शनिवार, 4 जुलाई 2020

आलोचना के एक सर्वकालिक ढांचे की तलाश में —


—अरुण माहेश्वरी
 (यह लेख ‘अनहद’ पत्रिका के नये अंक में प्रकाशित हो रहा है, जिसके मुखपृष्ठ की तस्वीर यहाँ दी गई है :)


1989 में सोवियत समाजवाद के पतन और उसके बाद के पिछले तीस सालों ने न सिर्फ मार्क्सवाद के एक खास सोवियत समाजवादी क्रियात्मक स्वरूप का अंत कर दिया है, बल्कि इसके साथ ही मार्क्सवादी चिंतन का भी एक पूरा ढांचा अपनी चमक को खोकर पूरी तरह से अनुपयोगी बन चुका है । इस सच को जितना जल्द स्वीकारा जायेगा, मार्क्सवादी दर्शन के सर्वकालिक प्रकाश से उतनी ही जल्द आगे के नये चिंतन और व्यवहारिक प्रयोगों की संभावनाओं को हासिल किया जा सकेगा । यह काम अब तक के विचारधारात्मक पूर्वाग्रहों के एक विशाल क्षेत्र को लांघ कर आगे आने के कठिन सैद्धांतिक और आलोचनात्मक प्रयत्न की अपेक्षा रखता है । किसी समय में सिर्फ सोवियत समाजवाद की बौद्धिक श्रेष्ठता को बनाये रखने के लिये वैचारिक क्षेत्र की अन्य सभी उपलब्धियों को मार्क्सवाद का, और सोवियत व्यवस्था का विकल्प ढूंढने की प्रतिक्रियावादी कोशिश कह कर खारिज किया गया था । आज जरूरत उन सबको गंभीरता से टटोलने की है । किसी भी अवधारणा और उसके पीछे के विचार के बीच के वास्तविक तत्त्वमीमांसक संबंधों को समझने की जरूरत है ।  
विगत तीस वर्षों के अनुभव इस बात के भी साक्षी है कि पश्चिम में समय-समय पर उठने वाले जिन विचारों और वैचारिक आंदोलनों की पहले भर्त्सना की गई थी, परवर्ती काल में खुद मार्क्सवादी ही उन भर्त्सनाओं के प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में शिकार बने हैं ; विमर्श की संभावनाओं को कम करते हुए वे अपने वैचारिक गतिरोध से निकलने के रास्तों को बंद करते चले गये और वे विचार मार्क्सवाद के सत्य के बारे में उनके अंदर ही नाना प्रकार की उलझनों के सबब बन गये । खुद मार्क्सवादी अपने अनुभवों से यह जानते हैं कि मार्क्सवाद के शत्रुओं ने मार्क्स की बातों को कितने विकृत रूप में लगातार पेश किया है । इससे वे मार्क्सवाद का कितना नुकसान कर पाए, और कितना खुद का किया, इसे दुनिया देख रही है । इसी प्रकार फ्रायडियन मनोविश्लेषण, अस्तित्ववाद, और उत्तर-आधुनिकता के सभी रूपों को तोड़-मरोड़ कर रखने से मार्क्सवादियों का खुद के अलावा किसी अन्य का कोई नुकसान नहीं होता है । इन सब विचारधाराओं के उदय के पीछे निश्चित विचारधारात्मक और ऐतिहासिक कारण रहे हैं । इनके जरिये मनुष्यों की विचारयात्रा के कुछ ऐसे उपेक्षित सूत्रों को पकड़ा जा सका है जिनके बिना सत्य की आगे कोई जांच संभव नहीं थी । इनके पीछे के ठोस ऐतिहासिक कारणों की समझ ही इन विचार सरणियों की ओर एक प्रकार की प्रामाणिक वापसी का प्रस्थान बिंदु बन सकती है । इसी प्रकार इनकी तारीफ के पुल बांधना भी इन्हें निरर्थक बनाने से कम बुरा नहीं है । कुल मिला कर, किसी भी विषय की विकृत समझ आपकी अपनी पूरी समझ को नष्ट करती है । लेकिन एक कठिन वैज्ञानिक संधान के जरिये इनका विश्लेषण करके इन्हें सामने लाया जाए, इसके लिये काफी वैचारिक खुलेपन की भी जरूरत होती है । यह एक कष्टसाध्य सैद्धांतिक अकेलेपन को भोगने के लिये तैयार रहने की तपस्या की मांग करता है ।
      
बहरहाल, यह सच है कि सिद्धांत या व्यवहार के किसी भी पुराने ढांचे से मुक्ति तभी संभव होती है जब आदमी को दूसरे किसी ठोस वैकल्पिक ढांचे का आधार मिलता है । बिना विकल्प के किसी भी प्रकार के विद्रोह का कोई अर्थ नहीं होता है । क्रांति के बाद क्या ?  इस सवाल का जवाब या उसका जवाब पाने की कोशिश ही क्रांति को वास्तव में चरितार्थ कर सकती है ।

जब हम सोवियत-समाजवादोत्तर मार्क्सवाद की इन नई संभावनाओं की तलाश की दिशा में बढ़ते हैं तो इस तलाश में हम इतिहास में उपेक्षित छोड़ दिये गये से उन सवालों को टटोलते हुए आगे बढ़ सकते हैं जो किसी भी मायने में सभ्यता के विकास से जुड़े कम महत्वपूर्ण और बुनियादी मुद्दे नहीं रहे हैं, बल्कि मानव-मुक्ति के सबसे प्रमुख पहलू रहे हैं, लेकिन जिन्हें सोवियत समाजवाद के काल में पूरी तरह से उपेक्षित किया गया । इसमें एक सबसे बड़ा और प्रमुख तात्त्विक पहलू है  स्वतंत्रता का पहलू । स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे के फ्रांसीसी क्रांति के नारे में सोवियत समाजवाद के काल में समानता पर तो पूरा बल दिया गया और उसे मानव कल्याण की लगभग हर समस्या के निदान की कुंजी मान लिया गया, लेकिन स्वतंत्रता स्वयं में मानव कल्याण का एक प्रमुख और आधारभूत कारक तत्व है, शासन और राजसत्ता की जरूरतों के सामने उसे अनदेखा किया गया ।
मार्क्स के 'कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र' की अंतिम पंक्ति है  सर्वहाराओं के पास अपनी बेड़ियों के सिवाय खोने को कुछ नहीं है । जीतने के लिये उनके सामने सारी दुनिया है ।
इसमें मार्क्स ने बहुत साफ शब्दों में कहा था कि राजनीतिक सत्ता, इस शब्द के असली अर्थ में, केवल एक वर्ग की दूसरे वर्ग का उत्पीड़न करने की संगठित शक्ति का नाम है । पूंजीपति वर्ग के खिलाफ अपने संघर्ष के दौरान, परिस्थितियों से मजबूर होकर, सर्वहाराओं को यदि अपने को एक वर्ग के रूप में संगठित करना पड़ता है, यदि क्रांति के जरिए वह स्वयं अपने को शासक वर्ग बना लेता है, और इस तरह, उत्पादन की पुरानी अवस्थाओं का बलपूर्वक अंत कर देता है, तो उन अवस्थाओं के साथ-साथ वह वर्ग-विरोधों के अस्तित्व और, आम तौर पर, खुद वर्गों के अस्तित्व की अवस्थाओं का खात्मा कर देता है ओर इस प्रकार वह, एक वर्ग के रूप में, स्वयं अपने प्रभुत्व का भी खात्मा कर देता है ।
कहने का मतलब यही है कि कम्युनिस्ट घोषणापत्र का एक और अंतिम लक्ष्य था  प्रभुता और दासता के हर रूप का अंत । जब व्यक्ति की स्वतंत्र प्रगति समष्टि की स्वतंत्र प्रगति की शर्त होगी । अर्थात्, एक प्रकार की परम स्वतंत्रता । सर्वहारा का वर्गीय शासन महज एक छोटे से काम, क्रांति को संपन्न करने तक सीमित होगा, असली काम, क्रांति के बाद का काम, प्रत्येक व्यक्ति की अधिकतम स्वतंत्रता को सुनिश्चित करने, राजसत्ता की दमनकारी उपस्थिति को खत्म करते चले जाने का होगा । लेकिन सोवियत समाजवाद अनेक अन्तर-बाह्य कारणों से दमनकारी राजसत्ता का एक और स्वरूप भर बन कर रह गया । जिस क्रांति का लक्ष्य एक राज्यविहीन समाज का गठन था, काल-क्रम में उसमें सिर्फ राज्य ही रह गया, मनुष्य गौण होता चला गया । मनुष्य के जैविक अस्तित्व को राज्य की विचारधारात्मक सत्ता ने खत्म कर दिया । जो सत्य शब्दों और विचारों के बाहर उत्पादन के ठोस भौतिक संबंधों के स्वरूप में वास करता है, उसे ही एक सिरे से खारिज कर दिया गया । सर्वहारा पार्टी में और पार्टी के सर्वोच्च नेतृत्व की प्रभुता में सिमटता चला गया । 

