अरुण माहेश्वरी
थॉमस पिकेटी, आज अर्थशास्त्र की दुनिया का एक सबसे अधिक चमकता हुआ सितारा है। पिछले साल प्रकाशित हुई उनकी किताब ‘Capital in the Twenty First Century’ ने अर्थनीति संबंधी चिंतन की दुनिया में ऐसी धूम मचा रखी है कि फ्रांस के राष्ट्रपति फ्रांस्वा ओलोंद ने 2014 में अपने देश की दो प्रमुख नोबेल-जयी प्रतिभाओं (अर्थशास्त्री ज्यां तिरोले और साहित्यकार पैट्रिक मोदियानो) के साथ ही अपने इस नौजवान, सिर्फ 43 साल की उम्र के अर्थशास्त्री को भी फ्रांस के सर्वोच्च सम्मान Legion d’Honneur (लीजों डिोरा) से नवाजने का निर्णय लिया। लेकिन पिकेटी ने तत्काल यह कह कर इस सम्मान को स्वीकारने में अपनी असमर्थता जाहिर कर दी कि ‘‘यह तय करना सरकार का काम नहीं है कि कौन सम्माननीय है और कौन नहीं। बल्कि सरकार फ्रांस और पूरे यूरोप को अभी के आर्थिक गतिरोध से निकालने पर ध्यान केंद्रित करें।’’
पिकेटी खुद किसी समय फ्रांस की सोशलिस्ट पार्टी के करीबी थे। लेकिन राष्ट्रपति ओलोंद की आर्थिक नीतियों की वजह से ही उन्होंने खुद को सोशलिस्ट पार्टी से दूर कर लिया क्योंकि उनका मानना है कि इन नीतियों के कारण ही फ्रांसीसी अर्थ-व्यवस्था आज गतिरोध का शिकार है और फ्रांस पर कर्ज का बोझ बढ़ता चला जा रहा है। कहना न होगा, पिकेटी ने फ्रांसीसी सरकार के सर्वोच्च सम्मान को ठुकरा कर अपनी बौद्धिक स्वतंत्रता को हर हाल में कायम रखने के लिये जरूरी सरकारी संरक्षण और संसाधनों के प्रति बौद्धिकों के अपेक्षित नजरिये का एक आदर्श उदाहरण पेश किया है। फ्रांस के इस सर्वोच्च सम्मान को पिछले साल वहां के कार्टूनिस्ट जॉक तार्डी ने ठुकराया था। उसके पहले वामपंथी दार्शनिक ज्यां पाल सात्र्र और रेडियोलॉजी की दुनिया के दो रहनुमा पियेर और मरी क्यूरी भी इसे लेने से इंकार कर चुके हैंं।
पिकेटी की यह किताब, 21वीं सदी में पूंजी, आय और संपत्ति में गैर-बराबरी के बारे में एक ऐसा राजनीतिक अर्थशास्त्रीय अध्ययन है जो पूरी तरह से ठोस आर्थिक आंकड़ों की गहराई से की गयी जांच-पड़ताल पर आधारित है। पिकेटी और सारी दुनिया में फैले उनके बीसियों विद्वान शोधकर्ता सहयोगियों ने दुनिया के बीस से ज्यादा विकसित और विकासशील देशों की राष्ट्रीय आय, उनके नागरिकों की आय और संपत्ति के बारे में तमाम आंकड़ों को इकट्ठा करके आय और संपत्ति के मामले में दुनिया के विभिन्न देशों में और साथ ही औसतन सारी दुनिया में गैर-बराबरी के जिस इतिहास की रचना की है, उसे अर्थशास्त्र की दुनिया में एक अनूठी उपलब्धि माना जा रहा है। पिकेटी ने इन तथ्यों के आधार पर माल्थुस और युंग से लेकर रेकार्डो तथा मार्क्स के राजनीतिक अर्थशास्त्र की समीक्षा की है, उनकी विशेषताओं और कमजोरियों की ओर संकेत किया है और आगे आने वाले समय में एक गैर-बराबरी से मुक्त समृद्ध समाज के निर्माण के लिये कौन से ठोस उपाय हो सकते हैं, उनके बारे में विचार का एक व्यवहारिक आधार प्रदान किया है। इस किताब की अब तक पचास लाख से ज्यादा प्रतियां बिक चुकी है। पिकेटी के इस अध्ययन के लिये उन्हें अमेरिका के व्हाइट हाउस में भी विचार के लिये बुलाया गया था।
नोबेल जयी वरिष्ठ अर्थशास्त्री पॉल क्रुगमैन ने इस किताब के बारे में न्यूयार्क टाइम्स में लिखा है कि ‘‘
‘‘यह कहना सही लगता है कि फ्रांसिसी अर्थशास्त्री थॉमस पिकेटी का सबसे प्रमुख ग्रंथ Capital in the Twenty-First Century इस साल की, बल्कि, इस पूरे दशक की, अर्थशास्त्र पर सबसे महत्वपूर्ण किताब मानी जायेगी। आय और संपत्ति के बारे में दुनिया के सबसे प्रमुख विशेषज्ञ पिकेटी ने चंद आर्थिक कुलीनों के हाथ में बढ़ती हुई आय के संकेन्द्रण का दस्तावेज तैयार करने से भी कहीं ज्यादा बड़ा काम किया है। उन्होंने जोरदार दलीलें देकर यह बताया है कि हम ‘पैतृक पूंजीवाद’ के रास्ते पर फिर से लौट रहे हैं, जिसमें अर्थ-व्यवस्था की कमान सिर्फ संपत्तिधारियों के पास नहीं, बल्कि विरासत में मिली संपत्ति के मालिकों के हाथ में होगी, जिसमें आपका जन्म आपकी मेहनत और प्रतिभा से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है।’’
