हंस के अक्तूबर 1987 के अंक में प्रकाशित
अरुण माहेश्वरी
(मित्रो,
आज मैं 27 साल पहले ‘हंस’ में प्रकाशित अपने एक लेख को आपके साथ साझा कर रहा हूं।सच कहा जाए तो, सन् ‘77 से ‘87 तक के राजनीतिक घटना-चक्र को समेटने वाली एक टिप्पणी। सन् ‘75 के आंतरिक आपातकाल के बाद से लेकर राजीव गांधी की सरकार के लगभग चार साल बाद, सन् ‘89 के आम चुनाव की पूर्व स्थितियों पर टिप्पणी। इतने सालों बाद, आज भी इसे पढ़ कर भारतीय राजनीति की आंतरिक गतिशीलता के कुछ सूत्रों का अनुमान लगता है। मेरा मानना है कि भारत की संसदीय राजनीति के विद्यार्थियों के लिये यह टिप्पणी काफी दिलचस्प होगी )
कार्ल मार्क्स की एक अत्यंत महत्वपूर्ण कृति है -‘लुई बोनापार्ट की अठारहवीं ब्रुमेर’। लुई बोनापार्ट अर्थात चाल्र्स लुई नेपोलियन बोनापार्ट जो इतिहास में नेपोलियन तृतीय के नाम से जाना जाता है। नेपोलियन प्रथम का भतीजा नेपोलियन तृतीय 1849-1851 तक फ्रांसके दूसरे गणतंत्र का राष्ट्रपति रहा तथा 2 दिसंबर 1851 के दिन उसने राज्य क्रांति करके अपनी फौजी तानाशाही कायम कर ली और 1870 तक फ्रांस का एकछत्र सम्राट बना रहा। ब्रुमेर का अर्थ है फ्रांस के गणतंत्रीय पंचांग का एक महीना। 18वीं ब्रुमेर अर्थात 9 नवंबर।
सन् 1799 की 9 नवंबर को राज्य क्रांति करके नेपोलियन प्रथम ने फ्रांस की सत्ता हथियायी थी और नये संविधान के जरिये खुद को फ्रांस का प्रथम कौंसिल घोषित करके निरंकुश अधिकारों को हासिल किया था। फ्रांस की पूंजीवादी क्रांति के बाद सितंबर 1792 में फ्रांस के पहले गणतंत्र की स्थापना हुई थी। लेकिन नेपोलियन इसके सात साल बाद सत्ता पर आसीन हो पाया था और सन् 1804 में उसने अपने को फ्रांस का सम्राट घोषित किया। सत्ता पर आने के पहले ही कई युद्धों में शानदार जीत हासिल करके नेपोलियन फ्रांस की जनता में लोकप्रियता के शिखर पर पंहुच गया था। सत्ता हथियाने के बाद भी उसने कई बड़ी-बड़ी लड़ाइयां लड़ी तथा फ्रांस के पुनर्निर्माण की योजनाओं में भी महत्वपूर्ण योगदान किया। अंत में स्पेन के विफल अभियान तथा सन् 1812 में रूस में पराजय के बाद ही नेपोलियन प्रथम के पतन का दौर शुरू हुआ और लिपजिग के युद्ध में जिसे ‘राष्ट्रों का युद्ध’ कहा जाता है, फ्रांस पर कुछ मित्र शक्तियों का कब्जा होगया। इसके बाद फिर एक बार वाटरलू की लड़ाई के जरिये नेपोलियन ने सत्ता पर लौटने की कोशिश की जहां 15 जून 1815 के दिन वह पूरी तरह पराजित होगया। तब से सन् 1848 तक फ्रांस में एक प्रकार का नियंत्रित राजतंत्र कायम रहा। सन् 1848 में लुई फिलिप को हटा कर फ्रांस में द्वितीय गणतंत्र की स्थापना हुई। किंतु यह गणतंत्र भी पहले गणतंत्र की तरह ही अत्यंत अल्पस्थायी रहा। इस गणतंत्र के राष्ट्रपति लुई नेपोलियन बोनापार्ट ने ही मात्र तीन साल बाद 2 दिसंबर 1851 को एक राज्य-क्रांति करके गणतंत्र के संविधान को खारिज कर दिया और 1851 में खुद को फ्रांस का सम्राट घोषित कर दिया। नेपोलियन तृतीय शुरू से ही खुदको हर मामले में नेपोलियन प्रथम की ही एक अनुकृति के रूप में पेश करने की कोशिश करता था।
