-अरुण माहेश्वरी
काला धन और सफ़ेद धन का फ़र्क़ यही है कि जिस धन में से सरकार के राजस्व का शोधन कर लिया जाता है, वह काले से सफ़ेद हो जाता है । एक कच्चा तेल है और दूसरा परिशोधित ।
चीन के चार आधुनिकीकरण से जुड़े औद्योगीकरण के इतिहास पर यदि ग़ौर करें तो पायेंगे कि उन्होंने विदेशी निवेश पर मुनाफ़े को पूरी तरह से कर मुक्त करके, अर्थात् सौ फ़ीसदी मुनाफ़ा अपने घर ले जाने का अधिकार देकर अपने यहाँ रेकर्ड विदेशी निवेश को आकर्षित किया था । इसके पीछे तर्क यह था कि निवेश से जुड़ी औद्योगिक गतिविधियाँ स्वयं में चीनी गणराज्य और उसकी जनता के लिये भारी मायने रखती हैं । वह खुद में समाज में किसी राजस्व से कम भूमिका अदा नहीं करता है ।
भारत में रिलायंस के औद्योगिक साम्राज्य के विस्तार के इतिहास को देखेंगे तो पायेंगे कि दशकों तक यह कंपनी तत्कालीन आयकर क़ानून का लाभ उठा कर शून्य आयकर देने वाली कंपनी बनी रही थी । तब कंपनी की आय के पुनर्निवेश में आयकर की राशि को पूरी तरह से समायोजित करने का अधिकार मिला हुआ था । इसीलिये मुनाफ़े की राशि पर कर देने के बजाय उसने उसके पुनर्निवेश का रास्ता पकड़ा ।
कहने का तात्पर्य यह है कि सफ़ेद धन हो या काला धन हो, किसी भी तर्क से यदि पूँजी के रूप में उसकी भूमिका को बाधित किया जाता है तभी वह धन मिट्टी में गड़ा हुआ धन हो जाता है । अन्यथा, पूँजी के रूप में उसकी सामाजिक भूमिका में दूसरा कोई फ़र्क़ नहीं होता है ।
कहना न होगा, जिस अर्थ-व्यवस्था में निवेश का संकट पैदा हो गया हो, उसमें हर प्रकार के धन को पूँजी में बदलने का उपक्रम ही इस संकट से निकलने का एक सबसे फ़ौरी और अकेला उपाय होता है ।
अब यह किसी भी सरकार पर निर्भर करता है कि अर्थ-व्यवस्था के बारे में उसका आकलन क्या है और उसकी प्राथमिकता क्या है । वह निवेश के विषय को किस रूप में देखती है ! वह सिर्फ अपनी आमदनी को लेकर चिंतित रहती है या समग्र रूप से आम जनता के जीवन-जीविका के बारे में सोच रही है !
नोटबंदी और जीएसटी से लेकर मोदी सरकार की अब तक की पूरी कहानी तो यही कहती है कि जनता की आमदनी का विषय इस सरकार के सोच में सबसे अंतिम पायदान की चीज है ।
सरकार की आमदनी भी जब पूँजी-निवेश का रूप नहीं लेती है, जैसा कि मोदी सरकार के पूरे कार्यकाल में हो रहा है, और वह तमाम फिजूलखर्चियों और आयुधों की ख़रीद में ख़त्म हो जाती है, तो संकट दुगुना हो जाता है । भारत अभी एक तानाशाही निज़ाम के द्वारा तैयार किये गये इसी दोहरे संकट की चपेट में है ।
‘ईज आफ़ डूइंग बिजनेस’ का मसला सिर्फ लाल फ़ीताशाही की तरह का प्रक्रियागत मसला नहीं है । आदमी का मजबूरी में, जीने मात्र के लिये उद्यम करना एक बात है, जैसा कि सभी लोग करते ही है । लेकिन पूँजीवाद का अर्थ है मुनाफ़े के लिये, अतिरिक्त मुनाफ़े के लिये उद्यम की वासना पैदा करना । इसके साथ ही आदमी की अपनी स्वच्छंदता का भावबोध जुड़ जाता है जो सभ्यता के जनतांत्रिक चरण का व्यक्ति-स्वातंत्र्य का नया मूल्यबोध तैयार करता है ।
सत्ता में राजशाही की तरह का फासीवादी रुझान पूँजी पर आधारित इस पूरे आर्थिक और विचारधारात्मक ढाँचे के अस्तित्व के लिये संकट पैदा करने लगता है । मोदी के भारत में इसके लक्षणों को बहुत साफ देखा जा सकता है ।
