मंगलवार, 12 नवंबर 2013

मुक्तिबोध का संदेश

मुक्तिबोध के जन्मदिन (13 नवंबर) के अवसर पर उन्हें याद करते हुए :

अरुण माहेश्वरी


मुक्तिबोध ने जीवन में खूब लिखा। नेमीचंद जैन ने छ: खंडों में जो मुक्तिबोध रचनावली संकलित की है, उसके अतिरिक्त भी उनका लिखा काफी कुछ है। खुद नेमी जी ने विभिन्न कारणों से ऐसे छूट गये लेखन का जिक्र किया है। आज तक प्रकाश में न आपायी उनकी रचनाओं में एक उपन्यास भी है, जिसके कम्पोज हुए 80 पृष्ठों को नेमीजी ने प्रकाशक के पास देखा था, लेकिन बाद में उसका एक बिखरा हुआ खंडित रूप ही दूधनाथ सिंह द्वारा संपादित पत्रिका ‘पक्षधर’ के जरिये नेमीजी के हाथ लग पाया जिसे मुक्तिबोध रचनावली के तीसरे खंड के अंत में संकलित किया गया था। 1943 में ही उन्होंने अज्ञेय जी के साथ मिल कर हिंदी साहित्य के एक सर्वाधिक चर्चित तारसप्तक प्रकल्प की योजना बनायी थी। वह किसी एक का उद्यम नहीं, बल्कि सातों परस्पर-परिचित कवियों का एक सहयोगी प्रकल्प था। मुक्तिबोध तारसप्तक के पहले कवि थे। नेमीचंद जैन ने अन्यत्र भी तथ्यों से इस परियोजना में मुक्तिबोध की खास भूमिका को रेखांकित किया है। अपने समय की लगभग सभी महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में मुक्तिबोध लिखते रहे। ‘नया खून’ साप्ताहिक पत्रिका के तो वे खुद संपादक थे।

इन सबके बावजूद गौर करने लायक सबसे उल्लेखनीय तथ्य यह है कि उनकी कविताओं का पहला संकलन ‘चांद का मूंह टेढ़ा है’ उनकी मृत्यु के बाद ही प्रकाशित हो पाया था। 11 सितंबर 1964 के दिन उनकी मृत्यु हुई। उसके पहले श्रीकांत वर्मा ने उनकी ‘एक साहित्यिक की डायरी’ प्रकाशित की थी, जिसका दूसरा संस्करण भारतीय ज्ञानपीठ से उनकी मृत्यु के दो महीनों बाद प्रकाशित हुआ। ज्ञानपीठ ने ही ‘चांद का मूंह टेढ़ा है प्रकाशित किया था। इसी वर्ष नवंबर 1964 में नागपुर के विश्वभारती प्रकाशन ने मुक्तिबोध द्वारा 1963 में ही तैयार कर दिये गये निबंधों के संकलन ‘नयी कविता का आत्मसंघर्ष तथा अन्य निबंध’ को प्रकाशित किया था। परवर्ती वर्षों में भारतीय ज्ञानपीठ से मुक्तिबोध के अन्य संकलन ‘काठ का सपना’, तथा ‘विपात्र’ (लघु उपन्यास)  प्रकाशित हुए। पहले कविता संकलन के 15 वर्ष बाद, 1980 में उनकी कविताओं का दूसरा संकलन ‘भूरी भूरी खाक धूल’ प्रकाशित हुआ। 1980 में ही ‘राजकमल’ से छ: खंडों में ‘मुक्तिबोध रचनावली’ प्रकाशित हुई, जिसका पेपरबैक संस्करण 1985 में निकला। मुक्तिबोध रचनावली हिंदी के इधर के लेखकों की सबसे तेजी से बिकने वाली रचनावली मानी जाती है। मुक्तिबोध पर शोध और किताबों की भी झड़ी लग गयी। 1975 में ही अशोक चक्रधर का शोध ग्रंथ ‘मुक्तिबोध की काव्यप्रक्रिया’ प्रकाशित होगया था।

