-अरुण माहेश्वरी
फेसबुक पर एक मित्र शशिकांत ने राजनीति विज्ञानी डा. लारेंस ब्रिट की एक टिप्पणी लगाई थी जिसमें उन्होंने फासीवाद के चौदह लक्षणों को गिनाते हुए बताया था कि फासीवाद क्या है । उनके अनुसार ये लक्षण है -
1.शक्तिशाली और सतत जारी राष्ट्रवाद ;2. मानव अधिकारों और उनकी स्वीकृति के प्रति नफ़रत ;3. एकजुटता की वजह के रूप में शत्रुओं/बलि के बकरों की शिनाख्त ;4. सेना की सर्वोच्चता ;5. अनियंत्रित लैंगिक भेदभाव ;6. नियंत्रित जन संचार;7. राष्ट्रीय सुरक्षा की सनक;8. धर्म और राजनीति का घाल-मेल;9. कॉरपोरेट सत्ता का सरंक्षण; 10. श्रमिकों की शक्ति का दमन;11. बुद्धिजीवियों और कलाओं का तिरस्कार;12. अपराध और सजा के प्रति जुनून;13. अनियंत्रित याराना पूंजीवाद और भ्रष्टाचार;14. छलपूर्ण चुनाव ।
इसमें जिस एक प्रमुख लक्षण की ओर उन्होंने ध्यान नहीं दिया, वह है एक व्यक्ति और दल की तानाशाही । इसके अलावा उन्होंने फासीवाद को तात्विक रूप में न पूंजीवादी बताया और न कुछ और । ‘सतत जारी राष्ट्रवाद’ की ऐतिहासिक निरंतरता को यदि आप पूंजीवाद से जोड़ना चाहे तो भले जोड़ ले, लेकिन आज तक की दुनिया ने इतना तो बता ही दिया है कि राष्ट्रवाद किसी खास शासन व्यवस्था से ही बंधा नहीं है । (देखें - ‘अपने-अपने राष्ट्रवाद’ - https://chaturdik.blogspot.in/2018/02/blog-post_12.html?m=1 ) पूंजीवाद की विश्वात्मकता में तो राष्ट्रवाद तो एक निहायत प्रारंभिक और अंतरिम विचारधारा है । पूंजीवादी माल की प्रकृति में ही राष्ट्रों की सीमाओं को तोड़ने की प्रवृत्ति शामिल है ।
पूंजीवाद को अगर हम सिर्फ अतिरिक्त मूल्य पैदा करने वाली उत्पादन प्रणाली मानेंगे तो अलग बात है । यह अतिरिक्त मूल्य के सामाजिक उत्पादन को पूंजीपति के द्वारा हड़प लेने की सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था है । कहा जा सकता है कि इसी अतिरिक्त मूल्य को राज्य के नियंत्रण में ला कर एक समतावादी समाज के निर्माण में लगाना समाजवाद है । इन सबके विपरीत, राजशाही जनता के धन पर राजा और दरबार का अधिकार मानती रही है, समाज में असमानता को स्थायी बनाती है, राजा ईश्वर का स्थान ले लेता है ।
ऐतिहासिक तौर पर पूंजीवाद सामंतवाद के खिलाफ व्यक्ति स्वातंत्र्य के झंडे के साथ आया । जैसा कि हमने पहले ही कहा है, इसकी अपनी विश्वात्मकता की खूबी रही कि इसमें एक दौर राष्ट्रवाद का दौर रहा, लेकिन मूलत: यह एक विश्व-व्यवस्था है । इसे ही टेढ़े-मेढ़े रास्ते से इतिहास का आगे बढ़ना कहते हैं । पूंजीवाद के जो असमाधेय अन्तरविरोध है उनमें सबसे प्रमुख यही है कि उत्पादन का तो सामाजीकरण होता है, लेकिन उत्पादन के साधनों की निजी मिल्कियत बनी रहती है । इसीलिये पूंजी की स्वतंत्रता को पूंजीवाद में अनिवार्य तौर पर सबसे पवित्र और अनुलंघनीय माना जाता हैं ।