कहते हैं कि क्या ईश्वर किसी इतनी भारी चट्टान को भी तैयार कर सकता है, जिसके बोझ को वह खुद नहीं उठा सकता है ! मनुष्यों की परम स्वतंत्रता के लक्ष्य की ओर प्रेरित समाजवादी क्रांति की यह परिणति कुछ इसी प्रकार के सवाल मन में पैदा करती है । असल में इस सवाल का हां या ना में जवाब नहीं हो सकता है । यह ईश्वर की शक्ति पर सवाल उठाने की तरह है, स्वयं में एक प्रकार की तार्किक असंभवता की तरह । ईश्वर के यहां असंभवता या असमर्थता के लिये कोई जगह नहीं मानी जाती है । लेकिन हमारे अभिनवगुप्त ने प्रत्यभिज्ञा दर्शन में इसका बिल्कुल साफ शब्दों में जवाब दिया था कि हां, ईश्वर ऐसी चट्टान पैदा कर सकता है जिसके बोझ को वह खुद नहीं उठा सकता है । दरअसल यह विषय ज्ञान के क्रियात्मक रूप का विषय है । स्वातंत्र्य भी ज्ञान की शक्ति का ही अंग है । शिव का स्वातंत्र्य ही असंभव को संभव बनाता है । शिव के स्वातंत्र्य से असंभव को साधने की प्रवृत्ति से स्फोट, सृजन होता है । और जिसे शिव का स्वैच्छिक संकोच कहा जाता है, उसी की वजह से ईश्वर अपने द्वारा पैदा की गई चट्टान का ही बोझ नहीं उठा पाता है । जरूरत इसी स्वैच्छिक संकोच के सच को, उसके कारकों को पहचानने की है, उसे अपनी आत्म-बाधा के प्रेतों से मुक्त कराने की है । स्वातंत्र्य से ही शिव में गति आती है अन्यथा परम ब्रह्म के अद्वैत की तरह वह मृत रहेगा । सोवियत समाजवाद में समाजवाद का स्वैच्छिक संकोच, जो उसे एक कम्युनिस्ट पार्टी में सीमित करता है, उसकी भूमिका के स्वरूप को समझ कर ही उसे अपनी आत्मबाधाओं से आजाद किया जा सकता है । 

इसी पृष्ठभूमि में अपनी पुस्तक ‘समाजवाद की समस्याएं और वाम राजनीति की समस्याएँ में हमने एक देश में समाजवाद’ से लेकर कम्युनिस्ट पार्टियों के लगभग जड़ीभूत सार्वलौकिक सांगठनिक ढांचे को नाना प्रकार से विचार का विषय बनाया है । यह इस समस्या का एक अहम राजनीतिक पहलू है । यह विचारों की व्यवहारिक संकीर्ण परिणतियों की त्रासदी का पहलू है । आज जरूरत है किसी भी विषय की व्याख्या के सैद्धांतिक स्वरूप की संरचना पर इस प्रकार के भौतिक संकुचन के प्रभाव को टटोलने की, इसके सार्वलौकिक स्वरूप को निरूपित करने की । स्वातंत्र्य का पहलू हर वस्तु के साथ व्यक्ति के, व्यक्ति-व्यक्ति के बीच के संबंधों को किस प्रकार निरूपित करता है, इसकी अगर एक समग्र समझ विकसित की जाए तो ‘ईश्वर के स्वैच्छिक संकुचन’ से पैदा होने वाली वैचारिक समस्याओं से निपटने के एक सर्वकालिक संरचनात्मक पथ को शायद तैयार किया जा सकता है । 

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मसलन्, यहां हम अपने को आलोचना के विषय पर, साहित्य की एक प्रमुख विधा पर ही केंद्रित करते हैं । आलोचना के पूरे उपक्रम में आलोचक और कृति/कृतिकार के बीच के संबंधों में स्वतंत्रता का यह तत्व कैसे पूरे विषय को देखने का एक नया नजरिया विकसित करता है, इसे देखते हैं । यह एक प्रकार से मनुष्यों के बीच आपसी संबंधों को नये रूप में परिभाषित करने की एक कोशिश भी साबित हो सकता है । कृति के साथ आलोचना का रिश्ता, कैसे अन्य के साथ व्यक्ति के रिश्ते का पर्याय बनता है ; सामाजिक संबंधों को परिभाषित करने में विचारधारा की भूमिका क्या है, इन सब पर रोशनी गिर सकती है । आलोचना की दिशा और शक्ति का विषय समग्र रूप से विचारधारा की दिशा और शक्ति का विषय है ; आलोचक की भूमिका कृति से संबंध के मामले में विचारधारा की क्रियात्मकता के कारक की भूमिका की तरह ही होती है ।  

आलोचक कौन है ? 

हम इस बात को बड़े निश्चय के साथ, मानो यह कोई स्वयं सिद्ध बात है, कहते हैं कि आलोचना आलोच्य कृति से अभिन्न रूप में जुड़ा कोई विषय है, आलोच्य ही आलोचना के स्वरूप को निर्धारित करता है । इसके मूल में पदार्थ की प्राथमिकता की एक अधूरी भौतिकवादी समझ भी काम करती है ; आलोच्य कृति के ठोस रूप से आलोचना के निरूपण की समझ । इसीलिये जब किसी आलोचना कर्म पर किसी आलोचक के अपने व्यक्तित्व के असर में दिलचस्पी ली जाती है तो इसे कई लोग एक प्रकार की धृष्टता मानते हैं  जैसे अध्यापकीय आलोचना कहना बहुतों को नागवार गुजरता है । इससे कम से कम इतना पता चल जाता है कि जब किसी विपरीत प्रभाव पर चालू किस्म की बात की जाती है जिससे किसी गलत अवधारणा को छिपाया जाता है तो क्यों हमारे बाल खड़े हो जाते हैं । जब हम जानते हैं कि हम खुद उसी मिट्टी के बने हैं जिन्हें हम आकार देते हैं, तो आलोचना को आलोचक से अलग करने का क्या औचित्य हो सकता है !
बहरहाल, जो आलोचना के नाम पर हांकते हैं कि वे लेखक को नए रूप में तैयार करने का काम कर रहे हैं, उसे देखते हुए इतना कहना ही यथेष्ट नहीं हो सकता है । आलोचक के काम को इस स्तर पर, उस पर आलोचक के हावी होने के रूप में रखने का अपना एक सैद्धांतिक मतलब होता है, और वह भले ही निरर्थकन हो, लेकिन काफी नहीं है । इसके बजाय जिस पाखंड को असल में तोड़ने की जरूरत है, वह इससे भिन्न है । 
हम समसामयिक आलोचना के मार्क्सवाद-विरोधी पहलुओं की भर्त्सना सिर्फ इसलिये नहीं करना चाहते क्योंकि खुद के अज्ञान को खोल कर रखने का यह घमंडी रवैया ही घुमा कर मार्क्सवाद की अहमियत को स्थापित करता है । जब भी कोई सिद्धांत अपने को सुसंगत तरीके से रखने में असमर्थ होता है तो वह प्रकारांतर से अपने विरोधी सिद्धांत की स्थापना का ही काम कर रहा होता है । 
आलोचना में अध्यापकीय अघटन क्या है, अभी उसका एक खास नमूना देखने को मिला प्रचंड प्रवीर के एक कहानी संकलन, उत्तरायण की वागीश शुक्ला की भूमिका से । इस भूमिका को पढ़ कर घबड़ाहट में  फेसबुक पर हमारी पहली प्रतिक्रिया थी 
“वैसे तो किसी भी पाठ के सच को उस विक्षिप्त मनुष्य के सच की तरह लिया जा सकता हैजिसके लिये अपने अलावा बाक़ी दुनिया का अस्तित्व लुप्त हो चुका होता है या उस से जुड़ने की कड़ी टूट चुकी होती है । पर सच की ऐसी फाँक की जाँच के बिना जीवन के कैंसर की जाँच नामुमकिन होती है । इसीलिये पाठ की क़ीमत लेखक के मन की तरंगों से तय नहीं हो सकती है । यह उसकी संरचना के उन तंतुओं से तय होती है जिन्हें जाँच कर यथार्थ का प्रोग्नोसिस मुमकिन होता है । वह जीवन को उसकी गति में दिखाता है ।
“अब यदि लेखक ठान ले कि पाठ का एकांगीपनविक्षिप्तता अटूट रहेउसमें कोई कहीं ठहर न सकेपाठक को छका-छका कर मारे तो फिर सचमुच पागल की हरकतों से दिल बहलाने के घटिया कौतुहल को पैदा करने का रास्ता भी चुना ही जा सकता है । आदमी जहां तक मज़ा लेगालेगा और फिर अंत में दया दिखाता हुआ चलता बनेगा ।
“वागीश शुक्ल की इस समीक्षा से कम से कम इतना तो साफ़ है कि छोटे से किसी समकालीन प्रसंग के सिर पर भारतीय ज्ञान परंपरा की कई शाखाओं के मिश्रण से तैयार किये गये कचरे के पहाड़ को लाद कर पाठक को इस पहाड़ में दबे चूहे को पकड़ने के लिये खूब छकाया गया है । इसमें भी अगर कोई किसी प्रकार की सुरंग खोदने की कोशिश करता है तो उसे उंबर्तो इको के उपन्यासचेखव की कहानी और ग्रीक मिथकों आदि के संकेतकों से डरा कर भगा देने की आख़िरी दम तक की कोशिशें की गई हैं ।
“प्रचंड जी की कहानियाँ मैंने पढ़ी नहीं है । इसीलिये उन पर कोई टिप्पणी करने का अधिकारी नहीं हूँ । यह टिप्पणी पूरी तरह से वागीश जी और विष्णु खरे की टिप्पणियों से मिलने वाले संकेतों के आधार पर ही हैजिनमें लेखक में पाठकों से भारी श्रम करवाने के एक प्रकार के परपीड़क आनंद की बात मिलती हैपाठक का हासिल तो सिर्फ़ उसका भटकना और हाँफना है । यह बात वागीश जी की टिप्पणी पर भी है । वागीश जी का लोहा मानना होगा कि वे इतना लिख कर भी थके नहीं है ।व्यायाम आदमी की ज़रूरत भी होता है । यही है प्राण रहते अपना सर्वस्व लुटाने की ज्ञान परंपरा’ ! 