इसके पहले कि हम पिकेटी के इस अध्ययन के दूसरे सभी उल्लेखनीय पक्षों पर गंभीरता से गौर करें, यहां यह बता देना उचित होगा कि पिकेटी ने अपने इस अध्ययन में जिन आंकड़ों और तथ्यों को अपने लिये सबसे अधिक उपयोगी पाया हैं और जिनका अपने ग्रंथ में उन्होंने सबसे अधिक कारगर ढंग से इस्तेमाल किया है वे सभी दुनिया के तमाम देशों की सरकारों के पास जमा होने वाले आयकर और संपत्ति कर संबंधी नागरिकों के ब्यौरों (रिटर्न) से निकल कर आने वाले सरकारी तथ्य और आंकड़ें हैं। इनके जरिये उन्होंने बाकायदा नागरिकों की निजी आय और संपत्तियों के रूप में होने वाले परिवर्तनों, उतार-चढ़ावों का एक ब्यौरेवर चित्र प्रस्तुत किया है और उस पर उन देशों तथा सारी दुनिया की सामान्य ठोस राजनीतिक परिस्थितियों के संदर्भ में विवेचन किया है। इस पूरे विवेचन में अटकलबाजी अथवा वैचारिक पूर्वाग्रहों की भूमिका बिल्कुल नहीं के बराबर है और इसी अर्थ में यह पहले के तमाम महान राजनीतिक अर्थशास्त्रियों से अलग भी है। आयकर और संपत्ति कर संबंधी इन आंकड़ों की उपलब्धता के बिना आय और संपत्ति में गैर-बराबरी के रहस्य को शायद ही कभी माकूल ढंग से भेदा जा सकता था।
इस बात का उल्लेख हम पहले इसलिये कर देना चाहते हैं, क्योंकि हम एक ऐसे देश में रह रहे हैं, जहां पिछले चुनाव के पहले बाबा रामदेव नामक शख्स ने आयकर मात्र को ही खत्म कर देने का प्रस्ताव रखा था और उस दौरान उनके इस ‘क्रांतिकारी’ सुझाव को वर्तमान वित्तमंत्री अरुण जेटली और पूरे संघ परिवार का परोक्ष रूप से समर्थन भी मिला था। आज थॉमस पिकेटी के अध्ययन को देखकर ऐसा लगता है कि अगर रामदेव जैसों के सुझाव को मान लिया जाए तो यह भारत की अर्थनीति को किसी आदिम युग, बल्कि जंगल युग में ले जाने जैसा कुकृत्य होगा। शिक्षा और संस्कृति के सभी विषयों पर आज संघ परिवार जिसप्रकार दीनानाथ बतरा और सुदर्शन राव जैसे लोगों के जरिये वैज्ञानिक शोध के बजाय अंधविश्वासों से भरे आदिम सोच को प्रोत्साहित करने में लगा हुआ है, ठीक वैसे ही रामदेव कंपनी का प्रस्ताव अर्थनीति के क्षेत्र में एक आदिम और जंगल युग की वापसी का विचार था। यह हमारे नीतिकारों को एक घनघोर अंधेरे युग में धकेल देने का प्रस्ताव था।
बहरहाल, पिकेटी की इस किताब का महत्व इस बात में है कि उन्होंने इसमें सम्पत्ति के आबंटन के मुद्दे को विचार का विषय बनाया है जिसे अर्थनीतिशास्त्र का सबसे चर्चित और विवादास्पद किन्तु एक मूलभूत विषय कहा जा सकता है। संपत्ति के उत्पादन के साथ ही संपत्ति के वितरण का इतिहास सामाजिक विकास की दृष्टि से कम महत्वपूर्ण नहीं है। मार्क्स का मानना था कि निजी पूंजी का अपना अंतर्निहित चरित्र और गठन ही कुछ ऐसा है कि उसके चलते अनिवार्य तौर पर संपत्ति का मुट्ठी भर लोगों के पास संकेंद्रण होता चला जाता है। पिकेटी ने अपनी किताब में यह सवाल उठाया है कि क्या यह बात पूरी तरह सच है ? उन्नीसवीं सदी में माक्र्स के इस सोच के विपरीत बीसवीं सदी में अमेरिकी अर्थशास्त्री साइमन कुजनर्स ने कहा कि आर्थिक अभिवृद्धि (growth), प्रतिद्वंद्विता तथा तकनीकी प्रगति की तरह की दूसरी संतुलनकारी शक्तियां विकास के परवर्ती चरणों में गैर-बराबरी को स्वत:स्फूर्त ढंग से कम करती हैं तथा समाज में विभिन्न वर्गों के बीच ज्यादा सामंजस्य पैदा करती है। पिकेटी पूछते हैं कि इन दो प्रकार के बिल्कुल विपरीत निष्कर्षों का आधार क्या है ? और फिर कहते हैं कि अठारहवीं सदी से लेकर अब तक की संपत्ति और आय के विकास की यथार्थ कहानी को हम जानते ही कितना है। इस बारे में ठोस तथ्यों की जानकारी के आधार पर ही हम आज की सदी और आगे के बारे में कोई सही निष्कर्ष तक पहुंच सकते हैं और सही शिक्षा ले सकते हैं।
