-अरुण माहेश्वरी
कल ही सरकार के एक और प्रमुख आर्थिक सलाहकार, आर्थिक मामलों के सचिव सुभाष गर्ग की बेहद अपमानजनक ढंग से विदाई हो गई । कहते हैं कि यह काम आरएसएस के कथित स्वदेशीवादियों, ‘स्वदेशी जागरण मंच’ ने कराया है । से ‘स्वदेशीवादी’ विदेशी मुद्रा में सोवरन बाँड की मोदी योजना के विरुद्ध हैं और बजट में इसकी घोषणा के लिये प्रधानमंत्री मोदी और वित्तमंत्री सीतारमण को नहीं, इस नौकरशाह को ज़िम्मेदार मानते हैं !
कौन सा अमला कब कहाँ और क्यों बैठाया जाता है, इस सरकार में अब यह एक भारी रहस्य का विषय बन गया है । सिर्फ एक बात पर कोई रहस्य नहीं है कि सरकार के किसी भी क़दम के पीछे कोई निश्चित सोच नहीं है । इसके लिये वास्तविकता किसी असंभव की तरह है जिसमें मनमाने और अराजक ढंग से उसे कुछ करते चले जाना है और इसके जो भी सही-गलत परिणाम सामने आएं, उन्हें ही एक बार के लिये अपनी उपलब्धि बता कर नाचते-गाते जिंदगी बिताते जाना है।
इस सरकार में मोदी-शाह के अलावा हर किसी की नियति उसके अनिश्चित रूप की तरह ही निश्चित है । इसे ही तानाशाहों के शासन की खास प्रणाली कहते हैं, जिसमें कठपुतलियों के खेल को ही वास्तविक माना जाता है, बाक़ी सब मिथ्या होता है ।
सरकार की सोवरन बाँड की पूरी स्कीम उसके इस आर्थिक यथार्थ बोध के बीच से निकली थी जिसमें किसी को भी आज की भारतीय अर्थ-व्यवस्था पूरी तरह से ठप दिखाई देती है । निवेश के लिये सरकार के पास कोई कोष ही नहीं बच रहा है । जीडीपी के अनुपात में सरकारी ख़र्च बढ़ता जा रहा है । ऊपर से, जीडीपी में वृद्धि की दर भी कम हो रही है । उत्पादन और सेवा क्षेत्र, सब में संकुचन के आँकड़े सामने आ रहे हैं । यहाँ तक कि आम लोगों की बचत में गिरावट के भी संकेत साफ़ हैं । इसीलिये देश के अंदर से और क़र्ज़ जुटाना भी कठिन होता जा रहा है ।
ऐसे में आज की दुनिया में सोवरन बाँड की ओर देखना किसी भी आरामतलब शासक के लिये सबसे सरल रास्ता है । सब जानते हैं, इस रास्ते से एक बार के लिये इतना धन जुटाया जा सकता है कि तत्काल किसी को भी लगेगा कि मोदी जी का पाँच ट्रिलियन डालर की इकोनोमी का सपना सच साबित ही होने वाला है । लेकिन दुनिया में ऐसे तमाम उदाहरण भरे पड़े हैं जिनसे पता चलता है कि इस प्रकार से लाये गये विदेशी धन के कुछ बहुत तात्कालिक फल तो मिल सकते हैं, लेकिन इस बोझ के साथ थोड़ा सा दूर जाने पर ही किसी भी सरकार का दम फूलने लगता है । अर्थात् ‘दूरगामी’ लाभ के लिये नोटबंदी की तरह का अस्वाभाविक क़दम उठाने वाले मोदी जी अब इसी ‘दूरगामिता’ के सोच को तिलांजलि देकर ‘तात्कालिकता’ के लिये यह कह कर उत्साहित हो गये हैं कि ज़िंदा बचेंगे, तब न ‘दूरगामी’ किसी बात का कोई मूल्य होगा !
अर्थात् नोटबंदी की ‘दूरगामिता’ पर मनमोहन सिंह के इस तंज का कि दूरगामी तो हम सबकी मृत्यु है, मर्म अब काफी दिनों बाद मोदी जी को समझ में आया है ! लेकिन वे अब तक यह नहीं समझ पाए हैं कि वे अभी जिस तात्कालिक यथार्थ को साधने के कोशिश कर रहे हैं, उनके पिछले कामों ने इसके प्राण पहले से ही हर लिये हैं । यह नोटबंदी के पहले का सच नहीं है । इसीलिये, अब विदेशी क़र्ज़ इस शव को फूलों से सजाने के काम में ही ज़्यादा उपयोगी साबित होगा, और कुछ हासिल नहीं होगा ।
ज़रूरत इस बात की है कि मोदी जी देश की उन आर्थिक संरचनात्मक बाधाओं पर अपने को केंद्रित करें जो उनके अपने और उनके संघी साथियों के दिमाग की उपज रही हैं, और जिनसे हमारी अर्थ-व्यवस्था का गला घुट रहा है ।
इसके लिये उन्हें अपने ही उस अराजक आर्थिक सोच के विरुद्ध विद्रोह करना होगा, जिसके केंद्र में अर्थ-व्यवस्था के इंजन के तौर पर देश के इजारेदार पूँजीवादी घराने स्थित हैं । डिजिटलाइजेशन आदि के सारे प्रकल्प इन शैतानों की ही अर्थ-व्यवस्था पर अपनी संपूर्ण इजारेदारी क़ायम करने के फ़ितूर की उपज है । इसने उन सामान्य व्यापारिक खुदरा गतिविधियों तक के सामने अस्तित्व का ख़तरा पैदा कर दिया है जिनसे शहरों के करोड़ों लोग जुड़े हुए हैं । इन इजारेदारों के दबाव में ही न्यूनतम मजूरी की दरों को बिल्कुल नीचे के स्तर पर रख कर भारत के मज़दूरों और किसानों की व्यापक जनता में ग़रीबी से निकलने की आशा तक को छीन लिया जा रहा है । इन नीतियों के कारण ही जनता को मिलने वाली तमाम सरकारी रियायतों में कटौती करके सरकार के ख़र्च नियंत्रित करने का रास्ता खोजा जा रहा है ।
अर्थ-व्यवस्था का गतिरोध आम लोगों की जिंदगी में पैदा कर दिये गये भयंकर गतिरोध से जुड़ा हुआ है । उनके जीवन को आसान और उन्नत बनाये बिना इस अर्थ-व्यवस्था को सचल बनाना असंभव है ।
कुल मिला कर, शतरंज की बिसात पर मोहरों को मनमाने ढंग से इधर-उधर चलाना कभी भी किसी खिलाड़ी की जीत को सुनिश्चित नहीं कर सकता है । मोदी जी एक के बाद एक, अब तक न जाने अपने कितने आर्थिक और वित्तीय सलाहकारों को धक्के मार कर निकाल चुके हैं और कितने अन्य को बुला चुके हैं । लेकिन स्थिति जस की तस है, क्योंकि सरकार की अपनी सोच ही ठस है, वहाँ संघी बंद दिमाग का प्रभुत्व ही बस है ।
कल ही सरकार के एक और प्रमुख आर्थिक सलाहकार, आर्थिक मामलों के सचिव सुभाष गर्ग की बेहद अपमानजनक ढंग से विदाई हो गई । कहते हैं कि यह काम आरएसएस के कथित स्वदेशीवादियों, ‘स्वदेशी जागरण मंच’ ने कराया है । से ‘स्वदेशीवादी’ विदेशी मुद्रा में सोवरन बाँड की मोदी योजना के विरुद्ध हैं और बजट में इसकी घोषणा के लिये प्रधानमंत्री मोदी और वित्तमंत्री सीतारमण को नहीं, इस नौकरशाह को ज़िम्मेदार मानते हैं !
कौन सा अमला कब कहाँ और क्यों बैठाया जाता है, इस सरकार में अब यह एक भारी रहस्य का विषय बन गया है । सिर्फ एक बात पर कोई रहस्य नहीं है कि सरकार के किसी भी क़दम के पीछे कोई निश्चित सोच नहीं है । इसके लिये वास्तविकता किसी असंभव की तरह है जिसमें मनमाने और अराजक ढंग से उसे कुछ करते चले जाना है और इसके जो भी सही-गलत परिणाम सामने आएं, उन्हें ही एक बार के लिये अपनी उपलब्धि बता कर नाचते-गाते जिंदगी बिताते जाना है।
इस सरकार में मोदी-शाह के अलावा हर किसी की नियति उसके अनिश्चित रूप की तरह ही निश्चित है । इसे ही तानाशाहों के शासन की खास प्रणाली कहते हैं, जिसमें कठपुतलियों के खेल को ही वास्तविक माना जाता है, बाक़ी सब मिथ्या होता है ।
