-अरुण माहेश्वरी
गुजरात में अभी जो घट रहा है या घटने जा रहा है, यह एक अनोखा घटना-क्रम है । पहले चरण के चुनाव के बाद ही यह तय हो चुका है कि भाजपा चुनाव हार रही है । भाजपा की इस हार के संयोग के कितने आयाम है, उसकी आसानी से कल्पना भी नहीं की जा सकती है । इसे कोई कुछ भी नाम क्यों न दे या इसके बारे में कोई कितनी ही निश्चयात्मक टिप्पणी क्यों न करे, सच यह है कि भारतीय राजनीति में यह एक बिल्कुल नया बिंदु है जो किसी भी गंभीर पर्यवेक्षक से संजीदा अध्ययन की अपेक्षा रखता है । यह जैसे एक नये भविष्य के द्वारा लिखा जा रहा घटनाओं का संयोग-बिंदु है ।
इसमें सबसे पहला और नया बिंदु है राहुल गांधी का उदय । पिछले कई सालों से वे भारतीय राजनीति की गलियों में जैसे बेलल्ला भटक रहे थे । कभी किसी ख़ुदकुशी कर चुके महाराष्ट्र के किसान की बेवा कमला के घर जाते थे, तो किसी दलित के झोंपड़े पर । दिल्ली के निकट ज़मीन के दाम के सवालों पर किसानों के आंदोलन में वे उपस्थित हुए तो नोटबंदी के वक्त बैंकों के सामने खड़ी क़तारों में भी उन्हें देखा गया । जेएनयू में छात्रों के प्रदर्शन में भी वे पहुंच गये । 2014 के चुनाव में मोदी के हाथों करारी पराजय के पहले ही उम्मीद खोकर यह बोलते पाये गये कि जो होने जा रहा है, वह कांग्रेस के लिये विध्वंसक होगा । कांग्रेस में छात्र संगठन में तृणमूल स्तर पर जनतंत्र लाने की विफल कोशिश करते देखे गये । विपक्ष के प्रमुख नेता होने पर भी मोदी का कोई पूर्ण प्रतिपक्ष रखने में असमर्थ जान पड़ते थे ।
आरएसएस और संघ परिवारियों ने राजनीति के इस विद्यार्थी का खूब मज़ा लिया, पप्पू-पप्पू कह कर उनके नौसिखियपन का खूब मज़ाक़ उड़ाया और मोदी तो इन्हें देख कर अपनी अज्ञानता को ही अपनी सबसे बड़ी पूँजी मान अधिक से अधिक अकड़ते चले गये । उत्तर प्रदेश के चुनाव में राहुल और अखिलेश की जोड़ी के प्रति लोगों के आकर्षण को भी उन्होंने देखा, तो अंत में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के सामने करारी पराजय का भी सामना किया ।
ऐसे ही तमाम अनुभवों के साथ राहुल गांधी इस गुजरात के चुनाव में, नोटबंदी और जीएसटी और रोजगार-विहीन विकास से पीड़ित लोगों के गुस्से को प्रतिपक्ष की राजनीतिक शक्ति का रूप देने के लिये उतरे । और उतरने के साथ ही उन्होंने सबसे पहला निशाना साधा जाति और धर्म से जुड़ी अस्मिताओं पर । भारतीय समाज के ये ही दो ऐसे पहलू हैं जो अक्सर यहाँ के मतदाताओं की नागरिक प्राणी सत्ता के सर पर चढ़ कर बोलने लगते हैं । राहुल ने पहला काम किया हार्दिक पटेल, अल्पेश ठाकुर और जिग्नेश मेवाणी से संपर्क साध कर कांग्रेस के पक्ष में जातिवादी समीकरणों को ठीक किया । इसने उन्हें तीन नौजवान स्टार प्रचारक भी दे दिये जो असंतुष्ट जनों की जाति-अस्मिता को भी संबोधित करने और उस पर भाजपा के वर्चस्व को चुनौती देने की स्थिति में थे ।
