गुरुवार, 20 फ़रवरी 2014

कल्पना चावला की विरासत


अरुण माहेश्वरी

धरती पर कोलंबिया नहीं, सिर्फ उसका मलबा वापस आया। 1 फरवरी 2003 की सुबह जब प्रतीक्षा थी कि 16 दिनों के सफल मिशन के बाद अमरीकी अंतरिक्ष संस्था नेशनल एअरोनाटिक्स एंड स्पेश एडमिनिस्ट्रेशन (नासा) का अंतरिक्ष यान कोलंबिया अपने सातों अंतरिक्ष यात्रियों के साथ वापस लौट आयेगा, उसी दिन धरती के वायुमंडल में प्रवेश के साथ ही लगभग 63 हजार फुट की ऊंचाई पर एक भारी विस्फोट के साथ वह टुकड़े-टुकड़े हो गया और एक साबुत कोलंबिया के बजाय, उसका मलबा और अंतरिक्ष यात्रियों के अवशेष अमरीका के टेक्सास के लगभग 500 वर्ग मील के दायरे में बिखर गये। आदमी के अंतरिक्ष अभियान के 41 वर्षों के इतिहास में पहली बार कोई यान इस तरह अपनी वापसी के वक्त धरती के वायुमंडल में प्रवेश के साथ ही चकनाचूर हो गया।

कोलंबिया की इस दुर्घटना ने दुनिया के समूचे वैज्ञानिक समाज को और विज्ञान की प्रगति पर आशा भरी निगाहें टिका कर रखने वाले हर प्रगतिशील इंसान को भारी धक्का पंहुचाया है। दुर्घटना के कारणों की जांच चल रही है। इसके आखिरी निष्कर्षों आने में काफी समय लगेगा। इसी बीच कुछ ऐसी बातें भी सामने आयी जिनसे पता चलता है कि ये अंतरिक्ष अभियान भी नौकरशाही की बीमारियों से अछूते नहीं रहते हैं। कोलंबिया यान की यह 28वीं अंतरिक्ष यात्रा थी। पिछले दिनों इस यान में कई खराबियां दिखाई देने लगी थी। खबरों के अनुसार नासा के कई विशेषज्ञों ने कोलंबिया के बारे में सुरक्षा संबंधी कई चेतावनियां दी थी, लेकिन नासा के अधिकारियों ने उनकी चेतावनियों पर कान देने के बजाय उन विशेषज्ञों को ही नौकरी से निकाल देना मुनासिब समझा। इसके अलावा अब अंतरिक्ष यानों में सुरक्षा संबंधी सभी कदम उठाने के लिये जरूरी अर्थ की कमी की बात भी कही जा रही है।

बहरहाल, कोलंबिया की इस दुर्घटना में मनुष्यता को दुनिया के अंतरिक्ष संबंधी खोजों में लगे सात बेहतरीन वैज्ञानिकों को गंवाना पड़ा, जो नि:सन्देह विज्ञान के  जगत के लिये एक बड़ी क्षति है। इन्हीं सात वैज्ञानिकों में एक भारतीय मूल की वैज्ञानिक कल्पना चावला भी थी। 41 वर्षीय कल्पना हरियाणा के करनाल में जन्मी थी। जिस देश के व्यापक समाज में आज भी घर में बेटी का जन्म नाना दुश्चिंताओं का कारण माना जाता है, उस देश की जिस बेटी ने अंतरिक्ष वैज्ञानिक के रूप में ब्रह्मांड के रहस्यों को जानने की कोशिशों में जिंदगी खपा देने वाले दुनिया के महान वैज्ञानिकों की कतार में अपने को शामिल कर लिया था, उसकी इस अकाल मृत्यु से सभी देशवासियों का गहराई से मर्माहत होना बहुत ही स्वाभाविक है।

