सोमवार, 29 सितंबर 2014

अंतिम विदाई

कल, 2 अक्तूबर हरीश भादानी की पुण्य तिथि है। इस अवसर पर उनका स्मरण करते हुए उनपर अपनी किताब से उनकी अंतिम यात्रा से जुड़े अध्याय को यहां मित्रों के साथ साझा कर रहा हूं। इसके अलावा उनके दो गीत और उनकी कुछ तस्वीरें भी।



गांधी जयंती, 2 अक्तूबर 2009 के दिन की ब्रह्म बेला, तड़के सुबह चार बजे। काफी दिनों से बीमार, खाद्य नली में कैंसर से पीडि़त हरीश भादानी ने बीकानेर में अपनी छोटी बेटी, सबसे लाडली बेटी1 के घर पर आखिरी सांस ली। 

‘सयुजा सखाया’ की अंतिम कविता की पंक्तियां है - 

ना घर तेरा ना घर मेरा
लुबडुब थमने तक का डेरा!2

इस फेरे को देखे ही हैं
क्या लेकर आता है कोई

आ मैं तू दोनों ही देखें
क्या लेजाए साथ बडेरा!

पर केवल सच इतना सा ही
सबका होना सबकी खातिर,

इस सच का सुख सिर्फ यही है
और न कोई डैर, बसेरा !

मृत्यु के लगभग पांच साल पहले ही 10 नवंबर 2004 के दिन उन्होंने अपनी तीनों बेटियों के नाम एक पत्र लिखा था :

‘‘मैं हरीश भादानी पुत्र स्व. वासुदेव (सन्यासी नाम - बेबा महाराज) बिना किसी भावावेग और बाहर-भीतर के पूर्वाग्रह से स्वयं को परे रखते हुए यह पत्र लिख रहा हूं। पूर्णतया आश्वस्त भी हूँ कि इस पत्र में सन्दर्भित परिजन इन शब्दों में व्यक्त मेरी भावना को क्रियात्मक रूप देंगे। 

‘‘स्वयं को व्यक्त करने के प्रयत्नों में अक्षर खोजते और उनके अर्थ समझने की प्रक्रिया में ही मानस पिता डा. छगन मोहता ने जाने किस शब्द-साधक के ये शब्द कान में डाल दिए जो भीतर जाकर ऐसे घुले कि मूल रूप में तो बाहर आए ही नहीं – 
‘‘जिन्दगी क्या है अनासिर में जहूरे तरतीब
  मौत क्या है इन्हीं अज़जां का परीशां होना’’
ये मेरे भीतर से आए भी मगर आंके-बांके से, मैंने इनसे स्वयं को बांध सा लिया –

 ‘‘जीना मर जीना इतना भर
  आंखें झप-खुल झप-खुल जाएं...’’

‘‘मैं अपने समय के 8वें दशक की दूसरी सीढ़ी पार करने को हूँ। पता नहीं किस अणु-वेध के अंश में ‘झप-खुल झप-खुल का खेला हो जाए, प्राण वायु मुझ सराय को महज डैर बना जाए। इस सोच के साथ हवेली से सुरंग, सुरंग रूपी घर से ‘मकान’ फिर ‘बहुत नीचा नगर’ तक पसरे ‘ओक’-हर यादों के पूरे अस्बाब-जहालत को खंगाल लिया। संदर्भित परिजनों को तो कुछ दे ही नहीं पाया, बस लिया ही लिया, सोचता हूँ, न सही कुछ एक चिठिया तो दे ही जाऊँ । 
‘‘जिन अपनों को यह चिठिया दे रहा हूँ, वे जानते हैं और मैं भी जानता हूँ ‘डैर’ देह को ‘कोलाहल के आंगन’ में कुछ देर ही रखा जाता है। 
ऐसी स्थिति में इस जड़ देह को -
 पुष्पा-जुगल खड़गावत...
 सरला-अरुण माहेश्वरी...
 कविता-अविनाश व्यास...
के सुपुर्द कर दी जाए। यह जानता हूं कि देह को जड़ होने से पहले जितना स्वस्थ रखा जाना चाहिए था, मैं नहीं रख पाया। फिर भी मेरी आन्तरिक इच्छा है कि इस जड़ देह को आयुर्विज्ञान महाविद्यालय, बीकानेर  को दे दी जाए ताकि प्रयोगधर्मी नई पीढ़ी के कुछ काम आ सके। 

