मंगलवार, 28 मार्च 2017

नीलकांत को मानबहादुर सिंह पुरस्कार के वक्त अरुण माहेश्वरी का बीज वक्तव्य


यह मार्च का महीना। जो भी हिंदी साहित्य के शैक्षणिक जगत से परिचित है, इसे साहित्य के पंडितों का मधुमास कहा जा सकता है। बीकानेर के पुष्करणा समाज में साल दो साल में एक खास दिन शादियों के दिन के रूप में तय किया जाता है, जिस एक दिन में इस समाज में थोक के भाव शादियां हुआ करती है। पहले तो यह दिन बाल-विवाहों के लिये प्रसिद्ध था। इस समाज का एक भी परिवार नहीं बचता था, जिसमें कोई शादी न हो रही हो। और हालत यहां तक हो जाती थी कि इस दिन लोगों को बाराती और पंडित नहीं मिलते थे। बारातियों की भी जैसे आपस में लूट-खसोट होती थी। सड़कों पर बाराते दौड़ती-हांफती दिखाई देती थी क्योंकि हर किसी को और भी दस-बीस शादियों में अपना चेहरा दिखाने की हड़बड़ी रहती थी। इधर के सालों में बाल-विवाह तो बंद हो गये है, एक ही दिन में समाज में सारी शादियां कर लेने का कम खर्चीला व्यवहारिकतावाद भी कुछ टूट गया है। फिर भी, शादियों के ऐसे एक दो दिन के मुहुर्त की परंपरा और उससे जुड़ी गहमा-गहमी किसी न किसी रूप में आज भी जारी है।

तो यह मार्च का महीना हिंदी के शैक्षणिक जगत के लिये कमोबेस वैसी ही सेमिनारों-भाषणों के आयोजनों की गहमा-गहमी का महीना होता है। शायद ही कोई अध्यापक-प्रोफेसर होगा जिसके पास दस-पांच सेमिनारों के निमंत्रण हाथ में न होते हो। यूजीसी की ग्रांट का पैसा खर्च करने के दबाव से यह महीना शैक्षणिक जगत का सबसे अधिक धूमधाम का महीना बन जाता है। यदि इस संदर्भ में कोई हिंदी साहित्य के जगत की वस्तु स्थिति पर नजर डालेगा तो सबसे पहले उसका जो सबसे बड़ा भ्रम टूटेगा, वह है साहित्य के साथ जुड़ी हुई कल्पित दरिद्रता का भ्रम। दूसरा भ्रम टूटेगा, साहित्य और राजसत्ता के बीच एक प्रकार के छत्तीस के रिश्ते का भ्रम। और इन सबके साथ आपको तीसरी यह भारी विरक्ति की अनुभूति भी हो सकती है कि साहित्य की दुनिया ऐसे प्रकांड और सर्वज्ञ विद्वानों के ढेर से इस प्रकार से पटी हुई हुई है कि उस सड़ रहे ढेर से सचमुच अब दुर्गंध आने लगी है। अभिनवगुप्त अपने ध्वन्यालोक में जहां काव्य में रसभंग के हेतुओं का निरूपण करते हैं, वहा कहते हैं कि किसी भी रस के परिपुष्ट हो जाने पर उसका बार-बार उद्दीपन करना रसभंग का एक हेतु है। काव्य में वर्णन द्वारा परिपुष्ट और उपभुक्त रस को यदि बार-बार परोसा जाता है तो वह कुम्हलाये हुए कुसुम के समान मलिन हो जाता है।

‘उपभुक्तो हि रसः स्वसामग्रीलब्धपरिपोषः पुनः पुनः
परामृश्यमानः परिम्लानकुसुमकल्पः कल्पते।’

तो एक ऐसे मधुमास में, अक्सर विद्वानों के लिये सुंदर सेज की तरह सजे-धजे रहने वाले एक प्रेक्षागृह में जब हम चंद लोग नीलकांत की तरह के एक व्रात्य और निंदित रचनाकार-आलोचक के अभिवादन के लिये जुटे हैं तो ऐसा लगता है जैसे बसंत ऋतु में इंद्रपुरी की किसी आलीशान, असंख्य सुगंधित फूलों से सजी वाटिका में श्मशान में धूनी रमाये बैठने वाले कापालिकों ने अपनी मजलिस जमा ली है। या फिर और भी नीचे उतरे, तंत्र-मंत्र की रहस्यवादिता को भी झाड़ कर सोचे तो कह सकते हैं जैसे प्रेमचंद के घीसू-माधवों ने पूरे गांव को पूड़ी और जलेबी खिलाने का न्यौंता दे दिया है। सचमुच बहुत हंसी सी आ रही है।