लेकिन इसके बाद, ज्यों ही हमने खुद प्रचंड प्रवीर की एक कहानी मिथुन को पढ़ा, फेसबुक पर तत्काल लिखा 
ओफ ! वागीश शुक्ला की भूमिका को पढ़ने और उसके आधार पर कहानियों के बारे में अपनी एक धुंधली सी राय बनाने के बाद इस कहानी को पढ़ कर सचमुच चौक गया । 

हम तो भूल ही गए थे आलोचना की दुनिया में अध्यापकीय अघटन को । चंद महीनों पहले ही हमने कमोबेस ऐसी ही समीक्षाओं के संकलन, (वे समीक्षक की हांक के बजाय असंख्य विद्वानों की असंलग्न उद्धृतियों से अटी हुई  थी) पर लिखा था — मुश्किल है कि पाठक इन लेखों से “ कहानियों के चरित्रों या उनके भीतर से व्यक्त यथार्थ के प्रवाह को पकड़े या उद्धृत विद्वानों के लगभग पहेलीनुमा कथन की गुत्थियों को सुलझाये ! (लेखक की) जिस लुप्तमान अस्मिता को प्रकाश में लाने की कोशिश के तहत समीक्षा लिखी गईवह ज्ञान की चकाचौंध करने वाली रोशनी से पैदा हुई अंधता में लुप्त ही रह जाती है ।

इस पर आगे और लिखा कि विचार या लेखन की इस खास शैली या संरचना को और गहराई से समझने के लिये हम यहां फिर एक बार हाइडेगर की ही एक और महत्वपूर्ण पदावली का प्रयोग करेंगे । वह है — Being-just-present-at-hand-and-no-more । प्राणीसत्ता उतनी ही जो बस आपके हाथ में हैं । आपके हाथ में का मतलबउतनी भर जो आपकी मुट्ठी में समा सके । यह एक प्राणीसत्ता की भासमानता भी नहीं है ।(हमने उसमें पहले प्राणी सत्ता की भासमानता की चर्चा की थी) हाइडेगर लिखते है कि यहां तक की एक लाश का ठोस अस्तित्व भी शरीर रचना विज्ञान के छात्र के लिये संभावनापूर्ण सत्ता के रूप में रहता है जिसके जरिये वह जीवन के कई पहलुओं को समझ सकता है । इसीलिये उसका अस्तित्व जो हाथ में हैउतना भर नहीं होता । वह एक बेजान चीज है जिसमें प्राणों का स्पंदन नहीं हैलेकिन फिर भी कुछ संभावनाएं लिये हुए है । उससे भासमान अस्तित्व से जुड़ी परिघटनामूलक खोजों की संभावनाएं खत्म नहीं होती है । लेकिन जब आप किसी भी मृत या जीवित ठोस अस्तित्व को ही किसी जादू से लुप्त कर देउसकी भासमानता ही न बची रहेबस उतना भर बचा रह जाए जो आपकी मुट्ठी में हैतो जाहिर है कि आपने जिसे लुप्तमान समझ कर उसकी अस्मिता को सामने लाने का बीड़ा उठाया हैइस उपक्रम में आप उसकी लुप्तमान या प्रकाशित या मृत हर प्रकार की संभावनापूर्ण अस्मिताबल्कि अस्तित्व का ही लोप कर देते हैं । जब समीक्षक के वैचारिक सूत्र ही आलोचना का मूल विषय हो जाए तो रचना का सच तो आलोचना से गायब हो ही जायेगा ! सोचने पर लगता है कि क्यों न हमें विवेचित रचना का पाठ ही बिना किसी की मध्यस्थता के मिल जाता ! हम उसके प्रत्यक्ष कोऔर उसकी संभावनाओं को भी शायद अधिक अच्छी तरह से देख पाते !

यह तय है कि आलोचक ही आलोचना का काम करता है । लेकिन इसकी सबसे पहली शर्त यह है कि उसे कृति पर अपने को लाद नहीं देना चाहिए । रचनाएँ और रचनाकार ही आलोचना के लिये कच्चे माल हैं । इनके बिना तो आलोचना आकारहीन, अगोचर और गूंगी होगी । इनके किन पक्षों को महत्व के साथ देखा जाना चाहिए और किनको गौण समझना चाहिए, आलोचक इसे ही बताते हैं । आलोचना निश्चित तौर पर कोई एक व्यक्ति का निजी काम नहीं है । यह एक सामूहिक कृत्य है, एक के बाद दूसरे को सौंपा गया विमर्श । इसे हमेशा आगे के लिये सुपुर्द किया जाता है एक रिले रेस, लेकिन यह किसी गंतव्य पर पहुंच कर खत्म नहीं होती है । यह किसी एक या दूसरे आलोचक के साथ अपने अंत तक नहीं जाती है । जब आलोचना के किसी एक ढांचे को अन्य को सौंपा जाता है तब उसे सारी सामग्री को सजा कर पूरी तरतीब के साथ तैयार करके दिया जाता है और तभी वह आलोचना के किसी नए परिप्रेक्ष्य का निर्माण कर सकती है । और यह कभी तय नहीं होता है कि उस परिप्रेक्ष्य के भी किस पहलू को लेकर आगे बढ़ा जायेगा और किसी छोड़ दिया जायेगा । फिर भी आलोचना की पुस्तकें मात्र आगे की आलोचना का आधार नहीं बन सकती है । जो आलोचक पहले के आलोचकों के निष्कर्षों की उद्धृतियों के दोहराव को ही अपनी आलोचना का आधार बनाते हैं, वे आलोचना में कोई योगदान नहीं करते । आलोचना आकार लेती है रचनाओं से और रचनाकार कोई वैयाकरण नहीं होता है । भाषा और विचार के साथ भी एक प्रकार का स्वेच्छाचार रचनात्मकता का एक बड़ा स्रोत होता है । वह अपने को वैयाकरणों और नियमों की सीमा से परे समझता है । आलोचना का काम इन्हीं विशेष हैसियत के अपवादस्वरूप व्यक्तित्वों का विश्लेषण होता है । इसमें किसी नैतिकतावादी नजरिये या पूर्व निर्धारित मान्यता का भी कोई विशेष स्थान नहीं हो सकता है । ऐसा करना खुद में आलोचना को ही उसकी धुरी से हटाना और उलझाना है । आलोचना का क्षेत्र सिर्फ भावों, विचारों, और भाषा तथा संकेतों के दायरे तक सीमित नहीं है । भाषा और संकेतों की इस दुनिया के बाहर सत्य की एक ऐसी भीषण और बहुरूपी उपस्थिति होती है जिसे किसी भी भाषाई करिश्मे से पूरी तरह काबू में नहीं किया जा सकता है । 

आलोचना के काम की दिशा का वास्तव में कुछ और ही अर्थ होता है । इसमें सबसे पहले तो कृति पर अधिकार कायम करके फिर उसे आलोचना के निकष पर उतारना होता है ताकि वह आलोचना मान्य हो सके, उसकी अवहेलना नहीं की जा सके। कृति पर अपने को लादने अथवा कृति के सामने आलोचना की शर्तों को भी रखने का कोई तुक नहीं है । इस मायने में आलोचना कृति के अपने प्रतीकात्मक संसार में प्रवेश का रास्ता भी होती है । 