सरकार की सोवरन बाँड की पूरी स्कीम उसके इस आर्थिक यथार्थ बोध के बीच से निकली थी जिसमें किसी को भी आज की भारतीय अर्थ-व्यवस्था पूरी तरह से ठप दिखाई देती है । निवेश के लिये सरकार के पास कोई कोष ही नहीं बच रहा है । जीडीपी के अनुपात में सरकारी ख़र्च बढ़ता जा रहा है । ऊपर से, जीडीपी में वृद्धि की दर भी कम हो रही है । उत्पादन और सेवा क्षेत्र, सब में संकुचन के आँकड़े सामने आ रहे हैं । यहाँ तक कि आम लोगों की बचत में गिरावट के भी संकेत साफ़ हैं । इसीलिये देश के अंदर से और क़र्ज़ जुटाना भी कठिन होता जा रहा है ।
ऐसे में आज की दुनिया में सोवरन बाँड की ओर देखना किसी भी आरामतलब शासक के लिये सबसे सरल रास्ता है । सब जानते हैं, इस रास्ते से एक बार के लिये इतना धन जुटाया जा सकता है कि तत्काल किसी को भी लगेगा कि मोदी जी का पाँच ट्रिलियन डालर की इकोनोमी का सपना सच साबित ही होने वाला है । लेकिन दुनिया में ऐसे तमाम उदाहरण भरे पड़े हैं जिनसे पता चलता है कि इस प्रकार से लाये गये विदेशी धन के कुछ बहुत तात्कालिक फल तो मिल सकते हैं, लेकिन इस बोझ के साथ थोड़ा सा दूर जाने पर ही किसी भी सरकार का दम फूलने लगता है । अर्थात् ‘दूरगामी’ लाभ के लिये नोटबंदी की तरह का अस्वाभाविक क़दम उठाने वाले मोदी जी अब इसी ‘दूरगामिता’ के सोच को तिलांजलि देकर ‘तात्कालिकता’ के लिये यह कह कर उत्साहित हो गये हैं कि ज़िंदा बचेंगे, तब न ‘दूरगामी’ किसी बात का कोई मूल्य होगा !
अर्थात् नोटबंदी की ‘दूरगामिता’ पर मनमोहन सिंह के इस तंज का कि दूरगामी तो हम सबकी मृत्यु है, मर्म अब काफी दिनों बाद मोदी जी को समझ में आया है ! लेकिन वे अब तक यह नहीं समझ पाए हैं कि वे अभी जिस तात्कालिक यथार्थ को साधने के कोशिश कर रहे हैं, उनके पिछले कामों ने इसके प्राण पहले से ही हर लिये हैं । यह नोटबंदी के पहले का सच नहीं है । इसीलिये, अब विदेशी क़र्ज़ इस शव को फूलों से सजाने के काम में ही ज़्यादा उपयोगी साबित होगा, और कुछ हासिल नहीं होगा ।
ज़रूरत इस बात की है कि मोदी जी देश की उन आर्थिक संरचनात्मक बाधाओं पर अपने को केंद्रित करें जो उनके अपने और उनके संघी साथियों के दिमाग की उपज रही हैं, और जिनसे हमारी अर्थ-व्यवस्था का गला घुट रहा है ।
इसके लिये उन्हें अपने ही उस अराजक आर्थिक सोच के विरुद्ध विद्रोह करना होगा, जिसके केंद्र में अर्थ-व्यवस्था के इंजन के तौर पर देश के इजारेदार पूँजीवादी घराने स्थित हैं । डिजिटलाइजेशन आदि के सारे प्रकल्प इन शैतानों की ही अर्थ-व्यवस्था पर अपनी संपूर्ण इजारेदारी क़ायम करने के फ़ितूर की उपज है । इसने उन सामान्य व्यापारिक खुदरा गतिविधियों तक के सामने अस्तित्व का ख़तरा पैदा कर दिया है जिनसे शहरों के करोड़ों लोग जुड़े हुए हैं । इन इजारेदारों के दबाव में ही न्यूनतम मजूरी की दरों को बिल्कुल नीचे के स्तर पर रख कर भारत के मज़दूरों और किसानों की व्यापक जनता में ग़रीबी से निकलने की आशा तक को छीन लिया जा रहा है । इन नीतियों के कारण ही जनता को मिलने वाली तमाम सरकारी रियायतों में कटौती करके सरकार के ख़र्च नियंत्रित करने का रास्ता खोजा जा रहा है ।
अर्थ-व्यवस्था का गतिरोध आम लोगों की जिंदगी में पैदा कर दिये गये भयंकर गतिरोध से जुड़ा हुआ है । उनके जीवन को आसान और उन्नत बनाये बिना इस अर्थ-व्यवस्था को सचल बनाना असंभव है ।
कुल मिला कर, शतरंज की बिसात पर मोहरों को मनमाने ढंग से इधर-उधर चलाना कभी भी किसी खिलाड़ी की जीत को सुनिश्चित नहीं कर सकता है । मोदी जी एक के बाद एक, अब तक न जाने अपने कितने आर्थिक और वित्तीय सलाहकारों को धक्के मार कर निकाल चुके हैं और कितने अन्य को बुला चुके हैं । लेकिन स्थिति जस की तस है, क्योंकि सरकार की अपनी सोच ही ठस है, वहाँ संघी बंद दिमाग का प्रभुत्व ही बस है ।
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