कार्ल मार्क्स ने अपनी कृति ‘लुई बोनापार्ट की सातवीं ब्रुमेर’ में फ्रांस की इन्हीं परिस्थितियों का बड़ी सूक्ष्मता के साथ अत्यंत मूर्त ढंग से विश्लेषण किया है, जिनमें एक बार फिर फ्रांस के गणतंत्र को समाप्त कर वहां निरंकुश राजशाह शुरू हुई थी। मार्क्स ने इस कृति में सन् 1848 से 1851 के बीच के काल की तुलना 1799 के पहले की फ्रांस की उन राजनीतिक स्थितियों से की है जिनमें नेपोलियन प्रथम का उदय हुआ था। अपनी इस कृति के प्रारंभ में वे हेगेल के एक कथन की चर्चा करते हुए कहते हैं कि ‘‘हेगेल ने एक जगह कहा है कि ऐसा लगता है कि विश्व इतिहास में वे सभी घटनाएं और हस्तियां, जिनका भारी महत्व है, दो बार आविर्भूत हुई है।‘‘ इसपर मार्क्स ने अपनी टिप्पणी करते हुए लिखा था -‘‘वे इतना और कहना भूल गये : पहली बार दुखांत नाटक के रूप में और दूसरी बार प्रहसन के रूप में। ...अठारहवीं ब्रुमेर का द्वितीय संस्करण जिन परिस्थितियों में पैदा हुआ है वे इसे प्रथम वे इसे प्रथम संस्करण का कार्टून बना देती है।’’
दुखांत नाटक यूरोपीय साहित्य का वह उत्कृष्ट अंश है जिसमें मनुष्य की समस्त उदात्त शक्तियां अपने चरम रूप में व्यक्त होने पर भी कथा का अंत व्यवहारिक जीवन की कटु सच्चाई में होता है। प्रहसन हर प्रकार की मौलिकता और उदात्तता से रहित सिर्फ छुद्रताओं का प्रदर्शन भर है।
मार्क्स की इस कृति में किये गये विश्लेषण की रोशनी में जब हम विगत एक दशक से भी ज्यादा समय के अपने देश के राजनीतिक इतिहास, शासक दल के संकट और विपक्ष की वर्तमान स्थिति को देखते हैं तो माक्र्स द्वारा किये गये तमाम विश्लेषण हमें बिल्कुल भविष्यवाणियां करते हुए प्रतीत होते हैं। सन् ‘75 के पहले का समय, जेपी के नेतृत्व में शुरू हुआ जन-आंदोलन, फिर आपातकाल, आपातकाल-विरोधी संघर्ष तथा जनता पार्टी के शासन की स्थापना - यह समूचा घटनाक्रम लगभग एक दशक बाद आज जैसे फिर से खुद को दोहराता हुआ प्रतीत होता है। लेकिन जब हम बहुत गहराई से ‘पुनरावृत्ति’ के इस नये दौर का, इसके नाकों तथा अन्य अभिनेताओं की स्थितियों का विवेचन करेंगे तो यह समझते देर न लगेगी कि खुद को दोहराता सा प्रतीत होरहा यह इतिहास भी सचमुच अपने प्रथम संस्करण की एक कार्टून की तरह की ही नकल प्रस्तुत कर रहा है।
इन्दिरा गांधी पर आरोप था कि उन्होंने जनतंत्र का गला घोंट कर एकदलीय तानाशाही और फिर एक व्यक्ति की तानाशाही तक कायम करने की मुहिम शुरू की थी। जनतांत्रिक संस्थाओं की साख को गिराने का, न्यायपालिका को कार्यपालिका के अधीन करके संविधान को पंगु बनाने का अभियान शुरू किया। गरीबी हटाओं के नारे की आड़ में गरीबों को हटाने की योजनाओं पर अमल किया। सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार बढ़ा। इन्दिरा गांधी के खिलाफ देशव्यापी संघर्ष को नेतृत्व दिया था जयप्रकाश नारायण ने - भारत में स्वतंत्रता संग्राम के नायकों