-अरुण माहेश्वरी
नई दिल्ली के विश्व पुस्तक मेले से घूम कर आने वाले कुछ मित्रों ने बताया है कि मोदी सरकार पुस्तकों के प्रकाशन में बाधाएँ डाल रही है । वह प्रकाशकों को आईएसबीएन नंबर देने के पहले उनसे पुस्तक के बारे में विस्तृत जानकारी माँगती है और फिर तय करती है कि किसे यह नंबर दें, किसे न दें ।
आईएसबीएन नंबर का मतलब है इंटरनेशनल स्टैंडर्ड बुक नंबर । यह सारी दुनिया में किताबों की पहचान के लिये तैयार की गई संख्या है ताकि उनके बारे में आसानी से दुनिया में सूचनाओं का आदान-प्रदान किया जा सके । अभी यह तेरह अंकों की एक संख्या है जिससे पुस्तक की भाषा, प्रकाशन के देश आदि कई मूलभूत जानकारियां उस संख्या से ही दुनिया के लोगों को मिल सकती है । इसीलिये स्वाभाविक तौर पर इस संख्या का चलन आज के ज़माने में काफी बढ़ गया है क्योंकि इससे बाज़ार में किताब के चलन में सहूलियत होती है । इसका संबंध पुस्तकों की कैटलॉगिंग के अलावा और किसी चीज से नहीं है । भारत में यह नंबर देने का ज़िम्मा राजा राजमोहन राय नेशनल एजेंसी के पास है ।
कई देशों में कुछ निजी कंपनियाँ भी ये नंबर दिया करती है । भारत में राजा राजमोहन राय नेशनल एजेंसी सरकारी संस्थान है और इसी का मातृ-संस्थान राजा राजमोहन राय लाइब्रेरी फ़ाउंडेशन भारत सरकार की ओर से देश भर के पुस्तकालयों के लिये किताबों की बड़े पैमाने पर ख़रीद करता है ।
पिछले दिनों यह शिकायत तो सुनने को मिल रही थी कि अभी इस संस्थान से सिर्फ आरएसएस से क़रीबी संबंध रखने वाले प्रकाशकों और लेखकों की किताबें ख़रीदी जाती है । फिर भी भ्रष्टाचार को हमेशा से देखते रहने के अभ्यस्त लोग संघी प्रशासकों के भ्रष्टाचार की इस खबर की अनदेखी कर रहे थे । लेकिन अब यदि इस संस्थान के अधिकारियों का हौसला इतना बढ़ गया है कि वे पुस्तकों के प्रकाशन के मामले में भी टाँग अड़ाने लगे हैं तो इसे हम एक बेहद ख़तरनाक रुझान कहेंगे । इसके बाद नोटबंदी की तरह ही भारत में पुस्तकबंदी/ज्ञानबंदी का अभियान शुरू हो सकता है जिसमें ये दलीलें दी जायेगी कि पुस्तकों के जगत में नैतिक उत्थान की पुस्तकों के प्रकाशन के बजाय नैतिक पतन की पुस्तकों का एक समानांतर संसार तैयार हो गया है । अश्लील, उग्रवादी, नक्सलपंथी और दूसरी तमाम 'अनैतिकताओं' से भरी किताबों का धड़ल्ले से प्रकाशन किया जा रहा है । इस पर रोक लगा कर राष्ट्र के नैतिक स्वास्थ्य की रक्षा करना सरकार का कर्त्तव्य है ।
और तो और, यह भी संभव है कि जैसे हिटलर ने जर्मनी में बाक़ायदा अनेक पुस्तकों को ज़ब्त करके उनकी होली जलाई थी, कुछ-कुछ उसी प्रकार का हमारे यहाँ पुस्तकों पर 'सर्जिकल स्ट्राइक' का प्रयोग शुरू हो जाए और हुबहू नोटबंदी की तर्ज़ पर वह अभियान इस डिजिटल युग में पुस्तकलेस जीवन को अपनाने के अभियान की दिशा पकड़ लें !
आज जीवन के कई अनुभव बता रहे हैं कि जैसे हमें साढ़े छ: सौ साल पहले के तुगलकी ज़माने में भेज दिया जा रहा है । तुग़लक़ और हिटलर के मेल के डिजिटल अवतार के दिये हुए नोटबंदी के ज़ख़्म तो अभी रिस ही रहे है, उस पर यह ज्ञानबंदी का प्रहार ! क्या इस सरकार ने भारतवासियों को हर लिहाज से कंगाल बना देने का कोई प्रण ले रखा है !
आज जरूरी है कि देश भर के सभी प्रकाशक और लेखक आईएसबीएन के बहाने पुस्तकों के प्रकाशन की दुनिया में बेजा सरकारी दख़लंदाज़ी की हर कोशिश के खिलाफ आवाज़ उठाए । यह सीधे तौर पर हम सबकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा का सवाल है । आजादी की लड़ाई ने हमें अपनी क़लम से तलवार का मुक़ाबला करने की संस्कृति दी है । यह हमारी स्वतंत्रता की उस संस्कृति पर हमले की कोशिश है ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें