अरुण माहेश्वरी
राष्ट्रपति ओबामा ने भारत में अपने अंतिम भाषण में भारत के नागरिकों को धार्मिक स्वतंत्रता प्रदान करने वाली संविधान की उस धारा 25 की याद दिलाई जिस धारा को बदलना आज आरएसएस के प्रमुख घोषित उद्देश्यों में एक हैं। सऊदी अरब से अपने देश लौट कर एक महत्वपूर्ण राष्ट्रीय प्रार्थना सभा में उन्होंने फिर से कहा कि भारत एक खूबसूरत देश है लेकिन पिछले कुछ सालों से वहां तमाम लोगों के धार्मिक विश्वासों के प्रति जो असहिष्णुता बढ़ी है, अगर महात्मा गांधी होते तो इससे उन्हें गहरा सदमा लगता।
एक विदेशी राष्ट्राध्यक्ष की, वह भी अमेरिका जैसे महाशक्तिशाली देश के राष्ट्राध्यक्ष की ऐसी बेबाक टिप्पणी से एकबारगी किसी को भी लग सकता है कि यह मर्यादा का उल्लंघन और भारत के अंदुरूनी मामले में अवांछित हस्तक्षेप है। लेकिन शील-अश्लील की थोथी बातों से परे जाकर जरूरत इस बात को समझने की है कि आखिर ओबामा क्यों इतने उतावलेपन के साथ ऐसी बातों को दोहरा रहे हैं?
मूर्ख से मूर्ख व्यक्ति भी इतना तो जानता है कि वे कोई हवाई बातें नहीं कर रहे हैं। भारत में वे जिस धार्मिक असहिष्णुता में वृद्धि की ओर इशारा कर रहे हैं, वह कोई अमूर्त प्रकार की चीज नहीं है। उनका साफ संकेत उस धार्मिक असहिष्णुता की ओर है, जिसे फैलाने के काम में भारत में आरएसएस अपने जन्मकाल से ही लगा हुआ है। ओबामा और अमेरिकी प्रशासन में इसके बारे में रत्ती भर भी संदेह नहीं है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी विकास तथा दूसरे प्रकार की तमाम आडंबरपूर्ण बातें जितनी भी क्यों न करें, अंततोगत्वा वे इसी संघ परिवार के एक अभिन्न अंग है; भारतीय न्यायालय कुछ भी क्यों न कहे, 2002 के गुजरात जन-संहार में उनकी (नरेंद्र मोदी की) रजामंदी थी।
अमेरिका दुनिया के उन पहले देशों में एक है जिसने ‘50 के जमाने में ही आरएसएस के संगठन और उसकी विचारधारा के बारे में सुव्यवस्थित ढंग से अध्ययन करना शुरू कर दिया था। सीआईए द्वारा पोषित अमेरिकी संस्था ‘इंस्टीट्यूट ऑफ पैशिफिक रिलेशन्स’ के तत्वावधान में जे.ए.कुर्रान जूनियर द्वारा किया गया शोध, ‘मिलिटेंट हिन्दुइज्म इन इंडियन पॉलिटिक्स : ए स्टडी ऑफ द आर. एस. एस.’ को आरएसएस के बारे में किया गया शायद अपने प्रकार का पहला विस्तृत अध्ययन कहा जा सकता है। सन् 1951 में ही कुर्रान के इस शोध का प्रकाशन हो गया था और तब से लेकर अब तक अमेरिकी सत्ता संस्थान इसी के आधार पर आरएसएस की प्रत्येक गतिविधियों का अद्यतन लेखा-जोखा अपने पास रखता आ रहा हैं।