अशोक वाजपेयी ने ‘भूरी भूरी खाक धूल’ की भूमिका में लिखा है कि उनकी कविता के पहले संकलन के प्रकाशन से लेकर 15 वर्षों बाद प्रकाशित हुए उनके इस दूसरे संकलन के बीच के काल में हिन्दी कविता पर मुक्तिबोध एक तरह से छाये रहे हैं : अगर किसी बुजुर्ग से युवतम पीढ़ी अपने को जोड़कर प्रामाणिकता और सार्थकता पाने को उत्सुक है तो मुक्तिबोध से ही।

1970-71 का ही वह काल था जब हम सरीखे लेखकों का लेखन में बिस्मिल्लाह हुआ था। सचमुच मुक्तिबोध का बोलबाला था। जहां देखों, हर नौजवान लेखक मुक्तिबोध की चर्चा में लगा हुआ था। पत्र-पत्रिकाओं में लंबे-लंबे लेख लिखे जा रहे थे।

सोचने की बात यह है कि अपने इतने विपुल लेखन, तमाम स्तरो ंपर निरंतर साहित्यिक सक्रियता और तारसप्तक की तरह के सर्वाधिक चर्चित आयोजन के योजनाकार और भागीदार होने के बावजूद जो मुक्तिबोध अपने जीवित काल में उतने प्रभावशाली या नेतृत्वकारी स्थान पर नहीं दिखाई देते, वे मृत्यु के उपरांत, खास तौर पर सन् ‘67 और 70 के पूरे दशक में क्यों अचानक हिंदी के पूरेे साहित्य-विमर्श पर पूरी तरह से छा जाते हैं?

इस सवाल के साथ यदि आज हम मुक्तिबोध का पुनर्मूल्यांकन करें तो हमारे सामाजिक-सांस्कृतिक और साहित्यिक परिदृश्य से जुड़ी ऐसी बहुत सी चीजें सामने आ सकती है जो संक्रमण के किसी भी दौर को और उसमें व्यक्ति विशेष की भूमिका को गहराई से समझने-परखने की दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण होती है।

60 के दशक के उत्तराद्‍​र्ध का वह दौर हिंदी में साठोत्तरी, बांग्ला से प्रभावित भूखी और श्मशानी पीढ़ी का दौर था। प्रगतिशील साहित्य आंदोलन इसके पहले ही दिशाहीन होकर बिखर चुका था। परिमलवादी भी सीआईए द्वारा चालित ‘एनकाउंटर’ और ‘कांग्रेस फॉर कल्चरल फ्रीडम’ के कीचड़ से कलंकित होकर अपना प्रभाव गंवा चुके थे। यह साहित्य में चरम हताशा, अराजकता और मूल्यहीनता का दौर था। कोलकाता के लेखक मुर्दे की अध्यक्षता में गोष्ठी करते थे। जीवन की तमाम वर्जनाओं को तोड़ने की नाम पर जुगुप्सा की हद तक अश्लीलता इस लेखन की पहचान थी। अकविता, अकहानी का एक और अबूझ सा आंदोलन दस्तकें दे रहा था।

सामाजिक स्तर पर पूंजीवादी दुनिया से जुड़े तीसरे विश्व का आर्थिक दिवालियापन, सामाजिक मूल्यहीनता और राजनीतिक तानाशाही भारत में भी निपट नंगे रूप में प्रकट हो रहे थे। जघन्य सामाजिक विषमता, व्यापक बेरोजगारी, औद्योगिक गतिरोध और खाद्यान्नों के अभाव सेे जनता के तमाम स्तरों में गहरी निराशा और मोहभंग की स्थिति थी।

सवाल था कि जनता का यह मोहभंग कैसे व्यक्त हो?

वामपंथ का अपना संकट था। 1964 में कम्युनिस्ट पार्टी विभाजित होगयी। शासक दल के साथ चिपकी सीपीआई ने प्रगतिशील साहित्य आंदोलन की कोई साख नहीं रख छोड़ी थी। प्रतिरोध की ताकतों में वामपंथ की ओर से एक ओर जहां सीपीआई(एम) थी, तो दूसरी ओर सोशलिस्ट पार्टी और जनसंघ का दक्षिणपंथी गठबंधन। इसी परिस्थिति में सन् ‘67 के आम चुनाव में पहली बार भारत के आठ राज्यों में एक साथ कांग्रेस दल के शासन की 20 सालों की इजारेदारी टूटी।

