भूमिका
कोलकाता की ‘लहक’ पत्रिका में प्रकाशित हुए इन सभी लेखों को लिखने के पीछे कभी कोई पूर्व योजना नहीं रही। अथवा, जिसे a priori, अर्थात अनुभव-निरेपक्ष विषय कहते हैं, मसलन्, ‘साहित्य क्या है’, ‘साहित्य और आलोचना’, ‘साहित्य और समाज’, ‘साहित्य की भूमिका’, ‘साहित्य के प्रतिमान’ आदि की तरह के सामान्य प्रकार के विषय, इस प्रकार के लेखन का भी कोई मकसद नहीं रहा। लेकिन इसके बावजूद, इन सभी लेखों को समग्रता में देखने से ऐसा लगता है, जैसे दृश्य-अदृश्य, कोई भी एक योजना जरूर इनके पीछे काम करती रही है। कुछ मित्रों के अनुसार, इनके पीछे एक बहुत ही घातक, पूरी तरह से ‘विध्वंसक’ योजना काम कर रही है !
बहरहाल, यह तो तय है कि यदि यह शुद्ध रूप से अनुभव-निरपेक्ष किस्म का लेखन होता, तो शायद यह मुमकिन नहीं होता कि कभी भी साहित्य चर्चा के वर्तमान कई प्रकार के ढांचों को समेटे हुए चौखटे से बाहर जा पाता। तब या तो इनमें आत्ममुग्ध लेखकों की कलावादिता का आनंद लिया गया होता, भले ब्रह्मानंद या सच्चिदानंद वाले अन्तत: मनुष्योचित मान लिये गये आनन्दस्वरूप में ही क्यों न हो, या फिर यथार्थवादी क्रोध, रुच्छता और कटु वचनों की बड़बड़ाहट होती। इनसे भी ज्यादा मुमकिन था कि आज के सामंजस्य धर्म का पालन करते हुए सब जनों की जय-जयकार का बीतरागी सुख का रास्ता अपना लिया जाता।
गौर करने पर इस सच से कोई इंकार नहीं कर सकेगा कि हिंदी की आज की तमाम साहित्यिक पत्रिकाएं आलोचना के नाम पर कमोबेस इसीप्रकार के, वह भी काफी हद तक मूलत: अभ्यासमूलक लेखन से अटी हुई है। इनकी प्रकृति भले इंद्रियातीत, असीम-संधानी चिंतन की दिशा में हो या बचकानी यथार्थवादी आस्था की दिशा में। इनमें निहित सैद्धांतिक कलाबाजियां, अगर वे कहीं हैं, तो पानी में उठते बुलबुलों से भी ज्यादा क्षण-भंगुर होती हैं जो पैदा होने के साथ ही इतनी जल्द फूट जाते है कि किसी को उनके अस्तित्व का कोई भान तक नहीं हो पाता। इनसे साहित्य विमर्श में कोई योगदान तो बहुत दूर की बात, साहित्य जगत के न्यूनतम लक्षणों तक का अनुमान मिलना मुश्किल हो चुका है।
मार्क्स की ‘पूंजी’ में बार-बार यह कथन आता है -‘वे इसे नहीं जानते, लेकिन यही करते हैं’। स्लावोय जिजेक ने आगे इसकी और, वेदांती किस्म की व्याख्या की है। वे कहते हैं कि समस्या जानने में नहीं है, बल्कि उस मूल सचाई में ही हैं, जिसमें लोग काम करते हैं। वे जिस चीज को देख नहीं रहे हैं या गलत समझ रहे हैं, वह खुद भी कोरी भ्रांति है, जीवन और सामाजिक गतिविधियों के बारे में भ्रांति। इस न देखी जा रही अचेतनता की भ्रांति को ही विचारधारात्मक फैंटेसी कह सकते हैं। कहना न होगा, हिंदी का साहित्य जगत भी लगता है जैसे वह अपने ही रचे मायावी संसार, और उससे अपने संबंधों के बारे में दोहरी भ्रांति का शिकार है। इसके व्यवहार से लगता है जैसे सत्य को जानने पर भी कुछ नहीं जानता है बल्कि द्विध-ग्रस्त होकर सत्य से ही विमुख हो गया है।
