फिर एक बार प्रभात पटनायक। पता नहीं क्यों, हमें बार-बार उनकी बातों से गहरी असहमति व्यक्त करने की जरूरत महसूस होने लगती है।
कहीं ऐसा तो नहीं कि प्रभात के लेखन से भारतीय वामपंथी राजनीति की सामान्य या व्यवहार बुद्धि (common sense) व्यक्त होती है। और, व्यवहार बुद्धि की सबसे बड़ी समस्या है कि उसमें अंधविश्वासों या अनालोचकीय दृष्टि की प्रबलता होती है। व्यवहार बुद्धि पर किसी दर्शन या नये सोच का महल तैयार नहीं किया जा सकता, इसके लिये तो इसका अतिक्रमण करके विवेक को अपनाने की जरूरत पड़ती है; परंपरागत सोच से टकराने, उसपर सवाल उठाने की जरूरत रहती है। ग्राम्शी की शब्दावली में नया सोच हमेशा विवादों (polemics) के बीच से, एक निरंतर संघर्ष के जरिये सामने आता है।
मसलन्, हम काफी पहले उनकी किताब ’The Value of Money’ के संदर्भ में उनके भीतर बैठे केन्सवाद पर गंभीर सवाल उठा चुके हैं। केन्सवाद में वे सारे तत्व है जो वामपंथियों की आर्थिक मामलों में व्यवहार बुद्धि का कारक बन सकता है। बाजार को चंगा रखने के लिये राज्य की दखलंदाजी को अनिवार्य मानने वाला सोच। वामपंथियों की व्यवहार बुद्धि के सर्वथा अनुकूल, कि चलो यहां पर सब कुछ बाजार के भरोसे छोड़ने के बजाय राज्य की भूमिका को स्वीकृति तो दी गयी है!
मानो, राज्य की सर्व-व्यापकता और सर्वशक्तिमत्ता ही मार्क्सवाद का साध्य हो! राज्य के पूर्ण विलोप के दर्शन का साध्य! समाजवादी देशों में राज्य की ऐसी सर्व-व्यापकता और सर्वशक्तिमानता के इतने सारे दुखदायी अनुभवों के बाद भी!
पिछले दिनों, प्रभात के जरिये जाहिर हुई ऐसी ही एक और व्यवहार बुद्धि का नमूना सामने आया जब उन्होंने इंडियन एक्सप्रेस में अपने एक लेख में ‘आम आदमी पार्टी’ को ‘विचार-विमुखता का चरम’ बताया और वामपंथ को उसके ठीक विपरीत ‘विचार-प्रमुखता का चरम’। इसपर हमने विस्तार से टिप्पणी की थी जो हमारे ब्लाग पर मौजूद है।
http://chaturdik.blogspot.in/2014/01/blog-post_9.html
हेगेल के Logic की एक प्रसिद्ध उक्ति है कि Being और Nothingness के बीच ऐसा कुछ नहीं होता जो मध्यवर्ती न हो। इसीलिये जो अभी पैदा भर हुआ हो, उसके बारे में ‘पूत के पांव पालने में’ की तर्ज पर कोई अंतिम राय सुनाना बौद्धिक लिहाज से लड़कपन के जोश की तरह है। क्या कहीं भी कुछ ऐसा है जिसमें तात्कालिकता या मध्यवर्ती कुछ नहीं होता? आंदोलनों पर कोई अंतिम राय उसके मध्यवर्ती स्वरूपों के आधार पर नहीं, अधिक से अधिक उसके मध्यवर्ती लक्ष्यों के आधार पर ही जाहिर की जानी चाहिए।
आज (11 फरवरी 2014 को) फिर एक बार टेलिग्राफ में वामपंथी व्यवहार बुद्धि का ही एक और नमूना पेश करता हुआ प्रभात पटनायक का लेख प्रकाशित हुआ है “Wrong at the top” (शीर्ष पर भूल)। वामपंथी राजनीति में अक्सर दोहरायी जाने वाली व्यवहार बुद्धि की यह बात कि ‘पार्टी का निर्माण हमेशा ऊपर से होता है’।
पार्टी का पतन, कहां से होता है, यह सवाल कोई नहीं उठाता। निर्माण ऊपर से होता है तो पतन नीचे से होता होगा!
और, माओ का आह्वान : हेड क्वार्टर पर हमला करो !
यही है सामान्य या व्यवहार बुद्धि (common sense) का दोष, जिसकी जकड़नों के चलते जन-आकांक्षाओं और जन-आंदोलनों की शक्ति के साथ किसी भी राजनीति के संपर्कों के तार टूट जाते हैं।
‘जनता का आदर्शीकरण’ से क्या तात्पर्य है? जब हम कहते हैं, जनतंत्र में जनता ही आखिरी बात कहती है, तो क्या वह भी एक ‘आदर्शीकरण’ नहीं है?
यही वजह है कि absolute terms में की जाने वाली राजनीतिक टिप्पणियां अंतिम निष्कर्षों में खोखली होती है। absolute अर्थात ‘परम’ तो ब्रह्म है, जो सर्वत्र एक और समान है।
ग्राम्शी ने अपने प्रिजन नोटबुक में बुखारिन की किताब “The Theory of Historical Materialism,A manual of Popular Sociology” के संदर्भ में कॉमनसेंस के बारे में थोड़े विस्तार से चर्चा की है। इसे उन्होंने दर्शन शास्त्र का ‘लोकगीत’ (folk lore) कहा है, जो लोकगीतों की तरह ही हर तबके की मानसिकता से मेल खाता हुआ अनगिनत रूप ग्रहण करता है। इसमें उन्होंने व्यवहार बुद्धि के विपरीत सुबुद्धि (good sense) को लेकर कुछ पंक्तियां उद्धृत की है। उन पंक्तियों के साथ ही हम इस टिप्पणी का अंत करते हैं :
Good sense, which once ruled far and wide
Now in our schools to rest is laid
Science, its once beloved child
Killed it to see how it was made
(सुबुद्धि, जो कभी छायी थी विस्तीर्ण और व्यापक /अब लेटी है कब्र में हमारे स्कूलों में/विज्ञान, उसकी प्रिय संतान ने/ मार डाला यह जानने कि वह आयी कैसे)
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