‘ईज आफ़ डूईंग बिज़नेस’ के नाम पर उठाये गये इस सरकार के सारे कदम व्यापार के जोखिमों को, खास तौर पर सरकारी दंड-विधान के ख़तरों को काफी बढ़ा-चढ़ा कर पेश करते हैं । अपनी ताक़त का थोथी प्रदर्शन करने के लिये मोदी कहते थे कि वे लाखों इंस्पेक्टरों का काला धन रखने वालों के खिलाफ शिकारी कुत्तों की तरह प्रयोग करेंगे । यहाँ तक कि मोदी की एकाधिकारवादी राजनीति भी अर्थजगत में ख़ौफ़ को बढ़ाने का कम काम नहीं कर रही है । समग्र रूप से किसी भी प्रकार की आपदा के डर का माहौल तमाम आर्थिक गतिविधियों को स्थगित कर देने के लिये काफी होता है ।
इन सबसे अर्थ-व्यवस्था में जो संकट तैयार होता है, उसे कोई भी, जैसा कि रिजर्व बैंक ने कल ही किया है, एक चक्रक ( साइक्लिक) संकट बता कर शुतरमुर्गी मुद्रा अपना सकता है, लेकिन सच यही है कि भारत का वर्तमान संकट माँग और आपूर्ति में समायोजन से जुड़ा अर्थ-व्यवस्था का चक्रक संकट नहीं है । इसका सीधा संबंध मोदी की राजनीतिक सत्ता से जुड़ा हुआ है, माँसपेशियों के बल पर शासन के उनके राजनीतिक दर्शन से जुड़ा हुआ है । इसमें उनकी कश्मीर नीति को इस दिशा में उनके अंतिम योगदान के रूप में देखा जा सकता है ।
इसीलिये हमारा यह दृढ़ विश्वास है कि इस संकट का समाधान राजनीति में है, न कि महज आर्थिक लेन-देन की पद्धतिगत व्यवस्थाओं या नौकरशाही की गतिविधियों में । इतिहास का सबक है कि तानाशाहियां आर्थिक संकट की परिस्थिति में पैदा होती है और तानाशाहियां आर्थिक संकट को पैदा करती है ।
काला धन और सफ़ेद धन का फ़र्क़ यही है कि जिस धन में से सरकार के राजस्व का शोधन कर लिया जाता है, वह काले से सफ़ेद हो जाता है । एक कच्चा तेल है और दूसरा परिशोधित ।
चीन के चार आधुनिकीकरण से जुड़े औद्योगीकरण के इतिहास पर यदि ग़ौर करें तो पायेंगे कि उन्होंने विदेशी निवेश पर मुनाफ़े को पूरी तरह से कर मुक्त करके, अर्थात् सौ फ़ीसदी मुनाफ़ा अपने घर ले जाने का अधिकार देकर अपने यहाँ रेकर्ड विदेशी निवेश को आकर्षित किया था । इसके पीछे तर्क यह था कि निवेश से जुड़ी औद्योगिक गतिविधियाँ स्वयं में चीनी गणराज्य और उसकी जनता के लिये भारी मायने रखती हैं । वह खुद में समाज में किसी राजस्व से कम भूमिका अदा नहीं करता है ।
भारत में रिलायंस के औद्योगिक साम्राज्य के विस्तार के इतिहास को देखेंगे तो पायेंगे कि दशकों तक यह कंपनी तत्कालीन आयकर क़ानून का लाभ उठा कर शून्य आयकर देने वाली कंपनी बनी रही थी । तब कंपनी की आय के पुनर्निवेश में आयकर की राशि को पूरी तरह से समायोजित करने का अधिकार मिला हुआ था । इसीलिये मुनाफ़े की राशि पर कर देने के बजाय उसने उसके पुनर्निवेश का रास्ता पकड़ा ।
कहने का तात्पर्य यह है कि सफ़ेद धन हो या काला धन हो, किसी भी तर्क से यदि पूँजी के रूप में उसकी भूमिका को बाधित किया जाता है तभी वह धन मिट्टी में गड़ा हुआ धन हो जाता है । अन्यथा, पूँजी के रूप में उसकी सामाजिक भूमिका में दूसरा कोई फ़र्क़ नहीं होता है ।
कहना न होगा, जिस अर्थ-व्यवस्था में निवेश का संकट पैदा हो गया हो, उसमें हर प्रकार के धन को पूँजी में बदलने का उपक्रम ही इस संकट से निकलने का एक सबसे फ़ौरी और अकेला उपाय होता है ।
अब यह किसी भी सरकार पर निर्भर करता है कि अर्थ-व्यवस्था के बारे में उसका आकलन क्या है और उसकी प्राथमिकता क्या है । वह निवेश के विषय को किस रूप में देखती है ! वह सिर्फ अपनी आमदनी को लेकर चिंतित रहती है या समग्र रूप से आम जनता के जीवन-जीविका के बारे में सोच रही है !
