बुधवार, 19 मार्च 2025

प्रमाता से अनीहा क्यों !


−अरुण माहेश्वरी 



"हिंदी आलोचना में ‘subject’ के लिए 'प्रमाता' का प्रयोग क्यों नहीं हो पाया? पिछले कुछ वर्षों में इस लेखक ने इसे एक केंद्रीय विमर्श बनाया है, लगातार अपने लेखन में एक दार्शनिक और मनोविश्लेषणात्मक श्रेणी (category) और प्रतिपत्ति (predication)1 दोनों के तौर पर रखा है, पर बौद्धिक हलकों में उसकी कोई गूँज नहीं दिखती। 

यद्यपि हाल में संस्कृत के विद्वान श्री राधावल्लभ त्रिपाठी ने यूट्यूब पर अपनी एक वार्ता में हमारी पुस्तक ‘प्रमाता का आवास’ की समीक्षा करते हुए इस पद को सटीक रेखांकित किया और अपनी वार्ता से किताब के मर्म को प्रकाशित करने का सफल प्रयास किया ।* लेकिन सामान्यतः हिंदी आलोचना के ज्ञानमीमांसामूलक लेखन में subject के लिए उससे आम तौर पर विहित अर्थ ‘विषय’ से ही काम चला लेने की प्रवृत्ति पाई जाती है ।2 सुविधा के अनुसार इसे कहीं व्यक्ति, प्रसंग आदि भी कह दिया जाता है । 

सब जानते हैं कि दर्शनशास्त्र (Philosophy) और ज्ञानमीमांसा (Epistemology) की भारतीय चिंतन की पदावली में ‘विषय’ और ‘प्रमाता’ दोनों महत्वपूर्ण अवधारणाएँ हैं। ये दोनों काफी हद तक समानार्थी प्रतीत होने पर भी "विषय" (object) की तुलना में "प्रमाता" (knower) पद के प्रयोग का अपना एक विशेष कारण है क्योंकि भारतीय ज्ञानमीमांसा (epistemology) की विशिष्ट दृष्टि चेतना-केंद्रित है। यह विशेष पद ही सूक्ष्म रूप में पश्चिमी भाववाद की चेतना-केंद्रित दृष्टि से भी भारतीय चिंतन को अलगाता है ।

भारतीय परंपरा में ज्ञान को एक स्थिर बाह्य "विषय" से जोड़ने के बजाय "प्रमाता" की स्थिति से देखा जाता है। ज्ञान का होना केवल विषय की उपस्थिति से नहीं, बल्कि प्रमाता के अस्तित्व और उसकी बोधगम्यता (cognition) से भी निर्धारित होता है। प्रमाता के बिना कोई भी प्रमेय (ज्ञेय वस्तु) का अस्तित्व नहीं है । 

कश्मीर शैवदर्शन में प्रमाता को केवल एक ज्ञाता (knower) नहीं, बल्कि शिवस्वरूप कहा गया है। इसका अर्थ यह है कि ज्ञान और अस्तित्व (being) को द्वैत रूप में देखने के बजाय, प्रमाता स्वयं चेतना (consciousness) और अस्तित्व का मूल आधार है । इसमें "प्रमाता" शिव का वह रूप है जो अनुभव करता है, और "प्रमेय" (object) केवल उसकी अनुभूति का विस्तार मात्र है। कश्मीर शैवदर्शन में इस प्रक्रिया को "प्रत्यभिज्ञा" (self-recognition) कहा गया है, यानी प्रमाता स्वयं को ही विभिन्न रूपों में पहचानता है । कश्मीरी शैवदर्शन के अलावा अद्वैत वेदांत, सांख्य-योग में भी प्रमाता की इस खास स्थिति को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।3 प्रत्यभिज्ञादर्शन में प्रमाता स्वयं में एक विषद विश्लेषण का विषय है ।4

प्रमाता को ज्ञानमीमांसा की एक ख़ास श्रेणी के रूप में अपनाना, "विषय" से भिन्न दृष्टिकोण को दर्शाता है। पश्चिमी ज्ञानमीमांसा की पारंपरिक धारा में ऐसा नहीं है, जहाँ "विषय" (object) और "विषय का स्वरूप" (subject) के द्वैत को प्राथमिकता दी जाती है। 

विषय-केन्द्रित ज्ञानमीमांसा में चेतना की भूमिका गौण हो जाती है। यदि केवल "विषय" (object) पर ध्यान दिया जाए, तो ज्ञान को केवल बाह्य जगत पर निर्भर माना जाएगा। जबकि भारतीय परंपरा में ज्ञान को प्रमाता के बिना अधूरा माना जाता है। विषय बाह्य हो सकता है, लेकिन जहां तक ज्ञान की उत्पत्ति का सवाल है, प्रमाता की चेतना ही उसे संभव बनाती है । इसके अलावा, प्रमाता बिना विषय के भी ज्ञान का स्रोत हो सकता है (जैसे समाधि का अनुभव)।

कुल मिला कर, "विषय" के स्थान पर "प्रमाता" को प्राथमिकता देना भारतीय ज्ञानमीमांसा की अपनी एक मौलिक विशेषता है। यह ज्ञान को मात्र बाह्य वस्तुओं की उपस्थिति से नहीं, बल्कि चेतना और आत्मबोध (self-awareness) से जोड़ती है। इस दृष्टिकोण में प्रमाता केवल एक तटस्थ "ज्ञाता" नहीं, बल्कि वह ऐसा शिवस्वरूप, या ब्रह्म है, जो अपने ही स्वरूप को अनुभव करता है। 

अब सवाल उठता है कि हिंदी आलोचना में प्रमाता शब्द का चलन क्यों नहीं हुआ या अब भी नहीं हो पा रहा है ? इस सवाल की गहराई से जाँच करने पर हमारी सबसे पहली नजर उस भाषा, परंपरा, और पद्धति पर पड़ती है जिनसे हिंदी आलोचना मूल रूप से जुड़ी रही है। ढर्रेवर तरीके से इसे कहीं न कहीं भारतीय दर्शन की अवधारणाओं और पश्चिमी आलोचना पद्धति के प्रभाव के बीच का अंतर भी कहा जा सकता है।

जैसा कि हम पहले ही कह आए हैं, पारंपरिक पश्चिमी आलोचना पद्धतियों में "विषय" (object) को विश्लेषण का प्राथमिक केंद्र बनाया जाता है। "संपृक्त पाठ" (Close Reading) और "संरचनावाद" (Structuralism) के चलते "विषय" पर ही ध्यान केंद्रित किया जाता है। "प्रमाता" (knower) की चेतना की भूमिका गौण हो जाती है, क्योंकि पश्चिमी आलोचना प्रायः "पाठ" और "विषय" को स्वतंत्र रूप से देखने का आग्रह करती है। आधुनिक हिंदी आलोचना में भी जिस पद्धति से साहित्य, कला, और संस्कृति का विश्लेषण होता है, उसमें प्रमाता की अपेक्षा "पाठ", "संरचना", और "संदर्भ" को अधिक महत्व दिया जाता है।

पश्चिमी दर्शन में subject-object भेद बहुत गहरा है। Cartesian द्वैतवाद (dualism) में subject (स्व) और object (वस्तु) एक-दूसरे से पृथक माने जाते हैं। इसके विपरीत, भारतीय दर्शन, विशेष रूप से अद्वैत वेदांत और कश्मीरी शैवदर्शन, इस भेद को स्थायी नहीं मानते। यहाँ ज्ञानमीमांसा में "प्रमाता" ही "प्रमेय" को जन्म देता है और उसके बिना किसी वस्तु (object) का कोई स्वतंत्र अस्तित्व भी नहीं होता।

