-अरुण माहेश्वरी
रमणिका गुप्ता नहीं रही । हिंदी साहित्य जगत में अपना ही एक ख़ास संसार लेकर चलने वाली लेखिका, संपादक, स्त्रीवादी, सामाजिक-न्यायवादी सामाजिक-राजनीतिक नेता और कार्यकर्ता नहीं रही । कहा जा सकता है, साहित्य-संस्कृति के जगत के अनेक छोटे-बड़े भुवनों में से एक भुवन का प्रदीप बुझ गया । एक क्षति, जिसे औपचारिक-अनौपचारिक किसी भी भाषा में क्यों न कहें, बिल्कुल सही अपूरणीय क्षति कही जा सकती है । यह महज किसी रचनाकार के न रहने से पैदा हुए शून्य का विषय नहीं है, एक बहुआयामी साहित्यिक-सामाजिक स्वयं-संपूर्ण व्यक्तित्व के न रहने से पैदा हुई स्थिति है ।
रमणिका जी से न जाने कितने सालों से हम परिचित रहे हैं । जनवादी लेखक संघ के निर्माण की जब प्रक्रिया शुरू हुई थी, तभी हज़ारीबाग़ में उनके मूल कार्य-स्थल पर हम उनसे मिले थे । उनके ‘युद्धरत आम आदमी’ से लेकर ढेर सारे प्रकाशनों, और अनुसूचित जनजाति के बौद्धिकों की ‘माई’ तक बनने के उपक्रमों से हम वाक़िफ़ रहे है । खुद उन्होंने आत्म-जीवनीमूलक जो लिखा, उसे भी हमने देखा है । दिल्ली जैसे महानगर में भी अपने सांस्थानिक व्यक्तित्व को बरक़रार रखने की उनमें ग़ज़ब की सामर्थ्य थी और हमें उनकी क्रियाशीलता की सूचनाएँ मिलती रहती थी । साल-दो साल पर उनसे फ़ोन पर बात भी हो जाती थी ।
लेकिन सचमुच, आज जब उनके बारे में सोचता हूँ तो लगता है, इस इतने परिचित व्यक्ति को और अधिक जानने, जानते चले जाने की तरह की हममें कभी विशेष इच्छा नहीं रही । जैसे इर्द-गिर्द के कई शक्तिशाली लोगों को जानते हुए भी हम उन्हें और ज़्यादा जानने की इच्छा नहीं रखते, उनके प्रभामंडल से आकर्षित नहीं हो पाते । आख़िर किसी को जानने की इच्छा की लगातार पुनरावृत्तियां ही तो उसके प्रति आपकी जिज्ञासा और आकर्षण का स्रोत होती हैं। इस इच्छा के अभाव से आप उसे जानते हुए भी लगभग नहीं जानते होते है । कहना न होगा, व्यक्ति की यह स्वयं-संपूर्ण अखंडता ही उसकी शक्ति और उसकी सीमा, दोनों का कारण बनती है ।
जब रमणिका जी के न रहने का समाचार मिला, तभी हमने उनसे लंबे परिचय के नाते ही उनके प्रति श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए उन पर अलग से कुछ लिखने का मन बनाया था । उनके लेखन और गतिविधियों का तथ्यमूलक लेखा-जोखा तो अन्य कई लोगों ने दिया है । उन्हें ही दोहरा देना लिखना नहीं कहला सकता है । लेकिन अलग से लिखने की इच्छा के कारण कुछ लिख ही नहीं पाया । अन्य मित्रों के श्रद्धांजलि के स्वरों के साथ अपने स्वर मिलाता रहा । लेकिन क्यों नहीं लिख पाया, खुद से यही सवाल पूछ कर रमणिका जी के व्यक्तित्व पर यही चंद बातें कह पा रहा हूँ ।
सचमुच, उनका न रहना हिंदी जगत की एक ऐसी अपूरणीय क्षति है जिसे अन्य कोई शायद ही कभी पूरा कर पायेगा । हम उन्हें दिल की गहराइयों से स्मरण करते हुए आंतरिक श्रद्धांजलि देते हैं ।
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