पिकेटी ने अपनी किताब में इन्हीं चंद सवालों के उत्तर तलाशने की एक कोशिश की है। वे मानते हैं कि इन सवालों का उन्होंने कोई पक्का और अकाट्य उत्तर पा लिया है, इसका तो वे दावा नहीं कर सकते। लेकिन इन सवालों के जो भी जवाब उन्होंने हासिल किये हैं, वे किसी अटकलबाजी पर नहीं, बल्कि उन व्यापक ऐतिहासिक और तुलनात्मक आंकड़ों पर आधारित है, जो आंकड़ें इतनी प्रभूत मात्रा में पहले के शोधकर्ताओं को उपलब्ध ही नहीं थे। बीस से ज्यादा देशों के संबंध में संग्रहीत व्यापक आंकड़ों और उनकी गणना के नये सैद्धांतिक ढांचों और तकनीकी विधियों के प्रयोग से उनके अंदर से जाहिर होने वाली सामाजिक क्रियाशीलता की जो गहरी समझ हासिल की जा सकती है, वह शायद पहले संभव नहीं थी। यहां उल्लेखनीय है कि पिकेटी ने अपने इस काम में सारी दुनिया के कई प्रमुख शोधकर्ताओं की सेवाओं का उपयोग किया है जिनमें भारतीय मूल के शोधकर्ता अभिजीत बनर्जी भी शामिल हैं, जिनकी एस्थर डुफ्लो के साथ मिल कर लिखी गयी पुस्तक ‘Poor Economics & rethinking poverty & the ways to end it’ (2011) ने भी सारी दुनिया का ध्यान अपनी ओर खींचा था।
पिकेटी कहते हैं कि मार्क्स ने पूंजीवाद के चलते समाज में पैदा होने वाले आर्थिक गतिरोध, और सामाजिक अन्तर्विरोधों की तीव्रता के कारण जिस प्रकार के सामाजिक विस्फोट की भविष्यवाणी की थी, उससे तो आर्थिक अभिवृद्धि के बल पर दुनिया अभी बच गयी है, लेकिन इस बचाव से पूंजी के आंतरिक ढांचों में, structures में कोई बदलाव नहीं आया है और न ही उनसे पैदा होने वाली गैर-बराबरी की सचाई बदली है, जिसकी उम्मीद द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद की परिस्थितियों में इधर के सालों में अमेरिकी अर्थशास्त्री साइमन कुजनेत्स वगैरह के द्वारा की जारही थी। इसके विपरीत, वे कहते हैं कि जब भी पूंजी से होने वाले मुनाफे की दर उत्पादन और आय में अभिवृद्धि की दर से ज्यादा होती है, तभी पूंजीवाद जैसे स्वत:स्फूर्त ढंग से निरंकुश (arbitrary) और न चलने लायक (unsustainable) गैर-बराबरियों को पैदा करने लगता है, जैसा कि 19वीं सदी में हुआ था, और वही स्थिति उन्हें आज 21वीं सदी में दिखाई दे रही है। ऐसे काल में प्रतिभाओं की कोई कीमत नहीं रह जाती जिस पर कोई भी जनतांत्रिक समाज टिका होता है।
गौर करने लायक बात है कि पिकेटी ने तथ्यों पर आधारित अपने अध्ययन के बल पर ‘न चलने लायक’ और ‘निरंकुश’ गैर-बराबरियों के मामले में 19वीं सदी, अर्थात मार्क्स के काल की तुलना 21वीं सदी के वर्तमान काल से की है। इसीलिये यह बेवजह नहीं है कि आज सारी दुनिया के आर्थिक और दार्शनिक चिंतन के केंद्र में फिर एक बार माक्र्स छाये हुए हैं। कम्युनिस्ट घोषणापत्र की पहली पंक्ति में ही माक्र्स ने जो कहा था कि ‘आज पूरे यूरोप को एक भूत आतंकित कर रहा है - कम्युनिज्म का भूत’, उसीप्रकार आज के, अर्थात 21वीं सदी के समूचे आर्थिक-बौद्धिक विमर्श पर, जिसमें पेशेवर अर्थशास्त्री से लेकर आज की दुनिया के उदीयमान, बौद्धिक तौर पर प्रखर उद्योगपति भी शामिल है, मार्क्स के विचारों का भूत छाया हुआ है और उनके उल्लेख के बिना कोई भी आज की दुनिया की गुत्थियों के बारे में कायदे की कोई बात कहने में अपने को असमर्थ पाता हैं।
बहरहाल, इसी परिप्रेक्ष्य में पिकेटी ने अपने इस ग्रंथ में उन तमाम उपायों की भी चर्चा की है जिनसे जनतंत्र पूंजीवाद के इस आंतरिक, संपत्ति और आय की गैर-बराबरी पैदा करने वाले स्वरूप को नियंत्रित कर सके और यह सुनिश्चित कर सके कि राज्य की नीतियों को निर्धारित करते समय सामान्य नागरिक हितों को निजी हितों की तुलना में प्राथमिकता दी जायेगी। और, इसके साथ ही अर्थ-व्यवस्था का खुलापन भी जारी रखा जा सके, संरक्षणवादी (protectionist) और राष्ट्रवादी (nationalist) प्रतिक्रियाओं से बचा जा सके। इसीलिये पिकेटी के इस ग्रंथ को सारी दुनिया में आर्थिक चिंतन की दिशा में एक बड़ी उपलब्धि के तौर पर देखा जा रहा है।
यहीं पर यह भी उल्लेखनीय है कि पिकेटी उन अर्थशास्त्रियों में हैं जिनकी 1989 में जब एक ओर फ्रांसीसी क्रांति की 200वीं सालगिरह मनाई जा रही थी और दूसरी ओर बर्लिन की दीवार को ढहाया जा रहा था अर्थात समाजवादी शिविर के अंत की घोषणा की जा रही थी, उनकी उम्र सिर्फ 18 साल की थी। इसीलिये खुद उनके कहे अनुसार, उनमें सोवियत संघ और समाजवादी व्यवस्था को लेकर कभी किसी प्रकार का मोह नहीं रहा। न उनमें पूंजीवाद-विरोध की बैठे-ठाले की जाने वाली बातों के प्रति कोई आकर्षण है। वे अहद लेकर गैर-बराबरी की निंदा में भी नहीं उतरे हुए है। उन्हें गैर-बराबरी भी