-अरुण माहेश्वरी
गुजरात के चुनाव में बातों का पारा सातवें आसमान पर चढ़ चुका है । जब काम के नाम पर कुछ न हो तो सचमुच बात ही सबसे बड़ा काम हो जाती है । आज गुजरात में बाईस साल के शासन के बाद उसके चुनाव प्रचार से यही जाहिर हो रहा है ।
अपने को गुजराती सपूत कहने वाले प्रधानमंत्री सभाओं में जब ख़ाली कुर्सियों को संबोधित करने के लिये बाध्य हो तो दूसरे अमित शाह और रूपाणी या भाजपा के अन्य छुटभैयों की सभाओं जुलूसों की सूरत क्या होगी, इसका कोई भी अंदाज लगा सकता है । इसीलिये विकास-विकास की रट कब विनाश-विनाश की रट में बदल गई पता ही नहीं चला । मोदी के भाषण कांग्रेस को कोसने, उसे कीड़े पड़े, उसकी सातों पुस्त तबाह हो जाए, ये सब औरंगज़ेब की औलाद हैं - मोदी आज अपने भाषणों में एक ऐसे ही चिड़चिड़े हताश बूढ़े की तरह बड़बड़ाते हुए नज़र आने लगे हैं । दिन में दस प्रकार की रंग-बिरंगी पगड़ियों और रास लीला की चमकदार पोशाकों में उतरने के बावजूद वे ऐसा खोटा सिक्का साबित हो रहे हैं कि उसे चलाने के लिये अब किसी भारी ठग विद्या के प्रयोग के अलावा शायद उनके लिये कोई चारा नहीं बचा है । इसीलिये चारों ओर हाथ पैर मार रहे हैं, मुग़ल-मुग़ल चिल्ला रहे हैं, तो भगवान राम की क़समें भी खा रहे हैं ।
लेकिन गुजरात की जनता को देखियें, कोई असर नहीं हो रहा है । वह देख रही है नोटबंदी, जीएसटी, कमर तोड़ महँगाई, बैंकों को लूट की खुली छूट, मवेशियों के कारोबार में बाधा और कृषि उत्पादों के दाम न मिल पाने के कारण पूरी कृषि अर्थ-व्यवस्था के चरमरा कर टूट जाने, छोटे व्यापार के अस्तित्व के सामने आए संकटों को । उन्होंने बिल्कुल सही पहचान लिया है कि नरेंद्र मोदी पागल विकास के प्रतीक पुरुष है । इसीलिये वह मोदी के रोने-पीटने से लेकर उनकी सारी मुद्राओं के प्रति निष्ठुरता की हद तक उदासीन हो चुकी है ।
प्रसिद्ध अस्तित्ववादी दार्शनिक किर्केगार्द की पुस्तक ‘यह/वह’ (either/or) में लेखक मनहूस भाग्य को कोसते हुए कहता है - “ओ मनहूस भाग्य ! व्यर्थ ही तुम बूढ़ी वैश्याओं की तरह अपने झुर्रियाए चेहरे को सँवारते हो , अपने को मूर्ख बनाते हो । तुम उबाऊ हो, हमेशा एक जैसे । कोई फर्क नहीं, हमेशा मिलावटी । आओ, सोए और मर जाओ, तुम कुछ नहीं देते, हर चीज रख लेते हो । “
कहना न होगा, गुजरात के मतदाताओं के मन में मोदी की सूरत कुछ इसी प्रकार के मनहूस भाग्य वाली बन गई है । अभी पहले चरण के प्रचार के अंत में वे राम जन्मभूमि मामले में कपिल सिब्बल की दलील और मणिशंकर अय्यर की उनके बारे में प्रयुक्त एक कमज़ोर शब्द का लाभ उठाने की कोशिश में जी जान से लगे हुए दिखाई दे रहे थे । कपिल सिब्बल किसकी ओर से सुप्रीम कोर्ट में बोल रहे थे, इसके बारे में भी कपिल सिब्बल की बात के बजाय मोदी ज़ोर-ज़बर्दस्ती अपनी बात चलवाना चाहते हैं । लेकिन उनका दुर्भाग्य ! सब कुछ बातों के खेल से हमेशा तय नहीं होता है ।
