('स्वातंत्र्य चेतना का स्फोट' के छठें खंड की भूमिका)
ज्ञात का अनुसंधानात्मक निरूपण । जिस वस्तु के गुणावगुण से आप अज्ञात हो, उस सर्वत्र दिखाई देने वाली चीज की भी आपमें इसके बिना कोई समझ विकसित नहीं हो सकती है । जो प्रत्यक्ष दिखाई दे, उसे ही पशुवत अटल सत्य मान कर यह कहना कि यह ऐसा ही है, हमारी नियति है इसे भोगना, तो यह वस्तु सत्य पर अपनी सीमाओं का आरोपण मात्र है । यह हमारी प्रत्यभिज्ञा है । विचारशीलता, किसी भी साधना, उपासना की मांग है, इसके असली ज्ञान को हासिल करना, प्रत्यभिज्ञान को प्राप्त करना । अर्थात वस्तु सत्य पर स्वयं के पशुवत आरोपण को अपसारित कर उसके ज्ञान की दिशा में बढ़ना । आरोपण, अपसारण और तत्वदर्शन के तीन क्रमों के प्रत्यभिज्ञाविमर्श से ही मनुष्य की मनीषा का प्रकाशन और विस्तार होता है ।
सवाल है कि इस उपक्रम में किसी भी एक कड़ी को बाद देकर ज्ञान चर्चा में क्या एक भी कदम बढ़ाया जा सकता है ?
जर्मन दार्शनिक हाइडेगर ने काल के साथ प्राणीसत्ता के संबंधों के निर्धारण में पहली कड़ी के तौर पर प्रत्यक्ष संसार, Dasein की अतीव महत्व के साथ चर्चा की है । यह समय के साथ किसी भी लेखक और विचारवान व्यक्ति के संबंधों की प्राथमिक कड़ी है । इसे शैव दर्शन की शब्दावली में आणवसमावेश कहते हैं । बाह्य जगत की स्वात्ममूर्ति ।
यह दुनिया असंख्य रूपों से (मूर्त्तिवैचित्र्य) से भरी हुई है । और कहना न होगा, हर रूप अपनी द्वंद्वात्मक संरचना के चलते परिवर्तनशील, अर्थात स्वात्म-संस्कार में समर्थ होता है । इनमें हम जिसे भी वेद्य, अर्थात समझने योग्य चुनते हैं, उस पर केंद्रित हो कर ही हम उसके द्वंद्वों के समाधान की, अर्थात उसके निर्विकल्प स्वरूप की संवित (चेतना शक्ति) के शाक्त ज्ञान की कक्षा में प्रवेश कर सकते हैं । आरोपण के अपसारण की प्रक्रिया में ; तत्वदर्शन की प्रक्रिया में प्रवेश करते हैं ।
इस प्रकार यह प्रत्यक्ष में हमारा आत्मारोपण ही है जो मनीषा में ज्ञान के निर्माण के बाकी सारे चरण, हमारे शैव दार्शनिक अभिनवगुप्त के आणवसमावेश से लेकर शाक्त ज्ञान और शांभवयोग की सत्य की विश्वात्मा तक में प्रवेश को संभव बनाता है । इससे आंख मूंद कर ज्ञान की किसी प्रक्रिया का प्रारंभ ही मुमकिन नहीं है ।
जब भी हम अपने दैनंदिन ब्लाग लेखन के औचित्य-अनौचित्य पर विचार करते हैं, प्रत्यभिज्ञा, dasein और आणवसमावेश की उपरोक्त महत्ता से अधिक तात्पर्यपूर्ण हमें कुछ नहीं जान पड़ता । पशुता से ज्ञान सत्ता और इतिहास की परमार्थिक एकसूत्रता से उसके स्वतंत्र कर्त्तृत्व तक की भाव सत्ता ही पौर्वापर्य के विवेक की उस भित्ति को तैयार करती है जो तत्काल की गति के भुवनों से सार्वभौम सत्यों के ब्रह्मांड तक की अन्वीक्षा की जमीन हो सकती है । सचमुच यही वजह है कि विषय का वैविध्य हमें अध्ययन की चुनौतियां जरूर देता है लेकिन विषय के पार्थिव, प्राकृतिक, काल्पनिक (मायीय) और शाक्त स्वरूपों से उसकी द्वंद्वात्मकता का सूक्ष्म प्रक्रियागत ज्ञान जहां हमेशा उसके तल की तात्त्विकता को देख पाने में मददगार होता है, वहीं उसके विस्तार की संभावनाओँ का भी अनुमान देता है । देश-काल से जुड़े विषय के तत्त्व के साथ उसके इन सभी बाह्यरूपों का निरंतर स्पर्श होता है । अभिनवगुप्त ने सही कहा है कि स्पर्श सप्रतिघाती होता है, अर्थात द्वंद्वात्मकता का कारण, जो विषय के तत्त्व और स्वरूप दोनों को ही प्रभावित करता रहता है । यही सब अवलोकनों में विस्मय और चमत्कार का भी मूल स्रोत है ।
समय के प्रवाह पर लेखन की भंगुरता और स्थायित्व के बारे में अपनी तमाम शंकाओं के बावजूद हम यह देख पाने में नहीं चूकते हैं कि यह सारी कोशिश प्रवहमान समय के प्रस्तरीकरण की तरह की निष्फल कोशिश नहीं है । जब हम समय के प्रकट रूपों के पौर्वापर्य स्वरूपों पर उंगली रख पाते हैं, तब यह लेखन प्रवाह की गति को रोकने का नहीं, बल्कि उसकी गति के साथ उत्तरण और उसमें अपनी स्वातंत्र्य शक्ति के यत्किंचित कर्त्तृत्व की संभावना से भरा हुआ रोमांचकारी होता है । यह लेखन कोरे दस्तावेजीकरण की गतिहीनता की मार का शिकार नहीं होता है । और कहना न होगा, यही विश्वास हमें ब्लाग लेखन के लिये लगातार प्रेरित करता रहा है ।