एक हद तक स्वीकार्य है जहां तक वह 1789 की मनुष्य और नागरिक के अधिकारों की घोषणा के अनुसार जनहित पर आधारित हो, यद्यपि ‘जनहित’ के बारे में उस घोषणा में की गयी परिभाषा बहुत स्पष्ट नहीं है। वे साफ कहते हैं कि मेरी दिलचस्पी सिर्फ सुचारु और स्वस्थ ढंग से समाज के संचालन में है। उन्होंने अमेरिका में अपना शोध करके डाक्टरेट किया था लेकिन अस्सी के दशक में ही फ्रांसीसी विश्वविद्यालयों में अर्थशास्त्र को उसकी आत्मलीनता से मुक्त करने, गणितीय अथवा सैद्धांतिक मतिग्रस्तता से निकालने का जो आंदोलन चला था, उसका निश्चित प्रभाव उनके निर्माण में दिखाई देता है।
बहरहाल, पिकेटी ने अपने अध्ययन की पृष्ठभूमि के रूप में सरसरी तौर पर राजनीतिक अर्थशास्त्र के अब तक के इतिहास पर एक नजर डाली है। वे प्रारंभ करते हैं माल्थस, युंग और फ्रांसीसी क्रांति से, अर्थात 18वीं सदी के अंतिम काल और 19वीं सदी के प्रारंभिक सालों से, जब पहली बार इंगलैंड और फ्रांस में आय और संपत्ति के आबंटन का सवाल राजनीतिक अर्थशास्त्र के विमर्श के केंद्र में आगया था। औद्योगिक क्रांति के चलते देहातों के गरीब शहरों में आकर जमा होने लगे थे। यह एक प्रकार का सामाजिक भूचाल था। उन्हीं दिनों युंग की फ्रांस के सुदूर इलाकों की एक यात्रा डायरी प्रकाशित हुई, जिसमें वहां के देहातों में भयावह गरीबी के चित्र खींचे गये थे। तब फ्रांस ही यूरोप में सबसे अधिक आबादी का देश था। फ्रांस की आबादी दो करोड़ थी जबकि इंगलैंड की आबादी सिर्फ अस्सी लाख। और, इसी सबसे बड़ी आबादी वाले फ्रांस में 1789 की फ्रांसीसी क्रांति हुई जिसके चलते वहां की विधायी सभा में कुलीनों के साथ-साथ साधारण जनों के प्रतिनिधि भी शामिल हुए। युंग इस घटना को समाज के लिये एक भारी तबाही का संकेत मानते थे। वे फ्रांस की क्रांति से आतंकित थे।
कुलीनों के इसी आतंक की गूंज इंगलैंड में राजनीतिक अर्थशास्त्र के विमर्श में सुनाई देने लगी और यह प्रश्न उठ खड़ा हुआ कि आबादी के विस्फोट से पूरे सामाजिक ढांचे, यूरोप के राजनीतिक संतुलन पर क्या असर पड़ेगा ? फ्रांस की क्रांति को वहां की आबादी के अनुपात से जोड़ कर देखा जा रहा था। इसी पृष्ठभूमि में माल्थस का प्रसिद्ध 1798 का निबंध आया - Essay on the principle of population। वे युंग से भी कहीं ज्यादा इस पूरे घटनाक्रम से डरे हुए थे। इंगलैंड में इसकी पुनरावृत्ति न होने पाए, इसके लिये उन्होंने गरीबों को दी जाने वाली हर मदद को तत्काल रोक देने, उनके प्रजनन को ही नियंत्रित करने की बात की ताकि अति-आबादी से पैदा होने वाली अराजकता और दुर्दशा से बचा जा सके।
पिकेटी ने इस बात का उल्लेख करते हुए कहा है कि माल्थस और युंग के सोच के केंद्र में संपत्ति के आबंटन से जुड़े सवाल ही काम कर रहे थे जिसमें वे भारी तबाही की आशंका कर रहे थे। इसके बाद ही पिकेटी रेकार्डो और कार्ल मार्क्स की चर्चा करते हैं। इन दोनों की निगाहें भी उत्पादन और आमदनी के साधनों की मिल्कियत के सवाल पर टिकी हुई थी। रेकार्डो जमीन के संकेन्द्रण के जरिये संपत्ति को सामंती तबकों के पास सिमटते हुए देखते हैं और मार्क्स औद्योगिक क्रांति के कारण पूंजीपतियों के पास।
सन् 1817 में रेकार्डो की किताब आई - Principles of Political Economy and Taxation। एक यहूदी महाजन के घर में जन्मे रेकार्डो के सामने अपने समय के पूंजीवाद की प्रव्त्तियों की एक साफ तस्वीर थी। उन्हें लगता था कि जैसे-जैसे उत्पादन और संपत्ति बढ़ेंगे, भूमि अन्य चीजों की तुलना में एक अनमोल चीज होती चली जायेगी। इससे अंतत: सामंतों के हाथ में राष्ट्रीय आमदनी का अधिकांश हिस्सा सिमटता जायेगा। ऐसा न होने पायें, इसीलिये उन्होंने जमींदारों पर उनकी संपत्ति के अनुसार ज्यादा से ज्यादा कर लगाने की बात कही। वे मानते थे कि समाज में किसी भी वस्तु की कीमत की बड़ी भूमिका होती है, लेकिन मूल्य को आंकने की न कोई सीमा होती है और न ही कोई नैतिकता। इसीके चलते संपत्ति चंद हाथों में सिमटती जाती है, सामाजिक संतुलन बिगड़ जाता है और फ्रांसीसी क्रांति की तरह की भारी सामाजिक तबाही मचती है।