वर्तमान संदर्भ में थोड़ा अप्रासंगिक होने पर भी यहां यह बताना उचित होगा कि ‘50 का वह समय दुनिया में शीत युद्ध का समय था। उस समय किये गये इस शोध में भारत को ’स्तालिन एंड कंपनी’ के हाथ से बचाने के एक कट्टर कम्युनिस्ट-विरोधी औजार के तौरपर भी आरएसएस को चिन्हित किया गया था। इसके बावजूद, इसमें एक सांस्कृतिक संगठन के आरएसएस के नकाब को तार-तार करते हुए उसके सांप्रदायिक राजनीतिक उद्देश्यों और उसके संगठन के गोपनीय, षड़यंत्रकारी चरित्र को बहुत ही वस्तुनिष्ठ ढंग से पेश किया गया था। इसके साथ ही, इस शोध के अंत में इस निष्कर्ष पर भी पहुंचा गया था कि ‘‘ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न हो सकती हैं जिसमें फिलहाल छोटी सी शक्ति का यह संगठन भारत के सर्वोच्च आसन को पा लें।’’
कुर्रान के उस शोध के प्राक्कथन की पहली पंक्ति ही थी: ’’यह एक उग्रवादी हिन्दू संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का अध्ययन है जो भारतीय गणतन्त्र में राजनीतिक सत्ता हासिल करने के लिए प्रयत्नशील हैं।’’ उन्होंने आगे लिखा : ‘‘चूँकि (केंद्रीय) सरकार धर्मनिरपेक्ष नीति से प्रतिबद्ध है, इसीलिए आर एस एस के आदर्शों की खुली घोषणा से उसकी गतिविधियों पर पाबन्दी लग सकती है। आर एस एस उस वक्त तक सरकार से वैर मोल लेना नहीं चाहता जब तक वह इस बात से आश्वस्त न हो जाए कि उसमें सरकार से निपट लेने की यथेष्ट शक्ति आ गई है।’’
कुर्रान के उस शोध का तीसरा अध्याय था - आर एस एस का कार्यक्रम। इसमें आरएस एस के संविधान की धारा 3 और 4 के उद्धरण के जरिए उसके घोषित लक्ष्यों का उल्लेख करने के बाद ही कुर्रान ने साफ शब्दों में लिखा था कि ’’ इस संविधान से संघ को हिंदू समाज के जिस प्रकार के सुदृढ़ीकरण और पुनर्जीवीकरण को समर्पित बताया गया है, उसकी कोई साफ तस्वीर सामने नहीं आती। इसमें एक हिन्दू राष्ट्र की उग्र तथा असहिष्णु पैरवी का कोई संकेत नहीं है। दरअसल, संघ के संविधान में औपचारिक तौर पर घोषित उद्देश्यों तथा संघ की वास्तविक योजनाओं में बुनियादी तौर पर फर्कहै। संघ साधन और साध्य की गोपनीयता की भत्र्सना करता है, फिर भी उसके संविधान में उल्लेखित सहिष्णु हिन्दू दर्शन तथा उसके सदस्यों में कूट-कूटकर भरे गए उन्मादपूर्ण हिन्दू-परस्त और अहिन्दू-विरोधी लक्ष्यों के बीच कोई संगति नहीं है। संविधान तथा उनका घोषित दर्शन संघ के वास्तविक उद्देश्यों का धुंधला और छल भरा प्रतिबिम्ब ही है।’’ आर एस एस का राजनीति से कोई सम्बन्ध न होने की बात को भी इसमें सरासर झूठ और हास्यास्पद कहा गया है। वह अपने को एक सांस्कृतिक संगठन कहता है, लेकिन संस्कृति से उसका तात्पर्य कभी भी वह नहीं रहा है जो आम तौर पर समझा जाता है। संस्कृति उसके लिये सिवाय राजनीतिक वर्चस्व कायम करने के और कुछ नहीं है।
