-अरुण माहेश्वरी
शिवरात्रि बीत गई। कुंभ की भीड़ में मल-मूत्र और मुनाफ़े के पहाड़ समान बिंब के पीछे शिव और शक्ति के योग का वह सुंदर बिंब कहीं छिप गया, जिसमें विज्ञान और प्रकृति के संयोग से भैरव की समझौताहीन स्वतंत्रता की आकांक्षा हो सकती थी।
यही हमारे समय की सबसे बड़ी विडंबना है—हम किसी क़ानून के राज में नहीं, बल्कि शुद्ध अराजकता में जी रहे हैं।
वैसे तो नवजागरण के समय से विज्ञान का केंद्र प्रकृति हो गया था, और उसी के साथ परंपरा के क़ानून के राज का अंत शुरू हो चुका था । उसी समय इस नए अराजकता के रोग के बीज भी शायद पड़ गए थे।
प्रसिद्ध दार्शनिक हाइडेगर ने इस ओर संकेत किया था कि “विश्व की परिघटनामूलक गति अब तकनीक के नियंत्रण में आ गई है।” आज प्रमाता का अस्तित्व केवल उससे होने वाले मुनाफ़े पर निर्भर हो चुका है। विश्व अर्थव्यवस्था इसका मानक है और वही पूरी तरह से अराजक हो चुकी है। इस रोग के लक्षण हर जगह बार-बार प्रकट हो रहे हैं—कुंभ से लेकर निवेशक सम्मेलनों तक, और ट्रंप की डील-मेकिंग से लेकर दुनिया के बाजार तक।
हम उपभोग के जरिये इस अराजकता से समझौता करके चलने के आदी हो चुके हैं।अभिनवगुप्त का ‘भैरव ‘ भी शिथिल हो कर मानो समझौता कर रहा है। आम आदमी भरिततनु भाव में जो भी उपलब्ध है, उसी में संतुष्ट है। कुंभ के प्रदूषित जल में डुबकी लगाकर मोक्ष की आकांक्षा करता हुआ मस्त है।
लेकिन असली सवाल है—हमारे अवचेतन की यह धुंध कैसे कटेगी? यह सही है कि लकान के मनोविश्लेषण के सहारे कांट की आलोचनात्मक शैली को साधा जा सकता है। यह जॉक दरीदा की तरह विखंडन की शक्ति भी देता है। खुद दरीदा ने, अपने एक नोट में जो उनकी मृत्यु के बाद प्रकाशित हुआ, कहा था कि मनोविश्लेषण अराजकता को कठघरे में खड़ा करता है और जीवन को बाज़ार के मानकों पर ढालने का विरोध करता है। लेकिन फ्रायड और लकान के समय में भी आज जैसी बेहूदगियां इतनी नग्न नहीं हुई थीं।
आज शर्म का सार्विक रूप में अंत हो चुका है। इस स्थिति में सवाल यह है कि किस ‘नाम-का-पिता’ ( अर्थात् किस पारंपरिक नैतिकता) की शरण ली जाए?
हमारी निगाह में एकमात्र कार्ल मार्क्स ही हैं, जिन्होंने माल की अंधश्रद्धा के इस रोग की गहराई से पहचान की थी और इससे मुक्ति के संगठित, समझौताहीन संघर्ष के उस विज्ञान को जन्म दिया था जो प्रकृति की स्वतंत्रता से जुड़ा हुआ है । अभिनवगुप्त के स्वातन्त्र्य बोध और लकानियन विश्लेषण के साथ मार्क्स के निर्मम आलोचना के औजारों को सान देने की ज़रूरत है। बाक़ी सब बकवास साबित होने के लिए अभिशप्त है ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें