शुक्रवार, 14 अक्तूबर 2022

सत्ता के नैतिक विमर्श में गांधी हमेशा बने रहेंगे

 

(‘अनहद’ का गांधी विशेषांक)


—अरुण माहेश्वरी

 


गांधी पर ‘अनहद’ का विशालकाय (650 पृष्ठों का) अंक एक सुखद आश्चर्य की तरह आया है; गांधी के हत्यारों के प्रभुत्व-काल में ही गांधी के पुनरोदय के संकेत की तरह के सुखद आश्चर्य की तरह।

दरअसल गांधी का व्यक्तित्व अपनी वैचारिक संरचना की वजह से ही विचारकों के लिए एक वैसा ही चिरंतन आकर्षण का बिंदु है, जैसा कि दार्शनिक चिंतन के लिए सत्य का हुआ करता है ।

जॉक लकान ने मार्क्सवाद पर एक चौकाने वाली टिप्पणी की थी, जिसका हमने लकान के बारे में अपनी किताब में उल्लेख भी किया है । इसमें वे मार्क्सवाद को एक ‘विश्व दृष्टि’ बताने की बात को कोरा मज़ाक़ कहते हैं । उनके अनुसार,  मार्क्सवाद जब कहता है कि इतिहास अपने अंदर एक अन्य विमर्श के आयाम को लिए हुए हैं तब उसका संकेत उस दर्शनशास्त्रीय विमर्श मात्र के अंत की संभावना की ओर होता है जिस पर ‘विश्वदृष्टि’ की बात टिकी हुई है । मार्क्सवाद सभ्यता के विकासक्रम में पूंजीवाद का एक वैकल्पिक पथ है । जहां भी पूंजीवाद विफल होगा, विकल्प के तौर पर मार्क्सवाद क्षितिज पर हमेशा उपस्थित दिखाई देगा ।

इसी आधार पर लकान मार्क्सवाद की तुलना गॉस्पेल से, अर्थात् परमार्थ से, उस सत्य से करते हैं जो खुद ही खुद में खुद से प्रकाशित होता है । परमार्थ अर्थात् सत्य का क्षितिज जो अपने अंदर से ही अपनी मर्ज़ी से जगत को प्रकट करता है । शैवमत के अनुसार,  इसमें उसकी इच्छा, उसका स्वातंत्र्य ही प्रमुख होते हैं । उसे अन्य किसी उपादान की ज़रूरत नहीं होती है । वही इस जगत का उपादान और निमित्त कारण, दोनों होता है । इसीलिए कहा गया है कि उसके बारे में कोरे अनुमान से कोई भिन्न अर्थ नहीं पाया जा सकता है , क्योंकि अनुमान उसी पदार्थ का हो सकता है जिसका पहले प्रत्यक्ष हो । वह जड़ प्रकाश नहीं, विमर्शमूलक प्रकाश है । और इसी वजह से वह चिरंतन रूप में अपने को आभासित करता रहता है ।

विमर्शमूलक प्रकाश । यह बात जितनी मार्क्सवाद पर लागू होती है, उतनी ही गांधी-दृष्टि पर भी लागू होती है । जीवन के सभी मामलों में अनैतिक व्यवहारों के खिलाफ गांधी की वैकल्पिक दृष्टि पर ।

गांधी ने अपनी दृष्टि के केंद्र में सत्य के प्रति निष्ठा को रखा था और इसी के आधार पर अपने समग्र जीवन को अपना संदेश बताया था, न कि उसके अंश विशेष या अपने किसी वक्तव्य विशेष को । वे कहते हैं कि “अंतत: मेरा काम ही शेष रह जाएगा, जो मैंने कहा अथवा लिखा है, वह नहीं | ( हरिजन, 1-5-1947, पृ. 93 ) अपनी कही सब बातों के बीच संगति के प्रति उनका कोई आग्रह नहीं था ।

उनके शब्द हैं कि “मुझे मेरे संपूर्ण दोषों के साथ ही स्वीकार किया जाना चाहिए | मैं एक सत्य शोधक हूँ | मेरे लिए मेरे प्रयोग सर्वोच्च तैयारी वाले हिमालय अभियानों से भी अधिक महत्वपूर्ण हैं| (यंग इंडिया, 3-12-1925, पृ. 422 )