कहने का तात्पर्य यह है कि आरएसएस अपने आप में एक बहुत ही गुप्त ढंग से काम करने वाला राजनीतिक संगठन होने के बावजूद सारी दुनिया इस संगठन के विचारधारात्मक स्रोत, इसके काम करने के षड़यंत्रकारी तौर-तरीकों से भलीभांति परिचित है। अमेरिकी प्रशासन तो खास तौर पर काफी लंबे अर्से से उसपर गहराई से नजरें टिकाये हुए है। यही वह प्रमुख कारण था कि अमेरिकी प्रशासन ने नरेन्द्र मोदी को उस समय तक अमेरिका का वीसा नहीं दिया था जब तक वे चुनाव में जीत नहीं गये। और यही वजह है कि सरकार बना लेने के बाद भी, सिर्फ विकास-विकास का रागअलापने भर से आरएसएस स्वत:स्फूर्त ढंग से दुनिया की नजरों के संदेह के घेरे से बाहर नहीं आ गया है। ऊपर से, संघ परिवारियों के ‘घर-वापसी’, अल्पसंख्यकों के उपासना-स्थलों पर हमलों और दूसरी सभी बेहुदी उग्र बातों से यह संदेह का घेरा और भी ज्यादा विस्तृत और गहरा ही हुआ है।
इसके अलावा, समझने की बात है कि ‘50 से लेकर ‘90 तक की दुनिया कीपरिस्थिति और आज की दुनिया की परिस्थिति में जमीन-आसमान का फर्क आ चुकाहै। ‘90 में समाजवाद के पराभव के साथ ही शीतयुद्ध का वह काल समाप्त होचुका है, जब सोवियत प्रभाव को रोकने के लिये अमेरिका ने जिन ताकतों का खुल कर प्रयोगकिया उनमें बड़ी मात्रा में धार्मिक तत्ववादी और जेहादी ताकतें शामिल थी। इस मायनेमें भारत में भी आरएसएस को निश्चित तौर पर अमेरिकी समर्थन मिलता रहा था। ‘90 के राम जन्मभूमि आंदोलन के समय सारी दुनिया में विश्व हिन्दू परिषद की शाखाओं केफैलाव में अमेरिकी प्रशासन की कितनी भूमिका रही, इसपर शोध करने की जरूरतहै। फिर भी, इतना तो सर्वविदित है कि राम मंदिर आंदोलन में अमेरिका से भारी मात्रामें रुपया आया करता था।
लेकिन, ‘90 के बाद का अमेरिकी अनुभव इस बात का गवाह है कि जिन धार्मिक तत्ववादी ताकतों को उसने कम्युनिस्टों को रोकने के लिये पैदा किया था, वे ही परवर्ती दिनों में भस्मासुर की तरह अमेरिका के लिये ही खतरा बन गयी। इस नयी सदी के प्रारंभ में ही, उन ताकतों ने 9 सितंबर 2001 के दिन वल्र्ड ट्रेड सेंटर को ढहा कर अमेरिका को ही अपने हमले का निशाना बना लिया। सारी दुनिया के राजनीतिक टिप्पणीकारों ने तब एक स्वर में कहा था कि 9/11 के बाद, अब दुनिया वह नहीं रही, जैसी अब तक थी। ‘सभ्यताओं का संघर्ष’ की तरह की नयी विचारधारात्मक दलीलें सामने आने लगी और धार्मिक उग्रवाद अमेरिका के एक प्रमुख शत्रु के रूप में माना जाने लगा। अफगानिस्तान, इराक, पूरा मध्य एशिया और पाकिस्तान का भी उत्तर-पश्चिमी सीमांत इलाका तब से लगातार धधक रहा है।