संदर्भित नामों के ध्यान में रहे, इसलिए, प्रचलित रूढि़ की अभ्यस्तता के चलते सम्भव है, मेरी इच्छा-पूर्ति में बाधा आए। ऐसा ही एक व्यवधान बांग्ला भाषा के शीर्षस्थ शब्दकर्मी सुभाष मुखोपाध्याय की इच्छा के बीच आया था, वैसा सा इस देह के साथ न हो। अबोली यात्रा के रूप में ले जाएं इस देह को। 
‘‘संदर्भित परिजनों के नाम संकेत मात्र है। मैंने परिजन रूपी ऐश्वर्य खूब अर्जित किया - जयपुर-बम्बई-कलकत्ता-महू, राजस्थान भर। अर्जित को खर्च करने की नीयत तो दूर चुकारे का सपना तक नहीं लिया।
‘‘मेरा पूरा परिजन संसार मेंरे ऋण-भाव को स्वीकारे। इसी अर्जन के साथ मुझे विदा दें - सुख-दुख के साथी, साक्षी, शब्दकर्मी - मुझे सम्हाले रखनेवाले सब इन शब्दों के बीच मेरे सामने हैं। 
                                     ऋणी रूप
                                     हरीश भादानी

हरीश जी के इस पत्र में व्यक्त इच्छा की पूर्ति हुईं। उनके पार्थिव शरीर को  आयुर्विज्ञान महाविद्यालय को ही सौंपा गया। लेकिन उन्होंने जो संकेत दिया था कि ढेर होगयी देह को ‘कोलाहल के आंगन’ अधिक देर नहीं रखा जाता, वह काम मुमकिन नहीं था। उनके महाप्रयाण का समाचार प्रसारित होने के साथ ही पूरे शहर और राज्य के कोने-कोने से अपने प्रिय कवि को अंतिम श्रद्धा-सुमन देने के लिये उमड़ पड़े हजारों लोगों को निराश नहीं किया जा सकता था। पूरे प्रदेश से कई लेखक, कलाकार बीकानेर के लिये प्रस्थान कर चुके थे। शहर के मजदूरों और गांव से किसानों के जत्थे भी अपने संघर्षों के इस अविस्मरणीय साथी को विदा करने के लिये कतारबद्ध हो कर आ रहे थे। बीकानेर-शहरवासियों ने तो जैसे अपनी आत्मा की आवाज को खोया था। जयपुर से राज्य के मुख्यमंत्री, सांसद, विधायक और कई नेतागण भी कवि के अंतिम दर्शन के लिये आ रहे थे। इसीलिये, घर से आयुर्विज्ञान महाविद्यालय तक की उनकी अंतिम यात्रा को एक दिन के लिये तो टलना ही था। 

इसके अलावा जिस ‘अबोली यात्रा’ की उन्होंने कामना की थी, वह भी इसलिये पूरी नहीं हो पाई क्योंकि वे खुद ‘राम नाम सत है’ की पुकार का एक ऐसा विकल्प अपने प्रियजनों को थमा गये थे कि लोग उनकी अंतिम यात्रा के साथ उसका गान करने से खुद को रोक नहीं पायें - ‘रोटी नाम सत है’। 
3 अक्तूबर की सुबह दस बजे के करीब जब ‘रोटी नाम सत है’ गाते सैकड़ों लोगों के साथ छबीली घाटी से आयुर्विज्ञान महाविद्यालय की ओर उनकी अंतिम यात्रा का प्रस्थान हुआ, वहां से लगभग चार किलोमिटर की इस पूरी यात्रा में सड़क के दोनों ओर हरीश जी के श्रोताओं-प्रशंसकों की कतारें हाथों में फूल मालाएं लिए खड़ी थी। शहर भर के लोगों की आंसुओं में भीगी आंखों से हिंदी के एक कवि की ऐसी विदाई आज के युग में किसी परिकथा की कल्पना जैसी लगती है। उनकी इस अंतिम यात्रा के सारे संगी-साथियों के दृढ़ कदम मानो उन्हीं के बोल को दोहरा रहे हों - ‘‘अभी और चलना है... आखर के निनाद को, सात स्वरों सधना है!’’

