रविवार, 19 मार्च 2017

'नव-उदारवाद' के खिलाफ ज़ुबानी लड़ाई करने वाले वाक्-वीरों से वामपंथ को मुक्ति चाहिए !


न्युक्लियर ट्रीटी के विरोध के नाम पर यूपीए से समर्थन वापस लेते वक़्त प्रकाश करात ने तब यह एक दलील दी थी कि इस संधि के हो जाने के बाद भारत में वामपंथ का कोई भविष्य नहीं रह जायेगा क्योंकि भारत तब पूरी तरह से अमेरिकी प्रभाव से चलने वाला उपग्रह बन कर रह जायेगा ।

अब जब यूपीए की जगह मोदी सरकार बन चुकी है , तब क्या उन्हें वामपंथ का भविष्य उज्जवल दिखाई देता है ! क्योंकि न 2009 में यूपीए का विकल्प वामपंथ था और न 2014 में, जिसके परिणामों को तो हम भोग ही रहे हैं ।

हमने पहले भी बार-बार इस बात पर ज़ोर दिया है कि नव-उदारवाद के खिलाफ लड़ाई भारत में चुनाव का मुद्दा नहीं बन सकती है, क्योंकि नव-उदारवाद आज के युग के पूँजीवाद की लाक्षणिकताओं के आधार पर उसी का एक नया नाम भर है । भारतीय संविधान के तहत यहाँ चुनाव पूँजीवाद के अंत के नारे के साथ लड़ना मुमकिन नहीं है ।

इसीलिये जब वामपंथ के द्वारा बार-बार सांप्रदायिकता के खिलाफ संयुक्त मोर्चा की एक शर्त के रूप में नव-उदारवाद की ख़िलाफ़त को शामिल किया जाता है, हमें उसमें वैसे ही हठवादी रुझान की छाया दिखाई देती है जो यूपीए-1 से वामपंथियों को अलग कर देने का हेतु बना था । कोरे शब्दों की लफ़्फ़ाज़ियों के यह सब खेल राजसत्ता के संघर्ष में उतरे हुए राजनीतिक दलों को नहीं, एनजीओ-छाप छद्म-बुद्धिजीवियों की मजलिसों को ही शोभा देते हैं ।

सांप्रदायिक फासीवाद के खिलाफ सभी राजनीतिक दलों और सभी स्तर के लोगों के व्यापकतम संयुक्त मोर्चा की रणनीति को अपनाने और उसपर कारगर ढंग से अमल करने के लिये जरूरी है कि पूरा वामपंथ अपनी कार्यनीति के तात्कालिक लक्ष्यों को इस ग़लत समझ के दोष से मुक्त करें । राजनीति के सवाल कोरे ढोल बजाने के नहीं, आम जनता के जीवन-मरण के तात्कालिक प्रश्नों के साथ जुड़े होते हैं ।

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