में से एक, सालों से सीधी राजनीति से अलग रह कर सर्वोदय के जरिये रचनात्मक कार्यों के गांधीवादी कार्यक्रमों को समर्पित व्यक्तित्व ने। उस समय जनता के तमाम हिस्से लड़ाई के मैदान में उतरने लगे थे। रेल हड़ताल तथा अन्य औद्योगिक हड़तालों के सिलसिले ने वर्ग संघर्ष को सड़कों पर उतार दिया था। तभी इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इन्दिरा गांधी द्वारा चुनाव में भ्रष्ट उपायों का प्रयोग करने के आरोप के पक्ष में राय दी जिसने संकट-ग्रस्त कांग्रसी बारूदखाने में चिंगारी का काम किया। अपनी सत्ता को बचाये रखने के लिये इन्दिरा गांधी ने आंतरिक आपातकाल की घोषणा की। जयप्रकाश सहित विपक्ष के नेताओं को जेलों की सींखचों में बंद कर दिया गया। अध्यादेशों का राज कायम हुआ। मनमाने ढंग से संसद की अवधि तक को बढ़ा दिया गया। संविधान का 42 वां संशोधन, जनता के सभी जनतांत्रिक और मूलभूत अधिकारों को रौंदा जाने लगा। इसी पूरे काल में प्रधानमंत्री के निवास पर प्रायोजित प्रदर्शनों के अनोखे दृश्य देखने को मिले थे जब श्रीमती गांधी बंटोर कर लाये गये लोगों के सामने अपने ही बाप-दादाओं द्वारा रचे गये संविधान और न्याय प्र्रणाली की धज्जियां उड़ाते हुए अपनी तानाशाही की मुहिम पर ‘समाजवादी’ मुलम्मा चढ़ाया करती थी। उनके इस ‘समाजवाद’ के पक्ष में भारत के सबसे बड़े इजारेदार पूंजीपति के.के.बिड़ला भी अपने गोत्र के लोगों के साथ वातानुकूलित चैंबरों को त्याग कर सड़कों पर उतर आये थे।
आपातकाल के पक्ष में पूंजीपतियों का इस प्रकार सड़कों पर उतरना ऐसा ही था जैसे पूंजीपति वर्ग का एक हिस्सा अपने अस्तित्व और सुरक्षा के लिये अपने ही राजनीतिक शासन (संसदीय शासन) की समाप्ति को जरूरी समझने लगा था और प्रधानमंत्री के सामने दुम हिलाते हुए उन सारी व्यवस्थाओं को समर्थन दे रहा था जो हर स्तर पर जनतंत्र को कुचल डाले ताकि एक शक्तिशाली और निरंकुश सरकार की छत्रछाया में पूरे इत्मीनान के साथ वे अपना निजी धंधा चला सके।
इसके बाद ही सन् ‘77 का आमचुनाव आया। जनता और संसदीय जनतंत्र ने मतपेटियों में अपनी चरम शक्ति का परिचय दिया तथा जे.पी. की ‘संपूर्ण क्रांति’ जनता पार्टी की सरकार की स्थापनो के स्तर तक पर्यवसन के रूप में फलीभूत हुई। जनता पार्टी के रूप में इका हुए सभी ‘जनतंत्रवादी’ सूरमाओं ने शत्रु के पराजित हो जाने की कल्पना करके अपने मन में बना रखी ऐसी योजनाओं की डींग हांकने में सारा समय जाया करना शुरू कर दिया जिन पर वास्तव में अमल की उनके पास कोई परिकल्पना ही नहीं थी। संसदीय जनतंत्र एक बार फिर स्थापित हुआ लेकिन जनतंत्र के विस्तार के सारे वादे ताक पर धरे रह गये। मिनि मिसा, औद्योगिक सुरक्षा विधेयक की तरह के कदमों से इस कटु सच्चाई को वे भी छिपा के नहीं रख सके कि पूंजीवादी जनतंत्र एक वर्ग द्वारा दूसरे वर्गों पर एक स्वेच्छाचारी शासन भर है। उल्टे जनता पार्टी में घुसी सांप्रदायिक और पुरातनपंथी शक्तियों ने खुद को तेजी से गोलबंद