पश्चिमी आलोचना की "विषय-केंद्रित" प्रवृत्ति से जुड़ाव और भारतीय ज्ञानमीमांसा से अलगाव के अलावा हिंदी आलोचना में "प्रमाता" शब्द का चलन न होने पाने का एक और मूल कारण शायद व्यावहारिक आलोचना की सरलता की अपनी मांग भी है। 

"प्रमाता" सचमुच एक जटिल दार्शनिक अवधारणा है, जो सामान्य आलोचना के लिए सहज नहीं है। प्रमाता केवल "पाठक" (reader) या "कला का अनुभव करने वाला" नहीं है, बल्कि वह चेतना (consciousness) का वाहक भी है। इसे आलोचना में शामिल करने के लिए ज्ञानमीमांसा, तंत्रशास्त्र, और भारतीय दार्शनिक परंपराओं की गहरी समझ जरूरी हो जाती है।

समस्या यही है कि हिंदी आलोचना की मुख्यधारा इस तरह की गहरी दार्शनिक पृष्ठभूमि के साथ काम नहीं करती रही है । प्रमाता की उपस्थिति को मानते ही आलोचना में संधान के कई स्तर जुड़ जाते हैं — मसलन्, प्रमाता का स्वरूप क्या है? क्या वह केवल एक व्यक्ति है, या चेतना का व्यापक आयाम? यदि प्रमाता बदलता है, तो क्या साहित्य का अर्थ भी बदलता है?

जाहिर है कि ये सवाल किसी भी आलोचना में एक गतिशीलता और अनिश्चितता लाते हैं, जो व्यावहारिक आलोचना के लिए बहुत चुनौतीपूर्ण काम हो जाता है। हिंदी आलोचना में लेखक, पाठक, और आलोचक की भूमिकाएँ हमेशा अपेक्षाकृत स्थिर और पारंपरिक रूप में व्याख्यायित हैं। "प्रमाता" को स्वीकार करने का अर्थ होगा कि इन भूमिकाओं में निरंतर परिवर्तन संभव है, क्योंकि प्रमाता केवल "ज्ञाता" नहीं, बल्कि ज्ञान का स्रोत और उसका परिक्षेत्र भी है। मनोविश्लेषण में तो जॉक लकान ने विश्लेषक और विश्लेष्य के बीच स्थान-परिवर्तन की बात तक को माना है ।5

हिंदी आलोचना इस स्तर की जटिलता को अपनाने के बजाय हमेशा एक सरल संरचना में ही बनी रही। इसीलिए, सामान्यतः हिंदी आलोचना में "विषय" को ही केंद्र में रखा जाता है, क्योंकि यह आलोचना को अधिक स्थिर और नियंत्रित परिप्रेक्ष्य प्रदान करता है। हर ‘विचारधारा-प्रेरित’, ‘विश्वास-आधारित’ विमर्श के लिए ऐसी निश्चितता और स्थिरता ही सबसे उपयुक्त और काम्य भी होती है । इसीलिए मार्क्सवादी आलोचना भी धार्मिक विश्वासों से जुड़ी राष्ट्रवादी धारा के ढांचे को नहीं तोड़ पाई ।6 

  बहरहाल, इसके कुछ भी ऐतिहासिक कारण क्यों न रहे हो, पर यह सच है कि इसके चलते ही हिंदी आलोचना आज उस जड़ता में पहुँच चुकी है, जिसे लेखक ने एक चेतावनी के रूप में ‘आलोचना का कब्रिस्तान’ कहा है — एक ऐसा स्थान, जहाँ विचार गतिशील नहीं, निर्वात में सोये हुए हैं। आज के संकट की घड़ी में भी, जब हिंदी आलोचना के सामने प्रासंगिकता का संकट हैं, उसका अपनी जगह से न हिल पाना यही बताता है कि वह विषय को अब भी ज्ञाता और ज्ञेय के द्वंद्वात्मक ऐक्य के स्वरूप प्रमाता में देखने में असमर्थ है, जबकि इसके तमाम सूत्र उसे भारतीय ज्ञानमीमांसा के स्रोतों से ही बड़ी आसानी से मिल सकते हैं। (देखें इस लेख के अंत में अभिनवगुप्त के ईश्वरप्रत्यभिज्ञाविमर्शिनी के ज्ञानाधिकार के पहले अध्याय के अंतिम तीन आह्निकों में प्रमाता संबंधी श्लोकों की व्याख्या)  

जहां तक पश्चिम की आधुनिक आलोचना का सवाल है, इसका तो मार्क्सोत्तर (post-Marx) समग्र विकास ही प्रमाता की इस द्वंद्वात्मक संरचना की समझ पर ही संभव हुआ है । इसकी जमीन हेगेलियन द्वंद्वमूलक भाववाद से कार्ल मार्क्स ने अपने द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के जरिये ही तैयार कर दी थी जो विषय की गति को अनिवार्यतः उसकी आत्मचेतना से जोड़ कर देखता है । इसी आधार पर तो मार्क्स ने अपने को तीव्रता के साथ फ़यरबाख़ के भौतिकवाद से अलग किया था ।7 मार्क्स ने ही लिखा था कि “अब तक के सारे भौतिकवाद की – जिसमें फ़ायरबाख़ का भौतिकवाद भी शामिल है – मुख्य त्रुटि यह है कि वस्तु (Gegenstand), वास्तविकता और ऐन्द्रियता को केवल विषय (Objekt) या अनुध्यान (Anschauung) के रूप में कल्पित किया जाता है न कि मानव की ऐन्द्रिय क्रिया, व्यवहार के रूप में, न कि subjectivity के रूप में ।” 

हालांकि पश्चिमी आलोचना भी पारंपरिक रूप से Cartesian द्वैतवाद (subject-object division) के प्रभाव में रही है, लेकिन मार्क्स के उपरांत 20वीं शताब्दी के सिंगमेंड फ्रायड-जॉक लकान के मनोविश्लेषण, क्लॉद लिवी-स्ट्रॉस के संरचनात्मक मानवशास्त्र, मिशेल फूको (Michel Foucault)) के सत्तावाद और पॉल रिको (Paul Ricœur) और जॉक देरिदा के पाठ-केंद्रित शास्त्र (hermeneutics) ने चेतना, भाषा और सत्ता के जो नए विमर्श प्रस्तुत किए, उनमें प्रमाता को एक स्थिर "विषय" (subject) नहीं, बल्कि एक सक्रिय संरचनात्मक प्रक्रिया के रूप में ही देखा गया है। इन सभी विचारकों की अवधारणाएँ "संरचना", "सत्ता", "अवचेतन", और "पाठ" की सक्रिय प्रक्रिया को समझने पर टिकी हैं। ‘प्रमाता’ की अवधारणा के बिना इन विचारों को समझना ही मुश्किल होगा । 

प्रमाता को समझे बिना लकान की अस्थिर पहचान (fluid identity) की अवधारणा व्यर्थ हो जाएगी, लिवी-स्ट्रॉस का संरचनात्मक विश्लेषण मात्र सांख्यिकीय नियम बनकर रह जाएगा, फूको का सत्ता सिद्धांत केवल एक बाहरी नियंत्रण तंत्र बन जाएगा, रिको और दरीदा की पाठ-मीमांसा भाषा विज्ञान तक सीमित रह जाएगी।8 यह स्पष्ट है कि पश्चिमी आलोचना में भी प्रमाता एक सक्रिय चेतना है, और इसे मात्र "विषय" के रूप में देखने से उनकी विचारधाराओं को सही ढंग से नहीं समझा जा सकता है।