पिकेटी कहते हैं ‘‘लेकिन हमेशा की तरह ही सबसे बुरी स्थिति का आना भी सुनिश्चित नहीं होता है।’’
रेकार्डो के विपरीत, मार्क्स ने पूंजीवाद के अन्तर्गत पूंजीपतियों के हाथ में एक प्रकार के अनंत संचय (infinite accumulation) के अंतर्निहित सच को देखा था। और इसीके अनिवार्य परिणाम के तौर पर उन्होंने सामाजिक क्रांति की भविष्यवाणी की थी।
मार्क्स के इस प्रसंग में पिकेटी का कहना हैं कि मार्क्स के जमाने तक जिस दर से सामाजिक गैर-बराबरी बढ़ रही थी, जिसका एक चित्र इंगलैंड के मजदूर वर्ग की दशा के बारे में एंगेल्स की किताब में देखने को मिलता है, वह 1870 से 1914 (प्रथम विश्वयुद्ध के समय) तक जैसे एक जगह आकर थम सी गयी थी। 1840 के जमाने में जब कम्युनिस्ट घोषणापत्र लिखा गया था उस समय तक औद्योगिक मुनाफा तो लगातार बढ़ रहा था लेकिन श्रम की आमदनी जस की तस पड़ी थी। इसी पृष्ठभूमि में कम्युनिस्ट आंदोलन का जन्म हुआ। पूंजी का मुनाफा बढ़ता है लेकिन मजदूर वर्ग की दशा में कोई सुधार नहीं होता। और, इसीलिये मार्क्स ने सामाजिक क्रांति के जरिये बुर्जुआ की पराजय और सर्वहारा की विजय की अनिवार्यता की भविष्यवाणी की थी। यह पूंजीवादी अर्थ-व्यवस्था के आंतरिक अंतर्विरोंधों की एक तार्किक परिणति थी। माक्र्स की यह भविष्यवाणी पूंजी के संकेंद्रण और मुफलिसी के विस्तार के संदर्भ में सच के सबसे ज्यादा करीब थी।
लेकिन पिकेटी ने संग्रहीत आंकड़ों से पाया कि 19वीं सदी के अंतिम सालों में, कोई भी कारण क्यों न हो, इस लगातार बढ़ रही गैर-बराबरी में एक ठहराव आगया। मजदूरों की क्रयशक्ति में वृद्धि ने पूरे परिदृश्य को बदलना शुरू कर दिया। कम्युनिस्ट क्रांति हुई लेकिन वह यूरोप के सबसे पिछड़े हुए देश में। इसके बारे में पिकेटी कहते हैं कि मार्क्स ने तकनीकी क्रांति को देखा था लेकिन तकनीक की प्रगति के टिकाऊ रूप को वे पकड़ नहीं पाये थे, जिसका संचय की प्रक्रिया और निजी पूंजी के संकेंद्रण के प्रभाव के विपरीत एक प्रकार का निराकरणकारी प्रभाव पड़ रहा था। पिकेटी का कहना है कि इस बात को पकड़ने के लिये मार्क्स के पास जरूरी आंकड़ें उपलब्ध नहीं थे। इसके अलावा, कम्युनिस्ट पार्टी के घोषणापत्र के साथ उन्होंने अपने को एक राजनीतिक लक्ष्य से भी जोड़ लिया था जिसके चलते उन्होंने अपने समय के सभी दूसरे संकेतों की और गहराई से जांच करना जरूरी नहीं समझा। पिकेटी की एक राय यह भी है कि मार्क्स ने इस बात पर ज्यादा गहराई से गौर करने की कोशिश नहीं की कि जिस समाज में निजी पूंजी का पूरी तरह से खात्मा हो जायेगा, उस समाज का वास्तविक आर्थिक और राजनीतिक स्वरूप क्या होगा ? उनके अनुसार, यह एक बहुत ही जटिल सवाल है क्योंकि अब तक का अनुभव यही बताता है कि जिस समाज में भी निजी पूंजी खत्म हुई है वहीं पर सर्वाधिकारवादी राज्य के दुखांतकारी प्रयोग हुए हैं।
मार्क्स के निष्कर्षों की इन सीमाओं के बावजूद, पिकेटी पूंजी के बारे में उनके विश्लेषण को पूरी तरह से वैध मानते हैं। मार्क्स ने पूंजीवाद के तहत पूंजी के अनंत संचय के बारे में जो अन्तरदृष्टि प्रदान की, उससे 21वीं सदी के पूंजीवाद का उसी प्रकार अध्ययन हो सकता है जैसा कि उन्होंने खुद 19वीं सदी तक के पूंजीवाद का किया था। आबादी और उत्पादन में अभिवृद्धि (growth) की दर यदि कम होगी और संपत्ति के बेहिसाब संचय का अबाध सिलसिला जारी रहेगा तो वह समाज को अस्थिर कर देने के लिये काफी होगा। कहने का तात्पर्य यह कि कम दर से अभिवृद्धि होने पर मार्क्स ने जिस तबाही की भविष्यवाणी की थी, उसे झुठलाया नहीं जा सकता।
पिकेटी बताते हैं कि 19वीं सदी के अनुभवों के आधार पर रेकार्डो और मार्क्स जो भविष्यवाणी कर रहे थे, ठीक उसके विपरीत 20वीं सदी में अमेरिकी अर्थशास्त्री साइमन कुजनेत्स बिल्कुल परियों के देश की कहानी सुनाने लगे थे। वे कह रहे थे कि पूंजीवादी विकास के आगे बढ़े हुए चरणों में आय की गैर-बराबरी स्वत:स्फूर्त ढंग से कम होती जायेगी। वह सन् 1955 का जमाना था, युद्ध के बाद का जादूई समय, ब्रेटनवुड्स संस्थाओं और यूरोप के पुनर्गठन की मार्शल योजना का समय था। 1945 से 1975 के बीच के इस काल को फ्रांस में तीस शानदार वर्षों (Trente Glorieuses’) के रूप में याद किया जाता है। इन चंद सालों के अनुभव के आधार पर कुजनेत्स दुनिया को बता रहे थे कि ‘‘अभिवृद्धि एक ऊपर उठती हुई लहर है जो अपने साथ सभी नौकाओं को ऊपर उठायेगी’’। सिर्फ धीरज रखने की जरूरत है, सबके दिन फिरेंगे। अभिवृद्धि की इस यात्रा में उत्पादन, मुनाफा, आमदनी, मजदूरी, पूंजी, संपत्ति की कीमतें आदि सब समान गति से बढ़ेंगे जिनसे समाज के सभी तबकों को समान रूप से लाभ मिलेगा।