करना शुरू कर दिया ताकि संकट के फिर किसी नये दौर में ‘सैन्यवादी जनतंत्र’ नहीं तो कम से कम ‘सांप्रदायिक जनतंत्र’ का ही नुस्खा वे जनता के सामने रख सके। मात्र अढ़ाई वर्ष में वह जनता पार्टी जिसके कुछ घटकों ने शायद यह कल्पना की थी कि उन्होंने ‘क्रांति द्वारा त्वरित ऐतिहासिक गति की क्षमता’ प्राप्त कर ली है, सहसा खुद को एक मृतयुग में पहुंच गयी पाती है। उसके घटकों की अयोग्यता और उसके भीतर पैठी सांप्रदायिक शक्तियों के कारनामों की थाती पर ही फिर से इंदिरा कांग्रेस की सरकार कायम हुई।
दुबारा कायम हुए इंदिरा गांधी के शासन के बाद की स्थितियों ने यही साबित किया कि अयोग्यता अब कोई दलीय मामला नहीं बल्कि एक वर्गीय सच्चाई बन गयी है। पूंजीवादी-सामंती वर्गों के पास जनता की किसी भी समस्या के समाधान का कोई रास्ता नहीं है। सांप्रदायिक और विभाजनकारी ताकतों से रफ्त-जब्त भी इनकी राजनीतिक मजबूरी का रूप लेती जा रही है। समाजवाद का नारा तथा साम्राज्यवाद से घनिष्ठता तो इनकी राजनीतिक और आर्थिक जरूरतों की पूर्ति की पुरानी रणनीति रही है। इसी दौर में, चुनावों में हमेशा जनता द्वारा ठुकराये गये बददिमाग वित्त और विदेश व्यापार मंत्री प्रणव मुखर्जी ने विदेश व्यापार विभाग को कांग्रेस की दुकानदारी की खिड़की बनाकर चुनावों के वक्त देशी पूंजीपतियों के धन पर से कांग्रेस की निर्भरता को कम करने का एक नया नुस्खा खोजा कयोंकि आपातकाल विरोधी लड़ाई में भारतीय पूंजीपतियों के एक हिस्से ने भी मदद की थी। तभी से विदेशी कंपनियों के साथ सरकारी सौदेबाजियों में दलाल नामक एक तीसरे पक्ष की उपस्थिति का सिलसिला शुरू होगया। बोफोर्स कांड के पर्दाफाश होने के बाद भारत छोड़ कर अमेरिका भगा दिया गया दिल्ली का विन चड्ढा दरअसल उसी दौर की उपज था।
इसके अलावा आपातकाल और उसके बाद के अनुभवों से शिक्षित होकर इंदिरा गांधी ने नये-नये काले कानून बना कर आपातकालीन स्थितियों के स्थायी बंदोबस्त की मुहिम शुरू की। ‘फूट डालो और राज करो’ का औपनिवेशिक शासन का मंत्र अब हर दृष्टि से दिवालिया होते जा रहे पूंजीवादी सामंती वर्गों के शासन का स्थायी मंत्र होगया। इस बात की अब उन्हें कत्तई परवाह नहीं रही कि जनता की एकता में दरार देश की एकता और अखंडता पर घात लगाये बैठे दुश्मनों का ही रास्ता साफ करेगी। उल्टे सत्तासीन खुराफाती दिमागों ने अपने द्वारा पैदा किये गये संकटों को ही अपनी पूंजी बनाने का मायावी खेल खेलना शुरू किया। कुल मिलाकर इससे नफरत की ऐसी आग भड़की कि अंतत: अपने अंगरक्षकों के हाथों ह श्रीमती गांधी को अपनी जान गंवानी पड़ी ; अस्थिरता पैदा करने की अपनी कुचालों के साथ बिल्कुल नंगे रूप में भारत के मंच पर उतर आने में साम्राज्यवाद को अब कोई शर्म नहीं रही।
