शुक्रवार, 20 अप्रैल 2018

तदनुरूप आगे एकजुट पार्टी के लिये सांगठनिक परिवर्तन भी चाहिए !

सीपीआई(एम) का सर्वसम्मत राजनीतिक संकल्प :
भाजपा/आरएसएस को हराना ही अभी सीपीआई(एम) का मुख्य कर्तव्य है ।

- अरुण माहेश्वरी


सीपीआई(एम) की बाईसवीं कांग्रेस में 20 अप्रैल को अंतत: सर्वसम्मति से राजनीतिक प्रस्ताव पारित हुआ । इस बात को मानते हुए कि भाजपा/आरएसएस और उनकी सरकार को पराजित करना ही पार्टी का आगे सबसे प्रमुख लक्ष्य होगा, राजनीतिक प्रस्ताव के मसौदे से उस वाक्य को हटा दिया गया जहां कहा गया था कि कांग्रेस दल के साथ किसी प्रकार का कोई ‘तालमेल’ नहीं होगा ।

पार्टी कांग्रेस के पहले पार्टी की केंद्रीय कमेटी की अंतिम कोलकाता बैठक में जिस एक शब्द ‘कांग्रेस दल के साथ ‘तालमेल’ (understanding) पर तीन दिन तक जो लोग शुतुरमुर्ग की तरह सिर गड़ाए बैठे थे, कांग्रेस के प्रतिनिधियों की कड़ी आलोचना ने उनकी इस शुतुरमुर्गी तंद्रा को तोड़ दिया है। अब इस बात को बाकायदा स्वीकार लिया गया है कि संसद के पटल पर पार्टी का कांग्रेस सहित अन्य धर्म-निरपेक्ष दलों के साथ प्रमुख विषयों पर तालमेल तो होगा ही । इसके साथ ही संसद के बाहर भी भाजपा को हराने के लिये कांग्रेस के साथ मिल कर और सब कुछ होगा, सिवाय राजनीतिक गठजोड़ के । सीपीएम के चौवन साल के इतिहास में पहली बार उसके आधिकारिक राजनीतिक प्रस्ताव के मसौदे में इतने बड़े राजनीतिक संशोधन किये गये है । ‘तालमेल’ नहीं होगा, इसे हटा कर उसकी जगह ‘राजनीतिक गठजोड़’ नहीं होगा, इसे सव्याख्या जोड़ा गया है । कहा गया है कि “भारत के शासक वर्गों की एक प्रमुख पार्टी के साथ राजनीतिक गठजोड़ कायम करने से वैकल्पिक नीतियों के आधार पर जनता को लामबंद करने का काम व्याहत होगा ।”

यद्यपि आज तक किसी ने भी सीपीआई(एम) की कांग्रेस पार्टी में विलय की मांग नहीं उठाई थी, इसलिये यह व्याख्या अनावश्यक अथवा महज आत्म-सांत्वनाकारी कही जा सकती है ।

बहरहाल, पार्टी के राजनीतिक प्रस्ताव के मसौदे में इन संशोधनों की व्याख्या करते हुए प्रकाश करात ने साफ शब्दों में कहा कि आरएसएस/भाजपा की हार को पूरी तरह से सुनिश्चित करने के बारे में पार्टी एकजुट है । महासचिव सीताराम येचुरी ने भी संशोधनों की व्याख्या करते हुए कहा कि हम सब इस बात पर एकमत है कि हमारी मुख्य लड़ाई भाजपा/आरएसएस के खिलाफ है और इस सरकार को पराजित करना है । इस प्रकार सीपीआई(एम) की इस कांग्रेस पार्टी की एकता की कांग्रेस कहा जा सकेगा।

लेकिन कोई भी राजनीतिक पार्टी महज एक प्रस्ताव या सैद्धांतिक समझ नहीं होती है । पार्टी चरितार्थ होती है उसके संगठन के जरिये । किसी भी पार्टी की उन्नति या अवनति में विचारधारा से कम उसकी सांगठनिक संरचना की भूमिका नहीं होती है । राजनीति का सबसे स्वाभाविक तर्क कहता है कि विचार अथवा सिद्धांत के अनुरूप ही राजनीतिक दल का संगठनात्मक स्वरूप भी होना चाहिए तभी वह अपने सैद्धांतिक संकल्प पर पूरी निष्ठा, ईमानदारी और एकजुटता से अमल कर पायेगा । अन्यथा पार्टी सिर्फ एक डिबेटिंग क्लब का रूप लेकर एक सही समझ तक पहुंच कर भी उसी स्थिति में पड़ी रहेगी जिस दशा में वह अपनी भूल समझ के साथ पहले थी । अंदर की जो खींच-तान पिछले तीन साल से पार्टी के महासचिव को पंगु बना रखी थी, वही खींच-तान, अर्थात गुटबाजी आगे भी पार्टी को अचल रखेगी !

इसीलिये आने वाले दो दिन सीपीआई(एम) के जीवन के बेहद महत्वपूर्ण दिन साबित होने वाले हैं । इसमें नई केंद्रीय कमेटी, पोलिट ब्यूरो का गठन होगा और महासचिव का भी चुनाव होगा । राजनीतिक नैतिकता का तकाजा तो यह है कि अब तक के जिन बहुमतवादी लोगों की राजनीति को पार्टी कांग्रेस ने कल ठुकरा दिया है, उन्हें खुद ही अपने को आगे के लिये पार्टी के प्रमुख पदों से अलग रखना चाहिए । इससे वे पार्टी का अपनी नई राजनीतिक समझ के आधार पर एकजुट होकर काम करने का रास्ता साफ करेंगे । लेकिन अपनी राजनीतिक समझ की पराजय के बावजूद वे यदि अपनी पुरानी तरकीबों से संगठन पर वर्चस्व बनाये रखने की कोशिश करते हैं तो वह दुर्भाग्यपूर्ण होगा और फिर मजबूरन पार्टी कांग्रेस को मतदान के जरिये सांगठनिक निर्णय लेने का रास्ता अपनाना पड़ सकता है ।

जो भी हो, सीपीआई(एम) में जिस नई प्रक्रिया का प्रारंभ हुआ है, उसे उसके तार्किक अंत तक ले जाने से ही पार्टी में वास्तव अर्थों में उसकी काम्य एकता कायम हो पायेगी । अपने वर्चस्व को बनाये रखने की शक्ति से वंचित होने पर ही इन्हें, अब तक पार्टी को भटकाये रखने वालों को, सुधरने के लिये मजबूर किया जा सकेगा ।

राजनीतिक प्रस्ताव की संगति में सीपीआई(एम) का सांगठनिक ढांचा भी बने, तभी वह अपनी अब तक की गलत समझ की बेड़ियों से मुक्त हो कर भारत के मेहनतकशों को सांप्रदायिक फासीवाद के खिलाफ देश की पूरी जनता की एकजुट लड़ाई से जोड़ने का एक कारगर औजार बन पायेगी ।

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