्रों के लोगों की अपनी सौन्दर्यानुभूति से जुड़ा उत्सव है यह । इसके साथ लोक की सौंदर्याभिरुचि का विषय जुड़ा हुआ है । यह तर्क से नहीं, नई अभिरुचियों के क्रमिक विकास से ही रूपांतरित हो सकती है ।
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