ब्रह्मांड हमेशा से मनुष्य की जिज्ञासाओं के केंद्र में रहा है। इसके असीम अनंत रूप के रहस्य ने आदमी को अपने और इस धरती के अस्तित्व के बारे में कितने सवालों, विश्वासों और अंध-विश्वासों के रूबरू किया है, इसका कोई हिसाब नहीं है। कहा जा सकता है कि यदि ब्रह्मांड आदमी की जिज्ञासाओं का स्रोत रहा है, तो यही किसी सर्वशक्तिमान के विधान की कल्पना के आधार पर आदमी की कोरी आस्था और अंध-विश्वासों का आदि स्रोत रहा है। मनुष्य के स्वाभाविक सवालों और जिज्ञासाओं के विपरीत शुद्ध आस्था और अंध-विश्वासों के बल पर समाज पर अपना वर्चस्व कायम रखने वाले धर्म-संस्थानों ने ब्रह्मांड के रहस्य को एक बंद किताब बना कर आदमी की जिज्ञासु प्रवृत्ति के दमन के लिये ही इस ब्रह्मांड के बारे में ऐसे तमाम ‘ईश्वरीय’ सिद्धांत रच रखे थे, जिन पर सवाल उठाना ईश्वर की सत्ता को चुनौती देने समान भारी अपराध माना जाता था। कछुए की पीठ की मीनारों या शेषनाग के फन पर टिकी धरती की तरह की धार्मिक मान्यताओं की भांति ही आकाश में तमाम खगोलीय पिंडों की स्थिति को खोज के बजाय धार्मिक विश्वास और आस्था का विषय बना दिया गया था। धरती के स्वरूप के बारे में आम विश्वासों से भिन्न, 340 ई.पू. में युनानी दाशर्निक अरस्तू ने सामान्य अवलोकनों के आधार पर ही जब पृथ्वी को चपटी के बजाय गोल बताया था, तो इसके लिये उसे असीम धैर्य और साहस की जरूरत पड़ी थी। लेकिन अपने कोरे विश्वास के बल पर ही वे यह मानते रहे कि पृथ्वी ही ब्रह्मांड का केंद्र है; पृथ्वी स्थिर है और सूर्य, चंद्रमा, ग्रह तथा तारें इसके चारो ओर गोल कक्षा में घूम रहे हैं। दूसरी शताब्दी में टालेमी ने अरस्तू के विचारों को ब्रह्मांड के अवस्थान के एक पूर्ण मॉडल का रूप दिया। टालेमी के उस मॉडल में कुछ साफ खामियां होने पर भी इसाई चर्च ने उस पर इसलिये स्वीकृति की मोहर लगा दी कि वह बाइबिल में चित्रित ब्रह्मांड की तस्वीर से मेल खाती थी। उसमें सितारों से आगे ‘स्वर्ग’ और ‘नरक’ के बने रहने की गुंजाईश बनी हुई थी।

चर्च की इन स्थापनाओं को चुनौती दी थी रौगर बैकन (लगभग 1210 से 1293) ने। तीव्र भावावेग के साथ उन्होंने लिखा, यदि मेरा वश चले तो मैं अरस्तू की सारी किताबों को जला कर राख कर दूं क्योंकि उन्हें पढ़ना समय की बर्बादी, भूल करने और अज्ञानता को बढ़ाने के अलावा कुछ नहीं है। युरोपीय नवजागरण के अग्रदूतों के तेवर के साथ उन्होंने यह आान किया था कि जड़ सूत्रों और सत्ता बल के अधीन रहना बंद करो; दुनिया को देखो! इस प्रकार उन्होंने युरोप में स्थापित मान्यताओं को चुनौती देने और लगातार खोज और प्रयोगों की ओर बढ़ते रहने के बौद्धिक परिवेश को बनाने में एक अहम भूमिका अदा की थी। इसके बावजूद ब्रह्मांड के बारे में चर्च की स्थापना का आतंक ऐसा था कि परवर्ती दिनों, 16वीं शताब्दी के पूर्व में जब पोलैंड के एक पुरोहित निकालस कापर्निकस (1473-1543) ने यह पाया कि सूर्य केंद्र में स्थित है और पृथ्वी तथा दूसरे ग्रह सूर्य के चारों ओर चक्राकार कक्षाओं में घूमते हैं, तो उन्होंने अपने इस अवलोकन को गुमनाम प्रसारित किया था ताकि वे चर्च द्वारा खुद को विधर्मी घोषित किये जाने के दंड से बच सके। कापर्निकस के निष्कर्षों को चर्च की विश्व-दृष्टि के मूलाधार पर हमला माना गया था। प्रकृति का नियम धरती और पूरे ब्रह्मांड पर समान रूप से लागू होता है और यह कोई ईश्वरीय विधान नहीं, बल्कि मनुष्य के लिये बोधगम्य विधान है- इस बात को ईश्वर द्वारा पृथ्वी को रचे जाने के विश्वासों पर प्रहार के तौर पर समझा गया। इसीलिये चर्च ने सन् 1616 में कापर्निकस की पुस्तक ‘आन द रिवोल्यूशन्स आफ हेवनली स्फेयर्स’ पर पाबंदी लगा दी, कापर्निकस के निष्कर्षों को कोरी बकवास घोषित कर दिया गया। उनकी किताब पर लगी पाबंदी दो सौ वर्ष बाद, 1828 में ही उठ पायी।  

कापर्निकस के लगभग एक शताब्दी बाद जर्मनी के जॉहन्स कैपलर (1571-1630) और इटली के गैलेलियो गैलिली (1564-1642) ने उनके अवलोकन को गंभीरता से स्थापित करने का काम किया, लेकिन उनके प्रति भी चर्च का क्या रुख रहा, इसे सारी दुनिया जानती है। गैलेलियो को बाकायदा चर्च की अदालत में दंडित किया गया और उनसे यह इकबालिया बयान लिया गया कि कापर्निकस के सिद्धांत के बारे में उनकी राय सही नहीं है। यद्यपि दमन के बल पर हासिल की गयी गैलेलियो की इस स्वीकृति को कभी भी एक औपचारिकता से अधिक महत्व नहीं दिया गया, फिर भी कैथोलिक चर्च ने गैलेलियो को जो दंड दिया था उसे गलत मानने में कैथोलिक चर्च को लगभग चार सदी का समय लगा। अभी पांच साल पहले वैटिकन ने एक बयान जारी करके गैलेलियो के साथ किये गये अन्याय की अपनी भूल को स्वीकारा है।