बहरहाल, सचाई यह है कि आलोचना कोई एकतरफा संवाद नहीं है । यह पानी और तेल का संबंध नहीं है ।कृतिकार का कृति से जो संबंध होता है, आलोचक का उससे कम जैविक नहीं होता है । यदि आलोचक इस बात को भूल जायेगा तो समझ लीजिये कि वह अपने लक्ष्य को पाने में शुरू में ही चूक जायेगा । दूसरे शब्दों में, कृति और आलोचना के कुल उद्यम में यदि कोई क्षति होती है तो उसमें कृति के साथ ही आलोचक को भी भागीदार होना पड़ेगा । आलोचक न सिर्फ अपने शब्दों को वृथा गंवायेगा, बल्कि अपनी बातों की अहमियत को भी खोयेगा । जब भी कोई विषय के बिल्कुल मूल तक जाने के उपक्रम में अपने को डालता है और किसी गहन निर्णय तक पहुंचता है, तब वह खुद उससे अप्रभावित कैसे रह सकता है ? यह भी दावा किया जाता है कि कभी-कभी आलोचक अपने कहे और लिखे की ताकत से नहीं, अपने व्यक्तित्व से भी प्रभाव डालता है । ऐसे मंतव्यों पर कोई सफाई की जरूरत नहीं है, बस उपहास से मुस्कुरा देने की जरूरत है । आदमी की प्राणी सत्ता आखिर प्राणी सत्ता है, वह किसी की भी क्यों न हो, और उस पर सवाल करने का किसी को क्या हक बनता है !

कृति की व्याख्या के वक्त आलोचक अपनी मर्जी का मालिक होता है । वह जिस रूप में और जिस प्रकार से चाहे उसे देख सकता है । सारे नियम कायदे उस समय उसकी मर्जी के गुलाम होते हैं । लेकिन जब वही आलोचक कृति के प्रभाव के विषय को टटोलता है, खुद पर उसके असर को देखता है तब उसमें जो दरार पैदा होती है, उसमें उसकी एक स्वतंत्र सत्ता उससे अलग हो जाती है, वह जो था वही नहीं रह जाता है, और सच कहा जाए तो आलोचना के असली रहस्य को, उसके रचनात्मक स्फोट को इसी बिंदु पर खोजने की जरूरत है । अर्थात्, आलोचना को कृति और आलोचक, इन दो के बीच के संबंधों की स्थिति में देखा जानाचाहिए । इसकी अपनी शर्तें होने पर भी, आलोचक कृतिकार से ज्यादा बड़ा विद्वान अथवा विषय का जानकार है, इस भ्रम का इसमें कोई स्थान नहीं हो सकता है । यह किसी निस्पृह आस्वाद का विषय नहीं है, बल्कि कृति के प्रभाव में जहां कुछ खलल पैदा होता है, उसी से कृति के सत्य को पकड़ने के सूत्र को हासिल करने का तरीका है । यह तय है कि हर आलोचक आश्चर्य के साथ हमेशा कृति के प्रभाव को लेता है । और जो ग्रहण नहीं करता, वह उसी हद तक आलोचना के अपने हक को गंवाता है ।
कह सकते हैं कि आलोचक की उपस्थिति किसी भी कृति के साथ एक संभाषी की तरह की होती है । लेखक ही उसे पहले परोक्ष तौर पर, और बाद में कृति के प्रकाशन पर प्रत्यक्ष तौर पर आलोचक को यह दायित्व सौंपता है । इसके बाद भी अक्सर आलोचक कृति के प्रति एक पथरीली चुप्पी साध कर उस दायित्व को स्वीकारने से मुकरता है । लेकिन यहीं पर आलोचक के द्वारा कृतिकार के एकालाप को तोड़ने की जरूरत की बात आ खड़ी होती है । पर जब कृतिकार अपनी दिशा में लगा रहता है तब वह खुद भी कुछ आलोचकीय नियमों का पालन करते हुए बढ़ा करता है, पर क्या तब उसकी नजरों के सामने कोई आलोचक होता है ?अथवा, तब वह किसी और को ही संबोधित करने लगता है ! उसके संबोधन का विषय तब काल्पनिक होने पर भी कहीं ज्यादा यथार्थ होता है । आलोचना के प्रति लापरवाह हो कर ही कृतिकार अपने सामने की उस छवि को खोल कर रख देता है जिससे उसने आलोचक को अपसारित किया है । अपनी भाषा, शैली और चित्रण के बेलौसपन से वह आलोचक को उसके बारे में सारे संकेत मुहैय्या करता चला जाता है । और कहना न होगा, उस सामग्री में ही आलोचक अपने काम के लिये जरूरी आधार को खोज लेता है । 

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इन बातों को हम मार्कण्डेय के उपन्यास ‘अग्निबीज’ की समीक्षा के समय के अपने अनुभवों के आधार पर कह पा रहे हैं। काफी पहले मार्कण्डेय जी की स्मृति में लिखे गये अपने एक लेख में इस पूरे प्रसंग को हमने लिखा था जिसे यहां अन्य उद्धरणों की अनुपस्थिति में विस्तार से ही रख दे रहा हूं : 