आज नरेन्द्र मोदी, भारत और ओबामा के संदर्भ में इन चर्चाओं का तात्पर्य सिर्फ यही है कि जो धार्मिक तत्ववाद किसी समय अमेरिकी विदेशनीति का एक प्रमुख औजार हुआ करता था, वही आज उसका शत्रु माना जाता है। और, नरेन्द्र मोदी की विडंबना यही है कि वे जिस आरएसएस का प्रतिनिधित्व करते हैं, अमेरिकी दृष्टिकोण में आज के समय में वह कमोबेस वैसे ही तत्वों की श्रेणी में पड़ता है जिन्हें अमेरिका अपना प्रमुख शत्रु मान रहा है। यही कारण है कि ओबामा प्रधानमंत्री श्रीमान मोदी के सारे आडंबरों से परे, उनके राजनीतिक उत्स, भारत की मौजूदा राजनीतिक-सामाजिक परिस्थितियों को लेकर कहीं ज्यादा सशंकित है। भारत की अंदुरूनी राजनीति के और भी दूसरे तमाम पहलुओं पर उनकी गहरी निगाहें लगी हुई हैं।
जहां तक भारत को एक विशाल बाजार के रूप में पाने का सवाल है, अमेरिका जानता है कि इस मामले में मनमोहन सिंह भी उसके कम सहयोगी नहीं थे। भारत में आर्थिक उदारतावाद के अग्रदूत वे ही थे। और आज भी कांग्रेस दल अपनी उन नीतियों से जरा भी पीछे नहीं हटा है। इसके विपरीत, भारत जैसे एक परमाणविक शक्ति के विशाल देश में आरएसएस की तरह की उग्र धार्मिक तत्ववादी ताकत के उभार के दूरगामी घातक परिणामों से वह और भी शंकित हो उठता है। भारत में मोदी जिस प्रकार सारी सत्ता को अपने हाथों में केंद्रीभूत करके पड़ौसी देशों, पाकिस्तान, नेपाल आदि पर धौंस जमाने की कोशिश कर रहे हैं, उससे भी एक जंगखोर विस्तारवादी शक्ति के उभार की अतिरिक्त आशंका पैदा होती है जो सिर्फ इस पूरे क्षेत्र में अकल्पनीय विध्वंस और अस्थिरता का कारण ही नहीं बन सकता है, बल्कि सारी दुनिया को अस्त-व्यस्त कर सकता है।
यह सच है कि अमेरिका भारत को अपनी सामरिक विश्व रणनीति का हिस्सा बनाना चाहता है, लेकिन उतना ही बड़ा सच यह भी है कि वह यह काम पाकिस्तान की कीमत पर नहीं करना चाहता। उसका यही रुख इस बात का संकेत हैं कि एक विशाल उग्र तत्ववादी उन्मादित शक्ति के भरोसे वह इस क्षेत्र में अपनी कोई रणनीति तैयार करना नहीं चाहता। आरएसएस की विचारधारा से परिचित होने के नाते कोई भी इसमें एक और हिटलर के जन्म की संभावनाओं को देख सकता है, जिसने सारी मानवता के भविष्य पर प्रश्न लगा दिया था।
इन्हीं तमाम कारणों से, ओबामा द्वारा भारत के संदर्भ में बार-बार धार्मिक असहिष्णुता का उल्लेख और महात्मा गांधी का स्मरण अकारण नहीं है।
एक विदेशी राष्ट्राध्यक्ष की, वह भी अमेरिका जैसे महाशक्तिशाली देश के राष्ट्राध्यक्ष की ऐसी बेबाक टिप्पणी से एकबारगी किसी को भी लग सकता है कि यह मर्यादा का उल्लंघन और भारत के अंदुरूनी मामले में अवांछित हस्तक्षेप है। लेकिन शील-अश्लील की थोथी बातों से परे जाकर जरूरत इस बात को समझने की है कि आखिर ओबामा क्यों इतने उतावलेपन के साथ ऐसी बातों को दोहरा रहे हैं?