“यह मेरा दुर्भाग्य अथवा सौभाग्य रहा है कि मैं दुनिया को हैरत में डाल देता हूँ | नये प्रयोगों, या नये तरीके से किए गए पुराने प्रयोगों से कभी-कभी भ्रांत धारणा उत्पन्न हो ही जाती है | ( एन ऑटोबायोग्राफी, ऑर द स्टोरी ऑफ माइ एक्सपेरीमेंट्स विद ट्रूथ : एम. के. गांधी; महादेव देसाई द्वारा गुजराती से अनूदित; नवजीवन पब्लिशिंग हाउस, अहमदाबाद; खंड I, 1927; खंड II,1929, प्रयुक्त संस्करण : 1959. पृष्ठ 132 )

“वस्तुत: मैं एक व्यावहारिक स्वप्नद्रष्टा हूँ | मेरे स्वप्न हवाई नहीं हैं | मैं अपने स्वप्नों को जहां तक संभव हो, यथार्थ में परिवर्तित करना चाहता हूँ | ( हरिजन,17-11-1933, पृ.6)

गांधी के बारे में विमर्श का हर वह रूप, जो उनके जीवन के व्यापक उद्देश्यों से इतर, उनके समग्र कर्ममय जीवन के बजाय किसी एक या दूसरे निर्णय पर आधारित होता है, उनके व्यक्तित्व का कोई संतोषप्रद चित्र पेश नहीं कर सकता है । और, जब गांधी जैसे विषय पर लेखों के संकलन के रूप में किसी बड़े भारी विशेषांक का आयोजन किया जाता है तो उसमें समग्रता के विपरीत ‘खंड खंड पाखंड’ का प्रभुत्व दिखना सिर्फ़ इसीलिए और भी लाज़िमी हो जाता है, क्योंकि ऐसे आयोजनों में शुद्ध वर्गीकरणों पर टिकी अध्यापकीय विचार-पद्धति के आधार पर लिखे गए लेखों के दल शामिल होने के लिए टूट पड़ते हैं ।

‘अनहद’ के इस विशालकाय विशेषांक के साथ भी अगर हमें ऐसी ही कोई दुर्घटना दिखाई देती है, तो यह बहुत आश्चर्य की बात नहीं है ।

इस विशेषांक का पहला लेख ही अध्यापक राधावल्लभ त्रिपाठी का है । कह सकते हैं, लेखन की पुरातनपंथी जड़सूत्रवादी वर्गीकरण की शैली के एक पुरोधा का लेख । चुनिंदा सूत्रों से तत्क्षण बाज़ी मार लेने की शास्त्रार्थों की ग़ैर-विमर्शात्मक शास्त्रीय दंगल प्रणाली में पारंगत त्रिपाठी जी का लेख । ‘गांधी कोई वादी नहीं, संवादी है’, यह बताने के लिए पहले उन्होंने संवाद पुरुष की कुछ कसौटियों को पेश किया । और फिर गांधी के जीवन की घटनाओं में से काट-छाँट कर निकाले गए उदाहरणों से अपनी हर कसौटी पर उन्हें पूरी तरह से खरा साबित कर दिया । जो गांधी अपने में ऐसी संगति की खोज से परहेज़ करने की बात करते थे, उन्हें ही एक कसौटी पर सौ प्रतिशत खरा साबित कर दिया गया !

मसलन्, गांधी में (1) ‘आदमी की परख की शक्ति’ — इसका प्रमाण था गुजरात विद्यापीठ के प्रमुख के लिए उनका मुनि पुण्यविजय को चुनना। (2) उनकी ‘श्रवण’ की शक्ति ही थी कि उन्होंने चम्पारण के राजकुमार शुक्ल की बातों को सुना ! (3) उनका ‘अकलुष’ मन था कि जिसके कारण सभी धर्मग्रंथों के प्रति वे समान आदरभाव रखते थे । (4) ‘आत्म निरीक्षण ‘ का भाव तो उनमें बचपन से ही था । (5),‘करुणा’ उनमें बुद्ध की तरह महाकरुणा का रूप ले लेती है और अंतिम (6) ‘संवाद के लिए द्वार खुले रखना’ का प्रमाण तो यह था कि वे हिंदू, मुसलमान सबको समस्वीकार्य के भाव से लेते थे । इस प्रकार, त्रिपाठी की एक संवादी की सभी छः कसौटियों पर गांधी जी सौ प्रतिशत खरे साबित हुए ! इसके बावजूद, यदि कोई उनसे संवाद नहीं कर पाया तो त्रिपाठी का निष्कर्ष है कि गांधी का “जीवन-बोध अखण्डित बोध था …खंडित जीवन और विभक्त समय में रहने वाले लोगों की उनसे संवाद करने में मुश्किलें अवश्य होगी ।”

