अरुण माहेश्वरी
मौजूदा घिनौनेपन के प्रति अक्सर दिखाई देने वाले रोष की गहरी और सच्ची भावना की आड़ के साथ की जाने वाली कुछ टिप्पणियां इतनी सनसनीखेज, उत्तेजक, विरोधाभासों से भरी, तिरस्कारपूर्ण आलोचना तथा कटु व्यंग्यों की मांसपेशीय शैली का ऐसा उदाहरण होती है कि वे न चाहते हुए भी अनायास ही किसी को बहस में खींच ले सकती है। डा. शंभुनाथ की इधर की कुछ अखबारी टिप्पणियों ने हमारे साथ कुछ ऐसा ही किया है।
यद्यपि मैं उनके पूरे लेखन से जरा परिचित हूं। यह सब उनका स्थायी भाव है। फिर भी, इन अखबारी टिप्पणियों से लगता है कि उनमें तर्क और सोच की आखिरी लौ भी बुझ गयी है, और क्षण विशेष की सफलता और सनसनी की कामना वाली अहम्मन्यता के अधकचरेपन के चलते आगे सामान्य नैतिक तत्व का अवलोप भी अवश्यंभावी है।
आज(13 अप्रैल), रविवार के जनसत्ता में उनकी टिप्पणी ‘सांप्रदायिक उफान में’ उपरोक्त सभी गुणों-अवगुणों का एक और क्लासिक उदाहरण है।
मसलन् इस टिप्पणी का प्रारंभ वे करते हैं :‘‘धर्म में कीचड़ लगने में सैकड़ों साल लगे होंगे, पर धर्म-निरपेक्षता में कुछ ही दशकों में ही काफी कीचड़ जम गया।’’
आप शंकित होंगे कि क्या धर्म-निरपेक्षता कुछ दशकों का ही मामला है! नहीं, पांचवी पंक्ति में ही शंभुनाथ कह देते हैं : ‘‘भारत की सैकड़ों साल की धर्म-निरपेक्ष परंपरा से कुछ भी नहीं सीखने...।’’ फिर भी, धर्म अपवित्र हुआ सैकड़ों सालों में धर्म-निरपेक्षता कुछ दशकों भर में! बूझिये इसे पहेली को!
आगे लिखते हैं, ‘‘एलीट अहंवाद की वजह से ही उत्तर भारत के लोगों में नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता बढ़ी है।’’
‘एलीट’, शंभुनाथ की नफरत का पुराना लक्ष्य, - अंग्रेजी पढ़ने-बोलने वाला तबका - ‘सांस्कृतिक प्रदूषण का चूहा’। जनसत्ता में ही पहले अपने एक लेख में वे इस चूहे को मार डालने का आह्वान कर चुके हैं।
वे कहते हैं, ‘‘यह सिर्फ हताशा नहीं, एक महान विश्वास के टूटने का नतीजा है।’’ मोहभंग का नतीजा। मुक्तिबोध की पैरोडी करते हुए कामरेडों से सवाल करते है, इस ‘मोहभंग’ में पार्टनर तुम्हारा क्या योगदान है? और, एक ऐसे नतीजे पर पहुंच जाते हैं, कि आज की लूट, हत्या, फरेब, घोटालों, किसानों की वंचना आदि सबके लिये सबसे अधिक कोई जिम्मेदार है तो वे हैं - ‘धर्म-निरपेक्ष महारथी’। मानो, धर्म-निरपेक्षता = नव-उदारवाद!
दुश्चिंता नरेंद्र मोदी की, और प्रचार उसीके सबसे बड़े झूठ का!
टिप्पणी आगे भी इसीप्रकार की मांसपेशीय शैली में कहती है, ‘धर्म-निरपेक्षता का राजनीतिक अस्त्र के रूप में’ क्यों इस्तेमाल किया गया, और जो बुद्धिजीवी गुजरात के दंगों के बाद मुखर हुए, उन्होंने आगे क्या किया, सांप्रदायिकता को रोक क्यों नहीं पायें !