मूर्ख से मूर्ख व्यक्ति भी इतना तो जानता है कि वे कोई हवाई बातें नहीं कर रहे हैं। भारत में वे जिस धार्मिक असहिष्णुता में वृद्धि की ओर इशारा कर रहे हैं, वह कोई अमूर्त प्रकार की चीज नहीं है। उनका साफ संकेत उस धार्मिक असहिष्णुता की ओर है, जिसे फैलाने के काम में भारत में आरएसएस अपने जन्मकाल से ही लगा हुआ है। ओबामा और अमेरिकी प्रशासन में इसके बारे में रत्ती भर भी संदेह नहीं है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी विकास तथा दूसरे प्रकार की तमाम आडंबरपूर्ण बातें जितनी भी क्यों न करें, अंततोगत्वा वे इसी संघ परिवार के एक अभिन्न अंग है; भारतीय न्यायालय कुछ भी क्यों न कहे, 2002 के गुजरात जन-संहार में उनकी (नरेंद्र मोदी की) रजामंदी थी।
अमेरिका दुनिया के उन पहले देशों में एक है जिसने ‘50 के जमाने में ही आरएसएस के संगठन और उसकी विचारधारा के बारे में सुव्यवस्थित ढंग से अध्ययन करना शुरू कर दिया था। सीआईए द्वारा पोषित अमेरिकी संस्था ‘इंस्टीट्यूट ऑफ पैशिफिक रिलेशन्स’ के तत्वावधान में जे.ए.कुर्रान जूनियर द्वारा किया गया शोध, ‘मिलिटेंट हिन्दुइज्म इन इंडियन पॉलिटिक्स : ए स्टडी ऑफ द आर. एस. एस.’ को आरएसएस के बारे में किया गया शायद अपने प्रकार का पहला विस्तृत अध्ययन कहा जा सकता है। सन् 1951 में ही कुर्रान के इस शोध का प्रकाशन हो गया था और तब से लेकर अब तक अमेरिकी सत्ता संस्थान इसी के आधार पर आरएसएस की प्रत्येक गतिविधियों का अद्यतन लेखा-जोखा अपने पास रखता आ रहा हैं।
वर्तमान संदर्भ में थोड़ा अप्रासंगिक होने पर भी यहां यह बताना उचित होगा कि ‘50 का वह समय दुनिया में शीत युद्ध का समय था। उस समय किये गये इस शोध में भारत को ’स्तालिन एंड कंपनी’ के हाथ से बचाने के एक कट्टर कम्युनिस्ट-विरोधी औजार के तौरपर भी आरएसएस को चिन्हित किया गया था। इसके बावजूद, इसमें एक सांस्कृतिक संगठन के आरएसएस के नकाब को तार-तार करते हुए उसके सांप्रदायिक राजनीतिक उद्देश्यों और उसके संगठन के गोपनीय, षड़यंत्रकारी चरित्र को बहुत ही वस्तुनिष्ठ ढंग से पेश किया गया था। इसके साथ ही, इस शोध के अंत में इस निष्कर्ष पर भी पहुंचा गया था कि ‘‘ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न हो सकती हैं जिसमें फिलहाल छोटी सी शक्ति का यह संगठन भारत के सर्वोच्च आसन को पा लें।’’
कुर्रान के उस शोध के प्राक्कथन की पहली पंक्ति ही थी: ’’यह एक उग्रवादी हिन्दू संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का अध्ययन है जो भारतीय गणतन्त्र में राजनीतिक सत्ता हासिल करने के लिए प्रयत्नशील हैं।’’ उन्होंने आगे लिखा : ‘‘चूँकि (केंद्रीय) सरकार धर्मनिरपेक्ष नीति से प्रतिबद्ध है, इसीलिए आर एस एस के आदर्शों की खुली घोषणा से उसकी गतिविधियों पर पाबन्दी लग सकती है। आर एस एस उस वक्त तक सरकार से वैर मोल लेना नहीं चाहता जब तक वह इस बात से आश्वस्त न हो जाए कि उसमें सरकार से निपट लेने की यथेष्ट शक्ति आ गई है।’’