इन हालात में ही राजीव गांधी सत्ता में आयें। शासक दल का दिवालियापन इस सीमा तक पहुंच चुका था कि उसके पास जनता को देने के लिये वंश-परंपरा के अपने किस्म के राजतंत्रीय जनतंत्र के सिवा दूसरो कोई विकल्प नहीं था। जनतांत्रिक प्रक्रिया से गद्दी पर बैठा राजकुमार विरासत के तौर पर झूठ, धोखा, भ्रष्टाचार, सांप्रदायिकता, अदूरदर्शिता, तथा देशी-विदेशी पूंजीपतियों की सेवा के अलावा अपने साथ और कुछ नहीं लाया था। हवाई जहाज उड़ाने का शाहाना शौक फरमाते हुए लफंगा समझा जाने वाला छोटा राजपुत्र जब खुदा को प्यारा होगया तब ये महोदय हवाई जहाज चलाना छोड़ कर एक ऐसे काल में अपनी माता से राजनीतिक प्रशिक्षण लेने आये थे जब उनके पास झूठ, धोखा, भ्रष्टाचार, सांप्रदायिकता आदि की तरह के ‘राजनीतिज्ञ के महान गुणों’ के अलावा देने के लिये और कुछ नहीं था। राजनीति को इन्हीं महान गुणों का पर्याय समझने की इनकी शिक्षा ने सत्तासीन होने के पहले दिन ही हमारे सामाजिक ढांचे पर एक कहर बरपा दिया। ‘एक बड़ा वृक्ष गिरता है तो आसपास की घरती कुछ कांपती ही है’ के तर्क पर इन्होंने सिखों के खिलाफ दंगों को बढ़ावा दिया और पूरे सिख समाज में विलगाव की भावनाओं को स्थायी बना दिया।
प्रचंड बहुमत से सत्ता पर आने के ठीक बाद ही इनके भूसे भरे कूट दिमाग का जो परिचय मिलना शुरू हुआ तो फिर श्रीमान क्लीन, 21वीं सदी तथा कांग्रेस के अंदर सत्ता के दलालों के खिलाफ गलेबाजी की कोई भी छटा इनकी गिरती छवि को चमका नहीं पायी, क्योंकि ये सारी चीजें एक ऐसे व्यक्ति की बेईमानियों को छिपाने की कोशिश भर थी जिसने अब तक अपने लिए त्याग, ईमानदारी और दूरदर्शिता की कोई पूंजी इकट्ठी नहीं की थी। नई आर्थिक नीति, नई शिक्षा नीति की तरह की तमाम ‘नई नीतियां’ तलाकशुदा मुस्लिम महिला विधेयक, असम, मिजोरम, दार्जलिंग के अलगाववादियों के साथ उनकी रब्तो-जब्त कांग्रेस दल की नीतियों के नकारात्मक पक्षों का, साम्राज्यवादी, सांप्रदायिक और अलगाववादी शक्तियों के प्रति समझौता-परस्ती की नीतियों का भयावह विकास ही है क्योंकि जिस परिवेश में इनकी परिवरिश हुई है उसमें उन सकारात्मक पक्षों के प्रति उनके दिल में किसी प्रकार की श्रद्धा पैदा होने का कोई कारण नहीं था, जो आजादी की लड़ाई की विरासत के तौर पर कांग्रेस दल को मिले थे। इसके अलावा इन चंद अढ़ाई वर्षों के शासन की खुद की सबसे बड़ी विडंबना यह रही कि एक ओर तो सत्ता के शीर्ष पर बैठे व्यक्ति के संगी-साथी थे बेईमान पूंजीपति, कालाबाजारी और सत्ता के दलाल किंतु दूसरी ओर उनकी छवि को श्रीमान क्लीन के रूप में निखारने की गरज भी थी। इसी गरज के चलते वित्त मंत्री छापे मार-मार कर कई ‘इज्जतदारों’ को सरेआम नंगा कर रहे थे। लेकिन यह स्थिति अधिक दूर तक बनी रहे, यह मुमकिन नहीं था क्योंकि संगी-साथियों की सोहबत का असर नौजवान प्रधानमंत्री पर न पड़ें, यह नामुमकिन था।
अपने ‘इहलोक’ और ‘परलोक’ दोनों को ही सुरक्षित करने के लिये ईरान के शाह और फिलीपीन के सम्राट ने जिस प्रकार अपने देश के धन को भारी मात्रा में अमरीकी बैंकों में जमा कराया था, जो बाद में देश छोड़ कर भागने कके लिए मजबूर होने पर उनके शाहाना जीवन को बनाये रखने के काम भी आया, उसी प्रकार अपने दोनो लोकों को सुरक्षित कर लेने का मोह इस ‘राजतंत्रीय जनतंत्र’ के युवा सम्राट में भी पैदा हो जाये तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है, क्योंकि आखिर उन सम्राटानें ने इतना तो स्थापित कर ही दिया कि इस प्रकार की ‘साधना’ एक ‘विश्वव्यापी सचाई’ है।
छापे मारने के लिये खोले गये हाथ विदेशों में धन उड़ाके ले जाने की बाजीगरी के रहस्य तक पहुंचने लगे और यहीं से शासक दल के भीतर चीखों-चिल्लाहटों का वर्तमान दौर शुरू होगया। जिस राजपुत्र की कल्पित विशाल मूर्ति की छाया तले शासक दल के कुकुरमुत्ते राजनीतिज्ञ अपनी शक्ति से बहुत ज्यादा निगलकर लुढ़क-पड़ रहे थे, उन्हें हठात् वह विशाल मूर्ति तेजी से बौनी होती दिखाई देने लगी। बोफोर्स कांड ने हवा से फुलाकर रखे गये बबुए में सूई चुभो दी। सत्ता की लूट के तमाम भागीदारों के लिए अस्तित्व का संकट पैदा होगया है। हमारा राजनीतिक वर्तमान इसी संकटकालीन भागदौड़ की उत्तेजनाओं से जकड़ा हुआ है। और यहीं से इतिहास की पुनरावृत्ति का वह सवाल पैदा होता है जिसकी विडंबना की चर्चा से हमारी यह टिप्पणी शुरू हुई थी।
जैसी कि हम पहले ही चर्चा कर चुके हैं, हमारे स्वातंत्रोत्तर राजनीतिक जीवन में पहले भी उत्तेजनाओं से भरा एक ऐसा ही दौर बीत चुका है जब ‘कड़वी दवा के घूंट’ से मर्ज का इलाज किया गया था और आपातकाल के जरिये जनता के सारे जनतांत्रिक अधिकारों का हनन कर के शासक दल के राजनीतिक संकट का समाधान प्राप्त करने का प्रयास किया गया था। उस वक्त जनवादी आंदोलन की शक्ति ने भी अपना गौरवशाली परिचय दिया यद्यपि उसका अंत अवसरवादी राजनीतिज्ञों के जमावड़े के साथ जनता पार्टी के उत्थान ओर पतन के दुखांत नाटक के रूप में हुआ।
अब एक बार फिर शासक दल पर संकट के बादल घने हो रहे हैं। आम जनता में उसकी साख पूरी तरह से गिर चुकी है। जीवन की बुनियादी समस्याओं पर जनता में भारी असंतोष है। शासक दल के भतर भी दरार पड़ चुकी है। यह सब धीरे-धीरे एक बहुत बड़े विस्फोट की दिशा में बढ़ रहा है। कहां तो उनका दंभ था कि देश को वे ही 21वीं सदी तक ले जायेंगे और आज हालत यह है कि वर्तमाने लोकसभा की बाकी अवधि का एक-एक दिन उन्हें एक-एक साल जितना भारी लग रहा है। उनके पास इस संकट से निकलने का कोई रास्ता नहीं है। साम्राज्यवादी साजिशों की दुहाई भी इस स्थिति में सिर्फ उनकी कमजोरी को दर्शाती है। प्रधानमंत्री के निवास पर प्रायोजित प्रदर्शनों तथा बंटोर कर लाये गये भाड़े के समर्थकों के सिामने प्रधानमंत्री की ‘नानी याद दिला देने’ की हुंकारे बदहवासी की हास्यास्पद तस्वीर ही पेश करती है।
संकट का मुकाबला करने के लिए ही सहमें हुए ढंग से आज फिर अतीत के उन्हीं प्रेतों को जगाने की कोशिश की जारही है, जो एक बार इंदिरा गांधी को अपनी सेवाएं अर्पित कर चुके हैं। लेकिन इतिहास का बसक यह भी है कि वे सारे प्रयत्न अधिक दूर तक कारगर साबित नहीं हुए थे। आपातकाल के बाद के चुनावों ने ‘एशिया के सूर्य’ को धरती की धूल चटवा दी थी। इसीलिए आज सबसे बड़ा खतरा यही है कि आपातकाल के बाद चुनाव परिणामों से मिली सीख आज एक के बाद एक चुनावों में हार रही शासक पार्टी का जनतांत्रिक प्रक्रिया पर से ही पूरी तरह से भरोसा उठा दे तो कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी।