नि:संदेह, इस संकलन के लेखों को विध्वंसक कहा जा सकता है - बल्कि बहुत अधिक विध्वंसक ! नकारात्मकता का उन्माद। ऐसी नकारात्मकता जिसमें ‘सारी ठोस चीजें हवा हो जाती है’। ईंट-ईंट जोड़ कर तैयार की गई हिंदी साहित्य की ‘भव्य’ इमारत के ‘प्रत्यक्ष’ को ही जैसे झुठला दिया जा रहा है ! यह आलोचना का निरूपण नहीं, निरूपण तो जाने दीजिये, शायद आलोचना की न्यूनतम समझ भी नहीं देता।
इन लेखों की ऐसी आलोचनाओं के बारे में हम पहले से ही यह कहना चाहेंगे कि जो कभी इन लेखों का उद्देश्य ही नहीं रहा, उसीके लिये इन्हें अपराधी के कठघरे में न खड़ा किया जाएं ! साथ ही, यह भी कहेंगे कि द्वंद्वात्मक विवेचन का पहला बुनियादी उसूल ही है कि हम विषय से अपनी पूर्वाग्रहों से भरी आत्मगतता को अलग रख कर चलें।
इसीप्रकार, हिंदी साहित्य के वर्तमान और अतीत पर कुछ कठिन सवाल उठाने वाले इन लेखों को इस बिनाह पर भी एक सिरे से झूठा करार दिया जा सकता है कि इनसे इस साहित्य जगत का नकार तो मिलता है, लेकिन इसकी कोई व्याख्या नहीं, क्योंकि वह तो विशेषज्ञों का, ज्ञानी-मुनि, हिंदी के अध्यापकों के एकाधिकार का क्षेत्र है ! इन लेखों को लिखने के दौरान हमारे सामने आई ऐसी कुछ उत्तेजक प्रतिक्रियाएं हमें याद हैं। एक लेख में डा. रामविलास शर्मा की पुस्तक ‘रामचंद्र शुक्ल और हिंदी आलोचना’ का नाम गलत छप गया था। उसे देखते ही हिंदी आलोचना के एक मठाधीश महोदय ने फौरन फोन करके ऊंची आवाज में हमारी अल्पज्ञता की परीक्षा लेनी शुरू कर दी थी। हम जानते हैं, ऐसे और भी कई छोटे-बड़े मठाधीश होंगे, जो कुछ इसी प्रकार के अहम्मन्यता-बोध के साथ इन लेखों को देख रहे होंगे।
सचमुच, यह दावा करने का कोई कारण नहीं है कि इन चंद लेखों से हिंदी साहित्य जगत की हर चीज की व्याख्या कर दी गई है या उन पर निर्णय सुना दिया गया है। लेकिन, इन थोड़े से लेखों से इतना तो जाहिर हो ही जाता है कि हिंदी साहित्य के वर्तमान पर यदि तीक्ष्णता से दृष्टि डाली जाएं तो वह बड़ी आसानी से उसके अतीत की गहरी गुहाओं तक जाकर इसके पूरे खोल को ही पलट देने की जरूरत पैदा कर सकती है। अर्थात, अभी परिस्थितियों का संयोग कुछ इसप्रकार के एक संक्रमणकारी बिंदु की दिशा में घटित हो रहा है जब सिर्फ वर्तमान ही नहीं बदलेगा, इसका सुदूर अतीत तक अटूट नहीं रह सकेगा। कहा जा सकता है यह अभिनवगुप्त के ‘प्रत्याभिज्ञान’ का बिंदु है - संपूर्ण प्रत्यावर्तन का बिंदु। एक बिंदु से गहरे अंधेरे के तल तक धस कर वर्तमान में एक नई त्रिक-शक्ति को प्राप्त करने के उपक्रम का बिंदु !
