अरुण माहेश्वरी
सीपीआई(एम) की 21वीं कांग्रेस को शुरू हुए तीन दिन बीत चुके हैं। इस कांग्रेस में अभी किन बातों पर क्या बहस चल रहीं है, इन्हें जानने का एक मात्र प्रामाणिक तरीका पार्टी द्वारा हर रोज जारी की जाने वाली अति संक्षिप्त प्रेस-विज्ञप्ति के अलावा और कुछ नहीं है। इस विज्ञप्ति में कांग्रेस के पूर्व-निर्धारित कार्यक्रम के अलावा कुछ खास प्रस्तावों का जिक्र होता है और बहस के लिये तैयार किये गये दस्तावेजों पर बोलने वाले वक्ताओं के नामों की जानकारी होती है। यही है एक क्रांतिकारी पार्टी के अंदुरूनी जनतंत्र के चरम रूप को चरितार्थ करने वाली वह खास संगठनात्मक शैली जिसमें कोई भी आम प्रतिनिधि एक बंद ढांचे के अंदर ही बोलने का अधिकारी होता है, बाहर के व्यापक समाज तक उसकी बातों की गूंज-अनुगूंज की कोई गुंजाईश नहीं होती। प्रतिनिधि की स्वतंत्र सत्ता उसी वक्त तक होती है जब तक वह बोल रहा होता है। उसके भाषण की समाप्ति के क्षण के साथ ही वह सत्ता पार्टी कांग्रेस में चुने गये नेतृत्व के हाथ में खुद को सुपुर्द कर, आगे की कांग्रेस तक के लिये उनके निर्देशों के एक औजार में विलीन हो जाती है।
दरअसल, किसी न किसी रूप में यह बात अभी तक स्वीकृत सभी पार्टी-तंत्रों पर कमोबेस इसीप्रकार लागू होती है, लेकिन एक क्रांतिकारी पार्टी के ढांचे में पार्टी तंत्र की यह सचाई अपने तात्विक रूप में, 24 कैरेट सोने की तरह होती है। इसमें किसी प्रकार की खाद या मिलावट की संभावना नहीं होती है।
इस मायने में इधर के दिनों में आम आदमी पार्टी के अंदर से पार्टी के अंदुरूनी जनतंत्र के विषय को जिसप्रकार खुद में एक स्वतंत्र राजनीतिक विषय के तौर पर उठाया जा रहा है, वह अपने आप में एक भिन्न विषय है और पार्टी-तंत्र कैसे खुद में जनता के जीवन से जुड़ा एक बड़ा सामाजिक-राजनीतिक प्रश्न बन चुका है, इसकी ओर संकेत करता है।
बहरहाल, सीपीआई(एम) की कांग्रेस के इन तीन दिनों के बारे में विज्ञप्तियों आदि के जरिये जो भी सामने आया है, उससे पता चलता है कि अभी तक इसमें पिछले पचीस सालों के दौरान अपनाई गयी पार्टी की राजनीतिक और कार्यनीतिक लाईन की समीक्षा का जो दस्तावेज बहस के लिये जारी किया गया था, उस पर चर्चा हुई है। सीपीआई(एम) के इस दस्तावेज पर टिप्पणी करते हुए इसी लेखक ने अन्यत्र लिखा है कि यह ‘‘एक प्रकार से स्मारकों को ढहा कर अतीत से मुक्ति पाने का एक नपुंसक तरीका है। पुरानी भूलों के बजाय चर्चा उन भूलों के कारणों की, उनके पीछे की सामाजिक-राजनीतिक विफलताओं की होनी चाहिए। और सबसे बड़ी जरूरत इन ऐतिहासिक भूलों के कारकों से निष्ठुरता के साथ मुक्ति पाने की है, न कि किसी सर्वसमावेशवाद के तहत लाशों के बोझ को ढोने की।’’
गौर करने लायक बात यह है कि पार्टी कांग्रेस में चल रही इस बहस के बारे में अब तक जो भी संकेत दिये जा रहे हैं, उनसे पता चलता है कि आगे से सीपीआई(एम) आंचलिक बुर्जुआ दलों के साथ मिल कर किसी तीसरे विकल्प को तैयार करने के चक्कर में नहीं पड़ेगी। उसकी केंद्रीय राजनीति की दिशा सिर्फ वामपंथी दलों की एकता को कायम करने की दिशा होगी। चुनाव आदि के अवसरों पर आंचलिक बुर्जुआ दलों के साथ जो भी समझौते होंगे उनके लिये हर राज्य की इकाई को अपने लाभ-नुकसान को देखते हुए स्वतंत्र रूप से निर्णय लेने होंगे।
अगर यह बात सच है तो कहना न होगा, यह किसी हारे-थके बदहवास से व्यक्ति के लिये येन-केन-प्रकारेण अपने लिये सुकून, सुख और शान्ति के कोने में दुबक कर बैठ जाने की काल्पनिक लालसा जैसा है। सीपीआई (एम) के लिये अभी वाम एकता का नारा सुकून के एक वैसे ही अंधेरे कोने की तरह है । हमारा सवाल है कि अगर आंचलिक पूंजीवादी दलों का अवसरवाद त्याज्य और वर्जित है तो सभी वामपंथी दलों का इतिहास भी इस मामले में कोई दूध का धुला हुआ नहीं है। ज्यादा दूर न जाकर, अभी-अभी फिर से वाममोर्चा की शोभा बढ़ाने के लिये आई एसयूसीआई कल तक पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चा के जानी दुश्मनों की कतार में शामिल रही है। इतनी सारी अलग-अलग वामपंथी पार्टियों का अस्तित्व ही इनके पीछे की कुछ कहानी तो कहता ही है!