एक नया, न समझ में आये वैसा, द्वैत खड़ा करते हैं - लेखकों और बुद्धिजीवियों का द्वैत। कहते हैं : ‘‘बुद्धिजीवियों की दुनिया लेखकों से काफी बड़ी होती है।’’ और बुद्धिजीवियों के बारे में फिर उसीप्रकार, ‘एलीट’ वाले उत्तेजक तिरस्कापूर्ण लहजे में संकेत देते हैं - ‘बुद्धिजीविता परजीविता में बदल’ गयी है और इसका कारण है - मोबाइल और इंटरनेट और इनसे चिपका हुआ ‘तकनीकी बुद्धिवाद’। इस बारे में उनका सबसे दिलचस्प मूल्य निर्णय है - ‘‘सोशल साइट पर हमेशा उसका कब्जा होता है, जिसके पास भयानक पूंजी है।’’
पूंजीवाद में जीवन का ऐसा कौन सा क्षेत्र है जिसपर पूंजी का प्रभुत्व न हो ! तभी तो पूंजीवाद है। लेकिन जैसे गरीबी का अर्थ सिर्फ गरीबी नहीं होता, पुराने समाज को उलट देने की विध्वंसकारी ताकत भी होता है, उसी प्रकार, हर क्षेत्र के अपने अंतर्विरोध और उनकी द्वंद्वात्मक गतिशीलता होती है।
वे ‘वैश्वीकरण’ को इस बात का श्रेय देते हैं कि उसके चलते ‘‘संप्रदायवाद को विषैले दांत छिपाने पड़ रहे हैं।’’ इसका और विखंडन करें तो पता लगेगा - धर्म-निरपेक्ष ताकतों का नव-उदारवाद सांप्रदायिकता को बढ़ाता है, नरेंद्र मोदी का नव-उदारवाद उसके विष पर पर्दा डालता है।
इस अनोखी टिप्पणी का आगे का हिस्सा कहता है नरेंद्र मोदी को अगर कोई रोकेगा तो स्थानीय ताकतें रोकेगी, ‘संभ्रांत’ केंद्र नहीं।
इसी एक बात से लगता है कि शंभुनाथ भारत के राजनीतिक इतिहास से कितनी बुरी तरह कटे हुए हैं। उन्हें इस बात का अंदाज ही नहीं है कि भारत में 1989 के बाद से ही, अर्थात पचीस साल पहले से केंद्र में मोर्चा सरकारों का दौर शुरू हो चुका है। इन पचीस सालों में किसी भी एक पार्टी को संसद में बहुमत नहीं मिला है। कांग्रेस और भाजपा, दोनों को मिला कर भी 50 प्रतिशत मत नहीं मिलते हैं।
इस टिप्पणी का अंत वे ‘सांस्कृतिक प्रदूषण के चूहों’ अर्थात एलीट, अर्थात तकनीकी बुद्धिवादी, अर्थात नॉलेज सोसाइटी वाले अर्थात मोदी के सत्ता पर आने पर भारत छोड़ देने की बात करने वाले ‘समर्थ-संपन्न’ कन्नड़ लेखक यूआर अनंतमूर्ति पर अपनी कटुता का विष उगलते हुए ‘प्राचीन कूपमंडुकता’ और ‘अति-आधुनिक कूपमंडुकता’ के शब्दाडंबर और तर्कहीनता की नयी सनसनी के साथ करते हैं।
हम जानते हैं, हमारी इस प्रतिक्रिया के प्रत्युत्तर में हमें शुद्ध गालियों और गर्जनाओं का सामना करना पड़ सकता है, जैसा पहले हो चुका है। लेकिन हमें यह कहने में जरा भी हिचक नहीं कि शंभुनाथ को ऐसी समस्याओं से निबटने में जरा भी संकोच नहीं होता, जिनके बारे में उनका बुनियादी ज्ञान तक नहीं है।
13.04.2014