कुर्रान के उस शोध का तीसरा अध्याय था - आर एस एस का कार्यक्रम। इसमें आरएस एस के संविधान की धारा 3 और 4 के उद्धरण के जरिए उसके घोषित लक्ष्यों का उल्लेख करने के बाद ही कुर्रान ने साफ शब्दों में लिखा था कि ’’ इस संविधान से संघ को हिंदू समाज के जिस प्रकार के सुदृढ़ीकरण और पुनर्जीवीकरण को समर्पित बताया गया है, उसकी कोई साफ तस्वीर सामने नहीं आती। इसमें एक हिन्दू राष्ट्र की उग्र तथा असहिष्णु पैरवी का कोई संकेत नहीं है। दरअसल, संघ के संविधान में औपचारिक तौर पर घोषित उद्देश्यों तथा संघ की वास्तविक योजनाओं में बुनियादी तौर पर फर्कहै। संघ साधन और साध्य की गोपनीयता की भत्र्सना करता है, फिर भी उसके संविधान में उल्लेखित सहिष्णु हिन्दू दर्शन तथा उसके सदस्यों में कूट-कूटकर भरे गए उन्मादपूर्ण हिन्दू-परस्त और अहिन्दू-विरोधी लक्ष्यों के बीच कोई संगति नहीं है। संविधान तथा उनका घोषित दर्शन संघ के वास्तविक उद्देश्यों का धुंधला और छल भरा प्रतिबिम्ब ही है।’’ आर एस एस का राजनीति से कोई सम्बन्ध न होने की बात को भी इसमें सरासर झूठ और हास्यास्पद कहा गया है। वह अपने को एक सांस्कृतिक संगठन कहता है, लेकिन संस्कृति से उसका तात्पर्य कभी भी वह नहीं रहा है जो आम तौर पर समझा जाता है। संस्कृति उसके लिये सिवाय राजनीतिक वर्चस्व कायम करने के और कुछ नहीं है।
कहने का तात्पर्य यह है कि आरएसएस अपने आप में एक बहुत ही गुप्त ढंग से काम करने वाला राजनीतिक संगठन होने के बावजूद सारी दुनिया इस संगठन के विचारधारात्मक स्रोत, इसके काम करने के षड़यंत्रकारी तौर-तरीकों से भलीभांति परिचित है। अमेरिकी प्रशासन तो खास तौर पर काफी लंबे अर्से से उसपर गहराई से नजरें टिकाये हुए है। यही वह प्रमुख कारण था कि अमेरिकी प्रशासन ने नरेन्द्र मोदी को उस समय तक अमेरिका का वीसा नहीं दिया था जब तक वे चुनाव में जीत नहीं गये। और यही वजह है कि सरकार बना लेने के बाद भी, सिर्फ विकास-विकास का रागअलापने भर से आरएसएस स्वत:स्फूर्त ढंग से दुनिया की नजरों के संदेह के घेरे से बाहर नहीं आ गया है। ऊपर से, संघ परिवारियों के ‘घर-वापसी’, अल्पसंख्यकों के उपासना-स्थलों पर हमलों और दूसरी सभी बेहुदी उग्र बातों से यह संदेह का घेरा और भी ज्यादा विस्तृत और गहरा ही हुआ है।
इसके अलावा, समझने की बात है कि ‘50 से लेकर ‘90 तक की दुनिया कीपरिस्थिति और आज की दुनिया की परिस्थिति में जमीन-आसमान का फर्क आ चुकाहै। ‘90 में समाजवाद के पराभव के साथ ही शीतयुद्ध का वह काल समाप्त होचुका है, जब सोवियत प्रभाव को रोकने के लिये अमेरिका ने जिन ताकतों का खुल कर प्रयोगकिया उनमें बड़ी मात्रा में धार्मिक तत्ववादी और जेहादी ताकतें शामिल थी। इस मायनेमें भारत में भी आरएसएस को निश्चित तौर पर अमेरिकी समर्थन मिलता रहा था। ‘90 के राम जन्मभूमि आंदोलन के समय सारी दुनिया में विश्व हिन्दू परिषद की शाखाओं केफैलाव में अमेरिकी प्रशासन की कितनी भूमिका रही, इसपर शोध करने की जरूरतहै। फिर भी, इतना तो सर्वविदित है कि राम मंदिर आंदोलन में अमेरिका से भारी मात्रामें रुपया आया करता था।
