हिंदी दिवस के अवसर पर अभिनंदन समारोह में अरुण माहेश्वरी का वक्तव्य
आज हिंदी दिवस है । इस दिन को इसलिये हिंदी दिवस के रूप में मनाया जाता है क्योंकि 14 सितंबर 1948 के दिन ही हमारे देश की संविधान सभा में भारतीय राज्य में हिंदी की स्थिति और भूमिका के बारे में कई फैसले लिये गये थे । उनमें एक प्रमुख फैसला यह था कि हिंदी को भारत की राजभाषा का, अर्थात् सरकारी काम-काज की भाषा का दर्जा प्रदान किया जायेगा । इसमें एक और प्रतिश्रुति भी शामिल थी कि क्रमशः हिंदी को भारत की राष्ट्र भाषा का रूप भी दिया जायेगा । इस मामले में कितना आगे बढ़ा गया, कितना नहीं, यह हमारी चिंता का विषय ही नहीं है ।
यहां हमारे कहने का तात्पर्य सिर्फ यह है कि हिंदी दिवस का यह आयोजन वस्तुतः हिंदी के सरकारी कामों में प्रयोग को मिली एक संवैधानिक स्वीकृति का आयोजन है । जो हिंदी राजस्थान से लेकर बिहार के मिथलांचल तक फैले एक विशाल भू भाग के लोगों की मातृ-भाषा के रूप में विकसित हो रही है और जिसमें ये लगभग पचास करोड़ से ज्यादा लोग अपनी साहित्य-संस्कृति से जुड़ी सूक्ष्मतर भावनाओं का आदान-प्रदान किया करते हैं, हिंदी दिवस का वास्तव में उस, हम सबकी विशेष पहचान और अस्मिता से जुड़ी भाषा से कोई खास संबंध नहीं है । खींच-तान कर कोई भी कुतर्क के जरिये कह सकता है कि भाषाओं की रक्षा और विकास में सरकारी संरक्षण की काफी भूमिका हुआ करती है । लेकिन हम व्यक्तिगत तौर पर इस मत के सर्वथा विरोधी है । बल्कि मानते हैं कि भाषाओं के क्षेत्र में राजसत्ता का दखल भाषा के साथ जुड़ी आदमी की नैसर्गिक स्वतंत्रता के क्षेत्र में दखलंदाजी की तरह है ।
भाषाएं किसी राजसत्ता, दरबार या सरकार के संरक्षण में न जन्म लेती है और न ही विकसित होती है । भाषा को उसके जन्म साथ ही उसकी विमर्श शक्ति से जोड़ कर देखा जाता है, अन्य के साथ संवाद की जरूरत से जोड़ कर देखा जाता है, और विमर्श हमेशा मुक्तिदायक होता है, वह तत्वत: मनुष्य की स्वतंत्रता का प्रतीक होता है ।
हमारे शास्त्रकारों के शब्दों में — “स्वातंत्र्यं हि विमर्श इत्युच्यते, स चास्य मुख्यः स्वभावः । (स्वातंत्र्य ही विमर्श कहलाता है और वह इसका प्रमुख स्वभाव है )
इसीलिये भाषा के प्रश्न को कभी भी किसी सत्ता के संरक्षण अथवा बंधन से जोड़ कर देखना सही नहीं है । यह पनपती, फलती-फूलती है आदमी के भावों की स्वतंत्र अभिव्यक्ति के क्षेत्र से, साहित्य से, स्वतंत्र विमर्श अर्थात् चिंतन से । अगर सत्ता ही भाषाओं के स्थायित्व का आधार होती तो न हम आज संस्कृत को, न पाली, प्राकृत और फारसी को, और यूरोप में ग्रीक और लैटिन के स्तर की भाषाओं को ही पोस्टमार्टम की मेज पर अध्ययन मात्र के विषय के तौर पर देख रहे होते और न अपभ्रंशों के नाना रूपों के विकास से उत्पन्न आधुनिक भारतीय भाषाओं के इतने बड़े खजाने से अपने देश की वैविध्यमय समृद्धि का उत्सव मना रहे होते ।