आज नीलकांत जी को पुरस्कार दिया जायेगा। उनकी तारीफ के कशीदे पढ़े जायेंगे। उन्हें पथप्रदर्शक, महान चिंतक और विचारक के विशेषणों से विभूषित किया जायेगा, उनकी चरण-धूलि को माथे पर लगा कर धन्य-धन्य होने के भाव व्यक्त किये जायेंगे - यह सब अभी भी हमें शेखचिल्ली या मुंगेरीलाल के सपनों जैसा लगता है। लेकिन यह तो आज प्रत्यक्ष है। इसे प्रमाण की शायद किसी को जरूरत नहीं है। नीलकांत जी की तरह के एक चरम मूर्तिभंजक, अराजक और विध्वंसक लेखक को अपनाने के लिये ही तो हम यहां इकट्ठा हुए हैं। यह सच जितना भी अविश्वसनीय, अभावनीय क्यों न हो, लेकिन एक सच तो है ही। और हम यह जानते हैं कि हिंदी की अनगिनत मुर्दा पत्रिकाओं के बीच यह रद्दी से कागज पर निकलने वाली ‘लहक’ पत्रिका की जो ठसक भरी गूंज आज चारों ओर सुनाई दे रही है, वैसे ही बसंत ऋतु के सेमिनार-उत्सवों के बीच इस छोटे से आयोजन की गूंज ही शायद सबसे अधिक ऊंचे स्वरों में सुनाई देगी। अघाये हुए अंगूरी मदिरा में डूबे बहुतों की नींद में खलल पैदा करेगी। कुछ कूपित पंडित किसी आगत कलियुग का विलाप करेंगे - हंस चुगेगा दाना तिनका कौंवा मोती खायेगा।

बहरहाल, मित्रों, हास्य-परिहास की इन सारी बातों के परे, हम सिर्फ यह कहना चाहेंगे कि जिस कोलकाता शहर में आज यह आयोजन हो रहा है, यह उस बंगाल नवजागरण का केंद्र स्थल है जिसमें राजा राममोहन राय, ईश्वरचंद विद्यासागर, माइकेल मधुसुदन, द्वारकानाथ ठाकुर से लेकर रवीन्द्रनाथ तक की सारस्वत परंपरा में ही समान आदर के साथ जिस एक और नाम को भी हमेशा याद किया जाता है वह नाम है हेनरी लुइस डिरोजियो का नाम। 19वीं सदी के प्रारंभ के विद्रोही बौद्धिक आंदोलन ‘यंग बेंगोल’ के ध्रुवतारे की तरह एक खास दिशा में सबसे ज्यादा चमकते हुए नवजागरण के सितारे का नाम।

सिर्फ बाईस साल की उम्र में चल बसे इस यूरेशियाई असाधारण शिक्षक ने बाबुओं के मस्त जीवन में बाबू घरों की संतानों के बीच स्वतंत्र चिंतन की अलख जगा कर जो भारी खलल पैदा किया था, उसे तब हिंदू कालेज के अधिकारियों ने तत्कालीन नौजवानों के पतन का कारण बताते हुए, ‘सारे अनर्थ की जड़ और आतंक का विषय बताया था’, फिर भी उसे निष्काषित करने के बजाय उसकी प्रतिभा का सम्मान करते हुए उससे इस्तीफा लेने का प्रस्ताव लिया था। डिरोजियो ने उस प्रस्ताव के एक-एक बिंदु का जवाब देते हुए जो पत्र लिखा था बंगाल के नवजागरण के इतिहासकार विनय घोष ने उस जवाबी पत्र को ही बंगाल के नवजागरण का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज बताया है। डिरोजियो ने अपने उस पत्र में कहा था कि ‘‘ मैंने कभी भी अपने को नास्तिक के रूप में पेश नहीं किया, लेकिन ईश्वर के अस्तित्व के बारे में खुलकर बहस करना अपराध है तो इस अपराध को स्वीकार करने में मुझे कोई संकोच नहीं है।’’

डिरोजियो ने कैंपबेल की प्रसिद्ध पंक्ति "And as the slave departs, the man returns” (गुलाम जाता है, तभी मनुष्य आता है) के हवाले से जो कविता लिखी, उसमें वे लिखते हैं -‘‘ स्वतंत्रता नाम की ऐसी महत्ता है कि जो भी देशभक्त इस पवित्र नाम का संकल्प लेकर तलवार उठाता है वह कभी पराजित नहीं होता।’’ (Oh freedom there is something dear/ e’en in the very name…/success attend the patriot sword,/that is unsheathed for thee !)