दरअसल, गहराई से देखने पर ऐसा लगता है कि सीपीआई(एम) के वर्तमान नेतृत्व ने कुछ इतनी बड़ी-बड़ी, पहाड़ समान कार्यनीतिक भूलें की हैं, जिन्हें वह अपनी स्मृतियों तक में कोई स्थान देने से आज जैसे कांप सा उठता है। इसमें उदाहरण के तौर पर हम दो सबसे बड़ी घटनाओं का यहां उल्लेख करना चाहेंगे। पहली 1996 में, जब ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनाने के पस्ताव को केंद्रीय कमेटी के इसी नेतृत्व ने ठुकरा दिया था। और दूसरी घटना है 2009 में, जब परमाणु संधि के नाम पर यही नेतृत्व यूपीए सरकार से समर्थन वापस लेकर मनमोहन सिंह सरकार को उखाड़ फेंकने के लिये ताल ठोक कर उतर पड़ा था।
कहना न होगा, कार्यनीति के क्षेत्र में इस नेतृत्व द्वारा लिये गये ये दोनों फैसले ही संसदीय जनतंत्र में सीपीआई(एम) के भविष्य को प्रभावित करने वाली इतनी भारी घटनाओं के मूल में रहे हैं, जिनपर आज तक जारी राजनीतिक बहसों के बावजूद उसका वर्तमान नेतृत्व उन्हें भुला कर अपने राजनीतिक इतिहास की स्मृतियों से बिल्कुल बाहर कर देना चाहता है। इन दोनों घटनाओं पर चली बहसें इस नेतृत्व के लिये लगभग असहनीय है क्योंकि इनसे भारतीय वामपंथ को लगे सदमे इतने घातक है कि उनकी स्मृतियों के साथ कोई भी अपनी बनायी दुनिया में चैन की एक सांस भी नहीं ले सकता है। ये दोनों घटनाएं ही कोरी कल्पनाप्रसूत नहीं हैं, जिनका कोई ठोस अस्तित्व न रहा हो। ये ठोस ऐतिहासिक तथ्य है और इसी 25 साल की अवधि के अंदर के तथ्य है जिस पर सीपीआई(एम) की इस कांग्रेस में बहस की जा रही है। फिर भी इनका इस दस्तावेज में कायदे से कोई उल्लेख न होना इन्हें लेकर वर्तमान नेतृत्व के भीतर की प्रेत-ग्रंथी को बताने के लिये काफी है।
अपनी विफलताओं के कारणों की इस कहानी से मूंह चुरा कर सीपीआई(एम) का नेतृत्व उन कारणों को समझने से इंकार कर रहा है जिनकी वजह से किसी के महापतन के ऐसे आख्यान तैयार होते हैं। जब कोई अपने भटके हुए कदमों की सचाई को जानने से इंकार करता है तो वह अकारण नहीं होता। इसके मूल में सीपीआई(एम) के वर्तमान नेतृत्व की एक थोथी क्रांतिकारी ललक, एक आदिम झूठ की बड़ी भूमिका जान पड़ती है जिससे अपने अस्तित्व के आधार के बारे में काल्पनिक कहानियां गढ़ के वह दूसरों को बरगलाता है। इसी के चलते यथार्थ और कल्पना का भेद मिट जाता है, ठोस राजनीतिक कार्यनीति का स्थान डॉन क्विगजोटिक क्रांतिकारी स्वांग लेने लगता है।
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