-अरुण माहेश्वरी
'पश्चिम बंगाल में मौन क्रांति' शीर्षक हमारी किताब में एक अध्याय है पश्चिम बंगाल की ग्रामीण संरचना में अलग-अलग वर्गों की अवस्थिति पर । इसमें मुट्ठी भर ज़मींदारों का एक तबका आता है जिसका एक समय में इस सामाजिक संरचना पर पूरा वर्चस्व था और इस किताब में जिस मौन क्रांति को रूपायित किया गया है, वह इसी सामंती वर्ग के वर्चस्व को तोड़ने वाली क्रांति थी । भूमि सुधार और आपरेशन वर्गा के ज़रिये संगठित इस क्रांति ने बंटाईदारों और भूमिहीन ग़रीब किसानों का सशक्तीकरण किया । पंचायती राज के क़दमों ने खेत मज़दूरों को भी उनकी सदियों की वंचना से बाहर निकाला ।
ज़मींदारों, ग़रीब किसानों, खेत मज़दूरों के अलावा गाँवों में ग़ैर-कृषि कार्यों में लगा हमेशा से एक तबका रहा है जो कारीगरी के कामों के अलावा कृषि सामग्रियों के व्यापार और सरकारी ठेकेदारी आदि से जुड़ा होता है । अपने अध्ययन में हमने पाया कि सामंती परिवारों की संततियों ने अधिकांशत: या तो पढ़-लिख कर शहरों में नौकरियां करने की ओर रुख़ किया या गाँवों में इन छोटे-मोटे इन कारोबारों को अपना लिया ।
पश्चिम बंगाल की ग्रामीण संरचना में वर्गीय शक्तियों के संतुलन में किये गये बदलाव के साथ ही किसान आंदोलन के सामने दूसरा बड़ा प्रश्न यह उठ खड़ा हुआ कि भूमि सुधार के कामों से जिन लोगों को जमीनें मिली, उनके लिये कैसे खेती के काम को लाभजनक बनाया जाए ताकि यह तबका जिंदा भर रहने के लिये ही फिर से अपनी जमीनों को पैसे वालों को सौंपने के लिये मजबूर न हो । इसमें सरकार द्वारा सस्ते में खाद, बीज आदि की आपूर्ति का एक पहलू था, वहीं किसानों को कृषि उत्पादों की सही क़ीमत मिले, वह भी कम महत्वपूर्ण नहीं था ।
ग़ौर करने की बात यह थी कि राज्य सरकार के पास न तो कृषि में लगातार बढ़ रही लागत को क़ाबू में रखने का कोई तरीक़ा था और न कृषि उत्पादों के लिये न्यूनतम समर्थन मूल्य को सुनिश्चित करने के मामले में राज्य सरकार के पास उपयुक्त वित्तीय शक्ति ही कभी थी । विकास के शहर-केंद्रित मॉडल के कारण सरकारों के संसाधनों पर औद्योगीकरण और शहरीकरण के कार्यों का दबाव हमेशा बना रहता है ।
इसके अलावा खेत मज़दूरों की मजूरी में वृद्धि का पहलू भी कृषि में लागत मूल्य को बढ़ाता है । इससे ग्रामीण क्षेत्र के अंतर्विरोधों में किसानों और मज़दूरों के हितों में भी एक टकराहट रहती है । इस मामले में पिछले दिनों मनरेगा की तरह के कार्यक्रमों ने खेत मज़दूरों और ग़रीब किसानों को थोड़ा बल पहुँचाया है ।
इसी परिप्रेक्ष्य में पश्चिम बंगाल में काफी लंबे अर्से तक किसान सभा के अलावा अलग से खेतमजदूरों का संगठन ही नहीं बना था । वामपंथी किसान आंदोलन से परिचित लोग इस तथ्य को जानते हैं कि पश्चिम बंगाल के किसान आंदोलन का नेतृत्व खेत मज़दूरों के लिये अलग से संगठन बनाने के पक्ष में नहीं था । काफी लंबे दिनों तक खींचतान के बाद वहाँ खेतमजदूर संगठन की नींव रखी गई जबकि देश के दूसरे हिस्सों में काफी पहले ही खेतमजदूरों का अलग संगठन बन चुका था ।
इस प्रसंग पर आज इसलिये गहराई से ग़ौर करने की ज़रूरत है कि ग्रामीण वर्गीय संरचना के अपने विरोधों से परे, शुरू से पश्चिम बंगाल के विकसित किसान आंदोलन ने पूँजीवाद के साथ व्यापक किसान जनता के एक विरोध को देखा था । भूमि सुधार के कामों के बाद तो वह पहलू हर लिहाज से महत्वपूर्ण हो गया था क्योंकि यह छोटी-छोटी जोत के मालिक किसानों के लिये जीवन-मरण का प्रश्न बन गया था। पश्चिम बंगाल के किसान आंदोलन ने धान के अलावा आलू तथा दूसरे कृषि उत्पादों के उचित मूल्य को हासिल करने के लिये किसानों के सहकारों के गठन में जो अग्रणी भूमिका अदा की थी, वही आज भी वहाँ के कृषि क्षेत्र की जीवन-रेखा के रूप में काम कर रहा है।
भारत के दूसरे हिस्सों में पश्चिम बंगाल और केरल की तरह सघन भूमि सुधार का काम नहीं हुआ है, लेकिन इसके बावजूद आबादी में भारी वृद्धि ने किसान परिवारों के प्रति व्यक्ति जोत के रकबे को काफी छोटा कर दिया है । इसके अलावा कृषि में लागत और उत्पादों के समर्थन मूल्य का सवाल सभी जगह एक जैसा ही है । इसीलिये आज क्रमश: भारतीय पूँजीवाद के लिये पूरा कृषि क्षेत्र उसके उपनिवेश का रूप लेता जा रहा है । और इसका मुक़ाबला किसान जनता की व्यापकतम एकता के ज़रिये ही किया जा सकता है ।
कृषि क्षेत्र के प्रति इस औपनिवेशिक दृष्टिकोण का एक सबसे जघन्य रूप दिखाई दिया था नरेंद्र मोदी के नोटबंदी के कदम ने । यह कार्रवाई गाँव के तमाम लोगों के घरों में जमा मामूली पूँजी को भी बैंकिंग प्रणाली में खींच कर उसे पूँजीपतियों की सेवा में लगाने की सबसे निष्ठुर कार्रवाई थी । इसने गाँवों के दरिद्रीकरण की प्रक्रिया को एक झटके में इतना तेज़ कर दिया जिसकी आसानी से कल्पना भी नहीं की जा सकती थी ।
कृषि क्षेत्र के साथ इजारेदाराना पूँजीवाद के मुख्य अंतर्विरोध के इस सच को अगर सही ढंग से न समझा गया तो देहाती इलाक़ों में वामपंथी आंदोलन को अपने कामों की दिशा को सुनिश्चित करना कठिन होगा । इस मामले में पश्चिम बंगाल के अनुभवों से बहुत कुछ सीखा जा सकता है ।
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