रवीन्द्रनाथ ने ऐसे ही नहीं लिखा था कि ‘‘बुद्धिमानों की मंत्रणा ने नहीं बल्कि विक्षिप्त लोगों के ‘पागलपन’ ने मनुष्य के चिंतन और कर्म में, उसके अंदर और बाहर, उसके दर्शन और साहित्य में युग-युग में नये ढंग से सृष्टि की है।’’

आज के कम्युनिस्ट चिंतक एलन बदउ ने बिल्कुल सही कहा है कि दर्शन शास्त्र एक ‘तार्किक विद्रोह’ की तरह होता है। ‘‘तब तक कोई दर्शनशास्त्र पैदा नहीं हो सकता जब तक आज जो दुनिया है, उसके बरक्स विचारक में असंतोष न हो ; यह तर्क और विवेक की शक्ति पर एक आस्था है; इसकी एक सर्वकालिकता होती है; और यह प्रत्येक मनुष्य को एक चिंतनशील प्राणी मानता है। अंततः दर्शनशास्त्र हमेशा जोखिम उठाता है।’’
और आज के युग का प्रसिद्ध फ्रांसीसी चिंतक मिशैल फुको ने अपनी प्रसिद्ध किताबों ‘Madness and Civilization’ और ‘Discipline and Punishment’ में इन पागलों को आम जीवन से निष्काषित करके रखने के लिये तैयार किये जाने वाले पागलखानों और जेलों के जिस भारी ताम-जाम पर विशद विमर्श किया है, वह अंत में यही बताता है कि व्यवस्था मूलतः सृजनात्मकता का एक कैदखाना ही होती है, और स्वातंत्र्य की अन्तर्शक्ति से इसे बार-बार चुनौती दे कर ही मानव जीवन का विकास संभव होता है।

मित्रों, हम सब जानते हैं, हिंदी जगत में आज पुरस्कारों की कैसी बरसात होती रहती है। ऐसे में, अगर हिसाब लगाया जाए तो अभी देश के गाँव, प्रखंड, जिलों, क़स्बों, महानगरों में हिन्दी के लेखकों को मिलने वाले पुरस्कारों की संख्या हज़ारों में होगी । ‘वागर्थ’ जैसी पत्रिकाओं में छपने वाले अधिकांश लेखकों को हम दो-चार पुरस्कारों से कम की कलंगियां लगाये नहीं देखते हैं । हिन्दी का साहित्य समाज में जितना अधिक अप्रासंगिक होता जा रहा है, उसी अनुपात में हिन्दी साहित्य पर पुरस्कारों की संख्या बढ़ती जा रही है । इसे उलट कर इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि हिन्दी में पुरस्कारों की संख्या जितनी बढ़ती जा रही है, समाज में साहित्य की प्रासंगिकता उतनी ही घटती जा रही है । सच यह है कि लेखकों ने आम लोगों और उनके जीवन के संघर्षों से अपना नाता तोड़ लिया हैं, तो आम लोगों ने भी लेखकों से अपना संबंध तोड़ लिया है । अभी के तमाम लेखक किसी न किसी प्रकार से सरकारी तंत्र के अंग हैं । वे इस तंत्र के सेवक हैं । जनता के सेवक होना तो दूर की बात, वे व्यापक जन-समाज के हिस्से भी नहीं हैं । सरकारी तंत्र में रहते हुए परस्पर एक-दूसरे को उपकृत करने, पुरस्कार लेने और देने की जोड़-तोड़ में ही इनकी ज़िंदगियाँ बीत रही हैं ।