बात अभी से लगभग तीन दशक पहले की है। मार्कण्डेय का उपन्यास ‘अग्निबीज’ (1981) छप कर बाजार में आया था। हमारे घर में सबने उसे बड़े चाव से पढ़ा और यह तय हुआ कि क्यों न इस उपन्यास पर एक घरेलू गोष्ठी ही की जाएं! छुट्टी के दिन सुबह-सुबह हम बैठे । ... सबने पूरा उपन्यास एक रात मेंजैसे एक सांस में पढ़ा था। उपन्यास का प्रवाह ही ऐसा था। पता नहींवह उम्र का कारण था या कुछ औरउपन्यास पढ़ते-पढ़ते किसी के आंसू न गिरे होया कम से कम गला न रूंधा होऐसा नहीं हो सकता था। उसी प्रभाव और आवेग की मानसिकता में हम उपन्यास पर चर्चा करने बैठे थे। जब चर्चा करनी थीतब कोरी भावुकता से काम नहीं चल सकता था। कुछ संयत रहने और साहित्य के कुछ स्थापितजान-माने ठोस मानदंडों की कसौटी पर उस उपन्यास को रगड़ने की जरूरत थी। इसीलिये पाठक-आस्वादक के बजाय अपने ‘आलोचक’ को ज्यादा ही जागृत करके मैं उस चर्चा में उतरा था और चर्चा के प्रारंभ में ही ग्रामीण जीवन के कहानीकार मार्कण्डेय से हमारी अपेक्षाओं की पूरी फेहरिस्त पेश करते हुए मांग की थी कि गांवों के परिवेश पर कोई उपन्यास लिखा जाएं और उसमें एक सिरे से जमीन का प्रश्न गायब होयह अस्वाभाविकऔर एक हद तक अवांछित भी है। ‘अग्निबीज’ में भारत के गांवों का प्रमुख अंतर्विरोधजमीन-केंद्रित अन्तर्विरोध एक सिरे से नदारद क्यों हैसमझ में नहीं आता। दूसरों ने भी अपनी बात रखीउपन्यास में जो नहीं हैउसके बजाय जो हैउसी पर बात करने के लिये भी कहा गया। लेकिन वह 80 के दशक की शुरूआत का जमाना था जब हवा में जमीन की लड़ाई का मसला छाया हुआ था। उपन्यास का काल भी आजादी के ठीक बाद का काल थाजब कांग्रेस सरकार जमींदारी उन्मूलन के कार्यक्रम को अपनाए हुए थी। इसलिये पूरी ताकत और तर्कों से मैंने उपन्यास की इस मूलभूत कमजोरी को उठाते हुए उसके प्रति अपने असंतोष को जाहिर किया। और इसी प्रकार बात खत्म हो गयी। हमने कहा कि इस पर विस्तार से लिखा जायेगादेखें क्या होता है। 
बहरहालअग्निबीज पर हमारी घरेलू गोष्ठी तो इसी प्रकार के तर्क-वितर्क के बाद खत्म हो गयीलेकिन हमने उपन्यास पर लिखने का जो बीड़ा उठा लिया थावह हमारे लिये समस्या बन गया। अब उपन्यास और उसके पात्र हमारे दिमाग से उतरने के लिये तैयार नहीं थे। यह एक अलग ही प्रकार का अनुभव था। क्यों और कैसे हमारे सारे ‘बुनियादी’ प्रश्न और शंकाएं दिमाग के एक कोने में धरे के धरे रह गये और उपन्यास को लेकर जितना सोचता गयाउसके सभी चरित्रउनका परिवेश और लेखक के संवेदनात्मक उद्देश्य दिलो-दिमाग पर छाते चले गये। सारे पात्रों का इस प्रकार उठ खड़े होना और पूरी ताकत के साथ अपनी अस्मिता की सचाई को जाहिर करना कुछ ऐसा थाकि जिन प्रश्नों के खांचे में हम उपन्यास को उतारना चाहते थेवह समीक्षा में कहीं संदर्भ का विषय भी नहीं बन पाया। ‘अग्निबीज’ के पात्र न किसी संवेदनात्मक संकट की आंच पाते ही बगले झांकते दिखाई दियेन विचित्रकाल्पनिकता से गढ़े गये वास्तविकता की मर्यादा लांघते हुए जीवन की किन्हीं व्यक्तिगत मान्यताओं या आदर्शों के वाहक या भावुकता भरे काव्यमय अनुभवाभास में खोते हुए नजर आयें। वे देह-प्राण से भरपूरअति-संवेदनशील और साथ ही बोधहीनता के नये सामाजिक सच को उजागर करने वाले सामान्य जीवनानुभवों के अर्थवान पात्र थे। 
उपन्यास के अंत में श्यामा के बेमेल विवाह और हरिजन बालिका विद्यालय में आग लगने का भाव-भीना और उत्तेजनापूर्ण प्रसंग है। विवाह स्थल पर पूरा गांव ही नहींउस क्षेत्र की सारी हस्तियां मौजूद है। हर रंग और विचारों के लोग। लेकिन गौर करने लायक बात यह थी कि श्यामा की बौद्धिक परिपक्वता के कायलउसके व्यक्तित्व को विराट होते देखने की हार्दिक इच्छा रखने वाले वहां उपस्थित किसी भी विचारवान व्यक्ति के मन को इस बेमेल विवाह की त्रासदी से जुड़े प्रश्न बेचैन नहीं कर रहे थे।  इन सबके लिये यह शादी भी हर भारतीय नारी के जीवन में सौभाग्य के उदय के महोत्सव से भिन्न और कुछ नहीं थी। अगर कोई बेचैन थेतो सिर्फ श्यामा की मित्र-मंडली के समवयसी नौजवान सुनीतसागर और मुराद। इस पूरे प्रकरण से गांव के एक स्थिर परिवेश में कहां और कैसे जीवन में परिवर्तन के नये सूत्र अनायास ही प्रवेश कर रहे हैंइसे पकड़ने में कोई भी संवेदनशील पाठक नहीं चूंकेगा। 
बहरहाल, ‘अग्निबीज’ के पात्रों की सोहबत और उपन्यास के प्रति-संसार में लगातार कई दिन और रातें गुजारते हुए एक प्रकार की आत्मलीनता से मैं बीमार भी हो गयाऔर जो समीक्षा लिखी गयीउस पर खुद मार्कण्डेय का पत्र आया कि उपन्यास को लिखते वक्त मैं जिस मानसिकता में रहातुम्हारी समीक्षा ने जैसे उसे फिर मेरे सामने जीवित कर दिया है। वह समीक्षा ‘नया पथ’ में छपी थी जिसका षीर्शक हमने लगाया था “अग्निबीज: विगत तीन दशकों का एक अन्यतम श्रेश्ठ उपन्यास”। तब चंद्रबली सिंह जलेस के महासचिव के नाते ‘नया पथ’ के संपादक थे। डा. नामवर सिंह ने उनकी चुटकी ली - ‘अन्यतम भीश्रेष्ठ भी’! नामवरजी के कटाक्ष ने परफेक्सनिस्ट चंद्रबली जी को बौखला दिया। तत्काल मुझे फोन करके इस गलत भाषिक प्रयोग के लिये फटकारा। उस लेख को जब मैंने अपनी पुस्तक में शामिल किया तो शीर्षक बदल दियालेकिन इस घटना ने आगे के लिये भाषा के मसले पर मुझे काफी सावधान किया।”
यह पूरा प्रसंग कृति के साथ आलोचना के संबंध में स्वातंत्र्य-चेतना की अपनी उस भूमिका को निरूपित करता है जिससे आलोचक को उसकी विचारधारा के पूर्वाग्रहों की बंद गली से निकलने का रास्ता मिल पाता है । दरअसल, मार्कण्डेय की संपूर्ण साहित्य दृष्टि एक मुक्तिकामी स्वतंत्र विमर्शकार की दृष्टि थी । उनकी पत्रिका ‘कथा’ का व्यापक कलेवर, ‘कहानी की बात’ की उनकी टिप्पणियां इसीलिये अपने समय के नये-पुराने प्रश्नों के छूट रहे नये उत्तर, नई भाषा और नई अवधारणाओं को  पेश कर आपको सत्य के ज्यादा करीब ले जाते हैं । 

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मार्कण्डेय के साथ ही हम यहां नामवर सिंह जी और उनकी ‘कहानी की बात’ (1964) तथा ‘कविता के नये प्रतिमान’ (1968) तक के लेखों की भी चर्चा करना चाहेंगे । ‘इतिहास और आलोचना’ के नामवर जी का वह एक नया अवतार था । ‘कहानी नई कहानी’ के लेखों से निर्मित एक बेहद साहसी अवतार । प्रगतिशील आलोचना की ज्ञात धारा से बाहर की प्रगतिशील धारा । इसमें कृतियों को पढ़ने की आलोचक की नई क्षमता का प्रदर्शन हुआ था । 
नामवर जी के कामों ने हिंदी आलोचना को कुछ ऐसे नये आयाम प्रदान किये थेजिनसे परंपरा की बेड़ियों से मुक्त होकर आलोचना को नये पर मिले थे । अपने लेखन में आलोचना के सत्य को उन्होंने उसकी पुरातनपंथ की गहरी नींद में पड़ रही खलल के वक्त की दरारों में से निकाल कर प्रकाशित किया था ; हिंदी के कथा साहित्य को कथित तौर पर कविता के निकष पर कस कर किसी भी साहित्यिक पाठ की काव्यात्मक अपरिहार्यता से हिंदी जगत को परिचित कराया था । यह बिल्कुल नई बात थी । यह किसी भी मानदंड पर आसान नहीं था । ग्राम्शी लिखते हैं - ‘‘यदि हमारा लक्ष्य एक ऐसे सामाजिक समूह सेजिसने पारंपरिक तौर पर सही मानस विकसित न किया होबौद्धिकों की एक नयी जमात को तैयार करना है जिसमें सर्वोच्च स्तर की विशेषज्ञता (specialisation) की क्षमता के लोग भी शामिल होतो हमें अभूतपूर्व कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा।’’ नामवर सिंह का संघर्ष कुछ ऐसा ही था । मुख्यधारा के विचारों को उसी के मंचों पर कहीं ज्यादा तैयारियों के साथ एक नये आधार पर चुनौती देने की कठिनाईबौद्धिक कार्यों के संदर्भ में गैर-पारंपरिक समुदाय से आने वाले बुद्धिजीवी के निर्माण की कठिनाईयहां तक कि अकादमिक संस्थानों के शीर्ष पर बैठे पुरातनपंथी सोच के पंडितों के बेहिसाब षड़यंत्रों से जूझते रहने की कठिनाई ; एक गहरे अस्तित्वीय संकट की स्थायी परिस्थितियों के दबावों में जीने की कठिनाई ! किर्केगार्द कहते हैं कि ऐसे मुहानों पर ही आदमी को धर्म और परंपरा अपने तमाम विधि-निषेधों के साथ घेरते हैं ; बाइबल में यीशू परामर्श देते हैं कि ‘ज्ञान के वृक्ष से कुछ भी मत खाना।’ (Don’t eat any thing from the tree of knowledge) । नामवर जी ने फिर भी सेव को चख लिया था । अंतिम दिनों में वे जरूर इस पाप के रास्ते से बचना चाहते थे, यीशू के शरणापन्न जीना चाहते थे, व्यवस्था, सत्ता और सरकार के दामन को पूरी ताकत के साथ थामे रहना चाहते थे, लेकिन उन नामवर जी को आगे शायद ही कोई याद करेगा । तब उनके सामने भविष्य एक गहरी अंधेरी खाई के अलावा कुछ नहीं रह गया था, वे डर गये थे, डर से उत्पन्न विमूढ़ता से घिरे हुए । यह आलोचना में व्यक्तित्व के प्रयोग की विमूढ़ता का एक चरम उदाहरण है । अध्यापकीय आलोचकों का संसार ऐसी विभूतियों से अटा हुआ है । 