समकालीन घटना प्रवाह पर लेखन मनुष्य अर्थात किसी भी जीवित निकाय के अन्तरजगत के निरीक्षण की तरह ही है । भारतीय कहावत है, यथा पिण्डे तथा ब्रह्मांडे । परिवार, समाज, राष्ट्र और विश्व के शोध-अन्वेषण से कम महत्वपूर्ण नहीं है मनुष्य, एक जीवित इकाई के मनोजगत की संरचनाओं का अध्ययन । इस अन्तर्मन की जटिलताएँ और इसका विस्तार बाहर की दुनिया से कम विचित्र, रहस्यमय और स्वयं में शीलबद्ध, नियम-परक नहीं है । इसे आप राजनीति के दैनन्दिन स्वरूप की विचित्रताओं के बीच से भी कुछ-कुछ देख सकते हैं । लेकिन मुश्किल यह है कि इस दैनन्दिन राजनीति का सामान्यत: आपको कोई शास्त्र नहीं मिलता, जब कि यही दैनन्दिनता बृहत्तर ऐतिहासिक प्रक्रियाओं के सूत्रों को बुना करती है । इसकी अवहेलना का हमें कोई औचित्य नजर नहीं आता है ।
दुनिया में इस प्रकार के, दैनन्दिन उन्मोचित हो रहे राजनीतिक घटना-प्रवाह के लेखन का सबसे क्लासिक उदाहरण है कार्ल मार्क्स की कृति 'लुई बोनापार्ट की अठाहरवीं ब्रुमेर' । नेपोलियन तृतीय की फौजी तानाशाही के कायम होने के विद्रोह के दिन का एक पौर्वापर्य विस्तृत सामाजिक-राजनीतिक विवरण । ब्रुमेर, अर्थात फ्रांस के जनतंत्रीय पंचांग का एक महीना । अठारहवीं ब्रुमेर अर्थात् 9 नवंबर 1799, जब एक राज्य विद्रोह के जरिये अपनी फौजी तानाशाही कायम करके लुई बोनापार्ट ने पूरे राजनीतिक जगत को 'वज्रपात की तरह' स्तंभित कर दिया था । एंगेल्स ने उस घटना की मार्क्स के इस सिलसिलेवार विवरण और उसकी मार्मिक व्याख्या के बारे में लिखा था कि इसने उन दिनों के “फ्रांस के पूरे इतिहास-क्रम को उसके अंत:सम्बंधों के साथ अनावृत किया...जीवित और सामयिक इतिहास की ऐसी असामान्य समझ, घटनाओं के घटने के क्षण में ही उनका ऐसा सुलझा हुआ मूल्यांकन सचमुच बेजोड़ है ।” एंगेल्स इस पर यह भी लिखते हैं कि मार्क्स ने खुद इतिहास की गति के अपने जिस महान नियम का पता लगाया था, उसे उन्होंने “इन ऐतिहासिक घटनाओं की कसौटी पर परखा” ।
ऐसे व्याख्यामूलक पौर्वापर्य विवरणों में किसी भी ऐतिहासिक काल की सारी जटिलताएँ, परस्पर-विरोधी और असामंजस्यपूर्ण चीजें समाहित होती है, जो किसी न किसी रूप में उत्पादन के सामाजिक संबंधों के स्वरूप को भी प्रतिबिंबित करती हैं । लेकिन यह आधार और अधिरचना के बीच किसी भी यांत्रिक संबंध की अवधारणा से कोसों दूर है ।
आम तौर पर मार्क्सवादी हलकों के कथित राजनीतिक सिद्धांतकारों में राजनीति की हर छोटी से छोटी घटना के पीछे उसके वर्गीय उत्स को चिन्हित करने की जो ललक दिखाई देती है, वही बचकानापन अक्सर इन्हें समग्र राजनीतिक परिदृश्य की समझ के मामले में घोंघा वसंत, मूर्ख, और एक दूसरी दुनिया का दुर्लभ प्राणी बना दिया करता है । इन 'वर्ग-स्रोत संधानी' पंडितों से मार्क्सवाद को मुक्त रखने की मांग करते हुए अंतोनियो ग्राम्शी ने लिखा था कि “ इस दावे को कि राजनीति और विचारधारा में हर फेर-बदल को आधार की फौरी अभिव्यक्ति के रूप में प्रस्तुत और व्याख्यायित किया जा सकता है, आदिम बचकानापन कहा जाना चाहिए ।”
इटली में फासीवाद के आगमन का अवलोकन करते हुए ग्राम्शी लिखते हैं कि “किसी भी समय में अर्थ-व्यवस्था की कोई स्थिर तस्वीर (फोटो) पेश करना कठिन होता है । इसमें नाना प्रकार की प्रवृत्तियां सक्रिय रहती है, लेकिन जरूरी नहीं कि वे सभी प्रकट रूप में दिखाई दें । और राजनीति किसी भी समय इन प्रकट और परोक्ष प्रवृत्तियों के अंश को ही प्रतिबिंबित करती है । कोई भी राजनीतिक संकट अनिवार्यत: अर्थ-व्यवस्था के संकट का ही परिणाम नहीं होता है ।”