ऐसी स्थिति में नीलकांत सरीखे, हर प्रकार के सरकारी तंत्र से पूरी तरह असंबद्ध लेखक को एक भी पुरस्कार न मिलना इन ढेरों पुरस्कारों की असारता के बारे में हमारी टिप्पणी का सबसे बड़ा प्रमाण है। हाल में बाब डिलेन को नोबेल पुरस्कार मिला है। उनका एक गीत है: Blowin' In The Wind A
इसकी शुरू की ही पंक्तियां है -
How many roads must a man walk down
Before you call him a man ?
How many seas must a white dove sail
Before she sleeps in the sand ?
Yes, how many times must the cannon balls fly
Before they're forever banned ?
The answer my friend is blowin' in the wind
The answer is blowin' in the wind.
(कितने रास्ते तय करे आदमी
कि तुम उसे इंसान कह सको ।
कितने समंदर पार करे एक सफ़ेद कबूतर
कि वह रेत पर सो सके ।
हाँ, कितने गोले दागे तोप
कि उनपर हमेशा के लिए पाबंदी लग जाए ।
मेरे दोस्त, इनका जवाब हवा में उड़ रहा है
जवाब हवा में उड़ रहा है ।)
तो मित्रो, हम इन स्थापित विद्वत मंडली के ज्ञान के रहस्य को जान रहे हैं। और आप जानते हैं ही है कि हमारे खुद के ज्ञान पर क्या असर पड़ता है जब हम जान लेते हैं कि दूसरा उसके रहस्यों को जानता है। जिस ज्ञान की धुन में हम शेर बने घूमते हैं, वही तत्काल हमें चूहे में भी तब्दील कर देता है। इस पूरे प्रसंग में अभिनवगुप्त की इस बात को स्वीकारते हुए कि ‘‘ जो तत्ववेत्ता नहीं है केवल चर्या (पूजा) में निष्ठा रखते हैं, उनके चित्त के संशययुक्त होने पर ज्ञान की हानि होती है’’, अंत में हम यही कहेंगे कि जो परंपराओं के विलय से, भगवानों की मृत्यु से घबड़ाते हैं और कहते हैं कि इससे विचारशून्यता पैदा होगी, वे सही नहीं है। हेगेल कहते हैं कि शब्द का अर्थ है वस्तु की मृत्यु। अर्थात, ईश्वर की मृत्यु का अर्थ विचारों की श्रंखला का टूटना नहीं बल्कि शब्द के अर्थ, अर्थात विचारों की शक्ति को बल पहुंचाना होता है।

नीलकांत जी को पुरस्कार के संदर्भ में इस भूमिका के बाद अब हम उस आलेख की कुछ मुख्य बातों को आपके सामने रखना चाहते हैं, जो हमने नीलकांत के लेखन के बारे में तैयार किया है और जो ‘लहक’ पत्रिका के इस अंक में प्रकाशित भी हुआ है ।

उसमें हमने नीलकांत के व्यक्तित्व में जिस अकिंचन भाव की चर्चा की है, कि वे शहर में होते हुए भी शहरी नहीं होते थे, वे विराटों के बीच विचरण करते हुए भी कभी अपने को विराट नहीं महसूस करते थे। लुइस आल्थुसर की आत्मकथा है - ‘The future lasts forever : A Memoir’। इसमें वे लिखते हैं कि ‘‘मैंने अपनी सारी वयस्क जिंदगी इस भाव के साथ व्यतीत की जैसे मेरा कोई अस्तित्व ही न हो। सिर्फ इस डर से कि मेरी किताबों के पाठक कहीं मेरी इस अस्तित्वहीनता को देख न लें और मुझे कोरा ढोंगी न मानने लगें, मैं अपने होने का स्वांग जरूर करता रहा।’’

यह जो आदमी के अस्तित्वहीन होने, आत्म-विहीन होने का बोध है, यह जो अपनी बौद्धिकता के प्रति पूरी तरह से निर्मोही, निवैर्यक्तिक होने का भाव है, यही आदमी को जीवन की उन कथाओं की ओर ले जा सकता है जो हम शहरी बुद्धिजीवियों के लिये किसी अजायबघर या भुतहा से दिखाई देने वाले निर्जन स्थान सरीखा जान पड़ता है। एक सामान्य आत्मवादी बौद्धिक बाहरी संसार में तो परिवर्तन को स्वीकारता है लेकिन अपने आत्म को लेकर बिल्कुल अविचल रहता है। लेकिन सचाई यह है कि हमारे से बाह्य संसार का तो बाकायदा अस्तित्व होता है, जो अस्तित्वहीन होता है वह हमारा आत्म है। इस मायने में हमें बार-बार महाभारत की गांधारी की याद आती है जो अपने पुत्र को अपने सामने बिल्कुल निर्वस्त्र होकर आने के लिये कहती है ताकि वह उसके पूरे शरीर को वज्र के समान अजेय बना दे सके। लज्जावश दुर्योधन पूरी तरह से विवस्त्र होकर जाने के बजाय उनके सामने एक लंगोट में हाजिर होता है और दुर्योधन के शरीर का वही, ढका हुआ अंश उसकी कमजोरी बन जाता है, जिसपर गदा से प्रहार करके भीम उसे मार देता है।
यह जो जीवन के यथार्थ का साक्षात्कार अपनी बौद्धिकता के पूरे लबादे को फेंक कर करने की बात है, आत्म-विजडि़त हो कर, बुद्धि की गुह्यता के बजाय निर्बुद्धि की नग्नता के जरिये आगे का रास्ता पाने का जो रास्ता है, वह नीलकांत में ही नहीं, हमें मुक्तिबोध के कथित आत्म-संघर्ष में भी एक बड़ी भूमिका अदा करता दिखाई देता है। यह एक ऐसा भाव बोध है जिसमें आदमी आत्मलीनता की हद तक अपने काम में डूबा हुआ अपने चारों ओर के परिवेश को नकारते हुए जीता है। इसमें विश्लेषक और विषय का संबंध एक का अन्य के साथ संबंध नहीं होता है, क्योंकि विश्लेषक के विश्लेषण कार्य के बीच किसी अन्य की कोई उपस्थिति नहीं होती है। और कहना न होगा, इस अर्थ में कथाकार खुद एक कथा-वस्तु की भूमिका में भी आ जाता है।