जातिवादी हिसाब-किताब को ठीक करने के बाद ही राहुल गांधी ने धार्मिक अस्मिता के मामले में भाजपा की बढ़त को खत्म करने का अभियान शुरू किया । राहुल का ताबड़-तोड़ मंदिर-मंदिर जाने और पूरे ताम-झाम के साथ पूजा-अर्चना करने का सिलसिला शुरू हो गया । कश्मीरी पंडित नेहरू जी की शैव मत की परंपरा से अपने को जोड़ते हुए उन्होंने अपने शैव धर्म का ज़बर्दस्त प्रचार शुरू किया । हाथ में झंडी लेकर उन्हें मंदिरों की परिक्रमा करते और पूरे ललाट को चंदन-टीके से भर कर गर्व से पूजा-पाठ करते देखा गया ।
राहुल के खुद को एक परम आस्थावान हिंदू के रूप में पेश करने के इस अभियान से सबसे पहला और बड़ा काम यह हुआ कि एक झटके में हिंदू धर्म पर मोदी और भाजपा की इजारेदारी टूट गई । इससे सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करके लाभ उठाने की भाजपा की चली आ रही वह रणनीति भी पटरी से उतर गई, जिस पर अपने अंतिम अस्त्र के रूप में भाजपा को सबसे अधिक भरोसा हुआ करता था और इसी के भरोसे वह न जातिवादी समीकरणों में आए बदलाव की ज्यादा परवाह कर रही थी और न मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों के नकारात्मक असर को लेकर ज्यादा चिंतित थी ।
इस प्रकार, चुनाव की लड़ाई शुरू होने के पहले ही भाजपा चुनावी युद्ध में अपने खास हथियारों से पूरी तरह से निहत्थी हो चुकी थी । अब राहुल गांधी ने आर्थिक नीतियों के दुष्प्रभावों, किसानों की दुर्दशा, नौजवानों की बेरोज़गारी और पूरी अर्थ-व्यवस्था में दिखाई दे रहे संकटों पर मोदी को घेरना शुरू कर दिया । मोदी अर्थ नीति की जिन बंद गलियों में प्रवेश तक करने से डर रहे थे, राहुल बार-बार उन्हीं भुतहा गलियों में उन्हें ठेलते चले गए ।
इन सबका फल यह हुआ कि मोदी चुनाव प्रचार में उतरने के चंद दिनों के अंदर ही अपना संतुलन खोने लगे । सभाओं में ख़ाली कुर्सियों को देख वे मुग़ल, औरंगज़ेब, पाकिस्तान और इसी प्रकार की कुछ अवांतर बातों, तख़्ता-पलट के क़िस्सों के अलावा मणिशंकर के ‘नीच’ शब्द के प्रयोग से अपने आहत अहम को चुनाव का मुद्दा बनाने की उटपटांग हरकते करने लगे । लेकिन उनकी बातें गुजरात में कितनी बेअसर साबित हो रही थी यह ‘अमर उजाला’ में उसके सह-संपादक की रिपोर्ट से ही पता चलता है जिसमें वे गुजरात के कई मुसलमानों की बातों का हवाला दे कर लिखते हैं कि उनके अनुसार गुजरात में हाल के सालों का यह पहला चुनाव है जिसमें हिंदू-मुस्लिम द्वेष की कोई भूमिका नहीं दिखाई दे रही है । आर्थिक नीतियों के मुद्दों से बचने के लिये बदहवास होकर मोदी जितना इधर-उधर दौड़ते रहे, उतना ही उनके भाषण अनर्गल बकवास का रूप लेते चले गये ।