यदि प्रमाता की अवधारणा को ध्यान में रखते हुए इन सब आधुनिक विचारकों को पढ़ा जाए, तो उनकी आलोचना दृष्टि को भारतीय ज्ञानमीमांसा के साथ भी एक नए संवाद में लाया जा सकता है। इस प्रकार कहना न होगा, प्रमाता की अवधारणा न केवल भारतीय ज्ञानमीमांसा के लिए आवश्यक है, बल्कि पश्चिमी आलोचना के गहन विश्लेषण के लिए भी अनिवार्य है।

पुनश्च, हर प्रमाता एक विषय है, लेकिन हर विषय प्रमाता नहीं होता। जब कोई व्यक्ति केवल अनुभव कर रहा है, तो वह विषय है। जब वह ज्ञान प्राप्त करने के उद्देश्य से कुछ कर रहा है, तो वह प्रमाता बन जाता है। यदि आलोचना में केवल "विषय" शब्द का ही प्रयोग होता है, तो ज्ञान की प्रक्रिया केवल बाह्य सामग्री (text, discourse) पर केंद्रित हो जायेगी । इसके विपरीत "प्रमाता" शब्द ज्ञान को उस सत्ता (cognitive agency) से जोड़ता है, जो ज्ञान को ग्रहण करती है और उसका निर्माण भी करती है। यदि प्रमाता को केंद्र में रखा जाए, तो पाठक, लेखक और आलोचक को केवल "विषय का विश्लेषक" नहीं, बल्कि ज्ञान की प्रक्रिया में सक्रिय भागीदार के रूप में देखा जाएगा। आलोचना केवल पाठ-विश्लेषण तक सीमित न रहकर ज्ञानमीमांसा की गहरी प्रक्रियाओं को समेट सकेगी, जिसमें प्रमाता और प्रमेय का संबंध अधिक स्पष्ट रूप से समझा जाएगा।

"प्रमाता" की अवधारणा को अपनाने का अर्थ होगा कि हम आलोचना को केवल "पाठ" (text) या "वस्तु" (object) पर केंद्रित न रखकर उसे चेतना, अनुभव और ज्ञानमीमांसा से भी जोड़ें। यदि इस विचार को सैद्धांतिक रूप से विकसित किया जाए और इसे आलोचना की भाषा में समायोजित किया जाए, तो "प्रमाता" का प्रयोग एक वैकल्पिक आलोचनात्मक दृष्टि (alternative critical perspective) के रूप में स्थापित किया जा सकता है। इससे आलोचना केवल वस्तु-केंद्रित (object-oriented) होने के बजाय चेतना-केंद्रित (consciousness-oriented) बनेगी।

प्रमाता का प्रयोग करने से आलोचना में ज्ञान का स्रोत केवल बाह्य "विषय" नहीं, बल्कि "ज्ञाता" की चेतना और उसकी स्थिति भी होगी।

यह आलोचना को भारतीय ज्ञानमीमांसा और पश्चिमी आलोचना के बीच की खाई को भरने का एक प्रभावी साधन बना सकता है।

इसलिए, हिंदी आलोचना में "विषय" के स्थान पर "प्रमाता" को स्थापित करना न केवल संभव है, बल्कि हमारी दृष्टि में जरूरी है । प्रमाता’ को अपनाना आलोचना में चेतना की सक्रिय भागीदारी का द्वार खोलेगा — और इससे हिंदी आलोचना फिर से विचार का जीवंत क्षेत्र बन सकेगी।


संदर्भ:

1. ‘श्रेणी’ और ‘प्रतिपत्ति’ दर्शनशास्त्र में ज्ञान के संगठन और उसके कथन की आधारशिला हैं। श्रेणी हमें वस्तुओं और उनके गुणों को व्यवस्थित करने का साधन देती है, जबकि प्रतिपत्ति हमें उन वस्तुओं के बारे में तर्कसंगत रूप से कथन करने में सक्षम बनाती है। पश्चिमी और भारतीय परंपराओं में इनके विश्लेषण की भिन्न-भिन्न प्रवृत्तियाँ हैं, लेकिन दोनों ही संदर्भों में ये विषय तर्क, भाषा, और वास्तविकता की संरचना की मूलगामी व्याख्याएँ प्रस्तुत करते हैं।

2. देखें, ‘आलोचना’ के 75वें अंक में अच्युतानंद मिश्र का लेख – “लालसा का सूक्ष्म इतिहास : डेल्यूज और गुआटारी के चिंतन पर केंद्रित ।

3. "ईश्वरप्रत्यभिज्ञाकारिका" और "स्पन्दकारिका" जैसे शैव दर्शन के प्रमुख ग्रंथों में प्रमाता, प्रमेय (ज्ञेय वस्तु), और शिव के स्वरूप संबंधी सिद्धांतों पर गहन और विस्तृत चर्चा मिलती है। अद्वैत वेदांत में प्रमाता को ब्रह्म के रूप में देखा गया है, जबकि विषय (object) केवल माया का विस्तार है। यहाँ ज्ञान और ज्ञाता में कोई वास्तविक द्वैत नहीं है; आत्मा ही वास्तविक प्रमाता है, और विषय केवल ज्ञान का प्रतिबिंब (reflection)।

न्याय दर्शन "प्रमाता-प्रमाण-प्रमेय" (knower-means of knowledge-object of knowledge) की त्रयी पर बल देता है। विपरीत रूप से, बौद्ध विचार में विशेष रूप से विज्ञानवाद (योगाचार) में प्रमाता और प्रमेय दोनों को केवल चित्त की ही अभिव्यक्ति माना गया है।

4. इश्वरप्रत्यभिज्ञादर्शन के ज्ञानाधिकार खंड में प्रमाता के भी पांच रूपों की चर्चा है । 1.प्रकाशक प्रमाता (Supreme Knower) । यह शिव के स्तर पर है, जहाँ प्रमाता पूर्णत: स्वतंत्र और सार्वभौमिक है। 2.मायीय प्रमाता (Conditioned Knower) । यहाँ प्रमाता मायिक प्रभावों से आच्छादित रहता है और उसकी चेतना सीमित हो जाती है। 3.कार्य प्रमाता (Empirical Knower) । यह सांसारिक अनुभव के स्तर पर है, जहाँ प्रमाता संसार के विभिन्न वस्तुओं और संबंधों को अनुभव करता है। 4.काल्पनिक प्रमाता (Imaginary Knower) । यह वह स्तर है जहाँ प्रमाता अपनी कल्पनाओं और विचारों के माध्यम से ज्ञान प्राप्त करता है। 5. केवल दृश्य प्रमाता (Observer of the Objective World)। यहाँ प्रमाता केवल बाह्य वस्तुओं और घटनाओं को देखता है, परन्तु आत्मचेतना से अनभिज्ञ रहता है।

5. 5. देखें,Jacques Lacan, Ecrits, Variationa on the Standard Treatment:

“This desire, in which it is literally verified that man's desire is alienated in the other's desire, in effect structures the drives discovered in analysis, in accordance with all the vicissitudes of the logical substitutions in their source, aim [direction], and object.” (p. 343)

“But if this speech is nevertheless accessible, it is because no true speech is simply the subject's speech, since true speech always operates by grounding the subject's speech in its mediation by another subject. In that way this speech is open to the endless chain − which is not, of course, an indefinite chain, since it forms a closed loop of words [paroles] in which the dialectic of recognition is concretely realized in the human community.” (p.353)