बहरहाल, हिंदी हमारी मातृभाषा, हमारे चित्त के प्रसार और हमारे अहम्, हमारे व्यक्तित्व से जुड़ी हमारी समग्र पहचान की भाषा है, इसीलिये इससे जुड़े किसी भी उत्सव में हम अपनी ही समृद्धि का उत्सव मनाने की तरह के सुख का अनुभव करते हैं ।
आप सबको हिंदी दिवस की आंतरिक बधाई देते हैं ।
आज यह अवसर हमारे लिये और भी खास इसलिये हो गया है क्योंकि हम कोलकाता के इस बहुत पुराने क्षेत्र के एक बेहद पवित्र और गौरवपूर्ण स्थल, माहेश्वरी पुस्तकालय में अपने ही लोगों के द्वारा प्रशंसित किये जाने के कार्यक्रम में उपस्थित हुए हैं । यह हमारे लिये किसी आत्म-प्रशंसा के कार्यक्रम से भिन्न कार्यक्रम नहीं है । खुद की खुद के ही लोगों के द्वारा प्रशंसा वृहत्तर अर्थ में आत्म-प्रशंसा ही कहलायेगी । यह क्षेत्र हमारी जन्मभूमि और कर्मभूमि, दोनों ही रहा है और आज तक भी हमारे सपनों में, अर्थात् हमारे अवचेतन में उभरने वाले दृश्यों की आदिम, मूल भूमि । यहां से हम सिर्फ अपने उस आत्म को ही पा सकते हैं, जिसे फ्रायड की तरह के मनोविश्लेषक व्यक्ति के चित्त और उसकी क्रियात्मकता की अभिव्यक्ति की भाषा का उत्स मानते हैं ।
बहरहाल, आत्म-प्रशंसा, एक आत्मतोष जिसे मनोविश्लेषण की भाषा में एक प्रकार की आत्ममुग्धता भी कहा जाता है, आदमी की यदि एक प्रकार की कमजोरी है तो यही है जिसके जरिये आदमी अपने अहम् के निर्माण की प्रक्रिया में अपने लिये बहुत कुछ अलग से अर्जित भी किया करता है । फ्रायड कहते हैं कि “बच्चे की मोहकता के पीछे भी काफी हद तक उसकी आत्म-मुग्धता, उसका आत्म-तोष और किसी अन्य को अपने पास न आने देने का रुझान काम करता है । ... यहां तक कि साहित्य में आने वाले बड़े-बड़े अपराधी और विनोदी चरित्र भी, अपनी आत्म-मुग्धता के जरिये ही हमें अपनी ओर खींचते हैं, क्योंकि इसी के बल पर वे उन सब चीजों को अपने से दूर रखने में समर्थ होते हैं जो उनके अहम् पर चोट करती है । उनकी यह मौज, एक ऐसी उनमुक्तता जिसे हम काफी पहले गंवा चुके होते हैं, हमारी ईर्ष्या का और इसीलिये हमारे आकर्षण का भी पात्र बनते हैं ।”
लेकिन मजे की बात यह भी है कि अपनी इसी आत्म-मुग्धता के लिये आदमी को कम कीमत नहीं चुकानी पड़ती है । फ्रायड ही अपने 'Introduction to narcissism’ लेख में बताते हैं कि “अपने रूप के प्रति आत्ममुग्ध सुंदरी की मोहकता की वजह से ही अक्सर उसका प्रेमी उससे असंतुष्ट भी रहता है, क्योंकि उसके मन में उस सुंदरी ने उसे क्यों चुना इसके बारे में हमेशा एक संशय का भाव होता है जो उसे उसके प्रेम के प्रति भी शंकित करता है, उसे वह अपने लिये एक पहेली समझता है ।”