यह आत्म-विहीनता का एक ऐसा खास भाव है, जिसे हम कुछ हद तक मार्क्सवादी पदावली में वर्ग-च्युत होने के भाव से भी जोड़ कर देख सकते हैं, बल्कि नीलकांत के वैचारिक व्यक्तित्व के संदर्भ में उसी से जोड़ कर देखा भी जाना चाहिए। यह आदमी के अपने निजीपन को निर्मित करने वाले सारे तत्वों के सायास अस्वीकार की एक परिणति है। हम जानते हैं कि यह भी कोई स्वयंसिद्ध, परम या समस्या-मुक्त स्थिति नहीं है। अंतोनियो ग्राम्शी ने इस वर्ग-च्युतीकरण के विषय पर अपनी प्रिजन नोटबुक में बहुत करीने से प्रकाश डाला है। कम्युनिस्ट हलकों में यह एक सामान्य अवधारणा है कि मार्क्सवाद-लेनिनवाद एक विज्ञान है और इस विज्ञान की ‘जटिल वाणी’ को वहन करके मजदूर वर्ग के पास ले जाने में शिक्षित मध्यवर्ग की एक बड़ी भूमिका है। कम्युनिस्ट पार्टियों का आम अनुभव यह है कि इसी चक्कर में कम्युनिस्ट आंदोलन कभी भी मध्यवर्ग के नेतृत्वकारी वर्चस्व से मुक्त नहीं हो पाया है। मध्यवर्ग तथाकथित रूप में अपने को ‘वर्ग-च्युत’ करके मजदूरों का नेता बन जाने का हकदार बन जाता है। लेकिन यह वर्ग-च्युतीकरण अपने आप में कितना बड़ा प्रहसन है, इसकी सचाई को एक यही तथ्य खोल कर रख देता है कि सारी दुनिया में ऐसे कम्युनिस्ट नेताओं की संततियों में से बमुश्किल ही कोई बाद में जीवन में मजदूर की तरह काम करता हुआ जीवन-यापन करता दिखाई देता है। इसीलिये ग्राम्शी ने खुद मजदूर वर्ग को नेतृत्वकारी स्थान पर लाने की बात पर बल दिया था और बुद्धिजीवियों की भूमिका को अलग से, परिवर्तन की पूरी प्रक्रिया में एक ‘जाग्रत अल्पतम’ (enlightened minority) की भूमिका के रूप में देखा था।
कहना न होगा, ग्राम्शी की दी हुई यही वह समझ है जो किसी भी क्रांतिकारी परिवर्तन की प्रक्रिया में बौद्धिकों की अपनी निजी स्वतंत्र भूमिका की एक पूरी अवधारणा देती है और उसे आल्थुसर की तरह के ‘अस्तित्वहीन’ जीवन के भाव बोध से मुक्त होने का रास्ता भी बताती है। इसके विपरीत जब हम अपनी कामनाओं के बारे में किसी प्रकार की फंतासी में फंस जाते हैं, तब अगर वह ईर्ष्या की तरह अन्य की किसी चीज की कामना की तरह की कोई अधम वृत्ति नहीं है, तब भी वह वास्तव में जितनी हमारी अपनी नहीं होती उससे ज्यादा हमारे से अन्यों की कामना की कल्पना होती है। यह हमारी अपने बारे में गढ़ ली गई एक दिव्यता की फंतासी भी होती है। आलोचना का दायित्व लेखक को उसकी काल्पनिक दुनिया से निकाल कर ठोस जमीन पर उतारने की होती है। इस दृष्टि से भी नीलकांत जी पर विचार करने की जरूरत है ।

https://www.youtube.com/watch?v=OdrphbAPVQM




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