इसी संदर्भ में आज विपक्ष की स्थिति पर भी गौर करने की जरूरत है। राजनीतिक दृष्टि से तब ( अर्थात आंतरिक आपातकाल की घोषणा के ठीक पहले) और अब की स्थिति में जो सबसे बड़ा फर्क है वह यह कि आज दो राज्यों ( पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा) में वामपंथी और जनवादी ताकतों की सरकारें मजबूती के साथ कायम हैं। इनके अलावा कई राज्यों में विपक्षी दलों की सरकारें हैं। केंद्रीय स्तर से चरम तानाशाही की ओर उठते किसी भी कदम के खिलाफ जनता का व्यापक प्रतिरोध कायम करने में भी ये सभी सरकारें अत्यंत कारगर साबित हो सकती हैं। लेकिन इसके साथ ही वर्तमान संघर्ष का मुख्य क्षेत्र जो हिन्दी भाषी क्षेत्र है, जो भारत की राजनीति को सर्वाधिक प्रभावित करता है, उसमें लड़ाई का नेतृत्व एक ऐसा व्यक्ति कर रहा है जिसने जनता के दिलों में अपनी ईमानदारी की साख तो जरूर कायम की है लेकिन कल तक उन तमाम नीतिगत प्रश्नों पर, जिनके चलते जीवन के हर क्षेत्र में इतना गहरा संकट पैदा हुआ है, वह इसी शासक दल का अंश रहा है और इसीलिए स्वयं उनके पीछे भिन्न जनवादी नीतियों के आधार पर गोलबंद जनशक्ति नहीं है।
स्वयं को दोहराते से प्रतीत हो रहे इतिहास की यही विडंबना है जो इतिहास के एक दुखांत वाले अध्याय को फिर एक बार अत्यंत भयावह परिणतियों तक ले जाने वाले प्रहसन के रूप में हमारे राजनीतिक रंगमंच पर अवतरित कर सकती है। इंदिरा गांधी और परंपरागत कांग्रेसी राजनीतिज्ञों के समूह का स्थान हवाई जहाज चालक उनके बेटे तथा अभिनेता, अभिनेत्रियों और कमीशनखोर धंधेबाजों ने ले लिया है और दूसरी ओर जे.पी. के स्थिान पर वी.पी.सिंह दिखाई दे रहे हैं।
जैसा कि साफ नजर आता है आगे राजनीतिक संकट और घना होगा। सत्ता पर जितने ही मूर्ख, काठ के उल्लू क्यों न बैठे हों उनकी डोर किंतु बड़े-बड़े पूंजीपतियों और सामंतों के हाथ में बंधी हुई हे। दूसरी ओर क्रमश: विकसित होता हुआ जन आंदोलन विक्षुब्ध जनता को सड़कों पर उतार देगा। उसमें अपने अधिकारों की चेतना विकसित करेगा। इन परिस्थितियों में आपातकाल विरोधी संघर्ष के दिनों की तरह ही वर्गीय शक्तियों के कमोबेस वैसे ही गठबंधन को यदि फिर एक बार राष्ट्रीय विकल्प के तौर पर प्रस्तुत किया जाता है, संगठित वामपंथी और जनवादी शक्तियां यदि इस विकासमान परिस्थिति में हस्तक्षेप नहीं कर पाती है तो सबको यह भी जानकर रखने की जरूरत है कि सत्ता पर बैठा लूटने-खाने वालों का गिरोह जनता की जनतांत्रिक चेतना की स्वत: स्फूर्त अभिव्यक्ति के लिए आम चुनाव की तरह का शायद ही फिर कोई मौका प्रदान करे। चुनाव में पराजित होकर इंदिरा गांधी ने भी सभी सेनाध्यक्षों के साथ बैठक करके उनकी मानसिकता को जानने की कोशिश की थी। और आज रिबेरो फार्मूले पर केंद्रीय सरकार की अगाध आस्था वृहत्तर संदर्भों में बहुत ही भयावह और स्वेच्छाचारी रूप में व्यक्त हो सकती है।