ऐसे समय में साहित्य आंदोलन की बागडोर पुराने, साख गंवा चुके सीपीआई के अधीन प्रगतिशीलों के हाथ में नहीं रह सकती थी। नये जनवादी साहित्य आंदोलन के लिये साहित्य के नये, संघर्षशील और जनवादी प्रतिमानों की जरूरत थी। व्यापक मोहभंग, दिशाहीनता और तनाव के ऐसे काल में ही काष्ठवत होचुके साहित्य के ‘प्रगतिशील’ प्रतिमानों के विपरीत मुक्तिबोध की आलोचना दृष्टि, उनका संशय और उनके जनतांत्रिक सरोकार हिंदी साहित्य की दुनिया के लिये किसी ठंडी हवा के झोंके की तरह सुखदायी और साहित्य के जनवादी प्रतिमानों के पुनर्निर्माण की प्रेरणा देने वाली आलोचना दृष्टि साबित हुई। साथ ही, उनकी कविताएं भी काव्य-चर्चा के केंद्र में आगयी।

इसी मुक्तिबोध विमर्श ने हिंदी में प्रेमचंद शताब्दी के मौके पर शुरू हुए नये जनवादी विचार-मंथन को नया रूप दिया और 1982 में हिंदी और उर्दू के लेखकों के सबसे बड़े संगठन जनवादी लेखक संघ का जन्म हुआ। प्रगतिशील आलोचक-प्रवर रामविलास शर्मा अंत तक मुक्तिबोध की मघ्यवर्गीय व्याधियों की ओर इशारा करते रह गये; लेकिन ‘इतिहास और आलोचना’ वाले इसी परंपरा के दूसरे रथी डा. नामवर सिंह ने 1968 में ही ‘कविता के नये प्रतिमान’ में मुक्तिबोध का लोहा मानते हुए कहा कि  अपनी आलोचनात्मक क्षमता के द्वारा मुक्तिबोध ने प्रमाणित कर दिया कि कोई भी चीज तभी स्पष्ट होती है जब कम-से-कम एक ईमानदार व्यक्ति मौजूद हो।

यह ‘नई कहानी’ के ईमानदार समीक्षक नामवर सिंह की एक स्वाभाविक आत्मोपलब्धि थी।

कहना न होगा, इतिहास में मुक्तिबोध की इसी ‘एक ईमानदार व्यक्ति’ के रूप में मौजूदगी ने उन्हें मुक्तिबोध बनाया।

आज फिर एक बार राजनीति और विचारों के क्षेत्र में भारी दिग्भ्रम और असमंजस की स्थिति है। वैश्वीकरण की चकाचौंध, भारी सामाजिक विषमता। पूरा समाज निराशा और व्यापक मोहभंग की कगार पर है।

भारतीय वामपंथ के सामने फिर एक बार अपने पुनर्गठन की चुनौती है।

मुक्तिबोध ने अपनी पहचान को छिपाते हुए कभी सीपीआई के चेयरमैन श्रीपाद अमृत डांगे के नाम भारी मन से एक लंबे पत्र में लिखा था : “The profoundly artistic and valuable progressive literary works are the best answer to the Reaction, because such works will have lasting value and profound impact. Merely ideological attitudes, in place of profound meaning and artistic excellence will not make progressive writers more influencial.
“...self-criticism on the part of progressive thinkers, critics, and writers is long over-due.”

(प्रतिक्रिया को सर्वोत्तम उत्तर बहुत ही गंभीर कलात्मक और मूल्यवान प्रगतिशील साहित्यिक लेखन हो सकता है, क्योंकि ऐसे लेखन का टिकाऊ मूल्य और गहन प्रभाव होगा। गहन अर्थ और कलात्मक श्रेष्ठता की जगह महज विचारधारात्मक दृष्टि प्रगतिशील लेखकों को प्रभावशाली नहीं बनायेगी।
...प्रगतिशील विचारकों, आलोचकों और लेखकों को काफी पहले से ही आत्म-समीक्षा की जरूरत है।)

लगता है कि जैसे ऐतिहासिक परिघटनाओं का एक और वृत्त पूरा हो चुका है। ऐसे समय में मुक्तिबोध से शिक्षा लेते हुए यही कहना होगा कि आज फिर सभी लेखकों, चिंतकों और समीक्षकों के लिये गहरी आत्म-समीक्षा का समय आ चुका है। 

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