इसप्रकार, रेकार्डों और मार्क्स ने जिस विषमता के उध्र्वगति से बढ़ते चक्र के आधार पर 19वीं सदी में सामाजिक विप्लव की बात कही थी, कुजनेत्स अपने विश्लेषण से उनके बिल्कुल विपरीत छोर पर खड़े थे।
पिकेटी बताते हैं कि कुजनेत्स का यह अभिवृद्धि से आय और संपत्ति की गैर-बराबरी में कमी का सिद्धांत ऐसा पहला सिद्धांत था जो कुछ हद तक प्रामाणिक सांख्यिकी पर आधारित था। पहली बार उन्होंने अमेरिका में लोगों की आय संबंधी आंकड़ों को आधार बना कर अपनी बात रखी थी। अमेरिका में 1913 में ही आयकर लागू किया गया था। उसके पहले तो किसी के पास भी नागरिकों की आमदनी को जानने का कोई प्रामाणिक स्रोत ही नहीं था। आयकर और संपत्तिकर के आंकड़ों के बिना आय और संपत्ति के मामले में गैर-बराबरी में वृद्धि अथवा गिरावट को कूतने का कोई प्रामाणिक तरीका उपलब्ध नहीं था। राष्ट्रीय आय में ऊंची आय वाले तबकों का कितना हिस्सा है, इसकी जानकारी आयकर रिटर्न के तथ्यों से ही मिल सकती थी।
कुजनेत्स ने इन आंकड़ों का विश्लेषण करने पर पाया कि 1913 से 1948 के बीच अमेरिका में आय के मामले में गैर-बराबरी काफी कम हुई है।
माल्थस, रेकार्डो, मार्क्स कह रहे थे कि गैर-बराबरी भयावह रूप से बढ़ रही है लेकिन उनके पास इसके ठोस आंकड़ें मौजूद नहीं थे। इसके विपरीत कुजनेत्स के पास कुछ आंकड़ें उपलब्ध थे और वे यह सुखदायी समाचार दे रहे थे कि गैर-बराबरी कम हो रही है। वे अर्थ-व्यवस्था में विकास और आर्थिक गैर-बराबरी के आंकड़ों से जो ग्राफ पेश कर रहे थे, उसका आकार एक घंटी की तरह था, कुजनेत्स कर्व। इसमें बताया जारहा था कि आर्थिक अभिवृद्धि में पहले गैर-बराबरी बढ़ेगी और फिर औद्योगीकरण और आर्थिक विकास के साथ-साथ, धीरे-धीरे एक समय के अंतराल पर कम होगी। वे इसे माक्र्स के पूंजी के अन्तर्निहित तर्क की तुलना में आर्थिक विकास का अन्तर्निहित तर्क बता रहे थे। सन् 1953 में कुजनेत्स की किताब आई - Shares of upper incoms and savings। इसमें उन्होंने आंकड़ों को जिस प्रकार पेश किया उनका आगे सारी दुनिया में एक बड़े राजनीतिक हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया गया, जबकि खुद कुजनेत्स ऐसे निष्कर्ष तक पहुंचने का एक प्रकार की अटकलबाजी ही मानते थे। पिकेटी बताते हैं कि काफी अंश तक कुजनेत्स कर्व का सिद्धांत शीत युद्ध की राजनीति की एक उपज था।
1914 से लेकर 1945 के बीच धनी देशों में गैर-बराबरी में कमी को कुजनेत्स आर्थिक विकास का एक अन्तर्निहित तर्क कह रहे थे, उसे ही पिकेटी दो विश्व युद्धों और उनसे पैदा होने वाले आर्थिक और राजनीतिक झटकों का परिणाम बताते हैं। वे कहते हैं कि इस दौरान समाज के बड़े भाग्यवानों के हितों को खासा झटका लगा था। कुजनेत्स इसके कारण के तौर पर पूंजी की एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में गतिशीलता (inter-sectoral mobility) की जिस स्वत:स्फूर्त शांत प्रक्रिया की चर्चा करते हैं, उसका गैर-बराबरी में इस कमी से कोई संबंध नहीं है।
बहरहाल, राजनीतिक अर्थशास्त्र के इस समूचे ऐतिहासिक विमर्श को पिकेटी इसलिये सबसे अधिक महत्वपूर्ण मानते हैं क्योंकि इसने आय और संपत्ति के वितरण (distribution) के सवाल को अर्थनीतिशास्त्र का एक केंद्रीय सवाल बना दिया। इसी प्रश्न की रोशनी में अपनी किताब में उन्होंने 21वीं सदी में पूंजी के यथार्थ के बारे में छान-बीन करके कुछ नतीजों का अनुमान लगाने की कोशिश की है। वे अपने संग्रहीत आंकड़ों के आधार पर बताते हैं कि 1970 के बाद से दुनिया के धनी देशों में, खासकर अमेरिका में आय की गैर-बराबरी उल्लेखनीय रूप से बढ़ी है। 21वीं सदी के प्रारंभ के सालों में यह संकेंद्रण और भी ज्यादा गति से बढ़ते हुए 20वीं सदी के दूसरे दशक के स्तर तक चला गया है। इसी तथ्य के आधार पर वे कहते हैं कि बीच के कुछ सालों तक गैर-बराबरी बढ़ने के बजाय कम क्यों हुई इस बात को आसानी से समझा जा सकता है। इसके कारण पूंजीवादी विकास के किसी अन्तर्निहित नियम में नहीं, बल्कि उसके बाहर की राजनीतिक-सामाजिक घटनाओं में छिपे हुए हैं।
