आज यू ट्यूब पर 6 दिसंबर के दिन जेएनयू में थोड़े से छात्रों के सामने प्रकाश करात का तकरीबन बीस मिनट का भाषण सुना ।
सन् ‘92 के बाद से अब तक हिंदुत्व की बढ़ती हुई ताकत की कहानी वे कुछ इस प्रकार कह रहे थे जैसे इसके बढ़ने का कोई विशेष सामाजिक-राजनीतिक स्वरूप नहीं है, सिवाय इस ‘सामान्य’ बात के कि हमारे संविधान पर खतरा पैदा हो गया है ।
एक जनतांत्रिक सेकुलर संविधान पर खतरे का अर्थ जनतंत्र पर खतरा होता है, तानाशाही और फासीवाद के आने का खतरा होता है - इस बात को साफ शब्दों में कहने में उनकी जुबान अटक जाती है , क्योंकि उनकी तो यह घोषित मान्यता रही है कि भारत में तानाशाही और फासीवाद का कोई खतरा नहीं है, और वे आज भी शायद उसी पर अड़े हुए हैं !
वे हमारे संविधान पर खतरे की बात कहते हैं , लेकिन उनकी जुबान से यह बात नहीं निकलती है कि संविधान की रक्षा के लिये उन सभी राजनीतिक शक्तियों को एकजुट होना चाहिए जो इस संविधान की रक्षा के लिये, अर्थात जनतंत्र और धर्म-निरपेक्षता की रक्षा के लिये प्रतिबद्ध हैं । उल्टे वे इस सेकुलरिज्म की रक्षा के प्रश्न को एक हवाई बात कहने से भी परहेज नहीं करते । उनकी समस्या यह है कि वे नहीं चाहते कि सेकुलरिज्म को किसी लड़ाई का आधार बनाया जाए क्योंकि ऐसा करने पर कांग्रेस की तरह की अन्य सेकुलर पार्टियों के साथ राजनीतिक एकजुटता का प्रश्न उठ खड़ा होगा ।
इसके विकल्प के तौर पर वे किसानों-मजदूरों की रोजी-रोटी की लड़ाई को ही संविधान की रक्षा की लड़ाई का एक मात्र उपाय बताते हैं । दूसरे शब्दों में कहे तो वे हिंदुत्व की राजनीति का प्रत्युत्तर किसी राजनीतिक गोलबंदी से नहीं, कोरे अर्थनीतिवाद से देने पर यकीन करते हैं । और वे किसी ट्रेडयूनियन या किसान सभा के नहीं, सीपीआई (एम) नामक राजनीतिक दल के नेता है !
हमें लगता है जैसे प्रकाश करात के पास द्वंद्ववाद की न्यूनतम समझ भी नहीं है जिसमें राजनीतिक द्वंद्वों का समाधान कभी भी किन्हीं और सामाजिक-आर्थिक द्वंद्वों के जरिये संभव नहीं होता है । इसके अलावा, द्वंद्वात्मकता की प्रक्रिया में हमेशा एक के विरुद्ध एक के द्वंद्व से ही गति पैदा होती है । एक तरफ यदि संविधान-विरोधी सभी फासिस्ट ताकतों का जमावड़ा है तो इसका प्रतिरोध दूसरी तरफ उनके विरोध में संविधान के प्रति निष्ठावान सभी जनतांत्रिक ताकतों के जमावड़े से ही संभव हो सकता है । इधर-उधर की दूसरी बातों, स्थानीय या किसी भी प्रकार के आर्थिक संघर्षों से नहीं ।
और जब हम शक्तियों के जमावड़े की बात करते हैं, तो वह सचमुच एक जमावड़ा ही होता है, अनेक प्रकार के रंगों की ताकतों का जमावड़ा, अनेक विषयों पर आपस में मतभेद रखने वाली ताकतों का जमावड़ा । इसमें शुद्धतावाद की बातें कोरी प्रवंचना के अलावा और कुछ नहीं होती है ।
प्रकाश करात का यह भाषण सुन कर यही लगा कि आज भी वे अंध-कांग्रेस विरोध के चक्कर में उसी तरह फंसे हुए हैं, जैसे सीपीआई(एम) की पिछली हैदराबाद कांग्रेस के वक्त थे ।
इससे लगता है, आगामी 2019 के महारण में सीपीआई(एम) के अंदर की यह दुविधा पूरे वामपंथ को पंगू बनाये रखेगी । मोदी को परास्त करने की राजनीतिक लड़ाई में वामपंथ की भूमिका सचमुच देखने लायक होगी !
-अरुण माहेश्वरी
https://www.youtube.com/watch?v=ZlxW8ACprr0
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