6. मसलन् रामचंद्र शुक्ल को ही लिया जाए । उनकी आलोचना ऐतिहासिकता और सामाजिक संदर्भों पर केंद्रित रही। उनके यहाँ विषय की प्रधानता स्पष्ट दिखती है। ‘काव्य में लोकमंगल’ का आग्रह हो या साहित्य का इतिहास, उसमें प्रमाता के रूप में आलोचक की चेतना का कोई विवेचन नहीं मिलता। आलोचक वहाँ तटस्थ मूल्यांकनकर्ता के रूप में है, न कि ज्ञान-प्रक्रिया में सक्रिय प्रमाता के रूप में। यह दर्शक-भूमिका प्रमाता की सगुण चेतना से भिन्न है।

रामविलास शर्मा की आलोचना में वर्ग-चेतना, ऐतिहासिक द्वंद्व, और सामाजिक गतिशीलता प्रमुख है, लेकिन प्रमाता की चेतना को केवल सामाजिक यथार्थ के परिप्रेक्ष्य में देखा गया है। इस कथित मार्क्सवादी आलोचना में प्रमाता का विश्लेषण विशुद्ध रूप में सामाजिक संरचना से बँधा हुआ है, विरले ही स्वायत्त बोध-सत्ता के रूप में नजर आता है।

नामवर सिंह ‘पुनर्रचना’ और ‘साक्षात्कार’ जैसी अवधारणाओं से पाठक की भूमिका को सामने लाए, पर यहाँ भी ‘प्रमाता’ की चेतना के गहन विश्लेषण का अभाव है। पाठक एक सांस्कृतिक पाठ का उपभोक्ता और सक्रिय व्याख्याकार के रूप में दिखता है, लेकिन उसकी ज्ञानमीमांसीय स्थिति को कभी प्रमातृत्व के स्तर पर नहीं देखा गया।

दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, पर्यावरण विमर्श जैसी सिद्धांत (थ्योरी)-केंद्रित विमर्शों से जुड़ी आलोचना पद्धतियों में भी ‘विषय’ या ‘पाठ’ ही केंद्र में रहता है। प्रमाता की चेतना अक्सर वर्गीय या लिंग आधारित अनुभव तक सीमित होती है, और वह सत्ता-सम्बंधों में बँधी इकाई होती है। यहाँ प्रमाता विश्लेषणात्मक इकाई नहीं, बल्कि सामाजिक पहचान मात्र बन जाता है।

7. देखें, कार्ल मार्क्स : फ़यरबाख़ पर निबन्ध ; कार्ल मार्क्स फ्रेडरिक एंगेल्स, संकलित रचनाएँ, (चार भाग में), भाग – 1 (प्रगति प्रकाशन, मास्को) पृष्ठ 33 । इस निबंध की पहली ही पंक्ति है – “अब तक के सारे भौतिकवाद की – जिसमें फ़ायरबाख़ का भौतिकवाद भी शामिल है – मुख्य त्रुटि यह है कि वस्तु (Gegenstand), वास्तविकता और ऐन्द्रियता को केवल विषय (Objekt) या अनुध्यान (Anschauung) के रूप में कल्पित किया जाता है न कि मानव की ऐन्द्रिय क्रिया, व्यवहार के रूप में, न कि आत्मनिष्ठ रूप में ।” 

(The chief defect of all hitherto existing materialism – that of Feuerbach included – is that the thing, reality, sensuousness, is conceived only in the form of the object or of contemplation, but not as sensuous human activity, practice, not subjectivity)

ऊपर के हिंदी अनुवाद में जहां subjectivity को ‘आत्मनिष्ठ’, कहा गया है, हमारी दृष्टि में उसका सही अनुवाद ‘प्रमातृत्व’ होगा क्योंकि ‘आत्मनिष्ठ’ एक विशेषण है, जब कि ‘प्रमातृत्व’ एक भाववाचक संज्ञा (abstract noun), स्वयं में एक दार्शनिक श्रेणी । 

8. जॉक लकान ‘प्रमाता’ को न तो एक संपूर्ण ज्ञाता मानते हैं, न ही शुद्ध दर्शक — वह एक ऐसी इकाई है जो 'अवचेतन के भाषा-जाल' में विखंडित होती है और पुनः अपनी पहचान खोजती है।" लकान के अनुसार, "अवचेतन भाषा की तरह संरचित होता है।" (The unconscious is structured like a language.) यह प्रमाता की स्थिति को "पूर्णतः ज्ञाता" के रूप में स्थापित नहीं करता, बल्कि उसे "विखंडित और पुनर्रचित" (split and reconstituted) इकाई के रूप में देखता है। उनका "मिरर स्टेज" (Mirror Stage) और "अन्य" (The Other) का विचार यही दर्शाता है कि प्रमाता (subject) अपने अस्तित्व की पहचान दूसरे के माध्यम से करता है। प्रमाता को समझे बिना लकान के मनोविश्लेषण की अवधारणा अधूरी रह जाएगी, क्योंकि यह केवल चेतन प्रक्रिया पर नहीं, बल्कि अवचेतन की गतिशीलता पर निर्भर करता है।

लिवी-स्ट्रॉस के संरचनात्मक मानवशास्त्र में प्रमाता की स्थिति व्यक्तिगत नहीं, बल्कि संरचनात्मक (structural) है। वे भाषा और संस्कृति को संरचनाओं के रूप में देखते हैं, लेकिन इन संरचनाओं को केवल बाहरी नियमों से नहीं, बल्कि चेतन और अवचेतन प्रक्रियाओं से निर्मित मानते हैं। यदि प्रमाता का विचार न हो, तो संरचनात्मक मानवशास्त्र केवल एक निष्क्रिय प्रणाली बनकर रह जाएगा, जबकि वास्तव में यह "संरचनाओं के भीतर सक्रिय मानवीय चेतना" की खोज करता है।

मिशेल फूको (Michel Foucault) ने सत्ता को केवल बाहरी नियंत्रण के रूप में नहीं, बल्कि "ज्ञान-सत्ता" (Power-Knowledge) की एक प्रक्रिया के रूप में देखा। सत्ता केवल ऊपर से थोपी नहीं जाती, बल्कि यह समाज के हर स्तर पर प्रसारित होती है और व्यक्ति स्वयं इसे पुनरुत्पन्न करता है। प्रमाता को निष्क्रिय मानने पर फूको का सत्ता का सिद्धांत काम नहीं करेगा, क्योंकि उसमें प्रमाता स्वयं सत्ता के तंत्र का एक सक्रिय भाग होता है।

पॉल रिको (Paul Ricœur) का पाठ-विश्लेषण (hermeneutics) इस विचार पर टिका है कि पाठ को अर्थ केवल पाठक और लेखक की चेतना की सहभागिता से मिलता है। यदि प्रमाता (knower) को हटाया जाए, तो पाठ केवल मृत शब्दों का संकलन बन जाएगा। उनके पाठक-संकेतक (reader-signifier) सिद्धांत में यह स्पष्ट होता है कि "पाठ" केवल अपने भीतर अर्थ नहीं रखता, बल्कि अर्थ उसकी व्याख्या (interpretation) में स्थित होता है।

जैक देरिदा (Jacques Derrida) के विचारों को भी "प्रमाता" की अवधारणा के बिना समझना मुश्किल होगा, क्योंकि उनके पाठ-विघटन (deconstruction) और "पाठ से परे कुछ भी नहीं" (There is nothing outside the text) के सिद्धांत में प्रमाता की भूमिका अनदेखी नहीं की जा सकती।

देरिदा के पाठ-विघटन (deconstruction) को अक्सर इस रूप में समझा जाता है कि वह "पाठ की स्वतंत्र सत्ता" स्थापित करता है और प्रमाता (knower) या लेखक को गौण कर देता है। लेकिन वास्तव में, देरिदा का दृष्टिकोण यह नहीं कहता कि पाठ का कोई निश्चित अर्थ नहीं होता, बल्कि यह दर्शाता है कि अर्थ स्थिर नहीं होता, वह प्रमाता और संदर्भ (context) पर निर्भर करता है। पाठ का अर्थ हमेशा अपने भीतर के अंतर्विरोधों, संकेतकों (signifiers) की अदल-बदल, और प्रमाता की व्याख्यात्मक प्रक्रिया के कारण बदलता रहता है। 

