-अरुण माहेश्वरी
भारत में ट्रम्प की तरह के एक लंपट अमेरिकी नेता के प्रशंसक पत्रकार स्वपन दासगुप्त ने आज (4 नवंबर 2016) के टेलिग्राफ में एक लेख के जरिये टाइम्स नाउ के अर्नब गोस्वामी की जिस प्रकार से तारीफ की है, वह यह बताने के लिये काफी है कि कुछ जीव ऐसे ही होते हैं जिनकी फितरत में है कि जहां गंदगी दिखाई दे, वे दौड़कर उसमें लोटने-पोटने लगते हैं।
आज के उनके इस लेख का शीर्षक है - A simple nationalism । इस लेख के पूरे कथन के संदर्भ में इस शीर्षक का यदि हिंदी अनुवाद किया जाए तो कहना होगा - नग्न राष्ट्रवाद। इसके ऊपर, लेख के शीर्षक को संदर्भित करने वाली पंक्ति है - Beyond the cloistered world of political correctness । इसका हिंदी अनुवाद होना चाहिए - राजनीतिक सभ्यता की शालीन दुनिया के परे।
स्वपन दासगुप्त ने इस लेख का प्रारंभ तो टाटा समूह से साइरस मिस्त्री को निकाल बाहर किये जाने की घटना के उल्लेख से किया है। लेकिन उनका पूरा लेख अर्नब गोस्वामी के ‘टाइम्स नाउ’ से हटने की घटना पर केंद्रित है। इन दोनों घटनाओं में एक बड़े संस्थान से उनके प्रमुख व्यक्तियों के हटने के अलावा क्या समानता है, इसका पूरा लेख पढ़ जाने के बाद भी कोई अंदाज नहीं मिलता है।
टाटा वालों का मामला शुद्ध रूप से एक व्यापारिक घराने में मालिक और उसके मैनेजर गुमाश्ते के बीच का मामला है। टाटा समूह में 66 प्रतिशत शेयर टाटा सन्स के पास है, अर्थात इस समूह का मालिक टाटा सन्स है। मालिक ने एक समय में अपने कारोबार की देखरेख के लिये साइरस मिस्त्री नामक एक ऐसे व्यक्ति को उसके प्रबंध-निदेशक के तौर पर नियुक्त किया जिसके पास संयोग से टाटा समूह के थोड़े से शेयर भी थे। पूंजीवाद का यह एक बुनियादी उसूल है कि किसी भी कारोबार के गुमाश्ते को कभी भी वे सारे हक नहीं मिल सकते कि वह कारोबार के मालिक की इच्छा के विपरीत काम करने लग जाए। ‘हमारा पैसा है, हम उसे बर्बाद करे या आबाद, हमारी मर्जी। उस पर किसी गुमाश्ते को बोलने का कोई हक नहीं हो सकता है।’ लेकिन टाटा समूह के प्रमुख की कुर्सी पर बैठ कर साइरस मिस्त्री ‘जगत मिथ्या’ की इस सबसे बड़ी सचाई को भूल गये, और इस भूल की उन्हें कीमत चुकानी पड़ी।
लेकिन ‘टाइम्स नाउ’ और अर्नब के मामले में अब तक ऐसे कोई विशेष तथ्य सामने नहीं आए हैं जिनसे पता चले कि किसी भी विषय में अर्नब का टाइम्स ग्रुप के मालिकों के साथ किसी प्रकार का टकराव हुआ हो। उल्टे, अर्नब गोस्वामी टाइम्स ग्रुप के मालिकों और अभी की मोदी सरकार के बीच गहरे संबंधों के एक मजबूत सेतु का काम करते रहे हैं। अर्नब गोस्वामी की सारी नंगईपूर्ण हरकतों की प्रशंसा में शासक दल के एक सांसद स्वपन दासगुप्ता का इस प्रकार लहलोट होना भी तो इसी सचाई का प्रमाण है।
बल्कि, इसी लेख में खुद स्वपन दासगुप्त के दिये गये संकेतों से पता चलता है कि अर्नब ने सरकार के साथ अपने गहरे संबंधों के बलबूते पर कुछ ऐसा जुगाड़ बैठा लिया है जिससे बहुत जल्द ही वह टेलिविजन के पर्दे पर एक ‘नये अवतार’ के रूप में सामने आने वाला है। दासगुप्त के लेख के अंतिम पैरा की शुरूआत ही इस बात से होती है कि ‘‘Regardless of how Arnab re-enters the TV screens in his new avatar,…”।
इसप्रकार, जाहिर है कि अर्नब के ‘टाइम्स नाउ’ से हटने के मामले और टाटा समूह से दूध से मक्खी की तरह निकाल कर फेंक दिये गये साइरस मिस्त्री के मामले में किसी प्रकार की कोई समानता नहीं है। उल्टे अर्नब टेलिविजन पर और बड़ी महत्वाकांक्षाओं के साथ आने की तैयारियां कर रहे हैं। अमेरिका जैसे देश में ट्रम्प की तरह के नेताओं के उत्थान ने नरेन्द्र मोदी जैसों को अपनी अन्तरराष्ट्रीय छवि के बारे में जिस प्रकार काफी उत्साहित किया है, उसी प्रकार अर्नब जैसों को भी लगता है कि उनकी जैसी समाजों को बांटने वाली टेलिविजन पत्रकारिता के लिये आज की दुनिया में बहुत ज्यादा संभावना है, और वे अब तक जो काम भारत की सीमा में करते रहे हैं, संभवत: अब उसे अन्तरराष्ट्रीय स्तर तक ले जाने का समय आगया है।
बहरहाल, देखने की दिलचस्प बात यह है कि स्वपन दासगुप्त अपने इस लेख में अर्नब गोस्वामी की कौन सी खूबियों का गुणगान कर रहे है ?