इस प्रकार, गुजरात के इस असाधारण चुनाव में सिर्फ तीन साल पहले भारी मतों से जीते एक धुर सांप्रदायिक दल और उसके अधिनायकवादी नेता की राजनीति का खोखलापन पूरी तरह से बेपर्द हो गया है । यह भारतीय जनतंत्र की खुद में एक बहुत बड़ी घटना है । इससे जनतांत्रिक प्रतिद्वंद्विता के क्षेत्र में एक दक्षिणपंथी फ़ासिस्ट शक्ति पर लंबे काल के लिये ग्रहण लग सकता है और पूँजीवादी जनतंत्र फिर से अपनी पटरी पर लौट सकता है । जो भाजपा आज देश के 18 राज्यों में सरकार चला रही है, इस चुनाव में हार के साथ ही उसके सामने एक बड़ा अस्तित्वतीय संकट पैदा हो सकता है । और यह संकट भाजपा के पूरे ताने-बाने को अंदर से पूरी तरह जर्जर बना देने के लिये काफी होगा । जनतांत्रिक व्यवस्था के ढाँचे में फ़ासिस्ट आरएसएस और भाजपा के लिये स्थान संकुचित होता चला जायेगा ।
गुजरात चुनाव का सबसे बड़ा महत्व इसी बात में होगा कि यह जनतांत्रिक व्यवस्था का लाभ उठा कर बढ़ने वाली सांप्रदायिक फ़ासिस्ट पार्टी से निपटने की एक नई रणनीति की रूपरेखा पेश करेगा। इससे उसके सांप्रदायिक और जातिवादी विषदंतों को बेकार करके लोक के मुद्दों पर राजनीति को केंद्रित करने की नई संभावनाओं के द्वार खुलेंगे। इस प्रकार यह राजनीति एक ऐसी नई सेटिंग होगी जिसमें जगह पाने के लिये फासिस्टों को नये सिरे से अपनी रणनीति तैयार करनी होगी, अन्यथा वे इस सेटिंग से अलग होकर ऐसे उग्रपंथी तत्ववादियों के रूप में सिमट जायेंगे जो 2019 के बाद के नये भारतीय राज्य के लिये शुद्ध रूप से एक कानून और व्यवस्था के विषय रह जायेंगे ।
किसी को भी लग सकता है कि हमारा यह क़यास हमारी कोरी कल्पना है । अभी परिस्थितियाँ इतनी तेजी से बदलने वाली नहीं है । लेकिन यदि कोई सिर्फ साढ़े तीन साल पहले के तूफान के इस प्रकार के अंत की रफ़्तार के पैमाने से सोचे तो यह समझ सकता है कि परिस्थितियों के ऐसे संयोगों को सामान्य जीवन की गति से नहीं मापा जा सकता है । 2004 में अपने इतिहास की सबसे ज्यादा सीट लाने वाला वामपंथ सिर्फ पाँच साल के अंतर पर ही अपने पतन के सबसे निचले स्तर पर पंहुच गया, इसकी क्या कोई कल्पना कर सकता था ? वामपंथ को पतन की ओर ढकेलने वाली नीतियाँ इस पतन के बाद ही जब उसका पीछा नहीं छोड़ रही है तो यह मानने का कोई कारण नहीं है कि गुजरात के चुनाव से आरएसएस और भाजपा कोई सही शिक्षा ले पायेगा । इसीलिये हम गुजरात के इन चुनावों को भारतीय राजनीति में एक ऐसे नये संयोग का बिंदु मानते है जहाँ से इसके ढाँचे के अंदर के सभी समीकरण बदलने के लिये मजबूर होंगे ।
इस चुनाव के बाद ही भारत की राजनीति में एक बड़ा पीढ़ीगत परिवर्तन आना भी तय है, क्योंकि 2019 के बाद देश की कमान राहुल गांधी के हाथ में जाती हुई दिखाई दे रही है । राजनीति में नई पीढ़ी का वर्चस्व भी कई प्रकार की पुरानी बीमारियों से मुक्त लोगों के राजनीति में आगमन का कारण बनेगा । तत्ववादियों की ज़मीन कमज़ोर होगी ।
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