कहने का तात्पर्य यही है कि मार्क्सवाद महज राजनीति नहीं है । मार्क्सवादी चिंतन परंपरा में राजनीति के स्थान की भी सही समझ की जरूरत है । जब हम विचारधारात्मक प्रभुत्व की तरह की बात करते हैं तो उसका तात्पर्य महज राजनीतिक प्रभुत्व नहीं, हमेशा मान्य सामाजिक नैतिकता से होता है । राजनीति सामाजिक-नैतिक मान्यताओं के संघटन की प्रक्रिया का एक मामूली हिस्सा भर होती है । प्रश्न उठता है कि उस मामले में आप कहा खड़े हैं । इसे चालू मार्क्सवादी शब्दावली में समाज में वर्गीय शक्तियों का संतुलन कहा जाता है ।
इसके साथ ही राजनीति के अपने जगत की यह सचाई है कि जो भी राजनीतिक पार्टी अपने किसी भी विचारधारात्मक आग्रह की मरीचिका में फंस कर रोजमर्रे के सामाजिक- राजनीतिक घटनाचक्रों के प्रति बेफिक्र होती है, वे समाज में पूरी तरह से अप्रासंगिक होकर शून्य में विलीन हो जाने के खतरे में पड़ी होती है । राजनीतिक पार्टियों के विस्तार की परिधि भी इसी पर निर्भर है ।
कुल मिला कर हम कह सकते है कि राजनीति में जिसे कार्यनीति के प्रश्न कहते हैं, दैनन्दिन प्रश्न, ये इसके अन्तरजगत के प्रश्नों के अनगिनत आयामों और जटिलताओं के साथ अपनी समग्रता में राजनीति के ब्रह्मांड के अन्य भुवनों के खोल के स्पर्श में रहते हैं । विषय की इसी प्रत्यक्ष-संरचना में हाइडेगर 'अन्य' की उपस्थिति की बात करते हैं, वह 'अन्य' जो प्राणी सत्ता के लिये आत्म पहचान की, 'वह कौन है' की तरह की अस्तित्वीय चुनौती प्रस्तुत करता है । स्वयं में 'स्व' की पहचान की प्रत्यभिज्ञा की मूलभूत समस्या । हमारा आग्रह यही है कि इस अन्तर के अन्य बाह्य रूपों से अन्तरक्रिया करते हुए विकास की स्वच्छ समझ की एक बाकायदा पद्धति विकसित करने की जरूरत है ।
राजनीति का आंतरिक ढांचा क्या होता है, इसके बीज तत्व क्या है और इसका समय के संस्पर्श से बाह्य विस्तार कैसे होता है, इसकी एक समझ बनाने के लिये ही हम निरंतर न सिर्फ राजनीतिक सिद्धांतों के बारे में, बल्कि राजनीतिक पार्टियों की सांगठनिक संरचनाओं के विविध पक्षों पर भी रोशनी डालने की कोशिश करते रहे हैं । कांग्रेस की तात्विकता को ह्यूम और गांधी के स्वातंत्र्य के विचारों से, आरएसएस को हिटलर और हेडगेवार की हिंदू-मुस्लिम ग्रंथी से तो मार्क्सवादियों को मार्क्स के मानव मुक्ति के सत्य और सोवियत संघ के तत्व-रूप से पहचानने की जो निश्चित तौर पर इनके अस्तित्वीय संकट के हर मुकाम पर इनके तल से किसी न किसी रूप में अपने को प्रकट करते हैं । लेकिन जैसा कि हमने शुरू में ही प्रत्यभिज्ञा का सवाल उठाते हुए कहा कि सारी समस्या इनके प्रत्यक्ष के आवरण के अपसारण से इन्हें परत-दर-परत देखने की विधि का है, इनकी सर्वमान्य पहचान की व्याख्या-विश्लेषण से इनके तत्व की आंतरिक गति को इनके लोकोत्तर क्षितिजों के संदर्भ में स्थिर करने का है । ये क्षितिज पार्टियों के तथाकथित रणनीतिगत लक्ष्य भी हो सकते हैं और संभव तात्कालिक लक्ष्य भी ।
कहना न होगा, अभिनवगुप्त के तंत्रालोक के परामर्श, मार्क्स का द्वंद्वात्मक भौतिकवाद, हाइडेगर की प्राणी सत्ता और काल की अंतरक्रिया का दर्शनशास्त्र और फ्रायड और लकान की तरह के मनोविश्लेषकों के मनुष्य के मनोभावों के विश्लेषण किसी भी घटना-विकास के प्रकट रूपों के पीछे के अंतरद्वंद्वों के नियमों की पहचान के सिद्धांतों और शास्त्रों की ही रचना करते हैं । अभिनवगुप्त जब अपने तंत्रालोक को भोग-मोक्ष का त्रिकशास्त्र (दर्शन) कहते हैं तो भोग से उनका तात्पर्य मनुष्य के सामाजिक जीवन से और मोक्ष से आत्मिक जीवन से है और तंत्रालोक इन दोनों पर ही समान रूप से लागू होता है । (मोक्षाभोगाम्युपायता) । मार्क्स के द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की सिद्धि हेगेल के भाववादी द्वंद्ववाद और फायरबाख के भौतिकवाद से उत्तरण की एक