वे बताते हैं कि चीन की तरह के एक गरीब और विकासशील देश के विकास ने विश्व-स्तर पर गैर-बराबरी को कम करने में एक भूमिका अदा की है। लेकिन इसकी वजह भी वही रही है जो 1945 से 1975 के बीच यूरोपीय धनी देशों में गैर-बराबरी में वृद्धि के रुकने की वजह रही है। लेकिन सभी धनी देशों में वित्तीय बाजार, तेल के बाजार और रीयल इस्टेट में मनमानी कीमतें वसूले जाने की वजह से जो असंतुलन पैदा हुआ है और जिसने फिर से गैर-बराबरी में वृद्धि की गति को तेज कर दिया है, वह कुजनेत्स जैसे ‘संतुलित विकासपथ’ के सिद्धांतकारों की पूरी समझ को संदेह के दायरे में ले आती है। आज सबको यह सवाल सताने लगा है कि क्या 2050 से 2100 के बीच की दुनिया पर बड़े व्यापारियों, वित्तीय प्रबंधकों, अति-धनाढ्यों (super rich), तेल उत्पादक देशों और बैंक आफ चायना का कब्जा होगा ? या फिर कर-स्वर्गों (tax heavens) में पनाह लिये बैठै वित्तशालियों का कब्जा होगा ?
पिकेटी की साफ राय है कि बिना इस सवाल से दो-चार हुए कि आगे कौन किस पर कब्जा करने वाला है, सिर्फ यह मान लेना कि विकास (growth) अन्तत: ‘संतुलन’ पैदा कर देगा, एक मूर्खतापूर्ण सोच है। ऐसा मानने का कोई भी ठोस आधार नहीं है। खास तौर पर आज, जब सारे तथ्य यह बता रहे हैं कि घूम-फिर कर हम फिर उसी जगह आ खड़े हुए हैं जहां 19वीं सदी में हमारे पूर्वज खड़े थे। धन में वृद्धि जितनी बेतहाशा हो रही है, उतनी ही गति से आय और संपत्ति का संकेंद्रण बढ़ रहा है और व्यापक जनता का जीवन अपरिवर्तित रह रहा है।
इसीलिये पिकेटी मानते हैं कि रेकार्डों, मार्क्स आदि ने भले ही अपने प्रश्नों के पूरी तरह से संतोषप्रद जवाब न दिये हो, लेकिन उन्होंने सवाल बिल्कुल सही उठाये थे। उन्होंने राजनीतिक अर्थशास्त्र के केंद्रीय विषय के रूप में वितरण के प्रश्न को रखा था और वे इसके दीर्घकालीन सामाजिक दुष्परिणाम साफ तौर पर देख रहे थे। खास तौर पर माक्र्स ने पूंजीवाद की अपनी गति के नियम को, धन के अनंत संकेंद्रण की प्रक्रिया को ठोस रूप में पहचान लिया था जो आज भी उतना ही वैध है जितना 19वीं सदी के उत्तराद्र्ध में था। कुजनेत्स की तरह के झूठे आशावादी निष्कर्षों से खुशफहमी जरूर पैदा हो सकती है, अर्थनीति के अन्तर्निहित नियमों का कोई अंदाज नहीं मिलता। कुजनेत्स ने अर्थनीति का भला सिर्फ एक मायने में किया कि उन्होंने आय और संपत्ति के उपलब्ध आंकड़ों के जरिये समाज में गैर-बराबरी को मापने के ठोस औजारों को अर्थनीतिशास्त्र का विषय बनाया।
पिकेटी ने अपने इस अध्ययन में कुजनेत्स के काम को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य प्रदान किया है। आयकर और संपत्तिकर संबंधी आंकड़ों से गैर-बराबरी के क्रम को दीर्घकालीन परिप्रेक्ष्य में समझने की एक प्रविधि का विकास किया है। अपने अध्ययन में पिकेटी बताते हैं कि इस दीर्घकालीन परिप्रेक्ष्य में देखने पर ही यह बात साफ जाहिर होती है कि आय का एक स्रोत यदि मानव श्रमशक्ति है तो दूसरा उतना ही महत्वपूर्ण स्रोत संपत्ति भी है। वेतन, मजूरी, बोनस तथा ऐसी ही दूसरी आमदनियां श्रम से पैदा होती है और किराया, लाभांश, ब्याज, मुनाफा, पूंजीगत लाभ का स्रोत अमूमन संपत्ति होती है।
इसप्रकार, पिकेटी स्थापित करते हैं कि आर्थिक नियतिवादी नजरिये से गैर-बराबरी को कम करने की दिशा में एक कदम भी नहीं बढ़ा जा सकता है। 1910 से 1950 के बीच के सालों में इसपर मामूली अंकुश लगने के पीछे आर्थिक नहीं बल्कि राजनीतिक कारण ही प्रमुख थे। इसीलिये राजनेताओं की प्रतिबद्धताएं, उनके सोच और रुझानों का गैर-बराबरी में वृद्धि को रोकने तथा उसे कम करने में भारी महत्व है। यही स्थिति संपत्ति के मामले में गैर-बराबरी को लेकर भी है। इस दिशा में सिर्फ व्यापार के लिये सीमाओं को खोलने के बजाय ज्ञान के अधिक से अधिक विस्तार से, एक प्रकार के तकनीकी विवेक के प्रसार से कुछ अग्रगति हासिल की जा सकती है।