लेकिन, ‘90 के बाद का अमेरिकी अनुभव इस बात का गवाह है कि जिन धार्मिक तत्ववादी ताकतों को उसने कम्युनिस्टों को रोकने के लिये पैदा किया था, वे ही परवर्ती दिनों में भस्मासुर की तरह अमेरिका के लिये ही खतरा बन गयी। इस नयी सदी के प्रारंभ में ही, उन ताकतों ने 9 सितंबर 2001 के दिन वल्र्ड ट्रेड सेंटर को ढहा कर अमेरिका को ही अपने हमले का निशाना बना लिया। सारी दुनिया के राजनीतिक टिप्पणीकारों ने तब एक स्वर में कहा था कि 9/11 के बाद, अब दुनिया वह नहीं रही, जैसी अब तक थी। ‘सभ्यताओं का संघर्ष’ की तरह की नयी विचारधारात्मक दलीलें सामने आने लगी और धार्मिक उग्रवाद अमेरिका के एक प्रमुख शत्रु के रूप में माना जाने लगा। अफगानिस्तान, इराक, पूरा मध्य एशिया और पाकिस्तान का भी उत्तर-पश्चिमी सीमांत इलाका तब से लगातार धधक रहा है।
आज नरेन्द्र मोदी, भारत और ओबामा के संदर्भ में इन चर्चाओं का तात्पर्य सिर्फ यही है कि जो धार्मिक तत्ववाद किसी समय अमेरिकी विदेशनीति का एक प्रमुख औजार हुआ करता था, वही आज उसका शत्रु माना जाता है। और, नरेन्द्र मोदी की विडंबना यही है कि वे जिस आरएसएस का प्रतिनिधित्व करते हैं, अमेरिकी दृष्टिकोण में आज के समय में वह कमोबेस वैसे ही तत्वों की श्रेणी में पड़ता है जिन्हें अमेरिका अपना प्रमुख शत्रु मान रहा है। यही कारण है कि ओबामा प्रधानमंत्री श्रीमान मोदी के सारे आडंबरों से परे, उनके राजनीतिक उत्स, भारत की मौजूदा राजनीतिक-सामाजिक परिस्थितियों को लेकर कहीं ज्यादा सशंकित है। भारत की अंदुरूनी राजनीति के और भी दूसरे तमाम पहलुओं पर उनकी गहरी निगाहें लगी हुई हैं।
जहां तक भारत को एक विशाल बाजार के रूप में पाने का सवाल है, अमेरिका जानता है कि इस मामले में मनमोहन सिंह भी उसके कम सहयोगी नहीं थे। भारत में आर्थिक उदारतावाद के अग्रदूत वे ही थे। और आज भी कांग्रेस दल अपनी उन नीतियों से जरा भी पीछे नहीं हटा है। इसके विपरीत, भारत जैसे एक परमाणविक शक्ति के विशाल देश में आरएसएस की तरह की उग्र धार्मिक तत्ववादी ताकत के उभार के दूरगामी घातक परिणामों से वह और भी शंकित हो उठता है। भारत में मोदी जिस प्रकार सारी सत्ता को अपने हाथों में केंद्रीभूत करके पड़ौसी देशों, पाकिस्तान, नेपाल आदि पर धौंस जमाने की कोशिश कर रहे हैं, उससे भी एक जंगखोर विस्तारवादी शक्ति के उभार की अतिरिक्त आशंका पैदा होती है जो सिर्फ इस पूरे क्षेत्र में अकल्पनीय विध्वंस और अस्थिरता का कारण ही नहीं बन सकता है, बल्कि सारी दुनिया को अस्त-व्यस्त कर सकता है।
यह सच है कि अमेरिका भारत को अपनी सामरिक विश्व रणनीति का हिस्सा बनाना चाहता है, लेकिन उतना ही बड़ा सच यह भी है कि वह यह काम पाकिस्तान की कीमत पर नहीं करना चाहता। उसका यही रुख इस बात का संकेत हैं कि एक विशाल उग्र तत्ववादी उन्मादित शक्ति के भरोसे वह इस क्षेत्र में अपनी कोई रणनीति तैयार करना नहीं चाहता। आरएसएस की विचारधारा से परिचित होने के नाते कोई भी इसमें एक और हिटलर के जन्म की संभावनाओं को देख सकता है, जिसने सारी मानवता के भविष्य पर प्रश्न लगा दिया था।
इन्हीं तमाम कारणों से, ओबामा द्वारा भारत के संदर्भ में बार-बार धार्मिक असहिष्णुता का उल्लेख और महात्मा गांधी का स्मरण अकारण नहीं है।
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