लंबी प्रक्रिया के बीच से पूंजी की आंतरिक गति और उसके नाना सामाजिक-आर्थिक स्वरूपों के अध्ययन की प्रक्रिया से हुई थी । फ्रायड और लकान के स्तर के मनोविश्लेषक भी मनोचिकित्सा की विधियों से मनोजगत की संरचना और उसके विश्लेषण की टीपों से जिस शास्त्र की रचना करते हैं, उसके दायरे में जीव जगत का ऐसा कोई पहलू नहीं है, जो दाखिल नहीं हो सकता है । कुल मिला कर, यह सब मनुष्यों और उनके समाजों के आत्मिक जगत के व्यापारों के शास्त्र ही है । अभिनव के शब्दों में — “अध्यात्म के बिना बाह्य सिद्ध नहीं है और अध्यात्म भी बाह्य से रहित होकर सिद्ध नहीं होता ।”
(नाध्यात्मेन बिना बाह्यं नाध्यात्मं वाह्यवर्जितम्)
इसीलिये इन सभी जगत की सूक्ष्म से सूक्ष्म हलचलों की पड़ताल किसी मायने में कम महत्वपूर्ण नहीं है ।
हमारे मित्र प्रशांत बिस्सा जी ने बड़े उत्साह के साथ इसके पहले एक मुश्त इस लेखन के पांच खंड प्रकाशित किये थे । पांच साल की अवधि के लेखन के पांच खंड । उन खंडों के तकरीबन डेढ़ हजार पृष्ठों के फैलाव को देख कर मन थोड़ा घबड़ाया था । रोज-रोज सामने आने वाले इतने विषय, उनकी इतनी पेचीदगियां, उनसे मिलने वाले इतने संकेत और जिन्हें संकेतित हैं उनकी किसी ठोस सूरत का अभाव — लेखक को हतोत्साहित करने के लिये यह सब काफी होता है । लेकिन इसी बिंदु पर प्राणीसत्ता के अपने जगत का सत्य प्रमुख हो जाता है । हमारी लेखकीय प्राणी सत्ता । किसी भी अखिल सत्य के भुवन का भी यही तो देश-काल से जुड़ा आधार होता है । अन्यथा वह भी कैसे, और किसके जरिये अपने को प्रगट करेगा । और जहां तक लेखक का संबंध है, यही उसके लिये मोक्षदायी सम्यक ज्ञान-स्वभाव वाली विद्या है, सम्यगज्ञानस्वभाव हि विद्या साक्षाद्विमोचिका) । हाइडेगर की शब्दावली में — 'temporality as the meaning of the Being of that entity'।
प्रारंभिक पांच खंड तो प्रशांत जी के आग्रह के परिणाम थे लेकिन इस छठे खंड के प्रकाशन के साथ हमारा भी अतिरिक्त आग्रह जुड़ गया है क्योंकि इसके प्रकाशन से आज के भारत का विगत पांच सालों का कुछ अजीबोगरीब रंगत लिया हुआ एक पूरा काल-खंड इनमें समाहित हो जाता है । जैसे हर अपवाद सामान्य को प्रमाणित करता है, उसी प्रकार मोदी शासन का यह विचलन-स्वरूप कालखंड भारतीय जनतंत्र को प्रमाणित करता जान पड़ता है । इसके एक गतिवान आख्यान से किसी भी देश में सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक परिघटना के प्रारंभ और अंत को उसकी गतिशीलता में देखने और समझने का एक आधार तैयार हो सकता है । एक तान के बीच के आरोह-अवरोह के वृत्तों से उस तान की संभावनाओं के संकेत मिल सकते हैं ।
बिस्सा जी ने इस खंड के प्रकाशन के प्रति भी जो उत्साह जाहिर किया है, इसके लिये मैं उनका आभारी हूं । आभारी हूं श्री श्याम आचार्य का जो बिस्सा जी के निर्देश पर ही पूरी लगन के साथ इस सामग्री को मुद्रण-योग्य रूप देने में सहयोगी बने हैं ।
—अरुण माहेश्वरी
05.01.2019
ज्ञात का अनुसंधानात्मक निरूपण । जिस वस्तु के गुणावगुण से आप अज्ञात हो, उस सर्वत्र दिखाई देने वाली चीज की भी आपमें इसके बिना कोई समझ विकसित नहीं हो सकती है । जो प्रत्यक्ष दिखाई दे, उसे ही पशुवत अटल सत्य मान कर यह कहना कि यह ऐसा ही है, हमारी नियति है इसे भोगना, तो यह वस्तु सत्य पर अपनी सीमाओं का आरोपण मात्र है । यह हमारी प्रत्यभिज्ञा है । विचारशीलता, किसी भी साधना, उपासना की मांग है, इसके असली ज्ञान को हासिल करना, प्रत्यभिज्ञान को प्राप्त करना । अर्थात वस्तु सत्य पर स्वयं के पशुवत आरोपण को अपसारित कर उसके ज्ञान की दिशा में बढ़ना । आरोपण, अपसारण और तत्वदर्शन के तीन क्रमों के प्रत्यभिज्ञाविमर्श से ही मनुष्य की मनीषा का प्रकाशन और विस्तार होता है ।
सवाल है कि इस उपक्रम में किसी भी एक कड़ी को बाद देकर ज्ञान चर्चा में क्या एक भी कदम बढ़ाया जा सकता है ?