ऐलेन बाद्यू का एक कथन है  Truth may not convince, knowledge passes in the act. सत्य भरोसा नहीं दिला सकता है पर क्रिया ज्ञान का संचार कर देती है । वे क्रिया को एक संचारी भाव कहते है क्रमिक संचार का भाव, ज्ञान के साथ-साथ चलने वाला भाव । संचारी भाव विचार या वस्तु का रस की ओर नेतृत्व करते हैं । ये क्षणिक, अस्थायी और पराश्रित होते हैं, इनकी अपनी कोई पहचान नहीं होती । ये किसी एक स्थायी भाव के साथ रहने के बजाय सबके साथ संचरण करते हैं । इसीलिये इन्हें व्याभिचारी भाव भी कहा जाता है । 
हिन्दी आलोचना की मार्क्सवादी धारा मूलतः मार्क्सवादी दर्शन की नहीं, सोवियत संघ से जुड़ी मार्क्सवादी क्रियात्मकता की धारा थी जिसके ठोस रूपों में दर्शन का अवलोप ही स्वाभाविक था । मार्क्सवादी क्रियात्मकता के संचारी भाव, जो विचार का एक खास दिशा में नेतृत्व करते हैं, निश्चित तौर पर क्षणिक, अस्थायी और पराश्रित ही होंगे, इनकी अपनी कोई पहचान नहीं हो सकती थी । इसीलिये, जब हम आज की परिस्थिति पर गौर करते हैं तो कहना पड़ता है कि इस धारा का क्रमिक अवलोप कोई बड़ी बात नहीं है । डा. रामविलास शर्मा और नामवर सिंह इसके दो प्रमुख रूप हैं, जिनमें कह सकते हैं कि एक दिन के बारह बजे के सूरज की सीधी रोशनी में अपनी छाया को खोता है तो दूसरा अंधेरी आधी रात के गाढ़े अंधेरे में लुप्त हो जाता है । हम नहीं जानते कि इनकी चर्चा में अब तक कितना आकर्षण बचा हुआ है, जिसे सत्य का आकर्षण कहते हैं ।


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बहरहाल, आदमी के जीवन की कथाओं में उसके चेतन-अवचेतन में अवशिष्ट प्रभावों को कहानी के मूल्याँकन में महत्वपूर्ण स्थान दे कर नयी कहानी के आलोचकों ने हिन्दी की कहानी समीक्षा को निश्चित तौर पर बहुत समृद्ध किया था । इसमें नामवर सिंह के आलोचनात्मक लेखों के अलावा मार्कण्डेय के ‘कहानी की बात’ के लेखों और देवीशंकर अवस्थी की समीक्षाओं, मुक्तिबोध की ‘एक साहित्यिक की डायरी’उनके अन्य लेखों के साथ ही उनकी कहानियों ने भी इसकी जमीन तैयार करने का काम किया था । तथापि प्रकृति और परिवेश का भी एक अपना आत्म होता है जिसके तार भी आदमी के आत्म से घनिष्ठ रूप में जुड़े होते हैं ।

मूल बात यह है कि आलोचक कृति को कैसे पढ़ता है, उसी में उसकी अपनी पहचान के तत्व भी निहित होते हैं । यहां तक कि कोई आलोचक शास्त्रीय साहित्य को किस प्रकार ग्रहण करता है और उसका प्रयोग करता है, यह भी खास तौर पर उल्लेखनीय होता है । अपभ्रंश साहित्य की नामवर जी की पृष्ठभूमि आनंदवर्धन और अभिनवगुप्त को साहित्य के अन्य अन्तरराष्ट्रीय नये सिद्धांतकारों के साथ मिला कर जिस एक नई आधुनिक हिंदी की आलोचना दृष्टि का निर्माण करती है, वह उन्हें अनायास ही अपने समय में अन्य सबों से अलग कर देती है । डा. शर्मा जब प्राचीन साहित्य की ओर रुख करते हैं, पुरातनपंथी मानदंडों को दोहराते हैं, उनको नये समय से नहीं जोड़ पाते, क्योंकि वे उन्हें इस प्रकार पढ़ते ही नहीं है । उस ओर रुख करने की उनकी जरूरत का वास्तव में आलोचना की जरूरतों से, साहित्य की कृतियों को पढ़ने-समझने और उनसे नये अर्थ ढूंढने की जरूरतों से कोई संबंध नहीं था । 
   
आलोचना के नये और निश्चित नियम तैयार किये जा सकते हैं लेकिन ऐसे नियम तभी बनते हैं जब नया घटित हो कर स्थिर हो जाए । नया क्या घटित होगा, इसके बारे में कोई निश्चय के साथ पहले से कुछ नहीं कह सकता है, उसका कोई बहुत सटीक आख्यान पेश नहीं किया जा सकता है । किसी भी समय के आलोचनात्मक विश्लेषण के आधार पर सिर्फ इतना जान पाते हैं कि लोगों ने अब तक इसे कितना कम जाना था ! कोई भी आलोचना सही आधार पर स्थित है, यह इस बात पर निर्भर नहीं करती है कि कृति के लेखक ने उसे कैसे लिया, स्वीकारा या अस्वीकारा । बल्कि, इस पर निर्भर करती है कि वह व्याख्या आगे समय की कसौटी पर कितनी सही उतरती है । वर्तमान की कुंजी भविष्य के पास होती है । इस निकष पर तो हम डा. रामविलास शर्मा के राहुल, यशपाल, जैनेन्द्र, मुक्तिबोध आदि के विश्लेषणों को बहुत कमजोर आधार पर स्थित पाते हैं । 

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दरअसल, आलोचना एक ऐसी परिघटना है जिसमें आलोचक के वश में सब कुछ नहीं हुआ करता है । आलोचना स्वयं में एक चिंतन है, सिद्धांत और व्यवहार की एकान्विति से निर्मित एक अद्वैत सत्य  लेकिन यह कोई विज्ञान नहीं है । विज्ञान में जो प्रयोग किये जाते हैं वे एक प्रकार की कृत्रिम निर्मिति होते हैंजिन्हें दोहराया जा सकता है । इसमें एक सूत्र का बार-बार प्रयोग करने पर भी एक ही परिणाम हासिल होते हैं । जैसे गणितीय समीकरणों का एक ही निश्चित समाधान हुआ करता है जिसे कोई भी हासिल कर सकता है । लेकिन राजनीति में हर राजनीतिक परिस्थिति हमेशा स्वयं में अलग और अनोखी होती है । उसे कभी भी हूबहू दोहराया नहीं जा सकता है । राजनीतिक लेखन में भी जब दोहराव दिखाई देता हैतब वह कोरा शब्दाडंबर और खोखला होता है । वह वैचारिक नहीं होता । इसके आधार पर कोई भी सच्चे राजनीतिक कार्यकर्ताओं और राजनीतिक नेताओं के बीच फर्क कर सकता है । सच्चे राजनीतिक कार्यकर्ता यह मान कर चलते है कि कोई भी परिस्थिति दोहराई नहीं जा सकती है, जबकि राजनीतिक नेता मान्य बातों का ही पिष्टपेषण करते हुए भाषण दिया करते हैं । सच्चे राजनीतिक कार्यकर्ता हमेशा एक अलग परिस्थिति के बारे में सोचते है ;  राजनीतिक नेता तो सोचते ही नहीं है । राजनीतिक चिंतन वैज्ञानिक चिंतन से पूरी तरह अलग होता है । राजनीति एक स्थित और न दोहराई जा सकने वाली संभावना की बात करती है । जबकि विज्ञान एक जरूरत की उपज हैउसे लिख कर अथवा प्रयोगों से उसके दोहराव के उपकरण तैयार करता है ।  
राजनीति में हर परिस्थिति की अपनी विशिष्टता की तरह ही मनोविश्लेषण में भी खास मनोरोगी की चिकित्सा का अनुभव होता है, और कोई भी आदमी दूसरे की प्रतिलिपि नहीं होता है । मनोविश्लेषणात्मक चिंतन में सैद्धांतिक लेखन और चिकित्सकीय क्रिया के बीच संबंध में दोहराव की तरह की कोई कृत्रिम बात नहीं हो सकती है । मनोविश्लेषण और राजनीति के बीच समानता का एक पहलू यह भी है कि इनमें ज्ञान के सामूहिक संकलन की जरूरत होती है । जैसे राजनीति के लिये वह संगठन जरूरी हैइसी प्रकार मनोविश्लेषकों के भी हमेशा एसोशियेसन रहे हैं । यह इसलिये क्योंकि यदि जिस ठोस विषय पर विचार किया जाता हैवह अपने आप में अनूठा और अद्वितीय होता है तो उस पर आप अपने चिंतन की आत्मगत रूप में हीउसे अन्यों तक प्रेषित करके ही जांच कर सकते हैं । सामूहिक समझ महत्वपूर्ण हो जाती है ।  

यही बात आलोचना पर भी समान रूप से लागू होती है । इसमें विषय अर्थात् कृति की अद्वितीयता को अस्वीकार कर हर कृति के लिये प्रयुक्त सूत्रों, अर्थात् दोहराव के लिये कोई जगह नहीं होती है । इसके साथ ही आलोचना भी एक साझा उपक्रम है जिसमें कोई भी विश्लेषण अंतिम नहीं हो सकता है । इसे कृतियों पर एक सामूहिक समझ का उपक्रम भी माना जा सकता है ।   