देरिदा की प्रसिद्ध अवधारणा "différance" (विलंबन और भिन्नता) को समझने के लिए प्रमाता आवश्यक है, क्योंकि यह दिखाता है कि कोई भी अर्थ पूर्ण रूप से निष्कर्षित नहीं होता, बल्कि यह हमेशा आगे खिसकता रहता है।

यदि प्रमाता (knower) को आलोचना से हटा दिया जाए, तो यह विचार केवल भाषा के आंतरिक खेल (play of language) में सीमित रह जाएगा और ज्ञानमीमांसा की व्यापक प्रक्रिया से कट जाएगा।

लेकिन प्रमाता को ध्यान में रखते हुए देरिदा को पढ़ने पर यह स्पष्ट होता है कि भाषा और अर्थ हमेशा व्याख्याकार (interpreter) यानी प्रमाता के साथ संवाद में रहते हैं।

पश्चिमी परंपरा में Cartesian "subject" एक निश्चित, आत्म-निभर्र सत्ता के रूप में देखा जाता था। देरिदा इसे विघटित करते हैं और यह दिखाते हैं कि subject स्वयं भाषा के भीतर एक निर्माण (constructed entity) है। इस पुनर्रचित subject को भारतीय ज्ञानमीमांसा के "प्रमाता" की तरह देखा जा सकता है, क्योंकि यह भी अपने अनुभव और व्याख्या के आधार पर अर्थ का सृजन करता है।

यदि हम प्रमाता को पूरी तरह हटा दें, तो पाठ केवल संकेतकों की एक स्वायत्त संरचना बन जाएगा, जिसमें अर्थ की कोई सुनिश्चितता नहीं होगी। 


और अंत में:

ईश्वरप्रत्यभिज्ञाविमर्शिनी के प्रथम ज्ञानाधिकार के षष्ठमाह्निकम् से अष्टममाह्निकम में प्रमाता संबंधी विमर्श की एक व्याख्या 

अहंप्रत्यवमर्शो यः प्रकाशात्मापि वाग्वपुः ।

नासौ विकल्पः स ह्युक्तो द्वयाक्षेपी विनिश्चयः ॥ (ईश्वरप्रत्यभिज्ञाकारिका 1.6.1)

("अहं" (मैं) का अनुभव ही वास्तविक ज्ञान का मूल है। "मैं" का बोध केवल प्रकाश मात्र नहीं, बल्कि विमर्श (स्व-परिचय) का केंद्र है। यह विकल्प (कल्पना) नहीं, बल्कि निश्चय (निर्णय) है। अर्थात् प्रमाता को अपने अस्तित्व का अनुभव होता है – "मैं हूँ"। यह अनुभव विकल्प नहीं हो सकता, क्योंकि यह अन्य किसी बाहरी वस्तु पर निर्भर नहीं करता। यह विमर्श ही प्रमाता की वास्तविकता है।) 

यह व्याख्या स्पष्ट करती है कि प्रमाता ही वास्तविक सत्ता है, और संपूर्ण ज्ञान उसकी शक्ति मात्र है। प्रमाता की विमर्शात्मकता ही ज्ञान की आधारशिला है, और उसके बिना कोई भी ज्ञान संभव नहीं।

भिन्नयोरवभासो हि स्याद्घटाघटयोर्द्वयोः ।

प्रकाशस्येव नान्यस्य भेदिनस्त्ववभासनम् ॥ (1.6.2)

(यदि दो वस्तुएँ वास्तव में भिन्न होतीं, तो वे अलग-अलग रूप में प्रकट होतीं। जैसे घट (घड़ा) और अघट (घड़ा न होना) को स्पष्ट रूप से अलग-अलग देखना संभव है। परंतु, प्रकाश को किसी और से अलग करके देखना संभव नहीं – क्योंकि प्रकाश स्वयं ही सभी चीजों को प्रकट करता है। अतः प्रकाश विभाज्य नहीं है – वह स्वयं को नहीं तोड़ सकता। अर्थात् प्रमाता (ज्ञाता) भी प्रकाश की तरह ही अखंड है। यदि प्रमाता स्वयं से भिन्न होता, तो वह स्वयं को कभी नहीं जान सकता था। प्रमाता ही सब कुछ प्रकाशित करता है – इसलिए वह विभक्त नहीं हो सकता।)

भिन्न वस्तुएँ एक-दूसरे से अलग-अलग प्रकट होती हैं। परंतु, प्रकाश (प्रमाता) स्वयं कभी विभाजित नहीं होता। इसलिए, प्रमाता को बाह्य वस्तुओं की तरह देखने का कोई औचित्य नहीं।

तदतत्प्रतिभाभाजा मात्रैवातद्व्यपोहनात् ।

तन्निश्चयनमुक्तो हि विकल्पो घट इत्ययम् ॥(1.6.3)

(प्रमाता (ज्ञाता) केवल एक निर्भर रहित अनुभव (चैतन्य) है। जब वह किसी चीज़ को देखता है, तो वह अन्य सभी संभावनाओं को नकारता है। जैसे जब हम "घट" (घड़ा) देखते हैं, तो हम "अघट" (घड़ा नहीं है) को अस्वीकार कर देते हैं। यह नकार (अपोह) ही ज्ञान के निर्माण का आधार है। अर्थात् प्रमाता अपनी अनुभूति में नकारात्मकता (अपोह) का उपयोग करता है। जब हम "यह नीला है" कहते हैं, तो हम "यह लाल नहीं है" को अस्वीकार कर रहे होते हैं। प्रमाता का कार्य चेतना में अनुभवों को व्यवस्थित करना है – न कि किसी बाहरी वस्तु की खोज।

इस प्रकार, ज्ञान में हमेशा एक नकारात्मक प्रक्रिया (अपोह) होती है। प्रमाता का कार्य अनुभवों का संगठन करना है – न कि बाहरी वस्तुओं को पाना। अतः, प्रमाता केवल प्रकाश मात्र नहीं, बल्कि संगठन और निश्चय (विनिश्चय) की शक्ति भी है।

चित्तत्त्वं मायया हित्वा भिन्न एवावभाति यः।

देहे बुद्धावथ प्राणे कल्पिते नभसीव वा ॥ (1.6.4)


(प्रमाता मूलतः अखंड चैतन्य है। परंतु माया की शक्ति के कारण यह भिन्न-भिन्न रूपों में प्रतीत होता है। यह शरीर, बुद्धि, प्राण और आकाश के रूप में कल्पित किया जाता है। अर्थात् जब प्रमाता स्वयं को "मैं" (अहम्) के रूप में जानता है, तो वह स्वयं को सीमित कर लेता है।)

कहने का तात्पर्य यह है कि मूल चैतन्य विभाजनहीन है, परंतु माया उसे अलग-अलग रूपों में दिखाती है। प्रमाता जब "अहं" (मैं) को किसी सीमित रूप में देखता है, तो वह एक विकल्प (कल्पना) का निर्माण करता है। अतः, शुद्ध "अहं" केवल चैतन्य है, लेकिन जब यह सीमित होता है, तो यह विकल्प बन जाता है।

प्रमातृत्वेनाहमिति विमर्शोऽन्यव्यपोहनात् ।

विकल्प एव स परप्रतियोग्यवभासजः ॥ (1.6.5)