जर्मन दार्शनिक हाइडेगर ने काल के साथ प्राणीसत्ता के संबंधों के निर्धारण में पहली कड़ी के तौर पर प्रत्यक्ष संसार, Dasein की अतीव महत्व के साथ चर्चा की है । यह समय के साथ किसी भी लेखक और विचारवान व्यक्ति के संबंधों की प्राथमिक कड़ी है । इसे शैव दर्शन की शब्दावली में आणवसमावेश कहते हैं । बाह्य जगत की स्वात्ममूर्ति ।
यह दुनिया असंख्य रूपों से (मूर्त्तिवैचित्र्य) से भरी हुई है । और कहना न होगा, हर रूप अपनी द्वंद्वात्मक संरचना के चलते परिवर्तनशील, अर्थात स्वात्म-संस्कार में समर्थ होता है । इनमें हम जिसे भी वेद्य, अर्थात समझने योग्य चुनते हैं, उस पर केंद्रित हो कर ही हम उसके द्वंद्वों के समाधान की, अर्थात उसके निर्विकल्प स्वरूप की संवित (चेतना शक्ति) के शाक्त ज्ञान की कक्षा में प्रवेश कर सकते हैं । आरोपण के अपसारण की प्रक्रिया में ; तत्वदर्शन की प्रक्रिया में प्रवेश करते हैं ।
इस प्रकार यह प्रत्यक्ष में हमारा आत्मारोपण ही है जो मनीषा में ज्ञान के निर्माण के बाकी सारे चरण, हमारे शैव दार्शनिक अभिनवगुप्त के आणवसमावेश से लेकर शाक्त ज्ञान और शांभवयोग की सत्य की विश्वात्मा तक में प्रवेश को संभव बनाता है । इससे आंख मूंद कर ज्ञान की किसी प्रक्रिया का प्रारंभ ही मुमकिन नहीं है ।
जब भी हम अपने दैनंदिन ब्लाग लेखन के औचित्य-अनौचित्य पर विचार करते हैं, प्रत्यभिज्ञा, dasein और आणवसमावेश की उपरोक्त महत्ता से अधिक तात्पर्यपूर्ण हमें कुछ नहीं जान पड़ता । पशुता से ज्ञान सत्ता और इतिहास की परमार्थिक एकसूत्रता से उसके स्वतंत्र कर्त्तृत्व तक की भाव सत्ता ही पौर्वापर्य के विवेक की उस भित्ति को तैयार करती है जो तत्काल की गति के भुवनों से सार्वभौम सत्यों के ब्रह्मांड तक की अन्वीक्षा की जमीन हो सकती है । सचमुच यही वजह है कि विषय का वैविध्य हमें अध्ययन की चुनौतियां जरूर देता है लेकिन विषय के पार्थिव, प्राकृतिक, काल्पनिक (मायीय) और शाक्त स्वरूपों से उसकी द्वंद्वात्मकता का सूक्ष्म प्रक्रियागत ज्ञान जहां हमेशा उसके तल की तात्त्विकता को देख पाने में मददगार होता है, वहीं उसके विस्तार की संभावनाओँ का भी अनुमान देता है । देश-काल से जुड़े विषय के तत्त्व के साथ उसके इन सभी बाह्यरूपों का निरंतर स्पर्श होता है । अभिनवगुप्त ने सही कहा है कि स्पर्श सप्रतिघाती होता है, अर्थात द्वंद्वात्मकता का कारण, जो विषय के तत्त्व और स्वरूप दोनों को ही प्रभावित करता रहता है । यही सब अवलोकनों में विस्मय और चमत्कार का भी मूल स्रोत है ।
समय के प्रवाह पर लेखन की भंगुरता और स्थायित्व के बारे में अपनी तमाम शंकाओं के बावजूद हम यह देख पाने में नहीं चूकते हैं कि यह सारी कोशिश प्रवहमान समय के प्रस्तरीकरण की तरह की निष्फल कोशिश नहीं है । जब हम समय के प्रकट रूपों के पौर्वापर्य स्वरूपों पर उंगली रख पाते हैं, तब यह लेखन प्रवाह की गति को रोकने का नहीं, बल्कि उसकी गति के साथ उत्तरण और उसमें अपनी स्वातंत्र्य शक्ति के यत्किंचित कर्त्तृत्व की संभावना से भरा हुआ रोमांचकारी होता है । यह लेखन कोरे दस्तावेजीकरण की गतिहीनता की मार का शिकार नहीं होता है । और कहना न होगा, यही विश्वास हमें ब्लाग लेखन के लिये लगातार प्रेरित करता रहा है ।
