आज आईबीएन के चुनाव पूर्व सर्वेक्षण और उसपर हुई चर्चा की रोशनी में
अरुण माहेश्वरी
चुनाव विशेषज्ञों के अराजनीतिक मानदंडों पर
कांग्रेस और भाजपा, सिर्फ दो दलों के बीच सीटों की बंदर-बांट करने वाले चुनाव विशेषज्ञों के अनुमान कितनी बालूई जमीन पर टिकेे हैं, इसका अनुमान इन चंद तथ्यों के आधार पर लगाया जा सकता है।
सन् 1989 के आम चुनाव के बाद से भारत का चुनावी गणित पूरी तरह बदल चुका है। इसके पहले 1984 में कांग्रेस को कुल मतदान के 49.10 प्रतिशत मत मिले थे और भाजपा को मात्र 7.74 प्रतिशत। 1989 के चुनाव से कांग्रेस के मतों में गिरावट का जो सिलसिला शुरू हुआ वह 1996 के चुनाव के बाद 1998, 1999, 2004 और 2009 के चुनावों में कभी भी 30 प्रतिशत के आंकड़े को पार नहीं कर पाये। इसी प्रकार भाजपा को भी 1998 में सबसे ज्यादा, 25.59 प्रतिशत मत मिले थे जब उसे 182 सीटें मिली। बाद के सभी चुनावों में उसे मिलने वाले मतों का प्रतिशत इससे कम ही रहा है।
2009 के चुनाव में भाजपा को कुल मतदान के 18.8 प्रतिशत मत मिले और कांग्रेस को 28.55 प्रतिशत।
जाहिर है कि आज 50 प्रतिशत से ज्यादा मतदाता इन दोनों दलों की जद से बाहर है।
मजे की बात है कि हमारे टीवी चैनलों के कथित चुनाव विशेषज्ञ इन 50 प्रतिशत मतदाताओं को अपने आकलन के दायरे में ही नहीं लाते। और तो और, वे यह भी नहीं सोचते कि आज किसी भी वजह से परिस्थिति इतनी उत्तेजक और तनावपूर्ण हो जाए जिसमें भारत की एकता और जनता के सद्भाव पर आंच आने लगे, तब ये बाकी के 50 प्रतिशत मतदाता कौन सा रुख अख्तियार करेंगे।
खास तौर पर जब खतरा नरेन्द्र मोदी की तरह के एक बदनाम और विभाजनकारी नेता के सत्तासीन होने का हो, तब अपनी तमाम परेशानियों के बावजूद, इन बाकी के 50 फीसदी मतदाताओं का फैसला क्या होगा उसका अनुमान लगाना शायद इन चुनाव विशेषज्ञों के वश में भी नहीं है। इसके लिये सिर्फ आंकड़ेबाजी नहीं, राजनीतिक मानदंडों की समझ की जरूरत है। चुनाव अन्तत: एक राजनीतिक विषय है।
चैनलों पर चल रही चुनाव संबंधी अभी की सारी चर्चाएं भारत के जनप्रचार माध्यमों पर नाना कारणों से दो बड़े दलों के दबदबे से पैदा होने वाली विकृति से दूषित है। चुनाव का मौसम जनप्रचार माध्यमों के लिये व्यापार का सबसे मुफीद मौका जो होता है! — Jagadishwar Chaturvedi और 3 अन्य के साथ।
अरुण माहेश्वरी
चुनाव विशेषज्ञों के अराजनीतिक मानदंडों पर
कांग्रेस और भाजपा, सिर्फ दो दलों के बीच सीटों की बंदर-बांट करने वाले चुनाव विशेषज्ञों के अनुमान कितनी बालूई जमीन पर टिकेे हैं, इसका अनुमान इन चंद तथ्यों के आधार पर लगाया जा सकता है।
सन् 1989 के आम चुनाव के बाद से भारत का चुनावी गणित पूरी तरह बदल चुका है। इसके पहले 1984 में कांग्रेस को कुल मतदान के 49.10 प्रतिशत मत मिले थे और भाजपा को मात्र 7.74 प्रतिशत। 1989 के चुनाव से कांग्रेस के मतों में गिरावट का जो सिलसिला शुरू हुआ वह 1996 के चुनाव के बाद 1998, 1999, 2004 और 2009 के चुनावों में कभी भी 30 प्रतिशत के आंकड़े को पार नहीं कर पाये। इसी प्रकार भाजपा को भी 1998 में सबसे ज्यादा, 25.59 प्रतिशत मत मिले थे जब उसे 182 सीटें मिली। बाद के सभी चुनावों में उसे मिलने वाले मतों का प्रतिशत इससे कम ही रहा है।
2009 के चुनाव में भाजपा को कुल मतदान के 18.8 प्रतिशत मत मिले और कांग्रेस को 28.55 प्रतिशत।
जाहिर है कि आज 50 प्रतिशत से ज्यादा मतदाता इन दोनों दलों की जद से बाहर है।
मजे की बात है कि हमारे टीवी चैनलों के कथित चुनाव विशेषज्ञ इन 50 प्रतिशत मतदाताओं को अपने आकलन के दायरे में ही नहीं लाते। और तो और, वे यह भी नहीं सोचते कि आज किसी भी वजह से परिस्थिति इतनी उत्तेजक और तनावपूर्ण हो जाए जिसमें भारत की एकता और जनता के सद्भाव पर आंच आने लगे, तब ये बाकी के 50 प्रतिशत मतदाता कौन सा रुख अख्तियार करेंगे।
खास तौर पर जब खतरा नरेन्द्र मोदी की तरह के एक बदनाम और विभाजनकारी नेता के सत्तासीन होने का हो, तब अपनी तमाम परेशानियों के बावजूद, इन बाकी के 50 फीसदी मतदाताओं का फैसला क्या होगा उसका अनुमान लगाना शायद इन चुनाव विशेषज्ञों के वश में भी नहीं है। इसके लिये सिर्फ आंकड़ेबाजी नहीं, राजनीतिक मानदंडों की समझ की जरूरत है। चुनाव अन्तत: एक राजनीतिक विषय है।
चैनलों पर चल रही चुनाव संबंधी अभी की सारी चर्चाएं भारत के जनप्रचार माध्यमों पर नाना कारणों से दो बड़े दलों के दबदबे से पैदा होने वाली विकृति से दूषित है। चुनाव का मौसम जनप्रचार माध्यमों के लिये व्यापार का सबसे मुफीद मौका जो होता है! — Jagadishwar Chaturvedi और 3 अन्य के साथ।
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