अतिशय आत्ममुग्धता, तमाम सामाजिक मानदंडों पर एक मनोरोग मानी जाती है । इसीलिये एक स्वस्थ और संतुलित जीवन के लिये इससे बचने की जरूरत होती है । सभ्य और भद्र आदमी का अकिंचन-भाव आत्म-मुग्धता का ही प्रति-भाव है । यह भी एक विचित्र कारण है जिसके चलते कला और साहित्य की रचनात्मक दुनिया में भद्रता को भी किसी आत्म-दंड से कम दमनकारी नहीं माना जाता है । इसी से कलाकारों के कुछ-कुछ असामाजिक प्रकार के व्यवहार की समझ मिलती है, जिसे समाज के संरक्षणवादी तत्त्व नापसंद करते है और दंड का अधिकारी मानते हैं । जबकि उन्हीं के कामों के जरिये आदमी का आत्मजगत अपने को किसी भी प्रकार की जड़ता से मुक्त करता हुआ मनुष्य के आत्म-प्रसार का रास्ता खोलता है । दुनिया का इतिहास इस बात का गवाह है कि जिस समाज में भी रूढ़िवाद प्रबल होता है, वह समाज खुद को ऐसी अंतरबाधाओं से जकड़ लेता है, जिसमें उसके विकास की संभावनाओं का क्रमशः अस्त होता जाता है ।
जो भी हो, आज संजय ने और माहेश्वरी पुस्तकालय के सभी कर्ता-धर्ताओं ने, जो इस क्षेत्र के इस सच्चे गौरव की रक्षा का भार उठाये हुए हैं, इस आयोजन के जरिये हमें जो मान दिया है, हमारे जीवन में यह अपने किस्म का पहला आयोजन ही है ।
हमारे कवि मुक्तिबोध रचनाधर्मिता और समारोह-धर्मिता को एक दूसरे का शत्रु मानते थे । आज हिंदी में पुरस्कारों की स्थिति से आप सब परिचित ही होंगे । हमने अपने एक लेख में इस तथ्य को नोट किया था कि 'वागर्थ' जैसी पत्रिका में छपने वाले लगभग प्रत्येक लेखक के सर पर एक नहीं, अनेक पुरस्कारों की कलंगी लगी रहती है, जबकि हिंदी के विशाल पाठक समुदाय में लोग उनके नाम से भी परिचित नहीं होते हैं, रचना तो बहुत दूर की बात । साहित्य समाज में जितना अप्रासंगिक होता जा रहा है, पुरस्कारों की संख्या उसी अनुपात में बढ़ती जा रही है । इसीलिये किसी भी प्रकार के पुरस्कार या सार्वजनिक प्रशंसा का लेखक की अपनी पहचान से कितना संबंध हो सकता है, यह बहुत गहरे संदेह का विषय है । तथापि आप तमाम, अपने ही लोगों के बीच उपस्थित होने का सुख ही हमारे लिये कम मूल्यवान नहीं है ।
आप सभी इस मौके पर हमारे साथ कुछ क्षण बिताने के लिये उपस्थित हुए, इसके लिये मैं आप सबके प्रति तहे दिल से आभार व्यक्त करता हूं । इस खुशी के मौके पर अपनी बहक में क्या-क्या बोल गया हूं, उसके लिये इसलिये क्षमाप्रार्थी हूं क्योंकि ये सारी बातें इस आयोजन की औपचारिकता के लिये अनुपयुक्त भी हो सकती है । लेकिन यह ज्ञान का एक सार्वजनिक केंद्र है । शैवमत के महागुरू हमारे अभिनवगुप्त का यह प्रसिद्ध कथन है —
“स्वतन्त्रात्यरिक्तस्तु तुच्छोऽ तुच्छोऽपि कश्र्चन ।