उनके अनुसार, अर्नब की पहली खूबी तो यह रही है कि उसने सोशल मीडिया में गालियां बकने वाले भक्तों की फौज को एक प्रकार की टेलिविजन-सूरत प्रदान करने का काम किया है। भक्तों वाली उग्रता और अशालीनता को टेलिविजन के पर्दे पर लाकर उसने पूरी धृष्टता के साथ टेलिविजन की निष्पक्षता का चीर-हरण कर लिया है। दासगुप्त के शब्दों में - ‘‘सर्वप्रथम अर्नब ने औपचारिक रूप से इस झूठे दिखावे को तार-तार कर दिया है कि मीडिया निष्पक्ष होता है।’’
(Arnab formally discarded the sham pretence that the media are neutral.)
दूसरा, उसने सेना और राष्ट्रीय झंडे आदि की मर्यादा तथा देश की एकता के शोरगुल में विरोध की आवाज को पूरी तरह से डुबा कर उससे उसकी जगह को छीन लिया है। ‘‘उसने पूरी दृढ़ता और स्पष्टता से एकदम साफ और नग्न राष्ट्रवाद की पैरवी की है जिसे उदारपंथी उजड्डता, युद्धोन्माद और अशालीन मानते हैं।’’ ( ‘‘He resolutely and unambiguosly upheld simple, uncluttered nationalism that liberals saw as crude, jingoistic, and lacking nuances”) अर्नब ने घरों की चारदिवारी में होने वाली शालीन बातों की जगह सड़काऊ ओर चलताऊ बातों को महत्व दिया, जो दासगुप्त के अनुसार उसकी बड़ी खूबी रही है।
अर्नब की अंतिम विशेषता के तौर पर दासगुप्त बताते हैं कि उसके अंदर पाकिस्तान की सीमाओं और उसके साथ भारत के शांतिपूर्ण और सद्भावनापूर्ण संबंधों के प्रति जरा भी सम्मान नहीं है। ( ‘‘ unlike a section of journalists who remain committed to everlasting peace and amity across the Red Cliffe Line, Arnab’s anti-Pakistan rhetoric was blunt and always un-comprising.”)
दासगुप्त खुशी के साथ ऐलान करते हैं कि अर्नब अपनी इन सारी ‘ज्यादतियों’ के बावजूद आज तक कायम है, क्योंकि उसकी इसी नंगई के कारण उसके दर्शकों की संख्या में इजाफा हुआ है।
मजे की बात यह है कि अर्नब में इस प्रकार के सभी संघी गुणों बखान करने के बाद भी स्वपन दासगुप्त अंत में एक बड़ा झूठ, बल्कि कहे उसके बारे में एक नया भ्रम रचने से नहीं चूकते कि ‘‘मोटे तौर पर अर्नब दलगत राजनीति से बचे रहे।’’ (Arnab, by and large steered clear of Party politics)।
यह हूबहू ऐसा ही है जैसे आरएसएस की ओर से गाहे-बगाहे यह झूठ कहा जाता है कि संघ कभी दलगत राजनीति नहीं करता !
है न यह स्वपन दासगुप्त की खास संघी-छाप पत्रकारिता ! शास्त्र कहते हैं - लोक में प्रसिद्धि ही आगम है, चाहे वह तर्कसंगत हो या न हो।’’(‘‘प्रसिद्धिरागमों लोके युक्तिमानथवेतर:)। स्वपन दासगुप्त के इस लेख को अर्नब के नये अवतार के लिये की जा रही एक खास प्रकार की विज्ञापनबाजी कहा जाए तो वह अनुचित नहीं होगा।
http://www.telegraphindia.com/1161104/jsp/opinion/story_117223.jsp#.WBzGzCa_pzg
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