आलोचक जब अपने ज्ञान से अपने चारों ओर दीवार तैयार कर लेता है, और गुरुता को ओढ़ कर कृति केअपने प्रभाव से इंकार करता है, वह कृति के प्रभाव के पहलू की जांच ही नहीं कर पाता है । कृति के बारे में आलोचक की पूर्व-कल्पनाओं का मतलब सिर्फ इतना है जैसे कोई अच्छा खिलाड़ी सामने वाले खिलाड़ी की अगली चाल का पहले से ही अनुमान लगा लेता है । उसमें हमेशा एक प्रकार की रणनीति काम करती है । लेकिन इससे किसी दर्पण के प्रतिबिंब की तरह की भ्रांति नहीं पैदा होनी चाहिए क्योंकि उसके लिये दर्पण में जिस प्रकार की निर्मलता की जरूरत होती है, मनुष्य में वह मुमकिन नहीं होती । इसमें किसी पुल की तरह की खामोशी और निस्पंदता से काम नहीं चलता है । आलोचक कृतिकार से कभी एकमेक नहीं हो सकता है, लेकिन उससे अलग अपनी सत्ता को कायम रखते हुए भी उसे अपनी मदद के लिये एक तीसरे, अपने ही डमी को तैयार करने की जरूरत होती है, और उसके जरिये कृति के साथ संबंध विकसित करके कृति में बोल रहे कृतिकार के डमी, चौथे व्यक्ति को पकड़ कर उस पर अपना अधिकार कायम करना होता है । तब जाकर आलोचक के सामने कृति की गुत्थियां खुलनी शुरू होती है । आलोचना आलोचक से इस संयम की मांग करती है — आलोचक के एक प्रकार के आत्म-निषेध की मांग करती है । आलोचक के लिये यह जरूरी है क्योंकि इसी में स्वतंत्रता के उस तत्व की क्रियात्मकता को उनमुक्त करने की संभावना निहित है, जिसके लिये इस आलेख का पूरा ताना-बाना बुना गया है । आलोचक की प्रभुता को इसमें सिर्फ इतनी ही छूट है कि वह कृति के पत्ते खुलने के पहले अपने पत्ते खोले या उसके बाद में । लेकिन इस पूरे खेल में उसकी सही भूमिका किसी डमी के अलावा कुछ नहीं हो सकती है । यदि यह डमी जीवित हो जाता है, तंत्र विद्या की प्रेत की बारह अंगुली की आकृति में अभीष्ट जीव का आनयन हो जाता है, तो फिर खेल किस की भी मर्जी के अनुसार क्यों न चल रहा हो, कोई फर्क नहीं पड़ता है । आलोचना अपनी भूमिका में सफल होती है । यहीं से अपने बोध के स्वातंत्र्य को खोकर तथा स्वतंत्रता के बोध को गंवा कर तैयार हुए आलोचना के संकुचित स्वरूप की मुक्ति का रास्ता बनने लगता है । अभिनवगुप्त की शब्दावली में  अपने अंदर अपने द्वारा अपना क्षेप ही विसर्ग है । आनयन की पद्धति से आत्मालोचन अर्थात् पूर्वाग्रहों से मुक्त आत्म-क्षेपण आलोचना की स्वातंत्र्य शक्ति को पाने रास्ता तैयार करता है । यही वजह है कि आलोचक अपनी रणनीति के मामले में कार्यनीति की तुलना में कम स्वतंत्र होता है । बिना कार्यनीति की मंजिलों के रणनीति तो वैसे ही हवा होती है ।   
इस प्रकार आलोचक कृति पर अपनी राय देने की रणनीति और कार्यनीति दोनों मामलों में ही, समग्रत: अपनी राजनीति में उतना स्वतंत्र नहीं होता है । कृति जो है, उसकी जगह जो होना चाहती है, अगर उस पर केंद्रित किया जाए तो शायद आलोचना को ज्यादा लाभ होगा । वह कम से कम कृति को उसी की शर्तों पर आंक पायेगा । दूसरे शब्दों में, जब तक आलोचक अपने प्रस्थान बिंदु को सही जगह पर तय नहीं करता है, वह कृति को छू नहीं पायेगा और आलोचना के लक्ष्य को हासिल करना उसके लिये कठिन होगा । कृति पर बाबा आदम के जमाने के मानदंडों को लाद कर अपने से दूर कर देने के सिवाय उसे कुछ हासिल नहीं होगा । कृति पर राय को आलोचना-शास्त्र के जरिये पकड़ने की कोशिश आलोचना का सबसे सस्ता और कुत्सिततरीका कहा जा सकता है । अपने समकालीन साहित्य पर राय देने में दिग्गज आलोचकों की महा-विफलताएं इसके सबसे बड़े उदाहरण हैं, वे भले आचार्य रामचंद्र शुक्ल हो या डा.रामविलास शर्मा हो । मानवीय अनुभवों पर इतने छिछले स्तर से राय देने वाले खुद कभी अपने को विकसित करने के लिये तैयार नहीं होते हैं । आलोचना का यह अध्यापकीय स्वरूप ही और पतित होकर कृति में शैली और रूप की शुद्धता पर सबसे ज्यादा बल दिया करता है । वे यथार्थ को पूर्व-निश्चित मानदंडों की सीमा में देखते हैं । विचारधारा, अर्थात् ईश्वर का स्वैच्छिक संकुचन यही है । कब के खारिज हो चुके सिद्धांतों को ये आज भी रटते हुए पाए जाते हैं ।

कुल मिला कर, कृति किन चीजों के प्रति मौन या उनसे विरत रहती है, आलोचक यदि उन पर ही अपने को केंद्रित करें, और इसे दो बार जांच-परख लें तो वह एक हद तक सही रास्ता पा सकता है । फिर भी उसकी व्याख्या एक खास खाके में देखने के आग्रह से उत्पन्न व्याख्या समझी जायेगी । आलोचना के मानदंडों में इस पर कोई रोक नहीं है । चूंकि आलोचक का अपना स्थान मायने रखता है, इसीलिये उनकी बात की अहमियत बनी रहती है । लेखक समाज आलोचक को मान देता है, इसीलिये उसकी व्याख्या को सुना जाता है । लेकिन इससे आलोचना कैसे अपना काम करे अथवा आलोचक कैसे अपनी राय दे, इस समस्या का कोई समाधान नहीं होता है । जो यह नहीं मानते, उनसे एक ही सवाल किया जाना चाहिए  कि आखिरउनकी आलोचना की दिशा क्या है और उसकी ताकत का स्रोत क्या है ॽ आलोचक से ही तात्पर्य क्या है ॽ 

यह सवाल बहुतों को बुरा लग सकता है । ‘आप पूछने वाले कौन है’, कह कर भी वे सवाल से कतरा सकते हैं, जैसा ‘आलोचना के कब्रिस्तान से’ के लेखों के प्रति अध्यापकीय आलोचकों के रुख में हमने देखा । किसी भी नई धारा के लिये पूर्व की धारा से सारे जवाब नहीं मिल सकते हैं । 