न मोक्षो नाम तन्नास्य पृथङनामापि गृह्यते ।।
(स्वतंत्र आत्मा के अतिरिक्त मोक्ष नामक कोई तुच्छ या अतुच्छ पदार्थ नहीं है । इसीलिये मोक्ष का अलग से नाम भी नहीं लिया जाता, (लक्षण आदि की चर्चा तो बहुत दूर की बात है )
हमारा धर्म ही हमें भैरवी स्वातंत्र्य के भाव को साधने की शिक्षा देता है । हम मोक्ष और वैराग्य के नैगमिक दर्शनों के मिथ्याचारों और दासता के भाव से अपने को जोड़ने के पक्ष में नहीं हैं । इसीलिये हम औपचारिकताओं के नहीं, अनौपचारिकताओं के समर्थक है ।
अंत में कवितानुमा चंद पंक्तियों के साथ मैं अपनी बात खत्म करूंगा —
साफ कहना
एक अनुभव है साफ कहना
जैसे हो नदी का बहना
ढलान में अलमस्त उतरना
पत्थरों की दरारों से
नया रास्ता बनाना
साफ मन का जैसे खुद को कहना ।
जब गुत्थियाँ सुलझती है
तो अंग-अंग बिखर जाते हैं
नदी के रास्ते में उगे शहर
दरारों में समा जाते हैं
सामने का इंद्रजाल
एक पल में
हवा हो जाता है
ज़र्रा-ज़र्रा बिखरा हुआ
एक कातर दृश्य
बनाता है ।
इसी में अभी मैं
ठिठका खड़ा,
आने वाला समय,
प्रतीक्षा में हूँ कि
व्यतीत को बस
उसका ठाव मिल जाए ।
सचमुच
मैं विगत की
राख में लिपटा दिखूँ
वह समय नहीं हूँ ।
इसीलिये साफ कहूँ
अबाध बहूँ
प्रेम का
खुद ही एक संसार बनूँ
यह वासना ही
मेरा ठोस रूप है ।
आप सबको इस आयोजन के लिये अशेष धन्यवाद ।
आज हिंदी दिवस है । इस दिन को इसलिये हिंदी दिवस के रूप में मनाया जाता है क्योंकि 14 सितंबर 1948 के दिन ही हमारे देश की संविधान सभा में भारतीय राज्य में हिंदी की स्थिति और भूमिका के बारे में कई फैसले लिये गये थे । उनमें एक प्रमुख फैसला यह था कि हिंदी को भारत की राजभाषा का, अर्थात् सरकारी काम-काज की भाषा का दर्जा प्रदान किया जायेगा । इसमें एक और प्रतिश्रुति भी शामिल थी कि क्रमशः हिंदी को भारत की राष्ट्र भाषा का रूप भी दिया जायेगा । इस मामले में कितना आगे बढ़ा गया, कितना नहीं, यह हमारी चिंता का विषय ही नहीं है ।
यहां हमारे कहने का तात्पर्य सिर्फ यह है कि हिंदी दिवस का यह आयोजन वस्तुतः हिंदी के सरकारी कामों में प्रयोग को मिली एक संवैधानिक स्वीकृति का आयोजन है । जो हिंदी राजस्थान से लेकर बिहार के मिथलांचल तक फैले एक विशाल भू भाग के लोगों की मातृ-भाषा के रूप में विकसित हो रही है और जिसमें ये लगभग पचास करोड़ से ज्यादा लोग अपनी साहित्य-संस्कृति से जुड़ी सूक्ष्मतर भावनाओं का आदान-प्रदान किया करते हैं, हिंदी दिवस का वास्तव में उस, हम सबकी विशेष पहचान और अस्मिता से जुड़ी भाषा से कोई खास संबंध नहीं है । खींच-तान कर कोई भी कुतर्क के जरिये कह सकता है कि भाषाओं की रक्षा और विकास में सरकारी संरक्षण की काफी भूमिका हुआ करती है । लेकिन हम व्यक्तिगत तौर पर इस मत के सर्वथा विरोधी है । बल्कि मानते हैं कि भाषाओं के क्षेत्र में राजसत्ता का दखल भाषा के साथ जुड़ी आदमी की नैसर्गिक स्वतंत्रता के क्षेत्र में दखलंदाजी की तरह है ।
