मंगलवार, 25 जून 2024

क्या मोदी मनोविश्लेषण का एक खास विषय बन चुके हैं !

अरुण माहेश्वरी 


अपने पुराने मंत्रिमंडल को ही दोहरा कर, ख़ास तौर पर अमित शाह को गृहमंत्री और ओम बिड़ला को फिर से स्पीकर पद के लिए उतार कर हमारी दृष्टि से मोदी ने संसदीय जनतंत्र को शूली पर चढ़ाने की पूरी तैयारी कर ली है ।


इससे यह भी पता चलता है कि मोदी अब भी पूरी तरह से अपनी कल्पित ईश्वरीय, अशरीरी छवि की गिरफ़्त में हैं। इसीलिए अनायास वही सब कर रहे हैं जो उस समय करते रहे जिससे उनमें अपने अशरीरी होने का जुनूनी अहसास पैदा हुआ था। ऐसे में यह भी कहा जा सकता है कि मोदी -3 का यह पूरा मसला ख़ास प्रकार की छवि की क़ैद से प्रमाता में उत्पन्न 

अस्वाभाविक लक्षणों का ख़ास मनोविश्लेषण का मसला भी बन गया है । 


व्यक्ति हमेशा कुछ ख़ास प्रकार की छवियों से जुड़ कर ही ऐसी तमाम हरकतें कर सकता है जो सामान्यतः कोई आम विवेकशील आदमी नहीं करता है। वह व्यक्ति खुद से नहीं, उस छवि से चालित होने लगता है । व्यक्ति की यह छवि-प्रसूत पहचान उसकी स्वतंत्रता का नहीं, अंततः उसकी सीमाओं, पंगुता और परतंत्रता के लक्षणों का कारण बन जाती है । यह अपने ख़ास खोल में दुबक कर आत्मरक्षा का उसका एक आंतरिक उपाय, एक अंदरूनी ढाँचा बन जाता है । 


मोदी ने अपनी अशरीरी ईश्वरीय छवि की मरीचिका के ज़रिये अपने में जिस शक्ति का अहसास किया, वह कभी भी उनकी वास्तविक शक्ति नहीं थी, इसे हर विवेकवान व्यक्ति जानता है । वह एक कोरा मिथ्याभास, पूरी तरह से उसके बाहर की चीज़ है, जिससे दुर्भाग्य से मोदी काएक ख़ास प्रकार का अस्वाभाविक मानस तैयार हो गया है । 


जैसे शैशव काल में बच्चा दर्पण के सामने हाथ-पैर पटक कर सोचता है कि उसमें दर्पण की उस छवि को सजीव बनाने की शक्ति है, कमोबेश उसी प्रकार मोदी भी अपने स्वेच्छाचार, जनतंत्र-विरोधी उपद्रवों को अपनी ‘ईश्वरीय’ शक्ति मान बैठे हैं । मनोविश्लेषण में इसे ही एक समग्र परिवेश में मनुष्य में “मैं” की मानसिक छवि के गठन की प्रक्रिया कहते हैं, जो उसकी चेतना में बस जाती है । यही चेतना उसे अपनी ख़ास पहचान के साथ अन्य से अलग-थलग करती है । इस प्रकार प्रमाता पर “मैं” का प्रेत सवार हो जाता है । यह प्रेत अपने ही रचे हुए संसार से एक धुंधले संबंध की स्वयंक्रिया के ज़रिए हमेशा आनंद लेते रहना चाहता है । ज़ाहिर है कि इससे प्रमाता के लिए बाक़ी दूसरी तमाम चीजें बंद, foreclosed हो जाती है । 


इसे प्रमाता पर विचारधारा के प्रभाव के संदर्भ से और भी आसानी से समझा जा सकता है । इसके चलते “मैं” के गठन की निजी और सामाजिक प्रक्रियाओं के बीच से ही विचारधारात्मक ज्ञान भी प्रमाता के मस्तिष्क की आँख के सामने अज्ञान की पट्टी बन जाता है । 


इसी अर्थ में मोदी की वर्तमान दशा को प्रमाता के अपनी एक छवि में क़ैद हो जाने, दिमाग़ पर अज्ञान की पट्टी बांध कर बेधड़क घूमने के मनोरोग का एक क्लासिक उदाहरण कहा जा सकता है । 

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