समकालीन घटना प्रवाह पर लेखन मनुष्य अर्थात किसी भी जीवित निकाय के अन्तरजगत के निरीक्षण की तरह ही है । भारतीय कहावत है, यथा पिण्डे तथा ब्रह्मांडे । परिवार, समाज, राष्ट्र और विश्व के शोध-अन्वेषण से कम महत्वपूर्ण नहीं है मनुष्य, एक जीवित इकाई के मनोजगत की संरचनाओं का अध्ययन । इस अन्तर्मन की जटिलताएँ और इसका विस्तार बाहर की दुनिया से कम विचित्र, रहस्यमय और स्वयं में शीलबद्ध, नियम-परक नहीं है । इसे आप राजनीति के दैनन्दिन स्वरूप की विचित्रताओं के बीच से भी कुछ-कुछ देख सकते हैं । लेकिन मुश्किल यह है कि इस दैनन्दिन राजनीति का सामान्यत: आपको कोई शास्त्र नहीं मिलता, जब कि यही दैनन्दिनता बृहत्तर ऐतिहासिक प्रक्रियाओं के सूत्रों को बुना करती है । इसकी अवहेलना का हमें कोई औचित्य नजर नहीं आता है ।
दुनिया में इस प्रकार के, दैनन्दिन उन्मोचित हो रहे राजनीतिक घटना-प्रवाह के लेखन का सबसे क्लासिक उदाहरण है कार्ल मार्क्स की कृति 'लुई बोनापार्ट की अठाहरवीं ब्रुमेर' । नेपोलियन तृतीय की फौजी तानाशाही के कायम होने के विद्रोह के दिन का एक पौर्वापर्य विस्तृत सामाजिक-राजनीतिक विवरण । ब्रुमेर, अर्थात फ्रांस के जनतंत्रीय पंचांग का एक महीना । अठारहवीं ब्रुमेर अर्थात् 9 नवंबर 1799, जब एक राज्य विद्रोह के जरिये अपनी फौजी तानाशाही कायम करके लुई बोनापार्ट ने पूरे राजनीतिक जगत को 'वज्रपात की तरह' स्तंभित कर दिया था । एंगेल्स ने उस घटना की मार्क्स के इस सिलसिलेवार विवरण और उसकी मार्मिक व्याख्या के बारे में लिखा था कि इसने उन दिनों के “फ्रांस के पूरे इतिहास-क्रम को उसके अंत:सम्बंधों के साथ अनावृत किया...जीवित और सामयिक इतिहास की ऐसी असामान्य समझ, घटनाओं के घटने के क्षण में ही उनका ऐसा सुलझा हुआ मूल्यांकन सचमुच बेजोड़ है ।” एंगेल्स इस पर यह भी लिखते हैं कि मार्क्स ने खुद इतिहास की गति के अपने जिस महान नियम का पता लगाया था, उसे उन्होंने “इन ऐतिहासिक घटनाओं की कसौटी पर परखा” ।
ऐसे व्याख्यामूलक पौर्वापर्य विवरणों में किसी भी ऐतिहासिक काल की सारी जटिलताएँ, परस्पर-विरोधी और असामंजस्यपूर्ण चीजें समाहित होती है, जो किसी न किसी रूप में उत्पादन के सामाजिक संबंधों के स्वरूप को भी प्रतिबिंबित करती हैं । लेकिन यह आधार और अधिरचना के बीच किसी भी यांत्रिक संबंध की अवधारणा से कोसों दूर है ।
आम तौर पर मार्क्सवादी हलकों के कथित राजनीतिक सिद्धांतकारों में राजनीति की हर छोटी से छोटी घटना के पीछे उसके वर्गीय उत्स को चिन्हित करने की जो ललक दिखाई देती है, वही बचकानापन अक्सर इन्हें समग्र राजनीतिक परिदृश्य की समझ के मामले में घोंघा वसंत, मूर्ख, और एक दूसरी दुनिया का दुर्लभ प्राणी बना दिया करता है । इन 'वर्ग-स्रोत संधानी' पंडितों से मार्क्सवाद को मुक्त रखने की मांग करते हुए अंतोनियो ग्राम्शी ने लिखा था कि “ इस दावे को कि राजनीति और विचारधारा में हर फेर-बदल को आधार की फौरी अभिव्यक्ति के रूप में प्रस्तुत और व्याख्यायित किया जा सकता है, आदिम बचकानापन कहा जाना चाहिए ।”
इटली में फासीवाद के आगमन का अवलोकन करते हुए ग्राम्शी लिखते हैं कि “किसी भी समय में अर्थ-व्यवस्था की कोई स्थिर तस्वीर (फोटो) पेश करना कठिन होता है । इसमें नाना प्रकार की प्रवृत्तियां सक्रिय रहती है, लेकिन जरूरी नहीं कि वे सभी प्रकट रूप में दिखाई दें । और राजनीति किसी भी समय इन प्रकट और परोक्ष प्रवृत्तियों के अंश को ही प्रतिबिंबित करती है । कोई भी राजनीतिक संकट अनिवार्यत: अर्थ-व्यवस्था के संकट का ही परिणाम नहीं होता है ।”