भाषाएं किसी राजसत्ता, दरबार या सरकार के संरक्षण में न जन्म लेती है और न ही विकसित होती है । भाषा को उसके जन्म साथ ही उसकी विमर्श शक्ति से जोड़ कर देखा जाता है, अन्य के साथ संवाद की जरूरत से जोड़ कर देखा जाता है, और विमर्श हमेशा मुक्तिदायक होता है, वह तत्वत: मनुष्य की स्वतंत्रता का प्रतीक होता है ।
हमारे शास्त्रकारों के शब्दों में — “स्वातंत्र्यं हि विमर्श इत्युच्यते, स चास्य मुख्यः स्वभावः । (स्वातंत्र्य ही विमर्श कहलाता है और वह इसका प्रमुख स्वभाव है )
इसीलिये भाषा के प्रश्न को कभी भी किसी सत्ता के संरक्षण अथवा बंधन से जोड़ कर देखना सही नहीं है । यह पनपती, फलती-फूलती है आदमी के भावों की स्वतंत्र अभिव्यक्ति के क्षेत्र से, साहित्य से, स्वतंत्र विमर्श अर्थात् चिंतन से । अगर सत्ता ही भाषाओं के स्थायित्व का आधार होती तो न हम आज संस्कृत को, न पाली, प्राकृत और फारसी को, और यूरोप में ग्रीक और लैटिन के स्तर की भाषाओं को ही पोस्टमार्टम की मेज पर अध्ययन मात्र के विषय के तौर पर देख रहे होते और न अपभ्रंशों के नाना रूपों के विकास से उत्पन्न आधुनिक भारतीय भाषाओं के इतने बड़े खजाने से अपने देश की वैविध्यमय समृद्धि का उत्सव मना रहे होते ।
बहरहाल, हिंदी हमारी मातृभाषा, हमारे चित्त के प्रसार और हमारे अहम्, हमारे व्यक्तित्व से जुड़ी हमारी समग्र पहचान की भाषा है, इसीलिये इससे जुड़े किसी भी उत्सव में हम अपनी ही समृद्धि का उत्सव मनाने की तरह के सुख का अनुभव करते हैं ।
आप सबको हिंदी दिवस की आंतरिक बधाई देते हैं ।
आज यह अवसर हमारे लिये और भी खास इसलिये हो गया है क्योंकि हम कोलकाता के इस बहुत पुराने क्षेत्र के एक बेहद पवित्र और गौरवपूर्ण स्थल, माहेश्वरी पुस्तकालय में अपने ही लोगों के द्वारा प्रशंसित किये जाने के कार्यक्रम में उपस्थित हुए हैं । यह हमारे लिये किसी आत्म-प्रशंसा के कार्यक्रम से भिन्न कार्यक्रम नहीं है । खुद की खुद के ही लोगों के द्वारा प्रशंसा वृहत्तर अर्थ में आत्म-प्रशंसा ही कहलायेगी । यह क्षेत्र हमारी जन्मभूमि और कर्मभूमि, दोनों ही रहा है और आज तक भी हमारे सपनों में, अर्थात् हमारे अवचेतन में उभरने वाले दृश्यों की आदिम, मूल भूमि । यहां से हम सिर्फ अपने उस आत्म को ही पा सकते हैं, जिसे फ्रायड की तरह के मनोविश्लेषक व्यक्ति के चित्त और उसकी क्रियात्मकता की अभिव्यक्ति की भाषा का उत्स मानते हैं ।