मौजूदा घिनौनेपन के प्रति अक्सर दिखाई देने वाले रोष की गहरी और सच्ची भावना की आड़ के साथ की जाने वाली कुछ टिप्पणियां इतनी सनसनीखेज, उत्तेजक, विरोधाभासों से भरी, तिरस्कारपूर्ण आलोचना तथा कटु व्यंग्यों की मांसपेशीय शैली का ऐसा उदाहरण होती है कि वे न चाहते हुए भी अनायास ही किसी को बहस में खींच ले सकती है। डा. शंभुनाथ की इधर की कुछ अखबारी टिप्पणियों ने हमारे साथ कुछ ऐसा ही किया है।
यद्यपि मैं उनके पूरे लेखन से जरा परिचित हूं। यह सब उनका स्थायी भाव है। फिर भी, इन अखबारी टिप्पणियों से लगता है कि उनमें तर्क और सोच की आखिरी लौ भी बुझ गयी है, और क्षण विशेष की सफलता और सनसनी की कामना वाली अहम्मन्यता के अधकचरेपन के चलते आगे सामान्य नैतिक तत्व का अवलोप भी अवश्यंभावी है।
आज(13 अप्रैल), रविवार के जनसत्ता में उनकी टिप्पणी ‘सांप्रदायिक उफान में’ उपरोक्त सभी गुणों-अवगुणों का एक और क्लासिक उदाहरण है।
मसलन् इस टिप्पणी का प्रारंभ वे करते हैं :‘‘धर्म में कीचड़ लगने में सैकड़ों साल लगे होंगे, पर धर्म-निरपेक्षता में कुछ ही दशकों में ही काफी कीचड़ जम गया।’’
आप शंकित होंगे कि क्या धर्म-निरपेक्षता कुछ दशकों का ही मामला है! नहीं, पांचवी पंक्ति में ही शंभुनाथ कह देते हैं : ‘‘भारत की सैकड़ों साल की धर्म-निरपेक्ष परंपरा से कुछ भी नहीं सीखने...।’’ फिर भी, धर्म अपवित्र हुआ सैकड़ों सालों में धर्म-निरपेक्षता कुछ दशकों भर में! बूझिये इसे पहेली को!
आगे लिखते हैं, ‘‘एलीट अहंवाद की वजह से ही उत्तर भारत के लोगों में नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता बढ़ी है।’’
‘एलीट’, शंभुनाथ की नफरत का पुराना लक्ष्य, - अंग्रेजी पढ़ने-बोलने वाला तबका - ‘सांस्कृतिक प्रदूषण का चूहा’। जनसत्ता में ही पहले अपने एक लेख में वे इस चूहे को मार डालने का आह्वान कर चुके हैं।
वे कहते हैं, ‘‘यह सिर्फ हताशा नहीं, एक महान विश्वास के टूटने का नतीजा है।’’ मोहभंग का नतीजा। मुक्तिबोध की पैरोडी करते हुए कामरेडों से सवाल करते है, इस ‘मोहभंग’ में पार्टनर तुम्हारा क्या योगदान है? और, एक ऐसे नतीजे पर पहुंच जाते हैं, कि आज की लूट, हत्या, फरेब, घोटालों, किसानों की वंचना आदि सबके लिये सबसे अधिक कोई जिम्मेदार है तो वे हैं - ‘धर्म-निरपेक्ष महारथी’। मानो, धर्म-निरपेक्षता = नव-उदारवाद!
दुश्चिंता नरेंद्र मोदी की, और प्रचार उसीके सबसे बड़े झूठ का!
टिप्पणी आगे भी इसीप्रकार की मांसपेशीय शैली में कहती है, ‘धर्म-निरपेक्षता का राजनीतिक अस्त्र के रूप में’ क्यों इस्तेमाल किया गया, और जो बुद्धिजीवी गुजरात के दंगों के बाद मुखर हुए, उन्होंने आगे क्या किया, सांप्रदायिकता को रोक क्यों नहीं पायें !