‘लहक’ पत्रिका का जब प्रकाशन शुरू हुआ, वह भारतीय राजनीति का एक तूफानी समय था। इस दौर पर हमारी टिप्पणियों का एक संकलन ‘तूफानी वर्ष 2014 और फेसबुक डायरी’ अनामिका प्रकाशन से ही आ चुका है। ‘लहक’ में हमने इसी नये राजनीतिक-आर्थिक घटनाक्रम पर लिखना शुरू किया था। तब राजनीति और समाज की ऐसी कई नई लाक्षणिकताएं प्रकट हो रही थी जो इन विषयों पर लिखने वाले किसी भी लेखक के लिये खासी चुनौती भरी थी। नयी परिस्थिति के नये लक्षणों पर विचार से स्वाभाविक तौर पर पहले के स्थापित सर्वकालिक सिद्धांतों के ढांचे दरकने लगते हैं। खास तौर पर नरेन्द्र मोदी की जीत ने सत्ता-विमर्श के पूरे पारंपरिक ढांचे को झकझोर दिया है। यह जहां पूर्व के खास प्रकार के उपेक्षितों के समाजशास्त्र की ओर ध्यान खींचता है, वहीं उस परंपरा को भी प्रश्नों के दायरे में ले आता है जो भले ही अब तक चली आ रही हो, लेकिन आगे और नहीं चल पा रही है। इसमें एक नये प्रकार के सांस्कृतिक संकट के वे सारे लक्षण मौजूद हैं जो साहित्य और संस्कृति के विषयों पर भी नये सिरे से अन्वीक्षा और अन्वेषण की मांग करते हैं। माना जा सकता है कि ‘लहक’ के इन लेखों में संभवत: ऐसे ही कुछ अगोचर दबाव किसी न किसी रूप में काम करते रहे हो !
इस संकलन के लेखों से जुड़ा एक और पहलू भी है। हिंदी की साहित्यिक पत्रिकाओं का एक बंद, ‘सवर्ण’ सामाजिक ढांचे वाला पहलू - अध्यापकों, यथास्थितिवादियों और समझौता-परस्तों की किलेबंदी का पहलू। यह अनायास ही अपने बाहर ‘अवर्णों’ की एक प्रवंचित और उच्छिष्ट जनों की जमात पैदा करता है। माओ ने जब सांस्कृतिक क्रांति के वक्त नौजवानों के ‘विद्रोह के अधिकार’ की बात कही थी, वह ऐसे ही प्रक्षिप्त जनों के जीने के अधिकार की बात भी थी। खुद इस लेखक का अनुभव था कि हिंदी की पत्रिकाओं में अज्ञेय के बारे में कोई प्रतिकूल टिप्पणी नहीं की जा सकती थी ; साहित्य अकादमी की पत्रिका के संपादक की मान्यता थी कि साहित्य सिर्फ ‘असीम -संधानी’ होता है, जीवन के अन्य ‘तुच्छ’ व्यापारों का इससे कोई लेना-देना नहीं है ; सरकारी संस्थाओं से जुड़े बलवान लेखकों ने नये शासन में गोटियां बैठाने की कोशिशों में देर नहीं की थी। ऊपर से, मोदी भक्तों की आक्रामकता ! सिर्फ गाली-गलौज नहीं, लेखकों की हत्याएं तक की जाने लगी। दाभोलकर, पानसारे और कुलबर्गी की हत्याओं के बाद तो विद्रोह के अतिरिक्त जैसे जीने का कोई उपाय नहीं रह गया था। इसी भाव की एक छाया इन सभी लेखों पर निश्चित तौर से पड़ी है।
और, कहना न होगा, नया विचार भी कभी अनुशासन या आनुगत्य के भाव से पैदा नहीं होता।
इस मामले में ‘लहक’ पत्रिका के संपादक निर्भय देवयांश ने हमारे लेखों को प्रकाशित करने में लगातार जिस प्रकार के उत्साह का परिचय दिया, इसके लिये मैं उनका तहे-दिल से आभारी हूं। इसीप्रकार हमारे प्रकाशक मित्र पंकज शर्मा के प्रति भी आभारी हूं जो सिर्फ एक प्रकाशक नहीं, बल्कि साहित्य और राजनीति के विषयों के एक जागरूक पाठक भी है। ‘लहक’ में प्रकाशन के समय से ही इन खास लेखों पर उनकी नजर रही और महावीरप्रसाद द्विवेदी पर लिखे गये अंतिम लेख के बाद ही उन्होंने यह निर्णय सुना दिया कि अब इन लेखों को मिला कर अलग से एक किताब आ जाने की जरूरत है। इसके लिये ‘चतुर्दिक - 4’ के बारे में पहले की योजना में थोड़ा बदलाव भी किया गया और तय किया गया कि बाकी सामग्रियों को ‘चतुर्दिक - 5’ में प्रकाशित किया जायेगा। इस मामले में सरला के सहयोग और दिशा-निर्देश की भी चर्चा करना जरूरी लगता है, जिसने इस किताब को इन थोड़े से लेखों तक ही सीमित रखने पर बल दिया।
14 जून 2016 अरुण माहेश्वरी
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