कहने का तात्पर्य यही है कि मार्क्सवाद महज राजनीति नहीं है । मार्क्सवादी चिंतन परंपरा में राजनीति के स्थान की भी सही समझ की जरूरत है । जब हम विचारधारात्मक प्रभुत्व की तरह की बात करते हैं तो उसका तात्पर्य महज राजनीतिक प्रभुत्व नहीं, हमेशा मान्य सामाजिक नैतिकता से होता है । राजनीति सामाजिक-नैतिक मान्यताओं के संघटन की प्रक्रिया का एक मामूली हिस्सा भर होती है । प्रश्न उठता है कि उस मामले में आप कहा खड़े हैं । इसे चालू मार्क्सवादी शब्दावली में समाज में वर्गीय शक्तियों का संतुलन कहा जाता है ।
इसके साथ ही राजनीति के अपने जगत की यह सचाई है कि जो भी राजनीतिक पार्टी अपने किसी भी विचारधारात्मक आग्रह की मरीचिका में फंस कर रोजमर्रे के सामाजिक- राजनीतिक घटनाचक्रों के प्रति बेफिक्र होती है, वे समाज में पूरी तरह से अप्रासंगिक होकर शून्य में विलीन हो जाने के खतरे में पड़ी होती है । राजनीतिक पार्टियों के विस्तार की परिधि भी इसी पर निर्भर है ।
कुल मिला कर हम कह सकते है कि राजनीति में जिसे कार्यनीति के प्रश्न कहते हैं, दैनन्दिन प्रश्न, ये इसके अन्तरजगत के प्रश्नों के अनगिनत आयामों और जटिलताओं के साथ अपनी समग्रता में राजनीति के ब्रह्मांड के अन्य भुवनों के खोल के स्पर्श में रहते हैं । विषय की इसी प्रत्यक्ष-संरचना में हाइडेगर 'अन्य' की उपस्थिति की बात करते हैं, वह 'अन्य' जो प्राणी सत्ता के लिये आत्म पहचान की, 'वह कौन है' की तरह की अस्तित्वीय चुनौती प्रस्तुत करता है । स्वयं में 'स्व' की पहचान की प्रत्यभिज्ञा की मूलभूत समस्या । हमारा आग्रह यही है कि इस अन्तर के अन्य बाह्य रूपों से अन्तरक्रिया करते हुए विकास की स्वच्छ समझ की एक बाकायदा पद्धति विकसित करने की जरूरत है ।
राजनीति का आंतरिक ढांचा क्या होता है, इसके बीज तत्व क्या है और इसका समय के संस्पर्श से बाह्य विस्तार कैसे होता है, इसकी एक समझ बनाने के लिये ही हम निरंतर न सिर्फ राजनीतिक सिद्धांतों के बारे में, बल्कि राजनीतिक पार्टियों की सांगठनिक संरचनाओं के विविध पक्षों पर भी रोशनी डालने की कोशिश करते रहे हैं । कांग्रेस की तात्विकता को ह्यूम और गांधी के स्वातंत्र्य के विचारों से, आरएसएस को हिटलर और हेडगेवार की हिंदू-मुस्लिम ग्रंथी से तो मार्क्सवादियों को मार्क्स के मानव मुक्ति के सत्य और सोवियत संघ के तत्व-रूप से पहचानने की जो निश्चित तौर पर इनके अस्तित्वीय संकट के हर मुकाम पर इनके तल से किसी न किसी रूप में अपने को प्रकट करते हैं । लेकिन जैसा कि हमने शुरू में ही प्रत्यभिज्ञा का सवाल उठाते हुए कहा कि सारी समस्या इनके प्रत्यक्ष के आवरण के अपसारण से इन्हें परत-दर-परत देखने की विधि का है, इनकी सर्वमान्य पहचान की व्याख्या-विश्लेषण से इनके तत्व की आंतरिक गति को इनके लोकोत्तर क्षितिजों के संदर्भ में स्थिर करने का है । ये क्षितिज पार्टियों के तथाकथित रणनीतिगत लक्ष्य भी हो सकते हैं और संभव तात्कालिक लक्ष्य भी ।