गौर करने की बात यह है कि पूंजीवाद के इसी बुनियादी अन्तरविरोध से उसमें समय-समय पर नाना प्रकार के संकट पैदा होते हैं । मार्क्स ने समाजवाद-साम्यवाद की स्थापना के जरिये इसी अन्तरविरोध के समाधान का रास्ता बताया था । लेकिन यह भी इतिहास की ही विडंबना है कि संकट में फंसे पूंजीवाद की स्थिति का लाभ उठा कर प्राचीन साम्राज्यों वाली राजशाही की शासन प्रणाली, फासीवाद के रूप में उठ खड़ी होती है । हिटलर तो अपने शासन को सीधे रोमन साम्राज्य, जिसे नेपोलियन ने 1805 में ध्वस्त कर दिया था, के बाद फ्रांस को पराजित करके 1871 में चांसलर बिस्मार्क के द्वारा स्थापित जर्मन साम्राज्य की कड़ी में तीसरा साम्राज्य (Third Reich) कहता था । जापान का तोजो तो 1868 से चले आ रहे जापानी साम्राज्य की सेना का सेनापति और प्रधानमंत्री भी था । (फासीवाद के साथ प्राचीन साम्राज्यों के मिथ के संबंध के लिये देखें – आंद्रिया गियार्दिना का यह लेख – The fascist myth of romanity ; http://www.scielo.br/pdf/ea/v22n62/en_a05v2262.pdf)
इसके लिये पूंजी की स्वतंत्रता पवित्र नहीं होती है । हिटलर ने उन सभी उद्योगपतियों को भी यातना शिविरों की सैर करवाई या देश छोड़ने के लिये मजबूर किया, जिन्होंने हिटलर के उदय में खुल कर सहयोग किया था । नाजियों के पतन के बाद न्युरेमबर्ग में चले मुकदमे के दस्तावेजों में उन सबकी गवाहियां मौजूद है । हिटलर के काल की जर्मन अर्थ-व्यवस्था पूरी तरह से कमांड अर्थ-व्यवस्था थी । वह पूंजीवादी नहीं थी । (देखें - ‘हिटलर और व्यवसायी वर्ग’ , - https://chaturdik.blogspot.in/2014/03/blog-post_6.html?m=1) हमारे अनुसार फासीवाद संकटग्रस्त पूंजीवाद का राजशाही किस्म का, तानाशाही निदान है ।
इसके अलावा खुद पूंजीवाद के अंदर भी जन-कल्याणकारी राज्य की परिकल्पनाओं से आम जनता पर पूंजीवाद के संकटों के बोझ को कम करने के उपाय किये जाते हैं । इससे यह भ्रम पैदा होता है कि मानो पूंजीवाद भी पूंजी की स्वतंत्रता का हनन करता है । लेकिन यह उसके अस्तित्वीय संकट की एक अभिव्यक्ति भर है, उसकी तात्विक सचाई नहीं ।
मार्क्स के बारे में कहते हैं कि उन्होंने पूंजीवाद के अन्तरविरोधों से साम्यवाद के उदय को तो देखा था, लेकिन फासीवाद को देखने में विफल रहे थे । (देखें - ‘इकोनोमिस्ट’ में मार्क्स के जन्म के 200 साल पर लिखे गये लेख - मार्क्स पर पुनर्विचार - दूसरी बार : प्रहसन The Economist | Second time, farce) । हम पूछना चाहेंगे, मार्क्स की प्रसिद्ध कृति ‘लुई बोनापार्त की अठारहवीं ब्रुमेर’ क्या है ? 