अर्थात् खुद त्रिपाठी स्वीकारते हैं कि किसी का खुद से ‘संवादी’ की शर्तों को पूरा करना ही संवाद के लिए यथेष्ट नहीं होता है । मूल बात यह है कि संवाद की कसौटी उसकी विसर्गात्मक विमर्शमूलकता में हुआ करती हैं, न कि उसकी अन्य की परख की तीक्ष्ण शक्ति, करुणा आदि कथित सद्गुणों में । गांधी जैसों के विमर्श प्रकाश की चरितार्थता के लिए ‘अन्य’ की पात्रता का प्रयोजन नहीं होता है । सच यह है कि गांधी ‘विवादी-संवादी’ नहीं, आज़ादी की लड़ाई में साम्राज्यवाद के साथ भारत की संपूर्ण जनता के अन्तर्विरोध की वाणी थे ।

त्रिपाठी का यह सारा उपक्रम कुछ वैसा ही है जैसे कोई संस्कृति की एक संहिता तैयार करने की कोशिश करे । जब मनुष्य की सभ्यता का ही कोई अंत नहीं है तो उसके विवेक की कोई बंद संहिता कैसे संभव है ! भावों के स्तर पर कहा जा सकता है कि गांधी आज़ादी के स्थायी भाव के साथ उस काल के समस्त विभाव, अनुभाव की चर्वणा का संचारी भाव है।

आचार्य त्रिपाठी के जड़सूत्रवादी भाव-प्रधान वर्गीकरण के सिक्के का ही दूसरा पहलू है कात्यायनी का वामपंथी ‘वैज्ञानिक’ जड़सूत्रवाद । जो मार्क्स कहते थे कि “मानव जन अपना इतिहास स्वयं बनाते हैं, पर अपने मनचाहे ढंग से नहीं । वे अपनी मनचाही परिस्थितियों में नहीं, अपितु ऐसी परिस्थितियों में बनाते हैं जो उन्हें अतीत से प्राप्त और अतीत द्वारा संप्रेषित होती हैं और जिनका उन्हें सीधे सीधे सामना करना पड़ता है ।” (लुई बोनापार्ट की अठारहवीं ब्रूमेर) उनके अनुयायी ही निःशंक,  इतिहास में युगांतकारी व्यक्तित्वों का मूल्यांकन एक निश्चित वर्गीय समाज-व्यवस्था के जनक के रूप में करते हैं, परिस्थितियों की उपज के रूप में नहीं । यहाँ तक कि वें भारत की ग़ुलामी की परिस्थितियों को भी भूल जाते हैं । गांधी के विश्लेषण के नाम पर कात्यायनी वामपंथ के पुराने सूत्र को ही दोहराती है कि वे भारत के बुर्जुआ वर्ग के प्रतिनिधि थे ! गांधीवाद के खिलाफ मार्क्सवादी अधिरचना से उत्पन्न यह विश्लेषण सिर्फ़ इसलिए अधूरा है क्योंकि दास प्रथा की स्थिति में यह सवाल उतना लाज़िमी नहीं होता है कि विद्रोही स्पार्टकस किस वर्ग का प्रतिनिधि था ?

गुलाम भारत में गांधी आज़ादी के प्रतीक थे, धार्मिक संप्रदायों और जातियों में विभाजित भारत में वे सांप्रदायिक सद्भाव और सामाजिक न्याय के प्रतीक थे - गांधी के सम्यक् मूल्यांकन के लिए यह क्या कोई कमतर महत्व की बात है ?  इससे बड़ा वर्ग संघर्ष का परमार्थ और क्या हो सकता है ? यही वह मूल कारण है कि आज भारत की आधुनिक राजनीति के किसी भी रूप का विश्लेषण आज़ादी की लड़ाई और उसमें गांधी की भूमिका को दरकिनार करके संभव नहीं है ।

‘बुर्जुआ वर्ग के सिद्धांतकार और नीति निर्माता के तौर पर जहां तक सत्ता-संरचना से जुड़े विषयों का प्रश्न है, आज़ादी के बाद के उस व्यवहारिक विमर्श में तो वस्तुतः गांधी सही ढंग से शामिल ही नहीं हुए थे । (देखें, ‘अनहद’ के इसी अंक में इस लेखक का लेख — “सत्ता विमर्श की एक प्रस्तावना है नंदकिशोर आचार्य का नाटक ‘बापू’ “)