कहना न होगा, अभिनवगुप्त के तंत्रालोक के परामर्श, मार्क्स का द्वंद्वात्मक भौतिकवाद, हाइडेगर की प्राणी सत्ता और काल की अंतरक्रिया का दर्शनशास्त्र और फ्रायड और लकान की तरह के मनोविश्लेषकों के मनुष्य के मनोभावों के विश्लेषण किसी भी घटना-विकास के प्रकट रूपों के पीछे के अंतरद्वंद्वों के नियमों की पहचान के सिद्धांतों और शास्त्रों की ही रचना करते हैं । अभिनवगुप्त जब अपने तंत्रालोक को भोग-मोक्ष का त्रिकशास्त्र (दर्शन) कहते हैं तो भोग से उनका तात्पर्य मनुष्य के सामाजिक जीवन से और मोक्ष से आत्मिक जीवन से है और तंत्रालोक इन दोनों पर ही समान रूप से लागू होता है । (मोक्षाभोगाम्युपायता) । मार्क्स के द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की सिद्धि हेगेल के भाववादी द्वंद्ववाद और फायरबाख के भौतिकवाद से उत्तरण की एक लंबी प्रक्रिया के बीच से पूंजी की आंतरिक गति और उसके नाना सामाजिक-आर्थिक स्वरूपों के अध्ययन की प्रक्रिया से हुई थी । फ्रायड और लकान के स्तर के मनोविश्लेषक भी मनोचिकित्सा की विधियों से मनोजगत की संरचना और उसके विश्लेषण की टीपों से जिस शास्त्र की रचना करते हैं, उसके दायरे में जीव जगत का ऐसा कोई पहलू नहीं है, जो दाखिल नहीं हो सकता है । कुल मिला कर, यह सब मनुष्यों और उनके समाजों के आत्मिक जगत के व्यापारों के शास्त्र ही है । अभिनव के शब्दों में — “अध्यात्म के बिना बाह्य सिद्ध नहीं है और अध्यात्म भी बाह्य से रहित होकर सिद्ध नहीं होता ।”
(नाध्यात्मेन बिना बाह्यं नाध्यात्मं वाह्यवर्जितम्)
इसीलिये इन सभी जगत की सूक्ष्म से सूक्ष्म हलचलों की पड़ताल किसी मायने में कम महत्वपूर्ण नहीं है ।
हमारे मित्र प्रशांत बिस्सा जी ने बड़े उत्साह के साथ इसके पहले एक मुश्त इस लेखन के पांच खंड प्रकाशित किये थे । पांच साल की अवधि के लेखन के पांच खंड । उन खंडों के तकरीबन डेढ़ हजार पृष्ठों के फैलाव को देख कर मन थोड़ा घबड़ाया था । रोज-रोज सामने आने वाले इतने विषय, उनकी इतनी पेचीदगियां, उनसे मिलने वाले इतने संकेत और जिन्हें संकेतित हैं उनकी किसी ठोस सूरत का अभाव — लेखक को हतोत्साहित करने के लिये यह सब काफी होता है । लेकिन इसी बिंदु पर प्राणीसत्ता के अपने जगत का सत्य प्रमुख हो जाता है । हमारी लेखकीय प्राणी सत्ता । किसी भी अखिल सत्य के भुवन का भी यही तो देश-काल से जुड़ा आधार होता है । अन्यथा वह भी कैसे, और किसके जरिये अपने को प्रगट करेगा । और जहां तक लेखक का संबंध है, यही उसके लिये मोक्षदायी सम्यक ज्ञान-स्वभाव वाली विद्या है, सम्यगज्ञानस्वभाव हि विद्या साक्षाद्विमोचिका) । हाइडेगर की शब्दावली में — 'temporality as the meaning of the Being of that entity'।
प्रारंभिक पांच खंड तो प्रशांत जी के आग्रह के परिणाम थे लेकिन इस छठे खंड के प्रकाशन के साथ हमारा भी अतिरिक्त आग्रह जुड़ गया है क्योंकि इसके प्रकाशन से आज के भारत का विगत पांच सालों का कुछ अजीबोगरीब रंगत लिया हुआ एक पूरा काल-खंड इनमें समाहित हो जाता है । जैसे हर अपवाद सामान्य को प्रमाणित करता है, उसी प्रकार मोदी शासन का यह विचलन-स्वरूप कालखंड भारतीय जनतंत्र को प्रमाणित करता जान पड़ता है । इसके एक गतिवान आख्यान से किसी भी देश में सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक परिघटना के प्रारंभ और अंत को उसकी गतिशीलता में देखने और समझने का एक आधार तैयार हो सकता है । एक तान के बीच के आरोह-अवरोह के वृत्तों से उस तान की संभावनाओं के संकेत मिल सकते हैं ।
बिस्सा जी ने इस खंड के प्रकाशन के प्रति भी जो उत्साह जाहिर किया है, इसके लिये मैं उनका आभारी हूं । आभारी हूं श्री श्याम आचार्य का जो बिस्सा जी के निर्देश पर ही पूरी लगन के साथ इस सामग्री को मुद्रण-योग्य रूप देने में सहयोगी बने हैं ।
—अरुण माहेश्वरी
05.01.2019
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