जाक लकान अपने संकेतक और संकेतित के सिद्धांत में बताते हैं कि कैसे संकेतक ही संकेतित की पहचान को प्रभावित करते हैं । व्याख्या स्वयं में विषय के अंदर से एक नया विषय पैदा कर सकती है । व्याख्या किसी ईश्वरीय विधान से पैदा नहीं होती है । अवचेतन की भाषा, अर्थात अभिप्रायों की अभिव्यक्ति का जो एक मूलभूत ढांचा है और उसमें कुछ नियमों का पालन करते हुए जो चीज काम करती है, ये वही नियम हैंजो सामान्य तौर पर प्रयुक्त होने वाली प्राकृतिक भाषा के अध्ययन में पाये जाते हैं। अभिप्राय भी जीवन से भाग कर भाषाई शरण में जाने से पैदा होता है, न कि जीवन से — अर्थात् जीवन और उसके संकेतकों के योग से । जो है और जो नहीं है, संकेत सबको समेटते हैं । इसमें उपस्थित अनुपस्थित के संदर्भ में और अनुपस्थित उपस्थित के अंदर जाहिर होता है । यह एक प्रकार का खास लुकाछिपी का खेल है जिसमें फ्रायड के अनुसार बच्चा अपने लिये एक किला तैयार किया करता है  कहना न होगा, आदमी के चित्त के निर्माण का यह प्रथम चरण, कृति के अपने संसार के निर्माण पर भी लागू होता है ।   
कृति की व्याख्या के अपने कुछ सुनिश्चित नियम हो सकते हैं, लेकिन उनकी चर्चा इसलिये नहीं की जानी चाहिए क्योंकि कभी कोई किसी के समग्र विकास की पूरी कल्पना नहीं कर सकता है । आलोचक की कथित तिरछी नजर उसकी अपनी निजी सांस्कृतिक संरचना की, उसके अकादमिक प्रशिक्षण की उपज होती है, उसका कोई अन्य वस्तुनिष्ठ आधार नहीं होता । यह उसका अपना चित्त का संसार है । इस मामले में वह शुतुरमुर्ग की तरह अपने ही संसार की गलियों में विचरण करता है । अपने ही संकेतकों से खुद को रचता हुआ । कृति में जिस बिंदु पर उसे झटका लगता है, वहीं से आलोचक सक्रिया होता है । आगे उसका व्यवहार, इंकार या स्वीकार, जाने-अनजाने अपने चित्त का अनुसरण करत है, उसके औजारों का प्रयोग करती और उसके बोझ को लादे रहता है । 
कृतियों की व्याख्याओं को देख कर आपको बार-बार यह लग सकता है कि हमें उससे जितनी ज्यादा सामग्री मिली है, हम उसमें से कितने कम का इस्तेमाल कर पाते हैं । मसलन्, हर कोई अपने ढंग से ही यह मानता है कि कोई व्याख्या कितनी सही है । व्याख्या इस बात पर निर्भर नहीं करती है कि वह सबको कैसी लगी बल्कि इस बात पर निर्भर करती है कि उससे कृति और कृतिकार के बारे में कितने और कैसे संकेत मिलते हैं । ‘आलोचना के कब्रिस्तान से’ के लेखों के अनुभव के आधार पर हमारा मानना है कि आलोचना के प्रति अस्वीकार भी उसकी स्वीकृति का एक रूप होता है । अर्थात्, अस्वीकार का अर्थ बेकार नहीं होता है । इसी प्रकार, व्यवहार में अस्वीकृति की अपनी भूमिका संपन्न हुआ करती है ; सिद्धांत व्यवहार में अपनी जगह बनाते हैं । इसीलिये, यह कहने में जरा भी हिचक नहीं है कि आलोचना के सामने अगर कोई बाधा है तो वह खुद आलोचक के अलावा दूसरी नहीं है । 

आम तौर पर कृति की सामान्य व्याख्याओं में देखा जाता हैं कि वह खुल कर अपनी बात कहने के बजाय हकलाते हुए चलती हैं । ऐसी व्याख्याएं कृति की कमजोरी में उसे सहायता प्रदान करने के लिये होती हैं । यह कमजोरियों की आलोचना के बजाय उन्हें मान कर चलने की तरह है । इसके मूल में यह है किआलोचक भूल करने से डरता है और इसी चक्कर में लकीर पीटता हुआ अपनी मूर्खता का प्रदर्शन करता जाता है । इन व्याख्याओं की रुचि कृतिकार को संतुष्ट करने के बजाय असंतुष्ट न करने में ज्यादा होती है ; उसकी जरूरत दिशा दिखाने के बजाय अपनी श्रेष्ठता दिखाने की होती है । कृति पर राय से इसका कोई संबंध नहीं होता है । वह रचनाकार से एक प्रकार की जुगलबंदी करने लगता है । आलोचक इससे अपने को मुक्त नहीं कर पाता है क्योंकि इसे ही वह अपने कामों का आदर्श मानता है । यह सही है कि आलोचक का कृति के साथ एक संबंध कायम होना चाहिए, वह टूटना नहीं चाहिए । लेकिन संबंध को पूरी तरह से टूटने से बचाने के लिये एक खास प्रशिक्षण की जरूरत होती है, जिसकी हमने पहले ही अपना डमी तैयार करने के रूपक के जरिये चर्चा की है । कृति में आलोचक का प्रवेश ही उसके लिये सुरक्षा कवच बनता है ।यथार्थ के साथ कृति का संबंध का क्षेत्र इस आलोचक और आलोच्य के बीच के युद्ध के परिणाम को तय करता है । आलोचक की राय अन्तरक्रिया के इस पूरे धुंधलके में अनायास ही चौकाती हुई, किसी चमत्कार की तरह व्यक्त होती है । मार्कण्डेय की टिप्पणियों और नामवर जी की आलोचना का यही सौन्दर्य रहा है । 

हमारे दार्शनिक अभिनवगुप्त किसी भी कथा की रचना में (जीवन के विन्यास में) उसके अंतराल में निहित क्षोभ को एक प्रमुख तत्व बताते हैं । ‘क्षोभ अवश्यमेव अंतराले’ - क्षोभप्रेरणा अंतराल में होते हैं । अभिनवगुप्त कहते हैं कि ऊपर प्रकृति और नीचे बुद्धिइन दोनों के बीच में क्षोभ की उपस्थिति को मानना ही पड़ेगा । यह प्रकाश और अप्रकाश का आंदोलन है । ‘उसने कहा था’ कहानी के लहना के अंतर में युद्ध के मैदान में सालों से पड़े एक अतिसुक्ष्म, सुप्त भाव का उदय एक ऐसा ही आभास था । अभिनवगुप्त  की सांख्य दर्शन से यही आपत्ति थी कि सांख्य ने क्षोभ के इस पृथग्-भूत गुणतत्व को नहीं समझा था । जीवन में आत्म की विमर्शमयता को नहीं पहचाना था । पाठ में मौन को अभिनव एक प्रकार का ऐसा रिक्त स्थानअवकाश का स्थान बताते हैं जो उच्चरित शब्द की झंकार से उत्पन्न वायु में तैयार हुआ स्थल होता हैजिसे ठोस जगत नहींनभ संभालता है ।

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अब कृति सामाजिक-राजनीतिक क्रांति हो या कोई साहित्यिक रचना, उनके साथ विचारधारात्मक स्तर पर विमर्श का एक सर्वकालिक ढांचा कुछ इसी प्रकार से तैयार किया जा सकता है । अलग-अलग ज्ञान के क्षेत्र, मसलन् राजनीतिशास्त्र, सौन्दर्यशास्त्र, मानवशास्त्र, चिकित्साशास्त्र, मनोविज्ञान के अलगाव के पीछे कोई नैसर्गिक कारण नहीं हुआ करते हैं । कुल मिला कर यह मानवों का एक अंतर-बाह्य संसार है जिसके अलग-अलग अंगों के पर्यवेक्षण के जरिये हम इस संसार के अलग-अलग लक्षणों की ज्ञान-शाखाओं का विभाजन करते हैं । इनमें से किसी भी क्षेत्र में कुछ भी इतना स्थायी नहीं है कि उसे सख्ती से नियंत्रित किया जा सके । इन पर कोई भी सख्त जड़सूत्र का प्रयोग उस अंग को स्थायी हानि पहुंचाने का कारण बनता है । इन सभी क्षेत्रों में नए लक्षणों के आधार पर अपनी अलग राय रखने वालों को किसी बाहरी, न्याय मांगने वाले आवेदनकर्ता के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए । अगर ज्ञान की कोई भी धारा ऐसे जड़ रुझान का परिचय देती है तो यही कहना होगा कि उसका उद्देश्य उस क्षेत्र के सामूहिक अनुभवों को सहेजने के अलावा कुछ और ही है । इसके साथ ही जब हम इतिहास में जाते हैं तो नाना कारणों से घिस चुके या प्रचलन से हट गये पदों के पीछे के अर्थों को, उनके पीछे काम करने वाली सामूहिक मानसिकता को भी हमें अपने विचार का विषय बनाना चाहिए । 
यह पूरी तरह से समय के नाना द्वंद्वों के समुच्चयों में अपने स्थान को पाने और किसी स्फोट की तरह पूरे दृश्यपट को बदल देने की, एक क्षेत्र से उपजी अवधारणा से सभी क्षेत्रों को बदल देने की समस्या है । हर विधा के सैद्धांतिक पदों को बाकी विधाओं के समतुल्य पदों में भी जब गूंज मिलती हैतभी ज्ञान के किसी सार्वलौकिक ढांचे का विकास संभव हो पाता है ।  द्वंद्वात्मक भौतिकवाद से हमें यही शिक्षा मिलती है । वह ठोस भौतिकता का नहीं, लक्षणों का एक सार्विक सिद्धांत है, और कहना न होगा, इसीलिये सर्वशक्तिमान है । अभिनवगुप्त के यहां भविष्य में उल्लसित होने वाले स्वलक्षण को स्त्रक्ष्यमाण कहा गया है जो बोध रूप होने के कारण बिना किसी आधार के अपने अन्दर वर्तमान अनेक आकृतियों को सामान्य एवं विशेष रूप में आभासित करता है 
स्त्रक्ष्यमाणविशेषांशाकांक्षायोग्यस्य कस्यचित् ।

धर्मस्य सृष्टिः सामान्यसृष्टिः सा संशयात्मिका ।। (श्रीतन्त्रालोकः, प्रथममाह्निकम्, 258)     

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