(यहाँ, "प्रमातृत्वेनाहमिति" से तात्पर्य है कि प्रमाता (जो स्वयं का अनुभव करता है) अपने अस्तित्व को ‘मैं हूँ’ के रूप में व्यक्त करता है। यह ‘मैं’ का अनुभव प्रमातृत्व का प्रतीक है, जिसमें 'मैं' की स्थिति से बाहर कोई अन्य का अस्तित्व नहीं है, यह एक अकेला 'मैं' ही है जो अपने अनुभव से विमर्श करता है। "विमर्शोऽन्यव्यपोहनात्" का अर्थ है कि यह अनुभव दूसरों से पृथक है, क्योंकि यह आत्म-अनुभूति (self-awareness) ही है, जो किसी अन्य (वस्तु या व्यक्ति) को अस्तित्व में नहीं मानती। "विकल्प एव स परप्रतियोग्यवभासजः" – यहाँ 'विकल्प' का अर्थ है विकल्पात्मकता, और 'परप्रतियोग्यवभासजः' का अर्थ है जो बाह्य विरोध से उत्पन्न होता है। इसका अर्थ है कि प्रमाता के द्वारा अनुभव की जा रही यह 'मैं' की स्थिति विकल्पात्मक है, और बाहरी वस्तु या परकर्मों से इससे भिन्नता उत्पन्न होती है।

अर्थात्, प्रमाता का अनुभव ‘मैं हूँ’ के रूप में व्याख्यायित किया जा सकता है, जिसमें वह स्वयं को अनुभव करता है और इस अनुभव में अन्य का कोई स्थान नहीं होता। प्रमाता का यह अनुभव स्वतंत्र होता है, और इसमें कोई बाहरी दखलअंदाजी नहीं होती। प्रमातृत्व का यही विश्लेषण यहाँ प्रस्तुत किया गया है, जो एक आंतरिक और व्यक्तित्व से सम्बद्ध होता है।)

कादाचित्कावभासे या पूर्वाभासादियोजना ।

संस्कारात्कल्पना प्रोक्ता सापि भिन्नावभासिनि ॥ (1.6.6)


(जब कोई अनुभव (अनुभूति) होता है, तो वह स्वाभाविक रूप से स्मृति में बदल जाता है। स्मृति संस्कारों के कारण पुनः उत्पन्न होती है – परंतु वह वास्तविक अनुभव से अलग होती है। स्मृति में अनुभव को कल्पना के माध्यम से पुनः व्यवस्थित किया जाता है। अर्थात् प्रमाता एक ही वस्तु को दो तरीकों से देखता है: 1. वास्तविक अनुभव – प्रत्यक्ष अनुभूति। 2.स्मरण – पुनः निर्मित अनुभूति। जब प्रमाता अतीत की किसी घटना को याद करता है, तो वह मूल घटना को नहीं देख रहा होता, बल्कि अपने ही निर्मित संस्कार को देख रहा होता है।)

कहने का तात्पर्य यह है कि स्मृति वास्तविक अनुभव नहीं है, बल्कि संस्कारों द्वारा पुनर्निर्मित एक छवि है। स्मृति कल्पना पर आधारित होती है – यह वास्तविक ज्ञान से भिन्न होती है। अतः, स्मृति प्रमाता के अनुभवों का एक पुनर्निर्माण मात्र है।

तदेवं व्यवहारेऽपि प्रभुर्देहादिमाविशन् ।

भान्तमेवान्तरर्थौघमिच्छया भासयेद्बहिः ॥ (1.6.7)


(ईश्वर स्वयं ही ज्ञान और स्मृति को नियंत्रित करता है। जब प्रमाता किसी अनुभव को देखता है, तो वह भीतर ही भीतर उसे इच्छा से पुनः निर्मित करता है। यह ज्ञान को बाहर प्रकट करने की प्रक्रिया है। अर्थात् प्रमाता स्वयं ही अपनी स्मृतियों को संगठित करता है। जब हम कोई चीज़ याद करते हैं, तो हम उसे पुनः निर्मित कर रहे होते हैं। यह प्रक्रिया इच्छाशक्ति (स्वतंत्र इच्छा) से संचालित होती है।)

कहने का तात्पर्य यह है कि स्मृति केवल अतीत की पुनरावृत्ति नहीं है – यह पुनर्निर्माण है। प्रमाता स्वयं स्मृति का निर्माण करता है, जैसे ईश्वर सृष्टि का निर्माण करता है। अतः, प्रमाता की शक्ति ही सृष्टि की शक्ति है।

एवं स्मृतौ विकल्पे वाप्यपोहनपरायणे ।

ज्ञाने वाप्यन्तराभासः स्थित एवेति निश्चितम् ॥ (1.6.8)

किंतु नैसर्गिको ज्ञाने बहिराभासनात्मनि ।

पूर्वानुभवरूपस्तु स्थितः स स्मरणादिषु ॥ (1.6.9)


(ज्ञान में स्वाभाविक (नैसर्गिक) बाह्य रूप होता है। स्मृति में पूर्व अनुभवों का पुनर्निर्माण होता है। स्मृति स्वयं ज्ञान नहीं, बल्कि अनुभव का प्रतिबिंब है। प्रमाता का कार्य अनुभव को संग्रहीत करना और पुनर्निर्माण करना है। जब हम स्मरण करते हैं, तो हम अनुभव का पुनराविष्कार कर रहे होते हैं। स्मरण एक प्रकार का कल्पना का कार्य है।)

अर्थात् ज्ञान और स्मरण में अंतर होता है – ज्ञान प्रत्यक्ष होता है, स्मरण पुनर्निर्मित होता है। स्मृति हमेशा अतीत के अनुभव पर आधारित होती है। प्रमाता का कार्य ज्ञान और स्मृति को व्यवस्थित करना है – न कि केवल देखने का। इस प्रकार, प्रमाता स्वयं ज्ञान का स्रोत है – वह स्मृति और अनुभव दोनों को नियंत्रित करता है। ज्ञान प्रत्यक्ष होता है, स्मृति पुनर्निर्मित होती है – स्मृति केवल अतीत का प्रतिबिंब है। प्रमाता स्वयं को ही प्रकाशित करता है – वह स्वयं सृष्टि का निर्माता है। माया के कारण प्रमाता स्वयं को विभाजित देखता है – लेकिन वास्तविकता में वह अखंड है।

स नैसर्गिक एवास्ति विकल्पे स्वैरचारिणि ।

यथाभिमतसंस्थानाभासनाद्बुद्धिगोचरे ॥ (1.6.10)


(विकल्प स्वतंत्र (स्वैराचारी) रूप से उत्पन्न होता है। यह बुद्धि में इच्छानुसार विभिन्न रूपों में प्रकट होता है। जैसे यदि हम किसी चीज़ की कल्पना करें (जैसे सफेद हाथी), तो वह तुरंत प्रकट हो जाता है। यह आंतरिक प्रक्रिया हमें बाह्य वास्तविकता की आवश्यकता के बिना अनुभव प्रदान करती है।)

अर्थात् प्रमाता कल्पना और विकल्प की शक्ति से युक्त है। प्रमाता केवल बाहरी दुनिया को नहीं देखता, बल्कि अपनी इच्छा से नई चीज़ें बनाता है। यह ईश्वर की रचनात्मक शक्ति का प्रतीक है।

अत एव यथाभीष्टसमुल्लेखावभासनात् ।

ज्ञानक्रिये स्फुटे एव सिद्धे सर्वस्य जीवतः ॥ (1.7.1)