इसीलिये विपक्ष की जो जनवादी और धर्म-निरपेक्ष पार्टियां तथा व्यक्ति आज इतिहास की हूबहू पुनरावृत्ति का सुहाना सपना देखने में मगन है, उन्हें बिल्कुल स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिए कि यह समूचा घटनाक्रम किसी फासिस्ट शासन की स्थापना के भयावह प्रहसन में पर्यवसित न हो इसके लिए पूरी दूरदर्शिता के साथ उन्हें इतिहास की गति को पढ़ते हुए अपनी भूमिका तय करनी होगी। वर्तमान संकट किसी भी सकारात्मक दिश में तभी फलदायी हो सकता है जब जन-जीवन, जनतंत्र और राष्ट्र की मूलभूत समस्याएं, जमीन का प्रश्न, केंद्र-राज्य संबंधों के पुनर्विन्यास का प्रश्न, राष्ट्रीय एकता और अखंडता के प्रश्न, सांप्रदायिक और अलगाववादी ताकतों से संघर्ष का प्रश्न संघर्ष के केंद्र में आ जाये ; शक्तियों के संतुलन को बदलकर वामपंथी, जनवादी और धर्म-निरपेक्ष शक्तियों के पक्ष में हो जाये। भ्रष्ट और राष्ट्रविरोधी तत्वों को सत्ता से उखाड़ फेंकने का संघर्ष जनता के सच्चे जनवाद को कायम करने की लड़ाई के उत्कर्ष तक जाये। वर्ना भारत के भाग्य में अभी ओर भी अनेक जुल्मों और कष्टों को सहना बदा है, इसमें शक नहीं है। जन-विक्षोभ की इन्हीं तरंगों पर दक्षिणपंथी फासिस्ट ताकतें भी सत्ता पर काबिज हो सकती है और इन्हीं में वामपंथी जनवादी शक्तियों का भी भविष्य निहित है। विगत सालों में देश के विभिन्न हिस्सों में वामपंथी और जनवादी तथा धर्म-निरपेक्ष देशभक्त शक्तियों ने जो भी शक्ति अर्जित की है, अब वक्त आ रहा है जब इस समूची शक्ति को वर्तमान भ्रष्ट और जन-विरोधी सरकार के खिलाफ संघर्ष में झोंक कर भारत के राजनीतिक इतिहास की गति को बदला जाय, यह संघर्ष ही किसी सही राष्ट्रीय विकल्प को जन्म देगा।
वामपंथी पार्टियों ने राजीव गांधी के पदत्याग और मध्यावधि चुनाव की मांग उठा कर इसी संघर्ष का बिगुल बजाया है। यह संघर्ष उन मूल्यों की पुनस्र्थापना का संघर्ष है जिन्हें हमारे राष्ट्र ने आजादी की लड़ाई के दौरान अर्जित किये थे और जो विगत तीस वर्षों के कांग्रेसी शासन की गलत नीतियों के चलते क्रमश: कमजोर होते चले जा रहे हैं। यह लड़ाई हमारी अर्थ-व्यवस्था में साम्राज्यवादी घुसपैठ के खिलाफ देश की आजादी और अखंडता की रक्षा की लड़ाई है। यह लड़ाई सभी जनतांत्रिक संस्थाओं को पुनर्जीवित करने, जनतंत्र को और ज्यादा विस्तृत करने, मेहनतकश जनता को समाज में उसका सम्मानित स्थान दिलाने की लड़ाई है। भारत में सांप्रदायिक औ अलगाववादी ताकतों के विरुद्ध भी यह एक फैसलाकुन लड़ाई होगी। इसकी गंभीरता को आज देश के हरेक जनतंत्र-प्रेमी धर्म-निरपेक्ष और देशभक्त इंसान को समझना होगा। वर्ना असावधानी अब भारतीय जनतंत्र के लिए भयावह दुर्घटना का कारण बन सकती है।
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