1848-1851 के फ्रांस की राजनीतिक घटनाओं का यह पूरा आख्यान पूंजीवादी जनतंत्र के संकट के समय में नये काल में बादशाही की वापसी का आख्यान ही है । मार्क्स इसे पूंजीवाद से इसलिये तत्वत: पूरी तरह अलग करके नहीं देखते हैं क्योंकि पूंजीवाद से उनका तात्पर्य उसकी प्राथमिक इकाई, पण्य से पैदा होने वाले विस्तारवान सामाजिक संबंधों के संजाल का ब्रह्मांड था और वे यह सही मानते थे कि मनुष्यता एक बार उत्पादन के साधनों के जिन स्तरों को विकसित कर लेती है, उन्हें कभी छोड़ती नहीं है । इसीलिये वे इसमें ‘पूंजीवादी बादशाहियत’ की बात करते हैं, जिसमें कोई भी फासीवाद की सारी लाक्षणिकताएं देख सकता है और वह पूंजीवादी जनतंत्र से अलग भी बताया गया है । इसमें जहां तक पूंजीवाद का सवाल है, यह उत्पादन के आधुनिक साधनों और प्रबंधन के सामान्य परिप्रेक्ष्य के अतिरिक्त कुछ नहीं है । पूंजीवाद के उदय के साथ जुड़े हुए जनतंत्र के राजनीतिक मान-मूल्य नहीं । और इस मामले में समाजवाद भी अपने को उस सामान्य परिप्रेक्ष्य से अलग नहीं कर सकता है । वह एक प्रकार से मनुष्यता के इतिहास की ही थाती है । मार्क्स की ‘अठारहवीं ब्रुमेर’ में भी जहां सर्वहारा की समाजवादी शक्तियों का जिक्र आता है, वह भी पूंजीवाद के बाहर के परिप्रेक्ष्य की उपज नहीं है ।
दुनिया में फासीवाद के उदय की परिस्थितियों, उसके तमाम लक्षणों पर थोड़ी सी गहराई से सोचने पर ही इस नतीजे पर पहुंचा जा सकता है कि फासीवाद उत्पादन के आधुनिक साधनों और प्रणाली के युग में प्राचीन राजशाही शासन व्यवस्था और उससे जुड़े सामंती मूल्यों का बलात् प्रत्यावर्त्तन है । हर फासिस्ट शासन प्राचीन साम्राज्यों की तरह के ‘गौरवशाली’ राष्ट्र के झंडे के साथ आता है और राजा के रूप में तानाशाह की स्थिति ईश्वर की तरह की मानी जाती है । सारी सत्ता को एक व्यक्ति में न्यस्त कर दिया जाता है । आरएसएस के यहां यह बाकायदा संयुक्त हिंदू परिवार का कर्त्ता है । आरएसएस के इतिहास को देखें तो पायेंगे कि उन्होंने मुसोलिनी के रोमन साम्राज्य की तर्ज पर ही भारत में पेशवाओं की पादशाही की स्थापना के लक्ष्य को अपने जन्मकाल से अपना उद्देश्य बनाया था । सत्ता का अर्थ है जनता को काबू में रखना - राजशाही का यही मंत्र आरएसएस का मूल मंत्र है, हर फासिस्ट शक्ति का मूल मंत्र है । मोदी के पास जितनी ज्यादा सत्ता होगी, हर संघी उतना ही खुश और उतना ही बड़ा भक्त होगा । यह पूंजीवाद कत्तई नहीं है, जिसमें कम से कम संपत्ति की स्वतंत्रता को अनुलंघनीय और पवित्र माना जाता है । फासिस्टों के लिये किसी भी प्रकार की स्वतंत्रता का कोई मूल्य नहीं होता है । चूंकि यह स्वातंत्र्य की मानव इतिहास की मूल गति के विरुद्ध है, इसलिये इसमें स्वाभाविकता नामकी कोई चीज नहीं है । यह बलात् तत्वों से निर्मित परिघटना है । यह पूंजीवाद का स्वाभाविक विस्तार नहीं है । उसका स्वाभाविक विस्तार तो समाजवाद है । स्वाभाविक रूपांतरण ।
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