(प्रमाता यथाभीष्ट (इच्छानुसार) अपनी चेतना में चीज़ों को प्रकट करता है। ज्ञान और क्रिया दोनों स्पष्ट रूप से प्रमाता के भीतर ही स्थित हैं। अर्थात् प्रमाता (ईश्वर) ही सभी ज्ञान और अनुभवों का स्रोत है। बाहरी दुनिया का अस्तित्व तभी है जब प्रमाता उसे जानता है। इस प्रकार, प्रमाता की सत्ता स्वयं सिद्ध है – उसे किसी और प्रमाण की आवश्यकता नहीं।

तत्तद्विभिन्नसंवित्तिमुखैरेकप्रमातरि ।

प्रतितिष्ठत्सु भावेषु ज्ञातेयमुपपद्यते ॥ (1.7.2)

(हमारी अनुभूतियाँ (संवित्तियाँ) भिन्न-भिन्न प्रतीत होती हैं। लेकिन वे सभी एक ही प्रमाता (ज्ञाता) में स्थित हैं। जैसे "नीला" और "सुख" दो अलग-अलग अनुभव हो सकते हैं, लेकिन वे एक ही चेतना (प्रमाता) में मिलते हैं।) 

इस प्रकार, प्रमाता एक महासागर की तरह है, जिसमें विभिन्न अनुभव तरंगों की तरह आते-जाते रहते हैं। यदि प्रमाता अलग-अलग होता, तो अलग-अलग अनुभवों को जोड़ना असंभव होता। इसलिए, प्रमाता अखंड है, और सभी अनुभव उसी में स्थित हैं।

देशकालक्रमजुषामर्थानां स्वसमापिनाम् ।

सकृदाभाससाध्योऽसावन्यथा कः समन्वयः ॥ (1.7.3)


(प्रमाता की चेतना देश (स्थान) और काल (समय) के बंधन से मुक्त है। सभी अनुभव एक साथ, उसी में स्थित होते हैं। यदि प्रमाता नहीं होता, तो अनुभवों के बीच कोई समन्वय नहीं होता।)

अर्थात् हम भूत, भविष्य और वर्तमान को एक साथ सोच सकते हैं – यही प्रमाता की अखंडता को दर्शाता है। बाहरी वस्तुएँ परिवर्तनशील होती हैं, लेकिन प्रमाता सभी को एक साथ अनुभव कर सकता है। इसलिए, प्रमाता काल और स्थान से परे है।

प्रत्यक्षानुपलम्भानां तत्तद्भिन्नांशपातिनाम् ।

कार्यकारणतासिद्धिहेतुतैकप्रमातृजा ॥ (1.7.5)


(हम कार्य-कारण (Cause and Effect) को समझते हैं, लेकिन यह संभव नहीं होता यदि प्रमाता न होता। मसलन्, हमें याद है कि हमने कोई कार्य पहले किया था, और अब उसका परिणाम देख रहे हैं। यह स्मृति सिर्फ प्रमाता की निरंतरता के कारण संभव है। यदि हर अनुभव स्वतंत्र होता, तो हम कभी कार्य-कारण को नहीं जान पाते। लेकिन प्रमाता सभी अनुभवों को जोड़कर देखता है, इसलिए हम उन्हें एक प्रक्रिया के रूप में समझ पाते हैं। प्रमाता ही इस निरंतरता को बनाए रखता है।)

बाध्यबाधकभावोऽपि स्वात्मनिष्ठाविरोधिनाम् ।

ज्ञानानामुदियादेकप्रमातृपरिनिष्ठितेः ॥ (1.7.6)

(ज्ञान में बाधा (Contradiction) और निश्चय (Confirmation) दोनों होते हैं। जैसे यदि हमें पहले लगा कि "रजत" (चाँदी) है, लेकिन बाद में समझ में आया कि "शुक्तिका" (सीपी) है, तो यह ज्ञान बाधित हुआ। यह विरोधाभास प्रमाता के भीतर ही हल होता है। प्रमाता ही तय करता है कि कौन-सा ज्ञान सत्य है और कौन-सा नहीं। इसलिए, प्रमाता को ही सभी अनुभवों की अंतिम कसौटी माना जाता है।)


विविक्तभूतलज्ञानं घटाभावमतिर्यथा ।

तथा चेच्छुक्तिकाज्ञानं रूप्यज्ञानाप्रमात्ववित् ॥ (1.7.7)

(यदि किसी स्थान पर हमें "घट" (घड़ा) नहीं दिखता, तो हम उसके अभाव (Absence) का अनुभव करते हैं। इसी तरह, जब हमें लगता है कि कोई वस्तु "चाँदी" है, लेकिन बाद में पता चलता है कि वह "सीपी" है, तो यह भ्रम समाप्त हो जाता है। यह अभाव ज्ञान प्रमाता के कारण ही संभव है। प्रमाता ही यह तय करता है कि कुछ मौजूद है या नहीं। अभाव (न होने का ज्ञान) भी प्रमाता की ही देन है।)

नैवं शुद्धस्थलज्ञानात्सिद्ध्येत्तस्याघटात्मना ।

न तूपलब्धियोग्यस्याप्यत्राभावो घटात्मनः ॥ (1.7.8)

विविक्तं भूतलं शश्वद्भावानां स्वात्मनिष्ठितेः ।

तत्कथं जातु तज्ज्ञानं भिन्नस्याभावसाधनम् ॥ (1.7.9)


(जब हमें रजत (चाँदी) दिखाई देता है लेकिन बाद में समझ में आता है कि वह शुक्ति (सीपी) है, तो क्या इसका अर्थ यह है कि रजत का ज्ञान पूर्णतः असत्य था? नहीं, रजत-ज्ञान स्वयं में सत्य था, लेकिन वह एक भ्रांति थी, क्योंकि वास्तविकता में वह शुक्ति थी। प्रमाता ही इस भ्रांति को पहले स्वीकार करता है, और फिर सुधारता है। प्रमाता का कार्य केवल बाह्य जगत को देखना नहीं है, बल्कि उसमें सत्य और असत्य को भी तय करना है।)

किं त्वालोकचयोऽन्धस्य स्पर्शो वोष्णादिको मृदुः ।

तत्रास्ति साधयेत्तस्य स्वज्ञानमघटात्मताम् ॥ (1.7.10)

पिशाचः स्यादनालोकोऽप्यालोकाभ्यन्तरे यथा ।

अदृश्यो भूतलस्यान्तर्न निषेध्यः स सर्वथा ॥ (1.7.11)


(क्या हम किसी वस्तु के अभाव को बिना देखे ही स्वीकार सकते हैं? यदि कोई चीज़ (जैसे भूत) अदृश्य है, तो उसका निषेध कैसे संभव है?जैसे प्रकाश में सब कुछ दिखता है, लेकिन अगर कोई चीज़ स्वभाव से ही अदृश्य है, तो उसे हम कैसे अस्वीकार करें? अर्थात् प्रमाता का ज्ञान केवल दृश्य वस्तुओं तक सीमित नहीं है। प्रमाता अदृश्य चीज़ों को भी समझ सकता है, लेकिन यह समझ केवल तर्क (Reasoning) के माध्यम से संभव है।

इसलिए, प्रमाता ही सब कुछ तय करने वाला अंतिम आधार है। निष्कर्ष: प्रमाता ही ज्ञान का अंतिम स्रोत है । विकल्प और स्मृति प्रमाता की शक्ति से संचालित होते हैं। समय और स्थान से परे अनुभवों का समन्वय केवल प्रमाता कर सकता है। कार्य-कारण का ज्ञान केवल प्रमाता की निरंतरता के कारण संभव है। बाध्य-बाधक भाव (सत्य और असत्य का निर्णय) प्रमाता ही करता है। अभाव (कुछ न होने का ज्ञान) भी प्रमाता की ही देन है। प्रमाता अदृश्य चीज़ों को भी समझ सकता है – तर्क और अनुभूति से।