नोटबंदी और जीएसटी से लेकर मोदी सरकार की अब तक की पूरी कहानी तो यही कहती है कि जनता की आमदनी का विषय इस सरकार के सोच में सबसे अंतिम पायदान की चीज है ।
सरकार की आमदनी भी जब पूँजी-निवेश का रूप नहीं लेती है, जैसा कि मोदी सरकार के पूरे कार्यकाल में हो रहा है, और वह तमाम फिजूलखर्चियों और आयुधों की ख़रीद में ख़त्म हो जाती है, तो संकट दुगुना हो जाता है । भारत अभी एक तानाशाही निज़ाम के द्वारा तैयार किये गये इसी दोहरे संकट की चपेट में है ।
‘ईज आफ़ डूइंग बिजनेस’ का मसला सिर्फ लाल फ़ीताशाही की तरह का प्रक्रियागत मसला नहीं है । आदमी का मजबूरी में, जीने मात्र के लिये उद्यम करना एक बात है, जैसा कि सभी लोग करते ही है । लेकिन पूँजीवाद का अर्थ है मुनाफ़े के लिये, अतिरिक्त मुनाफ़े के लिये उद्यम की वासना पैदा करना । इसके साथ ही आदमी की अपनी स्वच्छंदता का भावबोध जुड़ जाता है जो सभ्यता के जनतांत्रिक चरण का व्यक्ति-स्वातंत्र्य का नया मूल्यबोध तैयार करता है ।
सत्ता में राजशाही की तरह का फासीवादी रुझान पूँजी पर आधारित इस पूरे आर्थिक और विचारधारात्मक ढाँचे के अस्तित्व के लिये संकट पैदा करने लगता है । मोदी के भारत में इसके लक्षणों को बहुत साफ देखा जा सकता है ।
‘ईज आफ़ डूईंग बिज़नेस’ के नाम पर उठाये गये इस सरकार के सारे कदम व्यापार के जोखिमों को, खास तौर पर सरकारी दंड-विधान के ख़तरों को काफी बढ़ा-चढ़ा कर पेश करते हैं । अपनी ताक़त का थोथी प्रदर्शन करने के लिये मोदी कहते थे कि वे लाखों इंस्पेक्टरों का काला धन रखने वालों के खिलाफ शिकारी कुत्तों की तरह प्रयोग करेंगे । यहाँ तक कि मोदी की एकाधिकारवादी राजनीति भी अर्थजगत में ख़ौफ़ को बढ़ाने का कम काम नहीं कर रही है । समग्र रूप से किसी भी प्रकार की आपदा के डर का माहौल तमाम आर्थिक गतिविधियों को स्थगित कर देने के लिये काफी होता है ।
इन सबसे अर्थ-व्यवस्था में जो संकट तैयार होता है, उसे कोई भी, जैसा कि रिजर्व बैंक ने कल ही किया है, एक चक्रक ( साइक्लिक) संकट बता कर शुतरमुर्गी मुद्रा अपना सकता है, लेकिन सच यही है कि भारत का वर्तमान संकट माँग और आपूर्ति में समायोजन से जुड़ा अर्थ-व्यवस्था का चक्रक संकट नहीं है । इसका सीधा संबंध मोदी की राजनीतिक सत्ता से जुड़ा हुआ है, माँसपेशियों के बल पर शासन के उनके राजनीतिक दर्शन से जुड़ा हुआ है । इसमें उनकी कश्मीर नीति को इस दिशा में उनके अंतिम योगदान के रूप में देखा जा सकता है ।
इसीलिये हमारा यह दृढ़ विश्वास है कि इस संकट का समाधान राजनीति में है, न कि महज आर्थिक लेन-देन की पद्धतिगत व्यवस्थाओं या नौकरशाही की गतिविधियों में । इतिहास का सबक है कि तानाशाहियां आर्थिक संकट की परिस्थिति में पैदा होती है और तानाशाहियां आर्थिक संकट को पैदा करती है ।
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