बहरहाल, आत्म-प्रशंसा, एक आत्मतोष जिसे मनोविश्लेषण की भाषा में एक प्रकार की आत्ममुग्धता भी कहा जाता है, आदमी की यदि एक प्रकार की कमजोरी है तो यही है जिसके जरिये आदमी अपने अहम् के निर्माण की प्रक्रिया में अपने लिये बहुत कुछ अलग से अर्जित भी किया करता है । फ्रायड कहते हैं कि “बच्चे की मोहकता के पीछे भी काफी हद तक उसकी आत्म-मुग्धता, उसका आत्म-तोष और किसी अन्य को अपने पास न आने देने का रुझान काम करता है । ... यहां तक कि साहित्य में आने वाले बड़े-बड़े अपराधी और विनोदी चरित्र भी, अपनी आत्म-मुग्धता के जरिये ही हमें अपनी ओर खींचते हैं, क्योंकि इसी के बल पर वे उन सब चीजों को अपने से दूर रखने में समर्थ होते हैं जो उनके अहम् पर चोट करती है । उनकी यह मौज, एक ऐसी उनमुक्तता जिसे हम काफी पहले गंवा चुके होते हैं, हमारी ईर्ष्या का और इसीलिये हमारे आकर्षण का भी पात्र बनते हैं ।”
लेकिन मजे की बात यह भी है कि अपनी इसी आत्म-मुग्धता के लिये आदमी को कम कीमत नहीं चुकानी पड़ती है । फ्रायड ही अपने 'Introduction to narcissism’ लेख में बताते हैं कि “अपने रूप के प्रति आत्ममुग्ध सुंदरी की मोहकता की वजह से ही अक्सर उसका प्रेमी उससे असंतुष्ट भी रहता है, क्योंकि उसके मन में उस सुंदरी ने उसे क्यों चुना इसके बारे में हमेशा एक संशय का भाव होता है जो उसे उसके प्रेम के प्रति भी शंकित करता है, उसे वह अपने लिये एक पहेली समझता है ।”
अतिशय आत्ममुग्धता, तमाम सामाजिक मानदंडों पर एक मनोरोग मानी जाती है । इसीलिये एक स्वस्थ और संतुलित जीवन के लिये इससे बचने की जरूरत होती है । सभ्य और भद्र आदमी का अकिंचन-भाव आत्म-मुग्धता का ही प्रति-भाव है । यह भी एक विचित्र कारण है जिसके चलते कला और साहित्य की रचनात्मक दुनिया में भद्रता को भी किसी आत्म-दंड से कम दमनकारी नहीं माना जाता है । इसी से कलाकारों के कुछ-कुछ असामाजिक प्रकार के व्यवहार की समझ मिलती है, जिसे समाज के संरक्षणवादी तत्त्व नापसंद करते है और दंड का अधिकारी मानते हैं । जबकि उन्हीं के कामों के जरिये आदमी का आत्मजगत अपने को किसी भी प्रकार की जड़ता से मुक्त करता हुआ मनुष्य के आत्म-प्रसार का रास्ता खोलता है । दुनिया का इतिहास इस बात का गवाह है कि जिस समाज में भी रूढ़िवाद प्रबल होता है, वह समाज खुद को ऐसी अंतरबाधाओं से जकड़ लेता है, जिसमें उसके विकास की संभावनाओं का क्रमशः अस्त होता जाता है ।
जो भी हो, आज संजय ने और माहेश्वरी पुस्तकालय के सभी कर्ता-धर्ताओं ने, जो इस क्षेत्र के इस सच्चे गौरव की रक्षा का भार उठाये हुए हैं, इस आयोजन के जरिये हमें जो मान दिया है, हमारे जीवन में यह अपने किस्म का पहला आयोजन ही है ।