हरीश भादानी का न रहना एक राष्ट्रीय समाचार था। टेलिविजन के चैनलों से देश भर में इस खबर के फैलने में निमिष भर का समय भी नहीं लगा।  राजस्थान के और शहर के स्थानीय चैनलों पर तो सारा दिन लोगों के आने-जाने के तांते की खबरें प्रसारित हो रही थी। और, दूसरे दिन के हिंदी और अंग्रेजी के तमाम अखबारों में उनका निधन एक बड़ी खबर थी। राजस्थान के हिंदी के अखबार तो दो दिनों तक पृष्ठ-दर-पृष्ठ तस्वीरों, श्रद्धांजलियों और उनके अमर गीतों से भरे हुए थे। 

तीन अक्तूबर के ‘राजस्थान पत्रिका’ की सुर्खी थी - ‘‘मौन हो गया महाकाव्य, टूट गए चेतना के तंतु’’। लगभग पूरे दो पृष्ठ श्रद्धांजलियों, हरीश भादानी के जीवन और कृतित्व के तथ्यों, उनकी कविताओं की पंक्तियों से भरे हुए थे। ‘दैनिक भास्कर’ में था - ‘‘किसी ने भाई खोया, कोई दोस्त की मौत पर रोया : मौत का तो अर्थ बस पल भर ठहरना है। ‘दैनिक युगपक्ष’ की सुर्खी थी - जनकवि का महाप्रयाण। ‘शब्द कैसे बोलेंगे अब ...मैंने नहीं कल ने बुलाया है; बीकानेर ने खोया एक कवि रत्न। 
दूसरे दिन, अंतिम यात्रा का विवरण देते हुए ‘राजस्थान पत्रिका’ ने लिखा - ‘साहित्य के बाद विज्ञान को समर्पित भादाणी’। ’दैनिक भास्कर’ ने लिखा- ‘जनसमूह गा रहा था, सुन रहा था जनकवि। युगपक्ष - ‘नम आंखों से भादाणी जी को अंतिम विदाई। ‘दैनिक भास्कर’ ने लिखा - ‘‘यह अनूठी शवयात्रा थी जिसका मुकाम कोई श्मशान, कब्रिस्तान न होकर मेडिकल कॉलेज था। 

‘‘जनकवि हरीश भादनी की देहदान महाप्रयाण यात्रा जब शनिवार को मेडिकल कॉलेज के एनाटॉमी डिपार्टमेंट के गेट पर पहुंची तो कॉलेज के प्रिंसिपल से लेकर स्टूडेंट और कर्मचारी तक हाथों में फूल लिए इस महान कवि को पुष्पांजलि अर्पित करने को तैयार थे। हर किसी की जुबान पर थी जनकवि के गीतों की पंक्तियां और इस महादान के प्रति श्रद्धा से झुके थे सिर। कॉलेज प्राचार्य डा. आर. बी. पंवार, पीबीएम अस्पताल अघीक्षक डा. विनोद बिहाणी, पीएसएम विभागाध्यक्ष डा. बी. एल. व्यास, डा. आर. के. व्यास, डा. एस. पी. व्यास, डा.वीरबहादुर सिंह, डा. के. के. वर्मा और एनाटॉमी विभाग के प्रोफेसर डा. बी. एल. मेहता भी इस देहधारी के प्रति तब से आदरभाव लिए थे जब इन कंठों से जनजागरण में अलख जगाने वाले गीत गूंजते थे। हर कोई उनके साथ कभी न कभी हुए साक्षात्कार या सुनने-जानने के मिले अवसरों का जिक्र कर रहा था। ...एनाटॉमी विभाग के प्रोफेसर डा. बी. एल. मेहता का कहना है, सही अर्थ में यह महादान है। ...स्वेच्छा से देहदान करने वाले मानव जीवन की रक्षा के महायज्ञ में बड़ी आहुति दे रहे हैं।’’

कवि के महाप्रयाण की खबरों का यह सिलसिला 5 अक्तूबर को हुई श्रद्धांजलि सभा तक बराबर जारी रहा। बीकानेर शहर आज भी हरीश भादानी के जन्म (11 जून) और मृत्यु दिवस (2 अक्तूबर) पर उन्हें श्रद्धा के साथ स्मरण करता है।  
 संदर्भ :    

1.कविता व्यास ने अपने लेख - ‘पापाजी किसी एक की धरोहर नहीं थे’ में लिखा है - ‘‘एक शहर, शहर में घाटी, घाटी के पापाजी, बचपन से दोस्त होने तक के पापाजी, सबके प्यारे दुलारे पापाजी सबके होने का दावा करते पापाजी। मैंने कभी ईष्र्या जलन नहीं की।... जीजियां कहती ये सबसे लाडली बेटी है, ...सरल काकाजी कहते भादाणी जी की सिरचढ़ी चकचढ़ी बेटी कवितड़ी है। 
2.लुबडुब, अर्थात हृदय की धड़कन। ‘सयुजा सखाया’, पूर्वोक्त, ‘आज’ खंड पृ : 18-19




अज्ञेय जी के साथ




डा. राममनोहर लोहिया और डा. छगन मोहता के साथ



बेटी सरला माहेश्वरी के साथ


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