एक नया, न समझ में आये वैसा, द्वैत खड़ा करते हैं - लेखकों और बुद्धिजीवियों का द्वैत। कहते हैं : ‘‘बुद्धिजीवियों की दुनिया लेखकों से काफी बड़ी होती है।’’ और बुद्धिजीवियों के बारे में फिर उसीप्रकार, ‘एलीट’ वाले उत्तेजक तिरस्कापूर्ण लहजे में संकेत देते हैं - ‘बुद्धिजीविता परजीविता में बदल’ गयी है और इसका कारण है - मोबाइल और इंटरनेट और इनसे चिपका हुआ ‘तकनीकी बुद्धिवाद’। इस बारे में उनका सबसे दिलचस्प मूल्य निर्णय है - ‘‘सोशल साइट पर हमेशा उसका कब्जा होता है, जिसके पास भयानक पूंजी है।’’
पूंजीवाद में जीवन का ऐसा कौन सा क्षेत्र है जिसपर पूंजी का प्रभुत्व न हो ! तभी तो पूंजीवाद है। लेकिन जैसे गरीबी का अर्थ सिर्फ गरीबी नहीं होता, पुराने समाज को उलट देने की विध्वंसकारी ताकत भी होता है, उसी प्रकार, हर क्षेत्र के अपने अंतर्विरोध और उनकी द्वंद्वात्मक गतिशीलता होती है।
वे ‘वैश्वीकरण’ को इस बात का श्रेय देते हैं कि उसके चलते ‘‘संप्रदायवाद को विषैले दांत छिपाने पड़ रहे हैं।’’ इसका और विखंडन करें तो पता लगेगा - धर्म-निरपेक्ष ताकतों का नव-उदारवाद सांप्रदायिकता को बढ़ाता है, नरेंद्र मोदी का नव-उदारवाद उसके विष पर पर्दा डालता है।
इस अनोखी टिप्पणी का आगे का हिस्सा कहता है नरेंद्र मोदी को अगर कोई रोकेगा तो स्थानीय ताकतें रोकेगी, ‘संभ्रांत’ केंद्र नहीं।
इसी एक बात से लगता है कि शंभुनाथ भारत के राजनीतिक इतिहास से कितनी बुरी तरह कटे हुए हैं। उन्हें इस बात का अंदाज ही नहीं है कि भारत में 1989 के बाद से ही, अर्थात पचीस साल पहले से केंद्र में मोर्चा सरकारों का दौर शुरू हो चुका है। इन पचीस सालों में किसी भी एक पार्टी को संसद में बहुमत नहीं मिला है। कांग्रेस और भाजपा, दोनों को मिला कर भी 50 प्रतिशत मत नहीं मिलते हैं।
इस टिप्पणी का अंत वे ‘सांस्कृतिक प्रदूषण के चूहों’ अर्थात एलीट, अर्थात तकनीकी बुद्धिवादी, अर्थात नॉलेज सोसाइटी वाले अर्थात मोदी के सत्ता पर आने पर भारत छोड़ देने की बात करने वाले ‘समर्थ-संपन्न’ कन्नड़ लेखक यूआर अनंतमूर्ति पर अपनी कटुता का विष उगलते हुए ‘प्राचीन कूपमंडुकता’ और ‘अति-आधुनिक कूपमंडुकता’ के शब्दाडंबर और तर्कहीनता की नयी सनसनी के साथ करते हैं।
हम जानते हैं, हमारी इस प्रतिक्रिया के प्रत्युत्तर में हमें शुद्ध गालियों और गर्जनाओं का सामना करना पड़ सकता है, जैसा पहले हो चुका है। लेकिन हमें यह कहने में जरा भी हिचक नहीं कि शंभुनाथ को ऐसी समस्याओं से निबटने में जरा भी संकोच नहीं होता, जिनके बारे में उनका बुनियादी ज्ञान तक नहीं है।
13.04.2014
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