हमारे कवि मुक्तिबोध रचनाधर्मिता और समारोह-धर्मिता को एक दूसरे का शत्रु मानते थे । आज हिंदी में पुरस्कारों की स्थिति से आप सब परिचित ही होंगे । हमने अपने एक लेख में इस तथ्य को नोट किया था कि 'वागर्थ' जैसी पत्रिका में छपने वाले लगभग प्रत्येक लेखक के सर पर एक नहीं, अनेक पुरस्कारों की कलंगी लगी रहती है, जबकि हिंदी के विशाल पाठक समुदाय में लोग उनके नाम से भी परिचित नहीं होते हैं, रचना तो बहुत दूर की बात । साहित्य समाज में जितना अप्रासंगिक होता जा रहा है, पुरस्कारों की संख्या उसी अनुपात में बढ़ती जा रही है । इसीलिये किसी भी प्रकार के पुरस्कार या सार्वजनिक प्रशंसा का लेखक की अपनी पहचान से कितना संबंध हो सकता है, यह बहुत गहरे संदेह का विषय है । तथापि आप तमाम, अपने ही लोगों के बीच उपस्थित होने का सुख ही हमारे लिये कम मूल्यवान नहीं है ।
आप सभी इस मौके पर हमारे साथ कुछ क्षण बिताने के लिये उपस्थित हुए, इसके लिये मैं आप सबके प्रति तहे दिल से आभार व्यक्त करता हूं । इस खुशी के मौके पर अपनी बहक में क्या-क्या बोल गया हूं, उसके लिये इसलिये क्षमाप्रार्थी हूं क्योंकि ये सारी बातें इस आयोजन की औपचारिकता के लिये अनुपयुक्त भी हो सकती है । लेकिन यह ज्ञान का एक सार्वजनिक केंद्र है । शैवमत के महागुरू हमारे अभिनवगुप्त का यह प्रसिद्ध कथन है —
“स्वतन्त्रात्यरिक्तस्तु तुच्छोऽ तुच्छोऽपि कश्र्चन ।
न मोक्षो नाम तन्नास्य पृथङनामापि गृह्यते ।।
(स्वतंत्र आत्मा के अतिरिक्त मोक्ष नामक कोई तुच्छ या अतुच्छ पदार्थ नहीं है । इसीलिये मोक्ष का अलग से नाम भी नहीं लिया जाता, (लक्षण आदि की चर्चा तो बहुत दूर की बात है )
हमारा धर्म ही हमें भैरवी स्वातंत्र्य के भाव को साधने की शिक्षा देता है । हम मोक्ष और वैराग्य के नैगमिक दर्शनों के मिथ्याचारों और दासता के भाव से अपने को जोड़ने के पक्ष में नहीं हैं । इसीलिये हम औपचारिकताओं के नहीं, अनौपचारिकताओं के समर्थक है ।
अंत में कवितानुमा चंद पंक्तियों के साथ मैं अपनी बात खत्म करूंगा —
साफ कहना
एक अनुभव है साफ कहना
जैसे हो नदी का बहना
ढलान में अलमस्त उतरना
पत्थरों की दरारों से
नया रास्ता बनाना
साफ मन का जैसे खुद को कहना ।
जब गुत्थियाँ सुलझती है
तो अंग-अंग बिखर जाते हैं
नदी के रास्ते में उगे शहर
दरारों में समा जाते हैं
सामने का इंद्रजाल
एक पल में
हवा हो जाता है
ज़र्रा-ज़र्रा बिखरा हुआ
एक कातर दृश्य
बनाता है ।
इसी में अभी मैं
ठिठका खड़ा,
आने वाला समय,
प्रतीक्षा में हूँ कि
व्यतीत को बस
उसका ठाव मिल जाए ।
सचमुच
मैं विगत की
राख में लिपटा दिखूँ
वह समय नहीं हूँ ।
इसीलिये साफ कहूँ
अबाध बहूँ
प्रेम का
खुद ही एक संसार बनूँ
यह वासना ही
मेरा ठोस रूप है ।
आप सबको इस आयोजन के लिये अशेष धन्यवाद ।
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