कात्यायनी की परंपरा में ही इस अंक में नीलकांत का गांधी पर एक आधा-अधूरा नोट ‘सामान्य बुद्धि’ की सर्वोपादेयता की कांटियन नैतिकता की गलियों में भटक गया है। सामान्य बुद्धि अर्थात् कॉमन सेंस अनगिनत अवधारणाओं का वह जंगल होता है जिसमें से आप अपनी मर्ज़ी की हर चीज़ को ढूँढ कर निकाल सकते हैं । जन-संघर्षों में इस प्रकार के जनमत से जुड़े सवालों की अवहेलना न करने पर भी इसे कोई कसौटी नहीं बनाया जा सकता है । यह आंदोलनों को प्रभावित करता है,  पर उनके निश्चित चरित्र का कारक नहीं होता । गांधी, जो खुद ऐसी सामान्य बुद्धि की बातों के क़ायल रहे हैं, उनके विश्लेषण के औज़ार के रूप में यह बिल्कुल अनुपयोगी है ।

प्रदीप सक्सेना का तीन पन्नों का नोट गांधी पर नहीं, उनके संदर्भ में मूलतः मार्क्सवादियों की आत्मालोचना के बिंदुओं का नोट है ।

इस अंक में महत्वपूर्ण लेख हैं हेरम्ब चतुर्वेदी, अमित राय, शंभू जोशी, सेवाराम त्रिपाठी, सूरज पालीवाल, शुभनीत कौशिक के । ये लेख गांधी दृष्टि के मूल तत्व सत्याग्रह, अहिंसा और प्रेम के वैचारिक और व्यवहारिक पक्षों पर जरूरी विमर्शमूलक लेख हैं ।

चंद रोज़ पहले, 1 अक्तूबर को ‘टेलिग्राफ’ अख़बार में हिलाल अहमद का एक लेख ‘सत्याग्रह’ संबंधी बद्धमूल धारणा के संदर्भ में ‘एक संभावनापूर्ण हथियार’ (Potent Weapon) शीर्षक से आया था । गांधी के सत्याग्रह और अहिंसा से जुड़े प्रश्नों पर यह एक विमर्श की प्रस्तावना ही था, जिसमें परमेश्वर, साध्य और साधन की एकान्विती, हिंसा-अहिंसा के गांधी दृष्टि के मूल सवालों को ही उठाया गया था । इस लेखक ने एक फेसबुक पोस्ट के जरिए उस पर विस्तृत टिप्पणी की थी । हमारा कहना था कि गांधी का परमेश्वर (god) कोई रूढ़ भगवान नहीं, दर्शनशास्त्र के परम का ऐश्वर्य है; पदार्थ का शुद्ध रूप, उसका सत्य । पदार्थ जीवन-जगत के साथ संबंधों से, अर्थात् संसार की तमाम वस्तुओं की मध्यस्थता से एक प्रमाता का अर्थपूर्ण यथार्थ रूप ग्रहण करता है । इस क्रम में प्रमाता का परमेश्वर उन संबंधों से बुने गए आवरण में छिप जाता है । प्रमाता के सत्य की तलाश का अर्थ होता है, ऐसे सभी आवरणों से उसे यथासंभव दूर करने का प्रयत्न । साध्य जब सत्य होता है तो वह वस्तुतः साध्य (प्रमाता) की प्राणीसत्ता को ही साधने की बात होती है ।

गांधी जी साध्य और साधन की एकता की बात कहते थे । उनके शब्द हैं — ‘जहां साधन की शुद्धता होती है, वहां परमेश्वर वास करता है ।’ साधन की शुद्धता का भी अर्थ है साध्य की शुद्धता को कायम रखना । साध्य और साधन के बीच का संबंध द्वंद्वात्मक होता है । साधन की अशुद्धता साध्य को शुद्ध नहीं रहने दे सकती है ।

ऊपर से, हिंसा में तो खतरा यह है कि वह साध्य की आंतरिक संहति को ही नष्ट कर दे । अहिंसा साधन को शुद्ध, प्राकृतिक बनाने का उपक्रम है । साधन जब शून्य होगा तो साधन का प्रयोग करने वाला प्रमाता - निस्पृह । जीवन संघर्ष में निष्काम कर्म के सिद्धांत का यही मूलाधार है।

हिंसा साध्य की संहति को ही नष्ट कर सकती है, अहिंसा उसे अक्षुण्ण रखती है । यही वजह है कि जब हिंसा और अहिंसा के बीच चयन की बात आती है, तो गांधी जी का चयन साफ था — अहिंसा । जिससे साध्य ही बिखर जाए, उस पथ की ओर कदम बढ़ाना, अपने ही लक्ष्य से दूर होने के अलावा क्या होगा !