इस बीच बैंकों में जमा आम लोगों के धन पर ग्रहण लगाने वाले सरकार के विधेयक के प्रारूप का पर्दाफ़ाश होने से देश भर में लोगों के और ज्यादा कान खड़े हो गये हैं । नोटबंदी और जीएसटी के बाद आम लोगों की बचत की राशि पर धावा बोलने की मोदी सरकार की मंशा ने लोगों में मोदी के प्रति पहले से चले आ रहे आक्रोश को और बढ़ा दिया है । इन सबके प्रभाव से मोदी गुजरात के चुनाव को अब बचा नहीं पायेंगे ।चुनाव सर्वेक्षणों ने यह साफ बताया है कि इस चुनाव में अपनी बढ़त को वे काफी पहले ही गँवा चुके हैं । पहले चरण का चुनाव प्रचार समाप्त होने के वक्त इस बात को पूरे निश्चय के साथ कहा जा सकता है कि भाजपा गुजरात में चारों खाने चित्त होगी । इस भारी हार के रूप का अनुमान करना आज किसी के वश में नहीं है ।
गुजरात के ये चुनाव अनायास ही आज फिर 2011 के पश्चिम बंगाल के चुनाव की याद दिला देते हैं । 2006 की भारी जीत के बाद हम लोगों के मन में एक ही सवाल था, वाम मोर्चा का वोट गिर कर भी आखिर कितना गिरेगा ? दुनिया की कोई भी ताकत वाममोर्चे के बहुमत को नहीं रोक पायेगी ।
2006 में वाम मोर्चा को 233 सीटें मिली थी और एनडीए के घटक के रूप में तृणमूल कांग्रेस को सिर्फ 31 सीटें । 2011 के चुनाव में तृणमूल यूपीए के संघटक के रूप में उतरी थी । इसके पहले पंचायत चुनावों में वाममोर्चे की हार के प्रमाण सामने आने सगे थे । लेकिन किसी ने यह नहीं सोचा था कि सिर्फ 30 सीटों वाली तृणमूल कांग्रेस के साथ 225 सीटों पर चली जायेगी ।
काँटे की लड़ाई वाम मोर्चा के खिलाफ एक भारी तूफान साबित हुई ।
आज गुजरात में हूबहू, 2011 के बंगाल के चुनाव की पुनरावृत्ति होती दिखाई देती है । भाजपा के नेता-कार्यकर्ता अपने समर्थन में गिरावट को तो देख पा रहे हैं, लेकिन 2014 में गुजरात में लोकसभा चुनाव में अभूतपूर्व जीत के आँकड़ों को देख कर वे इस बात की कल्पना भी नहीं कर पा रहे है कि मामला उनकी बुरी हार तक भी पलट सकता है । वे कांग्रेस के लुंज-पुंज संगठन से परिचित रहे हैं और भाजपा के संगठन की अपराजेयता के बारे में पूरी तरह से निश्चिंत । लेकिन वे इस ज़मीनी सचाई को नहीं देख पा रहे हैं कि समाज में सारे समीकरण उलट-पुलट चुके हैं । जैसे पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चा के लोग नहीं देख पा रहे थे ।
जैसा कि हम पहले ही कह चुके हैं, इसमें सबसे बड़ा नुक़सान नरेन्द्र मोदी का निजी तौर पर होने वाला है । उन्होंने अहंकारवश इस चुनाव में अपनी निजी प्रतिष्ठा को दाव पर लगा दिया है । वैसे ही साढ़े तीन साल के शासन में उपलब्धि के नाम पर उनके पास शून्य है । नोटबंदी और जीएसटी ने उनकी छवि तुग़लक़ की तरह की बना दी है । ऊपर से गुजरात का यह धक्का उनके लिये एक ऐसा धक्का साबित होगा जिससे 2019 के पहले उबर पाने का उनके पास कोई उपाय नहीं है । जन-जीवन में वास्तव अर्थों में त्राहि-त्राहि मची हुई है ।
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