गैलेलियो के उपरांत में न्यूटन (1643-1727) के गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत से लेकर आइंस्टाइन के सापेक्षता के साधारण सिद्धांत और आज तक इस ब्रह्मांड के बारे आदमी की समझ में लगातार विकास हो रहा है। ब्रह्मांड के बारे में आज जो बात सर्व-स्वीकृत है कि यह सदैव से स्थिर रहने के बजाय निरंतर परिवर्तनशील है, बीसवीं सदी के पहले किसी ने इसकी कल्पना तक नहीं की थी। यद्यपि ब्रह्मांड के बारे में आस्थावानों के बीच आज भी आम धारणा यही है कि यह एक शाश्वत सत्य है। इसके बारे में किसी प्रकार के प्रश्न को ईश्वरीय कार्यों में अवांछित मानवीय हस्तक्षेप माना जाता है। इसके बावजूद, निश्चित तौर पर यह कहा जा सकता है कि आज भी ब्रह्मांड मानव जाति की गहनतम जिज्ञासा का विषय बन कर मनुष्य द्वारा लगातार खोजों और अधिकतम ज्ञान हासिल करने का हेतु बना हुआ है।

कल्पना चावला ने खुद को खोज की इन्हीं अद्दम्य मानवीय कोशिशों के सुपुर्द कर दिया था। वे चांद पर जाना चाहती थी। अंतरिक्ष की उनकी यह दूसरी यात्रा थी और भविष्य में ऐसी और भी अनेक यात्राओं के सपने पाले हुए थी। उन्होंने खुद को आकाश गंगा का नागरिक कहा था। अंतरिक्ष में जाकर ही अखिल ब्रह्मांड के विराट संदर्भ में पृथ्वी के गौण अस्तित्व को देख कर उन्होंने कहा था कि इस अनंत ब्रह्मांड के असंख्य खगोल पिंडों में पृथ्वी मात्र एक पिंड भर है, फिर भी पता नहीं क्यों इसी पृथ्वी पर इतनी मार-काट, आपाधापी और स्वार्थों की टकराहट और धरती के अस्तित्व मात्र को समाप्त कर देने वाले नाभिकीय अस्त्रों की होड़ मची हुई है। अंतरिक्ष से उन्होंने धरती पर शांति की कामना की थी।

ब्रह्मांड के रहस्यों की वैज्ञानिक खोज के क्रम में कल्पना चावला ने धरती के इस कटु यथार्थ की जो पहचान की थी, दुनिया के सभी मानवतावादियों और समताकामी लोगों के लिये सदियों से यही सबसे बड़ी चिंता और चुनौती का विषय बना हुआ है। अब तक ज्ञात जीवन की संभावनाओं के एक मात्र ग्रह पृथ्वी पर स्वार्थों और प्रभुत्व की सीमाहीन लालसाओं ने क्या तांडव मचा रखा है, यह सभी जानते हैं। प्रभुत्व-विस्तार के लिये ही नाभकीय शस्त्रों का इतना विशाल भंडार तैयार कर लिया गया है जो एक बार नहीं, इस धरती को सौ-सौ बार समाप्त करने में सक्षम है। यहां तक कि अन्तरिक्ष को भी प्रभुत्व की इस रणनीति के दायरे में लाने की कोशिश चल रही है।

सृष्टि के प्राकृतिक विधान में मनुष्य का ऐसा महा-विध्वंसक हस्तक्षेप आज विज्ञान की जड़ों को हिला रहा है। यह पुन: संवेदनशील इंसानों के एक बड़े हिस्से में विज्ञान के बजाय  प्रकृति के दासत्व को स्वीकारने की जमीन तैयार कर रहा है। कल्पना ने अपनी वैज्ञानिक खोज के क्रम में मानव की सेवा में रत विज्ञान के मर्म को आत्मसात किया था और इसीलिये धरती पर चल रहे विध्वंस के अमानवीय कृत्यों के अंत की कामना की थी। अन्यायपूर्ण धरती के बजाय स्वच्छ आकाश गंगा की नागरिकता को अपना कर उन्होंने धरती पर मची इस आपा-धापी पर सवालिया निशान लगाया था और विज्ञान की मानवीय आत्मा का परिचय दिया था। इसीलिये कल्पना को सच्ची श्रद्धांजलि युद्ध और विध्वंस के खतरों से मुक्त एक समतामूलक न्यायपूर्ण मानव समाज के निर्माण से ही दी जा सकती है। सितारों की दुनिया की एक चिरस्थायी नागरिक बन कर कल्पना ने मनुष्यता को विरासत के तौर पर विज्ञान की जो मानवीय दृष्टि सौंपी है, उसे सहेजना और लगातार विकसित करना ही आज के मनुष्य का सच्चा कर्तव्य है।

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