हिलाल अहमद के लेख में यह बात आती है कि सत्याग्रही को अपराध और अपराधी के बीच फर्क करना कभी नहीं भूलना चाहिए । जॉक लकान ने अपराधशास्त्र में मनोविश्लेषण की भूमिका में इसी बात से अपनी बात का प्रारंभ किया था कि अपराधशास्त्र में जिस सत्य की तलाश रहती है उसका एक पहलू पुलिस की तलाश का पहलू होता है, जो दंड प्रणाली की ज़रूरतों को पूरा करता है, पर उसका दूसरा पहलू अपराधी के सत्य का मानवशास्त्रीय पहलू है । मनोविश्लेषण का कार्य उसके मानवशास्त्रीय पहलू से जुड़ा हुआ है । कहना न होगा, सत्याग्रही की भूमिका सत्य की तलाश के एक विश्लेषक की भूमिका के मानिंद ही है । विश्लेषण ही उपचार होता है ।

इसी के साथ जुड़ा हुआ है गांधी दृष्टि का अन्य प्रमुख तत्व — प्रेम । प्रेम दो के बीच संबंधों से निर्मित मानव जीवन का वह अंतरंग जगत है जिसमें सचमुच अन्य के प्रवेश की न्यूनतम गुंजाइश होती है । यह साध्य की शुद्धता को साधन के प्रभाव से बचाने का काम्य स्थान है । सत्याग्रह में प्रेम के महत्व का सार भी यही है । इसमें अगर किसी साधन का प्रवेश हो तो उसे अनिवार्य तौर पर अहिंसक, अर्थात् शुद्ध और अकर्मक होना होगा ।

गांधी ने सत्याग्रह को आदमी का अंतिम हथियार कहा था । इसके आगे उसके सामने सिर्फ मृत्यु ही बचती है । तत्व-दर्शन का अर्थ ही है मृत्यु-दर्शन । इसीलिए गांधी जी का आग्रह था कि इसे बहुत सोच समझ कर अपनाया जाना चाहिए । इसे राजनीति की कोई कूट चाल नहीं समझना चाहिए । गांधी ने राजनीति में सत्याग्रह के लिए विषय के प्रति व्यापक जन-जागरण को सबसे प्रमुख शर्त माना था । सत्याग्रह अपने लक्ष्य को व्यापक जन-समर्थन के बिना प्राप्त नहीं कर सकता है ।

इसी लेख में हिलाल अहमद ने रेखांकित किया था कि “किसी भी आंदोलन का परिणाम उस आंदोलन में ही निहित होता है ।” यह हर वस्तु के अपने जगत और अपने परमेश्वर की ही बात है ; हर सिद्धांत की उसकी अपनी उद्भावक शक्ति की बात । हर क्षेत्र के सिद्धांतों की आंतरिक संहति ही उसकी उद्भावक शक्ति की भूमिका अदा करती है । हिंसा उस आंतरिक संहति को नष्ट करती है, इसीलिए स्वतंत्रता सहित मानव सत्य के किसी भी रूप की प्राप्ति के आंदोलन में हिंसा का परिहार जरूरी है ।

‘अनहद’ के इस अंक में एक बहुत आकर्षक लेख है अशोक भौमिक का — महात्मा गांधी और चित्रकला। इसमें गांधी पर नंदलाल बोस के प्रसिद्ध दांडी मार्च के चित्रों के अलावा चित्त प्रसाद के चित्र जिनमें से एक में गांधी को कांग्रेस, मुस्लिम लीग और कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्यों के बीच बैठ कर चरखा कातते हुए दिखाया गया है, बहुत ही महत्वपूर्ण है । चित्त प्रसाद का दांडी यात्रा का चित्र भी उल्लेखनीय है । इसमें एक चित्र है, जिसमें गांधी को दुर्गा के रूप में असुर वध करते हुए दिखाया गया है । गौर करने की बात है कि हाल की दुर्गापूजा में कोलकाता में हिंदू महासभा के लोगों ने दुर्गा की एक मूर्ति में गांधी को ही असुर के रूप में दिखाया है ! इनके अलावा देशी विदेशी कलाकारों के बनाए हुए और भी कई चित्र है, जो गांधी के कलाओं के उद्भावक रूप को दर्शाते हैं । सिनेमा, पत्रकारिता, साहित्य आदि अलग-अलग सांस्कृतिक विधाओं में गांधी और आजादी की लड़ाई के वक्त के अन्य बड़े नायकों के साथ गांधी के तुलनात्मक अध्ययन जैसे नाना विषयों पर भी कई लेख इस अंक में शामिल किये गए हैं, जो इस अंक को बहुत मूल्यवान और संग्रहणीय बनाते हैं ।

गांधी पर इस शानदार, एक प्रकल्पनुमा विशाल और जरूरी अंक के लिए ‘अनहद’ के संपादक संतोष चतुर्वेदी को हार्दिक बधाई ।    

 

 

 

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