इस प्रकार, प्रमाता ही परमेश्वर है। उसके बिना ज्ञान संभव नहीं, और उसी के माध्यम से सत्य और असत्य, अभाव और अनुभव, स्मृति और तर्क – सब संभव हैं।

एवं रूप्यविदाभावरूपा शुक्तिमतिर्भवेत् ।

न त्वाद्यरजतज्ञप्तेः स्यादप्रामाण्यवेदिका ॥ (1.7.12)


(जब हमें रजत (चाँदी) दिखाई देता है लेकिन बाद में समझ में आता है कि वह शुक्ति (सीपी) है, तो क्या इसका अर्थ यह है कि रजत का ज्ञान पूर्णतः असत्य था? नहीं, रजत-ज्ञान स्वयं में सत्य था, लेकिन वह एक भ्रांति थी, क्योंकि वास्तविकता में वह शुक्ति थी। प्रमाता ही इस भ्रांति को पहले स्वीकार करता है, और फिर सुधारता है। प्रमाता का कार्य केवल बाह्य जगत को देखना नहीं है, बल्कि उसमें सत्य और असत्य को भी तय करना है।)

धर्म्यसिद्धेरपि भवेद्बाधा नैवानुमानतः ।

स्वसंवेदनसिद्धा तु युक्ता सैकप्रमातृजा ॥ (1.7.13)


(क्या हम केवल अनुमान से जान सकते हैं कि रजत का ज्ञान असत्य था? नहीं, क्योंकि अनुमान किसी बाहरी प्रमाण पर निर्भर करता है। वास्तविक बाधा (Contradiction) केवल स्वयं के अनुभव (स्वसंवेदन) से ही जानी जा सकती है। अर्थात्, प्रमाता का ज्ञान किसी बाहरी अनुमान पर आधारित नहीं है। वह स्वयं के अनुभव से जानता है कि पहले की धारणा गलत थी। इसलिए, प्रमाता ही अंतिम प्रमाण का स्रोत है।

इत्थमत्यर्थभिन्नार्थावभासखचिते विभौ ।

समलो विमलो वापि व्यवहारोऽनुभूयते ॥ (1.7.14)


(संसार में अनेक प्रकार के भिन्न-भिन्न अनुभव होते हैं। इनका आधार यदि एक न हो, तो व्यवहार असंभव हो जाएगा। यह आधार प्रमाता ही है। प्रमाता के बिना अलग-अलग अनुभवों को जोड़ना संभव नहीं होता। प्रमाता ही संसार को एक व्यवस्थित रूप देता है।

ज्ञानाधिकारे अष्टममाह्निकम् 

तात्कालिकाक्षसामक्ष्यसापेक्षाः केवलं क्वचित् ।

आभासा अन्यथान्यत्र त्वन्धान्धतमसादिषु ॥ (1.8.1)

विशेषोऽर्थावभासस्य सत्तायां न पुनः क्वचित् ।

विकल्पेषु भवेद्भाविभवद्भूतार्थगामिषु ॥ (1.8.2)

सुखादिषु च सौख्यादिहेतुष्वपि च वस्तुषु ।

अवभासस्य सद्भावेऽप्यतीतत्वात्तथा स्थितिः ॥ (1.8.3)


(सुख और दुःख बाहरी वस्तुओं के कारण नहीं होते। वे केवल प्रमाता के अनुभव के कारण होते हैं। जैसे, यदि हम किसी अच्छी वस्तु को खो देते हैं, तो हमें दुःख होता है। लेकिन यह दुःख उस वस्तु में नहीं, बल्कि हमारे अनुभव में है। प्रमाता सुख और दुःख का सच्चा स्रोत है। बाहरी वस्तुएँ मात्र उन अनुभवों को उत्पन्न करने का बहाना हैं।)

गाढमुल्लिख्यमाने तु विकल्पेन सुखादिके ।

तथा स्थितिस्तथैव स्यात्स्फुटमस्योपलक्षणात् ॥ (1.8.4)

भावाभावावभासानां बाह्यतोपाधिरिष्यते ।

नात्मा सत्ता ततस्तेषामान्तराणां सतां सदा ॥ (1.8.5)

(हम बाहरी और आंतरिक चीज़ों में अंतर करते हैं। लेकिन यह अंतर केवल हमारी धारणा (Perception) पर आधारित है। वास्तविकता में सब कुछ चेतना (प्रमाता) के भीतर ही स्थित है। प्रमाता के लिए कोई बाहरी और आंतरिक वस्तु नहीं है। सब कुछ उसी की चेतना में स्थित है। बाहरीपन केवल एक भ्रम है, जो प्रमाता स्वयं उत्पन्न करता है।)

आन्तरत्वात्प्रमात्रैक्ये नैषां भेदनिबन्धना ।

अर्थक्रियापि बाह्यत्वे सा भिन्नाभासभेदतः ॥ (1.8.6)

चिन्मयत्वेऽवभासानामन्तरेव स्थितिः सदा ।

मायया भासमानानां बाह्यत्वाद्बहिरप्यसौ ॥ (1.8.7)

विकल्पे योऽयमुल्लेखः सोऽपि बाह्यः पृथक्प्रथः ।

प्रमात्रैकात्म्यमान्तर्यं ततो भेदो हि बाह्यता ॥ (1.8.8)

(जब हम कोई चीज़ कल्पना करते हैं (जैसे कोई राक्षस), तो वह हमारे लिए वास्तविक प्रतीत होती है। यह कल्पना भी प्रमाता के अनुभव में बाह्य रूप से उपस्थित होती है।)

प्रमाता केवल भौतिक वस्तुओं को ही नहीं, बल्कि कल्पना को भी अनुभव करता है। कल्पना भी एक बाह्य वस्तु की तरह ही प्रमाता की चेतना में स्थित होती है।

उल्लेखस्य सुखादेश्च प्रकाशो बहिरात्मना ।

इच्छातो भर्तुरध्यक्षरूपोऽक्षादिभुवां यथा ॥ (1.8.9)

तदैक्येन विना न स्यात्संविदां लोकपद्धतिः ।

प्रकाशैक्यात्तदेकत्वं मातैकः स इति स्थितम् ॥ (1.8.10)

स एव विमृशत्त्वेन नियतेन महेश्वरः ।

विमर्श एव देवस्य शुद्धे ज्ञानक्रिये यतः ॥ (1.8.11)


(यदि प्रमाता एक न हो, तो ज्ञान संभव नहीं हो सकता। क्योंकि ज्ञान का आधार प्रकाश (चेतना) है, और वह एक ही है। अतः, प्रमाता परमेश्वर ही है। प्रमाता और परमेश्वर में कोई भेद नहीं है। सभी अनुभव प्रमाता के भीतर ही होते हैं। वह स्वयं का ही अनुभव करता है – यही शिवस्वरूप है।

"प्रमाता ही शिव है, और शिव ही प्रमाता है।" ज्ञान और अनुभव का अंतिम स्रोत प्रमाता ही है, और वही इस संपूर्ण जगत की वास्तविकता है।)


* https://m.youtube.com/watch?v=j52eW2Muc_k&fbclid=IwY2xjawJIjX1leHRuA2FlbQExAAEd34-rF_2PQvFdEO05f1AO6Yq-S_xGa_BGENkYv-cPM-sRjWSOJW2L_0qf_aem_SHCylC6gR9G5M6dfQX1whg


1 टिप्पणी:

  1. मैं ज्ञानी नहीं हूँ लेकिन रससिद्धांत पढ़ाते समय डॉक्टर नगेन्द्र प्रमाता का अर्थ साहित्य के सचेत , सहृदय और ज्ञानी दर्शक या पाठक के रूप में समझाते थे ।

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