पिकेटी वर्गयुद्ध बनाम कम विभाजनकारी पीढि़यों के संघर्ष की तरह की असंगत बहसों को खड़ा करने वालों के आशावाद को भी भ्रामक बताते है। ‘जवानी में कमाते हैं सुरक्षित बुढ़ापे के लिये’ की तरह के जीवनदर्शन के चलते सूदखोरों के वंशधरों और मजदूरों के वंशधरों के बीच संपत्ति और आय की गैर-बराबरी का विषय गौण हो जायेगा। कहा जा रहा है कि इससे पूंजी का मूल सामाजिक चरित्र ही बदल जायेगा।
पिकेटी तथ्यों के आधार पर यह बताते हैं कि राष्ट्रीय आय में श्रम का हिस्सा लंबी कालावधि में बढ़ता हुआ नहीं दिखाई दे रहा है। 18वीं, 19वीं सदी की तरह ही 21वीं सदी में भी ‘गैर-मानवीय’ (non-human) पूंजी से कोई मुक्ति नहीं है और इसका कोई कारण नहीं दिखाई देता कि आगे भी यही जारी नहीं रहेगा। अतीत की तरह ही अब भी संपत्ति की गैर-बराबरी का आयुवर्ग से कोई संबंध नहीं है। विरासत में मिली संपत्ति 21वीं सदी के प्रारंभ में भी उतनी ही निर्णायक है जितनी बाल्जक के Pere Goriot के समय में थी। हां, इस पूरे काल में अगर किसी चीज में थोड़ी समानता आई है तो वह है ज्ञान और दक्षता के क्षेत्र में समानता। पिकेटी इसे ही, ज्ञान और दक्षता के विस्तार को आगे गैर-बराबरी पर काबू पाने के औजार के रूप में कुछ अंश तक जरूर देखते हैं। इसी आधार पर वे साफ देखते हैं कि शिक्षा और प्रशिक्षण पर निवेश को रोक कर किसी भी समुदाय को आर्थिक विकास के लाभों की हिस्सेदारी से वंचित किया जा सकता है। इसीलिये दुनिया में समरसता कभी भी स्वाभाविक या स्वत:स्फूर्त ढंग से नहीं आ सकती है। इसका एक गहरा संबंध राज्य की शिक्षा नीति से है।
‘इकोनोमिस्ट’ पत्रिका के ताजा 24 जनवरी के अंक में अमेरिका के नये आभिजात्यों (America’s new aristocracy) पर जो सामग्री आई है, वह भी यह बताती है कि शिक्षा के मामले में भेद-भाव से अमेरिका में एक नये आभिजात्य वर्ग को पैदा किया जा रहा है। ‘‘Middle-class students have to rack up huge debts to attend college, especially if they want a post-graduate degree, which many desirable jobs now require. The link between parental income and a child’s academic success has grown stronger, as clever people become richer and splash out on their daughter’s Mandarin tutor, and education matters more than it used to, because the demand for brainpower has soured.”
पिकेटी का निष्कर्ष है कि जब भी पूंजी पर होने वाला मुनाफा अर्थ-व्यवस्था में विकास की दर से ज्यादा होने लगता है (जैसा कि 19वीं सदी के पहले तक और अब 21वीं सदी में हो रहा है), तब स्वाभाविक तौर पर पैतृक संपत्ति उत्पादन और आमदनी की तुलना में ज्यादा तेजी से बढ़ती है, वह जीवन में अर्जित संपत्ति पर अपना प्रभुत्व कायम कर लेती है। आभिजात्य वर्ग तभी पैदा होता है।
इन सबके बावजूद, अपने अध्ययन के आधार पर पिकेटी का यह दृढ़ विश्वास है कि वे इन सबमें पूर्ण तबाही को अनिवार्य तौर पर नहीं देखते है। उनका मानना है कि समरसता की तरह ही विभाजन भी स्थायी नहीं है और संपत्ति के वितरण की संभावनाएं बेहद कम होने पर भी बनी रहती है। जाहिर है, इसमें राज्य की आर्थिक नीतियों, उसके रूझानों की भूमिका प्रमुख है। इसीलिये, सारी दुनिया में पिकेटी के अध्ययन और उनके निष्कर्षों के बारे में भारी आकर्षण है। वह किसी भी जन-कल्याणकारी राज्य की नीतियों के निर्धारण में एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकती है और राज्य की अब तक की नीतियों में कमियों को उजागर भी करती है। उन्होंने पूंजी के मार्क्स के बताये गये अन्दुरूनी ढांचे को नये ऐतिहासिक संदर्भों में भी वैध मानते हुए भी गैर-क्रांतिकारी परिस्थितियों में अर्थनीतिक बदलावों के जरिये गैर-बराबरी पर अंकुश लगाने के उपायों की ओर संकेत किया है। यह गैर-क्रांतिकारी परिस्थितियों में वामपंथियों के राजनीतिक कार्यक्रमों के लिये एक बेहद उपयोगी अध्ययन साबित हो सकता है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें